"मीठे बच्चे - हियर नो ईविल...... यहाँ तुम सतसंग में बैठे हो,
तुम्हें मायावी कुसंग में नहीं जाना है,
कुसंग लगने से ही संशय के रूप में घुटके आते हैं''
प्रश्नः-
इस समय किसी भी मनुष्य को स्प्रीचुअल नहीं कह सकते हैं - क्यों?
उत्तर:-
क्योंकि सभी देह-अभिमानी हैं।
देह-अभिमान वाले स्प्रीचुअल कैसे कहला सकते हैं।
स्प्रीचुअल फादर तो एक ही निराकार बाप है
जो तुम्हें भी देही-अभिमानी बनने की शिक्षा देते हैं।
सुप्रीम का टाइटिल भी एक बाप को ही दे सकते हैं,
बाप के सिवाए सुप्रीम कोई भी कहला नहीं सकते।
ओम् शान्ति।
बच्चे जब यहाँ बैठते हो तो जानते हो बाबा हमारा बाबा भी है, टीचर भी है और सतगुरू भी है। तीन की दरकार रहती है...
पहले बाप फिर पढ़ाने वाला टीचर और फिर पिछाड़ी में गुरू।
यहाँ याद भी ऐसे करना है क्योंकि नई बात है ना।
बेहद का बाप भी है, बेहद का माना सबका।
यहाँ जो भी आयेंगे कहेंगे यह स्मृति में लाओ।
इसमें किसको संशय हो तो हाथ उठाओ।
यह वन्डरफुल बात है ना।
जन्म-जन्मान्तर कभी ऐसा कोई मिला होगा जिसको तुम बाप, टीचर, सतगुरू समझो।
सो भी सुप्रीम।
बेहद का बाप, बेहद का टीचर, बेहद का सतगुरू।
ऐसा कभी कोई मिला?
सिवाए इस पुरूषोत्तम संगमयुग के कभी मिल न सके।
इसमें कोई को संशय हो तो हाथ उठावे।
यहाँ सब निश्चय बुद्धि होकर बैठे हैं।
मुख्य हैं ही यह तीन।
बेहद का बाप नॉलेज भी बेहद की देते हैं।
बेहद की नॉलेज तो यह एक ही है। हद की नॉलेज तो तुम अनेक पढ़ते आये हो...
कोई वकील बनते हैं, कोई सर्जन बनते हैं क्योंकि यहाँ तो डॉक्टर, जज, वकील आदि सब चाहिए ना।
(Baba described about Golden Age)
वहाँ तो दरकार नहीं।
वहाँ दु:ख की कोई बात ही नहीं।
तो अब बाप बैठ बेहद की शिक्षा बच्चों को देते हैं।
बेहद का बाप ही बेहद की शिक्षा देते हैं फिर आधाकल्प कोई शिक्षा तुमको पढ़ने की नहीं है।
एक ही बार शिक्षा मिलती है जो 21 जन्मों के लिए फलीभूत होती है अर्थात् उनका फल मिलता है।
वहाँ तो डॉक्टर, बैरिस्टर, जज आदि होते नहीं।
यह तो निश्चय है ना। बरोबर ऐसे है ना?
वहाँ दु:ख होता नहीं।
कर्मभोग होता नहीं।
बाप कर्मों की गति बैठ समझाते हैं। वह गीता सुनाने वाले क्या ऐसे सुनाते हैं?
बाप कहते हैं मैं तुम बच्चों को राजयोग सिखाता हूँ।
उसमें तो लिख दिया है कृष्ण भगवानुवाच।
परन्तु वह है दैवीगुणों वाला मनुष्य।
शिवबाबा तो कोई नाम धरते नहीं।
उनका दूसरा कोई नाम नहीं।
बाप कहते हैं मैं यह शरीर लोन लेता हूँ।
यह शरीर रूपी मकान हमारा नहीं है, यह भी इनका मकान है।
खिड़कियाँ आदि सब हैं।
तो बाप समझाते हैं मैं तुम्हारा बेहद का बाप अर्थात् सभी आत्माओं का बाप हूँ, पढ़ाता भी हूँ आत्माओं को।
इनको कहा जाता है स्प्रीचुअल फादर अर्थात् रूहानी बाप और कोई को भी रूहानी बाप नहीं कहेंगे।
यहाँ तुम बच्चे जानते हो यह बेहद का बाप है।
अब स्प्रीचुअल कान्फ्रेन्स हो रही है। वास्तव में स्प्रीचुअल कान्फ्रेन्स तो है ही नहीं...
वह तो सच्चे स्प्रीचुअल हैं नहीं।
देह-अभिमानी हैं।
बाप कहते हैं - बच्चे, देही-अभिमानी भव।
देह का अभिमान छोड़ो।
ऐसे थोड़ेही किसको कहेंगे।
स्प्रीचुअल अक्षर अभी डालते हैं।
आगे सिर्फ रिलीजस कान्फ्रेन्स कहते थे।
स्प्रीचुअल का कोई अर्थ नहीं समझते हैं।
स्प्रीचुअल फादर अर्थात् निराकारी फादर।
तुम आत्मायें हो स्प्रीचुअल बच्चे।
स्प्रीचुअल फादर आकर तुमको पढ़ाते हैं।
यह समझ और कोई में हो न सके।
बाप खुद बैठ बतलाते हैं कि मैं कौन हूँ।
गीता में यह नहीं है।
मैं तुमको बेहद की शिक्षा देता हूँ। इसमें वकील, जज, सर्जन आदि की दरकार नहीं क्योंकि वहाँ तो एकदम सुख ही सुख है...
दु:ख का नाम-निशान नहीं होता।
यहाँ फिर सुख का नाम-निशान नहीं है, इसको कहा जाता है प्राय:लोप।
सुख तो काग विष्टा समान है।
जरा-सा सुख है तो बेहद सुख की नॉलेज दे कैसे सकते।
पहले जब देवी-देवताओं का राज्य था तो सत्यता 100 प्रतिशत थी।
अभी तो झूठ ही झूठ है।
यह है बेहद की नॉलेज।
तुम जानते हो यह मनुष्य सृष्टि रूपी झाड़ है, जिसका बीजरूप मैं हूँ।
उनमें झाड़ की सारी नॉलेज है।
मनुष्यों को यह नॉलेज नहीं है।
मैं चैतन्य बीजरूप हूँ।
मुझे कहते ही हैं ज्ञान का सागर।
ज्ञान से सेकण्ड में गति-सद्गति होती है।
मैं हूँ सबका बाप।
मुझे पहचानने से तुम बच्चों को वर्सा मिल जाता है।
परन्तु राजधानी है ना।
स्वर्ग में भी मर्तबे तो नम्बरवार बहुत हैं।
बाप एक ही पढ़ाई पढ़ाते हैं।
पढ़ने वाले तो नम्बरवार ही होते हैं।
इसमें फिर और कोई पढ़ाई की दरकार नहीं रहती।
वहाँ कोई बीमार होता नहीं।
पाई पैसे की कमाई के लिए पढ़ाई नहीं पढ़ते।
तुम यहाँ से बेहद का वर्सा ले जाते हो। वहाँ यह मालूम नहीं पड़ेगा कि यह पद हमको कोई ने दिलाया है...
यह तुम अभी समझते हो।
हद की नॉलेज तो तुम पढ़ते आये हो।
अब बेहद की नॉलेज पढ़ाने वाले को देख लिया, जान लिया।
जानते हो बाप, बाप भी है, टीचर भी है, आकर हमको पढ़ाते हैं।
सुप्रीम टीचर है, राजयोग सिखलाते हैं। सच्चा सतगुरू भी है।
यह है बेहद का राजयोग।
वह बैरिस्टरी, डॉक्टरी ही सिखलायेंगे क्योंकि यह दुनिया ही दु:ख की है।
वह सब है हद की पढ़ाई, यह है बेहद की पढ़ाई।
बाप तुमको बेहद की पढ़ाई पढ़ाते हैं।
यह भी जानते हो यह बाप, टीचर, सतगुरू कल्प-कल्प आते हैं फिर यही पढ़ाई पढ़ाते हैं सतयुग-त्रेता के लिए।
फिर प्राय:लोप हो जाता है।
सुख की प्रालब्ध पूरी हो जाती है ड्रामा अनुसार।
यह बेहद का बाप बैठ समझाते हैं, उनको ही पतित-पावन कहा जाता है। कृष्ण को त्वमेव माता च पिता वा पतित-पावन कहेंगे क्या?
इनके मर्तबे और उनके मर्तबे में रात-दिन का फ़र्क है।
अब बाप कहते हैं मुझे पहचानने से तुम सेकण्ड में जीवनमुक्ति पा सकते हो।
अब कृष्ण भगवान् अगर होता तो कोई भी झट पहचान ले।
कृष्ण का जन्म कोई दिव्य अलौकिक नहीं गाया हुआ है।
सिर्फ पवित्रता से होता है।
बाप तो कोई के गर्भ से नहीं निकलते हैं।
समझाते हैं मीठे-मीठे रूहानी बच्चों, रूह ही पढ़ती है। सब संस्कार अच्छे वा बुरे रूह में रहते हैं...
जैसे-जैसे कर्म करते हैं, उस अनुसार उन्हें शरीर मिलता है।
कोई बहुत दु:ख भोगते हैं।
कोई काने, कोई बहरे होते हैं।
कहेंगे पास्ट में ऐसे कर्म किये हैं जिसका यह फल है।
आत्मा के कर्मों अनुसार ही रोगी शरीर आदि मिलता है।
अभी तुम बच्चे जानते हो - हमको पढ़ाने वाला है गॉड फादर। गॉड टीचर, गॉड प्रीसेप्टर है...
उसको कहते है गॉड परम आत्मा।
उसको मिलाकर परमात्मा कहते हैं, सुप्रीम सोल।
ब्रह्मा को तो सुप्रीम नहीं कहेंगे।
सुप्रीम अर्थात् ऊंच ते ऊंच, पवित्र ते पवित्र।
मर्तबे तो हरेक के अलग-अलग हैं।
कृष्ण का जो मर्तबा है वह दूसरे को मिल नहीं सकता।
प्राइम मिनिस्टर का मर्तबा दूसरे को थोड़ेही देंगे।
बाप का भी मर्तबा अलग है।
ब्रह्मा, विष्णु, शंकर का भी अलग है।
ब्रह्मा, विष्णु, शंकर देवता है, शिव तो परमात्मा है...
दोनों को मिलाकर शिव शंकर कैसे कहेंगे।
दोनों अलग-अलग हैं ना।
न समझने के कारण शिव शंकर को एक कह देते हैं।
नाम भी ऐसे रख देते हैं।
यह सब बातें बाप ही आकर समझाते हैं।
तुम जानते हो यह बाबा भी है, टीचर भी है, सत-गुरू भी है...
हरेक मनुष्य को बाप भी होता है, टीचर भी होता है और गुरू भी होता है।
जब बुढ़े होते हैं तो गुरू करते हैं।
आजकल तो छोटेपन में ही गुरू करा देते हैं, समझते हैं अगर गुरू नहीं किया तो अवज्ञा हो जायेगी।
आगे 60 वर्ष के बाद गुरू करते थे।
वह होती है वानप्रस्थ अवस्था।
निर्वाण अर्थात् वाणी से परे स्वीट साइलेन्स होम, जिसमें जाने के लिए आधाकल्प तुमने मेहनत की है।
परन्तु पता ही नहीं तो कोई जा नहीं सकते।
किसको रास्ता बता कैसे सकते।
एक के सिवाए तो कोई रास्ता बता न सके।
सबकी बुद्धि एक जैसी नहीं होती है।
कोई तो जैसे कथायें सुनते हैं, फायदा कुछ नहीं।
उन्नति कुछ नहीं।
तुम अभी बगीचे के फूल बनते हो। फूल से कांटे बने,अब फिर कांटे से फूल बाप बनाते हैं...
तुम ही पूज्य फिर पुजारी बने।
84 जन्म लेते-लेते सतोप्रधान से तमोप्रधान पतित बन गये।
बाप ने सीढ़ी सारी समझाई है।
अब फिर पतित से पावन कैसे बनते हैं, यह किसको भी पता नहीं।
गाते भी हैं ना हे पतित-पावन आओ, आकर हमको पावन बनाओ फिर पानी की नदियाँ सागर आदि को पतित-पावन समझ क्यों जाकर स्नान करते हैं...
गंगा को पतित-पावनी कह देते हैं।
परन्तु नदियां भी कहाँ से निकली?
सागर से ही निकलती हैं ना।
यह सभी सागर की सन्तान हैं तो हरेक बात अच्छी रीति समझने की होती है।
Satsang-Kusang ...
यहाँ तो तुम बच्चे सतसंग में बैठे हो...
बाहर कुसंग में जाते हो तो तुमको बहुत उल्टी बातें सुनायेंगे।
फिर यह इतनी सब बातें भूल जायेंगी।
कुसंग में जाने से घुटका खाने लग पड़ते हैं, संशय का तब मालूम पड़ता है।
परन्तु यह बातें तो भूलनी नहीं चाहिए।
बाबा हमारा बेहद का बाबा भी है, टीचर भी है, पार भी ले जाते हैं, इस निश्चय से तुम आये हो।
Laukik Padhai-Alaukik Padhai ...
वह सभी हैं जिस्मानी लौकिक पढ़ाई, लौकिक भाषायें।
यह है अलौकिक।
बाप कहते हैं मेरा जन्म भी अलौकिक है।
मैं लोन लेता हूँ।
पुरानी जुत्ती लेता हूँ।
सो भी पुराने ते पुरानी, सबसे पुरानी है यह जुत्ती।
बाप ने जो लिया है, इसको लांग बूट कहते हैं।
यह कितनी सहज बात है।
यह तो कोई भूलने की नहीं है।
परन्तु माया इतनी सहज बातें भी भुला देती है।
बाप, बाप भी है, बेहद की शिक्षा देने वाला भी है, जो और कोई दे न सके।
बाबा कहते हैं भल जाकर देखो कहाँ से मिलती है।
सब हैं मनुष्य।
वह तो यह नॉलेज दे न सकें।
भगवान एक ही रथ लेते हैं, जिसको भाग्यशाली रथ कहा जाता है, जिसमें बाप की प्रवेशता होती है, पदमापदम भाग्यशाली बनाने...
बिल्कुल नजदीक का दाना है।
ब्रह्मा सो विष्णु बनते हैं।
शिव-बाबा इनको भी बनाते हैं, तुमको भी इन द्वारा विश्व का मालिक बनाते हैं।
विष्णु की पुरी स्थापन होती है, इसको कहा जाता है राजयोग, राजाई स्थापन करने लिए। अभी यहाँ सुन तो सब रहे हैं, परन्तु बाबा जानते हैं बहुतों के कानों से बह जाता है, कोई धारण कर और सुना सकते हैं।
उनको कहा जाता है महारथी।
सुनकर फिर धारण करते हैं, औरों को भी रूचि से समझाते हैं।
महारथी समझाने वाला होगा तो झट समझेंगे, घोड़े-सवार से कम, प्यादे से और भी कम।
यह तो बाप जानते हैं कौन महारथी हैं, कौन घोड़ेसवार हैं।
अब इसमें मूँझने की तो बात ही नहीं।
परन्तु बाबा देखते रहते हैं बच्चे मूँझते हैं फिर झुटके खाते रहते हैं...
आंखें बन्द कर बैठते हैं।
कमाई में कभी घुटका आता है क्या?
झुटका खाते रहेंगे तो फिर धारणा कैसे होगी।
उबासी से बाबा समझ जाते हैं यह थका हुआ है।
कमाई में कभी थकावट नहीं होती।
उबासी है उदासी की निशानी।
कोई न कोई बात के घुटके अन्दर खाते रहने वालों को उबासी बहुत आती है।
अभी तुम बाप के घर में बैठे हो, तो परिवार भी है, टीचर भी बनते हैं, गुरू भी बनते हैं रास्ता बताने के लिए...
मास्टर गुरू कहा जाता है।
तो अब बाप का राइट हैण्ड बनना चाहिए ना।
जो बहुतों का कल्याण कर सकते हैं।
धन्धे सभी में है नुकसान, बिगर धन्धे नर से नारायण बनने के।
सभी की कमाई खत्म हो जाती है।
नर से नारायण बनने का धन्धा बाप ही सिखलाते हैं।
तो फिर कौन सी पढ़ाई पढ़नी चाहिए।
जिनके पास धन बहुत है, वह समझते हैं स्वर्ग तो यहाँ ही है...
बापू गांधी ने रामराज्य स्थापन किया?
अरे, दुनिया तो यह पुरानी तमोप्रधान है ना और ही दु:ख बढ़ता जाता है,
इनको रामराज्य कैसे कहेंगे।
मनुष्य कितने बेसमझ बन पड़े हैं। बेसमझ को तमोप्रधान कहा जाता है...
समझदार होते हैं सतोप्रधान।
यह चक्र फिरता रहता है, इसमें कुछ भी बाप से पूछने का नहीं रहता।
बाप का फ़र्ज है रचता और रचना की नॉलेज देना।
वह तो देते रहते हैं।
मुरली में सब समझाते रहते हैं।
सभी बातों का रेसपॉन्ड मिल जाता है।
बाकी पूछेंगे क्या?
बाप के सिवाए कोई समझा ही नहीं सकते तो पूछ भी कैसे सकते।
यह भी तुम बोर्ड पर लिख सकते हो एवरहेल्दी, एवरवेल्दी 21 जन्म के लिए बनना है तो आकर समझो।
अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) बाप जो सुनाते हैं उसे सुनकर अच्छी तरह धारण करना है।
दूसरों को रूचि से सुनाना है।
एक कान से सुन दूसरे से निकालना नहीं है।
कमाई के समय कभी उबासी नहीं लेनी है।
2) बाबा का राइट हैण्ड बन बहुतों का कल्याण करना है।
नर से नारायण बनने और बनाने का धन्धा करना है।
वरदान:-
चलन और चेहरे से
पवित्रता के श्रृंगार की झलक दिखाने वाले
श्रंगारी मूर्त भव
पवित्रता ब्राह्मण जीवन का श्रंगार है।
हर समय पवित्रता के श्रंगार की अनुभूति चेहरे वा चलन से औरों को हो।
दृष्टि में, मुख में, हाथों में, पांवों में सदा पवित्रता का श्रंगार प्रत्यक्ष हो।
हर एक वर्णन करे कि इनके फीचर्स से पवित्रता दिखाई देती है।
नयनों में पवित्रता की झलक है, मुख पर पवित्रता की मुस्कराहट है।
और कोई बात उन्हें नज़र न आये -
इसको ही कहते हैं - पवित्रता के श्रंगार से श्रंगारी हुई मूर्त।
स्लोगन:-
व्यर्थ सम्बन्ध-सम्पर्क भी एकाउन्ट को खाली कर देता है इसलिए व्यर्थ को समाप्त करो।