शिवबाबा बैठ बच्चों को समझाते हैं अर्थात् आपसमान बनाने का पुरूषार्थ कराते हैं।
जैसे मैं ज्ञान का सागर हूँ वैसे बच्चे भी बनें।
यह तो मीठे बच्चे जानते हैं सब एक समान नहीं बनेंगे।
पुरूषार्थ तो हरेक को अपना-अपना करना होता है।
स्कूल में स्टूडेन्ट तो बहुत पढ़ते हैं परन्तु सब एक समान पास विद् ऑनर्स नहीं होते हैं।
फिर भी टीचर पुरूषार्थ कराते हैं।
तुम बच्चे भी पुरूषार्थ करते हो।
बाप पूछते हैं तुम क्या बनेंगे?
सब कहेंगे हम आये ही हैं नर से नारायण, नारी से लक्ष्मी बनने।
यह तो ठीक है परन्तु अपनी एक्टिविटीज़ भी देखो ना।
बाप भी ऊंच ते ऊंच है। टीचर भी है, गुरू भी है।
इस बाप को कोई जानते नहीं।
तुम बच्चे जानते हो शिवबाबा हमारा बाबा भी है, टीचर भी है, सतगुरू भी है।
परन्तु वह जैसा है वैसा उनको जानना भी मुश्किल है।
बाप को जानेंगे तो टीचरपना भूल जायेगा, फिर गुरूपना भूल जायेगा।
रिगार्ड भी बाप का बच्चों को रखना होता है।
रिगार्ड किसको कहा जाता है?
बाप जो पढ़ाते हैं वह अच्छी रीति पढ़ते हैं गोया रिगार्ड रखते हैं।
बाप तो बहुत मीठा है।
अन्दर में बहुत खुशी का पारा चढ़ा रहना चाहिए।
कापारी खुशी रहनी चाहिए।
हरेक अपने से पूछे-हमको ऐसी खुशी है?
एक समान सब तो रह नहीं सकते।
पढ़ाई में भी वास्ट डिफरेन्ट है।
उन स्कूलों में भी कितना फ़र्क रहता है।
वह तो कॉमन टीचर पढ़ाते हैं, यह तो है अनकॉमन।
ऐसा टीचर कोई होता ही नहीं।
किसको यह पता ही नहीं है कि निराकार फादर टीचर भी बनते हैं।
भल श्रीकृष्ण का नाम दिया है परन्तु उनको पता ही नहीं कि वह फादर कैसे हो सकता।
कृष्ण तो देवता है ना।
यूँ तो कृष्ण नाम भी बहुतों का है।
परन्तु कृष्ण कहने से ही श्रीकृष्ण सामने आ जायेगा।
वह तो देहधारी है ना।
तुम जानते हो यह शरीर उनका नहीं है।
खुद कहते हैं - मैंने लोन लिया है।
यह पहले भी मनुष्य था, अब भी मनुष्य है।
यह भगवान नहीं है।
वह तो एक ही निराकार है।
अब तुम बच्चों को कितने राज़ समझाते हैं।
परन्तु फिर भी फाइनल ही बाप समझना, टीचर समझना यह अभी हो नहीं सकता, घड़ी-घड़ी भूल जायेंगे।
देहधारी तरफ बुद्धि चली जाती है।
फाइनल बाप, बाप, टीचर, सतगुरू है-यह निश्चय, बुद्धि में अभी नहीं है।
अभी तो भूल जाते हैं।
स्टूडेन्ट्स कभी टीचर को भूलेंगे क्या!
हॉस्टिल में जो रहते हैं वह तो कभी नहीं भूलेंगे।
जो स्टूडेण्ट हॉस्टिल में रहते हैं उन्हें तो पक्का होगा ना।
यहाँ तो वह भी पक्का निश्चय नहीं है।
नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार हॉस्टिल में बैठे हैं तो जरूर स्टूडेण्ट्स हैं परन्तु यह पक्का निश्चय नहीं है, जानते हैं सब अपने-अपने पुरूषार्थ अनुसार पद ले रहे हैं।
उस पढ़ाई में तो फिर भी कोई बैरिस्टर बनते हैं, इन्जीनियर बनते हैं, डॉक्टर बनते हैं।
यहाँ तो तुम विश्व के मालिक बन रहे हो।
तो ऐसे स्टूडेण्ट की बुद्धि कैसी होनी चाहिए।
चलन, वार्तालाप कैसा अच्छा होना चाहिए।
बाप समझाते हैं-बच्चे, तुमको कभी रोना नहीं है।
तुम विश्व के मालिक बनते हो, याहुसेन नहीं मचानी चाहिए।
याहुसेन मचाना-यह है हाइएस्ट रोना।
बाप तो कहते हैं जिन रोया तिन खोया...... विश्व की ऊंच ते ऊंच बादशाही गँवा बैठते हैं।
कहते तो हैं हम नर से नारायण बनने आये हैं परन्तु चलन कहाँ!
नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार सब पुरूषार्थ कर रहे हैं।
कोई तो अच्छी रीति पास हो स्कॉलरशिप ले लेते हैं, कोई नापास हो जाते हैं।
नम्बरवार तो होते ही हैं।
तुम्हारे में भी कोई तो पढ़ते हैं, कोई पढ़ते भी नहीं हैं।
जैसे गाँव वालों को पढ़ना अच्छा नहीं लगता है।
घास काटने लिए बोलो तो खुशी से जायेंगे।
उसमें स्वतंत्र लाइफ समझते हैं।
पढ़ना बन्धन समझते हैं, ऐसे भी बहुत होते हैं।
साहूकारों में जमींदार लोग भी कम नहीं होते हैं।
अपने को इन्डिपेन्डेंट बड़ा खुशी में समझते हैं।
नौकरी नाम तो नहीं है ना।
आफीसरी आदि में तो मनुष्य नौकरी करते हैं ना।
अभी तुम बच्चों को बाप पढ़ाते हैं विश्व का मालिक बनाने।
नौकरी के लिए नहीं पढ़ाते।
तुम तो इस पढ़ाई से विश्व का मालिक बनने वाले हो ना।
बड़ी ऊंची पढ़ाई ठहरी।
तुम तो विश्व के मालिक बिल्कुल इन्डिपेन्डेंट बन जाते हो।
बात कितनी सिम्पल है।
एक ही पढ़ाई है जिससे तुम इतने ऊंच महाराजा-महारानी बनते हो सो भी पवित्र।
तुम तो कहते हो कोई भी धर्म वाला हो, आकर पढ़े। समझेंगे यह पढ़ाई तो बहुत ऊंची है।
विश्व के मालिक बनते हो, यह तो बाप पढ़ाते हैं।
तुम्हारी अब बुद्धि कितनी विशाल बनी है।
हद की बुद्धि से बेहद की बुद्धि में आये हो नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार।
कितनी खुशी रहती है-हम सब औरों को विश्व का मालिक बनावे।
वास्तव में नौकरी तो भल वहाँ भी होती है, दास-दासियां, नौकर आदि तो चाहिए ना।
पढ़े के आगे अनपढ़े भरी ढोयेंगे इसलिए बाप कहते हैं अच्छी रीति पढ़ो तो तुम यह बन सकते हो।
कहते भी हैं हम यह बनेंगे।
परन्तु पढ़ेंगे नहीं तो क्या बनेंगे।
नहीं पढ़ते हैं तो फिर बाप को इतना रिगॉर्ड से याद नहीं करते हैं।
बाप कहते हैं जितना तुम याद करेंगे तो तुम्हारे विकर्म विनाश होंगे।
बच्चे कहते हैं बाबा जैसे आप चलाओ, बाप भी मत इन द्वारा ही देंगे ना।
परन्तु इनकी मत भी लेते नहीं, फिर भी पुरानी सड़ी हुई मनुष्य मत पर ही चलते हैं।
देखते भी हैं शिवबाबा इस रथ द्वारा मत देते हैं फिर भी अपनी मत पर चलते हैं।
जिसको पाई-पैसे की कौड़ी जैसी मत कहें, उस पर चलते हैं।
रावण की मत पर चलते-चलते इस समय कौड़ी मिसल बन गये हैं।
अब राम शिवबाबा मत देते हैं।
निश्चय में ही विजय है, इसमें कभी नुकसान नहीं होगा।
नुकसान को भी बाप फायदे में बदल देंगे।
परन्तु निश्चय-बुद्धि वालों को। संशय-बुद्धि वाले अन्दर घुटका खाते रहेंगे।
निश्चयबुद्धि वालों को कभी घुटका, कभी घाटा पड़ नहीं सकता।
बाबा खुद गैरन्टी करते हैं - श्रीमत पर चलने से कभी अकल्याण हो नहीं सकता।
मनुष्य मत को देहधारी की मत कहा जाता है।
यहाँ तो है ही मनुष्य मत।
गाया भी जाता है - मनुष्य मत, ईश्वरीय मत और दैवी मत।
अब तुम्हें ईश्वरीय मत मिली है, जिससे तुम मनुष्य से देवता बनते हो।
फिर वहाँ तो स्वर्ग में तुम सुख ही पाते हो।
कोई दु:ख की बात नहीं। वह भी स्थाई सुख हो जाता है।
इस समय तुमको फीलिंग में लाना होता है, भविष्य की फीलिंग आती है।
अभी यह है पुरूषोत्तम संगमयुग, जबकि श्रीमत मिलती है।
बाप कहते हैं मैं कल्प-कल्प, कल्प के संगमयुग पर आता हूँ, उसको तुम जानते हो। उनकी मत पर तुम चलते हो।
बाप कहते हैं - बच्चे, गृहस्थ व्यवहार में भल रहो, कौन कहता है तुम कपड़े आदि बदली करो। भल कुछ भी पहनो।
बहुतों से कनेक्शन में आना पड़ता है।
रंगीन कपड़ों के लिए कोई मना नहीं करते हैं।
कोई भी कपड़ा पहनो, इनसे कोई तैलुक नहीं।
बाप कहते हैं देह सहित देह के सब सम्बन्ध छोड़ो।
बाकी पहनो सब कुछ।
सिर्फ अपने को आत्मा समझ बाप को याद करो, यह पक्का निश्चय करो।
यह भी जानते हो आत्मा ही पतित और पावन बनती है, महात्मा को भी महान् आत्मा कहेंगे, महान् परमात्मा नहीं कहेंगे।
कहना भी शोभता नहीं।
कितनी अच्छी प्वाइंट्स हैं समझने की।
सतगुरू सर्व को सद्गति देने वाला तो एक ही बाप है।
वहाँ कभी अकाले मृत्यु होती नहीं।
अभी तुम बच्चे समझते हो बाबा हमको फिर से ऐसा देवता बनाते हैं।
आगे यह बुद्धि में नहीं था।
कल्प की आयु कितनी है, यह भी नहीं जानते थे।
अभी तो सारी स्मृति आई है।
यह भी बच्चे समझते हैं आत्मा को ही पाप आत्मा, पुण्य आत्मा कहा जाता है।
पाप परमात्मा कभी नहीं कहा जाता।
फिर कोई कहे परमात्मा सर्वव्यापी है तो भी कितनी बेसमझी है।
यह बाप ही बैठ समझाते हैं।
अभी तुम जानते हो 5 हज़ार वर्ष के बाद पाप आत्माओं को पुण्य आत्मा बाप ही आकर बनाते हैं।
एक को नहीं, सब बच्चों को बनाते हैं।
बाप कहते हैं तुम बच्चों को बनाने वाला मैं ही बेहद का बाप हूँ।
जरूर बच्चों को बेहद का सुख दूँगा।
सतयुग में होती ही हैं पवित्र आत्मायें।
रावण पर जीत पाने से ही तुम पुण्य आत्मा बन जाते हो।
तुम फील करते हो, माया कितने विघ्न डालती है।
एकदम नाक में दम कर देती है।
तुम समझते हो माया से युद्ध कैसे चलती है।
उन्होंने फिर कौरवों और पाण्डवों की युद्ध, लश्कर आदि क्या-क्या बैठ दिखाये हैं।
इस युद्ध का किसको भी पता नहीं।
यह है गुप्त।
इनको तुम ही जानते हो।
माया से हम आत्माओं को युद्ध करनी है।
बाप कहते हैं सबसे बड़ा तुम्हारा दुश्मन है ही काम।
योगबल से तुम इस पर विजय पाते हो।
योगबल का अर्थ भी कोई नहीं समझते हैं।
जो सतोप्रधान थे वही तमोप्रधान बने हैं।
बाप खुद कहते हैं बहुत जन्मों के अन्त में मैं इनमें प्रवेश करता हूँ।
वही तमोप्रधान बना है, ततत्वम्।
बाबा एक को थोड़ेही कहेंगे।
नम्बरवार सबको कहते हैं।
नम्बरवार कौन-कौन हैं, यहाँ तुमको पता पड़ा है।
आगे चल तुमको बहुत पता पड़ेगा।
माला का तुमको साक्षात्कार करायेंगे।
स्कूल में जब ट्रांसफर होते हैं तो सब मालूम पड़ जाता है ना।
रिजल्ट सारी निकल आती है।
बाबा ने बच्ची से पूछा - तुम्हारे इम्तहान के पेपर कहाँ से आते हैं?
बोली लन्दन से।
अब तुम्हारे पेपर्स कहाँ से निकलेंगे? ऊपर से।
तुम्हारा पेपर ऊपर से आयेगा।
सब साक्षात्कार करेंगे।
कैसी वन्डरफुल पढ़ाई है।
कौन पढ़ाते हैं, किसको पता नहीं है।
कृष्ण भगवानुवाच कह देते हैं।
पढ़ाई में सब नम्बरवार हैं।
तो खुशी भी नम्बरवार होगी।
यह जो गायन है अतीन्द्रिय सुख गोप-गोपियों से पूछो-यह पिछाड़ी की बात है।
बाप ने समझाया है, भल बाबा जानते हैं-यह बच्चे कभी गिरने वाले नहीं हैं परन्तु फिर भी पता नहीं क्या होता है।
पढ़ाई ही नहीं पढ़ते हैं, तकदीर में नहीं है। थोड़ा ही उनको कहा जाए कि जाकर अपना घर बसाओ उस दुनिया में, तो झट चले जायेंगे।
कहाँ से निकल कहाँ चले जाते हैं।
उनकी चलन, बोलना, करना ही ऐसा होता है।
समझते हैं हमको अगर इतना मिले तो हम जाकर अलग रहें।
चलन से समझा जाता है।
इसका मतलब निश्चय नहीं, लाचारी बैठे हैं।
बहुत हैं जो ज्ञान का “ग'' भी नहीं जानते।
कभी बैठते भी नहीं। माया पढ़ने नहीं देती।
ऐसे सब सेन्टर्स पर हैं।
कभी पढ़ने आते नहीं।
वन्डर है ना।
कितनी ऊंची नॉलेज है।
भगवान पढ़ाते हैं।
बाबा कहे यह काम न करो, मानेंगे नहीं।
जरूर उल्टा काम करके दिखायेंगे।
राजधानी स्थापन हो रही है, उसमें तो हर प्रकार के चाहिए ना।
ऊपर से लेकर नीचे तक सब बनते हैं।
मर्तबे में फ़र्क तो रहता है ना।
यहाँ भी नम्बरवार मर्तबे हैं।
सिर्फ फ़र्क क्या है?
वहाँ आयु बड़ी और सुख रहता है।
यहाँ आयु छोटी और दु:ख है।
बच्चों की बुद्धि में यह वन्डरफुल बातें हैं।
कैसा यह ड्रामा बना हुआ है।
फिर कल्प-कल्प हम वही पार्ट बजायेंगे।
कल्प-कल्प बजाते रहते हैं।
इतनी छोटी-सी आत्मा में कितना पार्ट भरा हुआ है।
वही फीचर्स, वही एक्टिविटी..... यह सृष्टि का चक्र फिरता ही रहता है।
बनी बनाई बन रही...... यह चक्र फिर भी रिपीट होगा।
सतोप्रधान, सतो, रजो, तमो में आयेंगे।
इसमें मूँझने की बात नहीं।
अच्छा, अपने को आत्मा समझते हो?
आत्मा का बाप शिवबाबा है यह तो समझते हो ना।
जो सतोप्रधान बनते हैं वही फिर तमोप्रधान बनते हैं फिर बाप को याद करो तो सतोप्रधान बन जायेंगे।
यह तो अच्छा है ना।
बस यहाँ तक ही ठहरा देना चाहिए।
बोलो, बेहद का बाप यह स्वर्ग का वर्सा देते हैं।
वही पतित-पावन है।
बाप नॉलेज देते हैं, इसमें शास्त्रों आदि की तो बात ही नहीं।
शास्त्र शुरू में कहाँ से आयेंगे।
यह तो जब बहुत हो जाते हैं तब बाद में बैठ शास्त्र बनाते हैं।
सतयुग में शास्त्र होते नहीं।
परम्परा तो कोई चीज़ होती नहीं।
नाम रूप तो बदल जायेगा।
अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।