18-01-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"18 जनवरी 1969 – पिताश्री जी के अव्यक्त होने के बाद – अव्यक्त वतन से प्राप्त दिव्य सन्देश"
(गुलज़ार बहिन द्वारा)
1. आज जब हम वतन में गई तो शिवबाबा बोले - साकार ब्रह्मा की आत्मा में आदि से अन्त तक 84 जन्मों के चक्र लगाने के संस्कार हैं तो आज भी वतन से चक्र लगाने गये थे। जैसे साइंस वाले राकेट द्वारा चन्द्रमा तक पहुँचे - और जितना चन्द्रमा के नजदीक पहुँचते गये उतना इस धरती की आकर्षण से दूर होते गये। पृथ्वी की आकर्षण खत्म हो गई। वहाँ पहुँचने पर बहुत हल्कापन महसूस होता है। जैसे तुम बच्चे जब सूक्ष्मवतन में आते हो तो स्थूल आकर्षण खत्म हो जाती है तो वहाँ भी धरती की आकर्षण नहीं रहती है। यह है ध्यान द्वारा और वह है साइंस द्वारा। और भी एक अन्तर बापदादा सुना रहे थे - कि वह लोग जब राकेट में चलते हैं तो लौटने का कनेक्शन नीचे वालों से होता है लेकिन यहाँ तो जब चाहें, जैसे चाहें अपने हाथ में है। इसके बाद बाबा ने एक दृश्य दिखाया - एक लाइट की बहुत ऊँची पहाड़ी थी। उस पहाड़ी के नीचे शक्ति सेना और पाण्डव दल था। ऊपर में बापदादा खड़े थे। इसके बाद बहुत भीड़ हो गई। हम सभी वहाँ खड़े ऐसे लग रहे थे जैसे साकारी नहीं लेकिन मन्दिर के साक्षात्कार मूर्त खड़े हैं। सभी ऊपर देखने की कोशिश कर रहे थे लेकिन ऊपर देख नहीं सके। जैसे सभी बहुत तरस रहे थे। फिर थोड़ी देर में एक आकाशवाणी की तरह आवाज आई कि शक्तियों और पाण्डवों द्वारा ही कल्याण होना है। उस समय हम सबके चहरे पर बहुत ही रहमदिल का भाव था। उसके बाद फिर कई लोगों को शक्तियों और पाण्डवों से अव्यक्त ब्रह्मा का साक्षात्कार, शिवबाबा का साक्षात्कार होने लगा। फिर तो वह सीन देखने की थी कोई हसँ रहा था, कोई पकड़ने की कोशिश कर रहा था, कोई प्रेम में आंसू बहा रहा था। लेकिन सारी शक्तियाँ आग के गोले समान तेजस्वी रूप में स्थित थी। इस पर बाबा ने सुनाया कि अन्त समय में तुम्हारा यह व्यक्त शरीर भी बिल्कुल स्थिर हो जायेगा। अभी तो पुराना हिसाब-किताब होने के कारण शरीर अपनी तरफ खींचता है लेकिन अन्त में बिल्कुल स्थिर, शान्त हो जायेगा। कोई भी हल- चल न मन में, न तन में रहेगी। जिसको ही बाबा कहते हैं देही अभिमानी स्थिति। दृश्य समाप्त होने के बाद बाबा ने कहा - सभी बच्चों को कहना कि अभी देही अभिमानी बनने का पुरुषार्थ करो। जितना सर्विस पर ध्यान है उतना ही इस मुख्य बात पर भी ध्यान रहे कि देही अभिमानी बनना है।
2. आज जब मैं वतन में गई तो बापदादा हम सभी बच्चों का स्वागत करने के लिए सामने उपस्थित थे। और जैसे ही मैं पहुँची तो जैसे साकार रूप में दृष्टि से याद लेते थे वैसे ही अनुभव हुआ लेकिन आज की दृष्टि में विशेष प्रेम के सागर का रूप इमर्ज था। एक-एक बच्चे की याद नयनों में समाई हुई थी। बाबा ने कहा याद तो सभी बच्चों ने भेजी है, लेकिन इसमें दो प्रकार की याद है। कई बच्चों की याद अव्यक्त है और कईयों की याद में अव्यक्त भाव के साथ व्यक्त भाव मिक्स है। 75 बच्चों की याद अव्यक्त थी लेकिन 25 की याद मिक्स थी। फिर बाबा ने सभी को स्नेह और शक्ति भरी दृष्टि देते गिट्टी खिलाई। फिर एक दृश्य इमर्ज हुआ - क्या देखा सभी बच्चों का संगठन खड़ा है और ऊपर से बहुत फूलों की वर्षा हो रही है। बिल्कुल चारों और फूल के सिवाए और कुछ देखने में नहीं आ रहा था। बाबा ने सुनाया - बच्ची, बाप- दादा ने स्नेह और शक्ति तो बच्चों को दी ही है लेकिन साथ-साथ दिव्य गुण रुपी फूलों की वर्षा शिक्षा के रूप में भी बहुत की है। परन्तु दिव्य गुणों की शिक्षा को हरेक बच्चे ने यथाशक्ति ही धारण किया है। इसके बाद फिर दूसरा दृश्य दिखाया - तीन प्रकार के गुलाब के फूल थे एक लोहे का, दूसरा हल्का पीतल का और तीसरा रीयल गुलाब था। तो बाबा ने कहा बच्चों की रिजल्ट भी इस प्रकार है। जो लोहे का फूल हैं - यह बच्चों के कड़े संस्कार की निशानी थे। जैसे लोहे को बहुत ठोकना पड़ता है, जब तक गर्म न करो, हथोड़ी न लगाओ तो मुड़ नहीं सकता। इस तरह कई बच्चों के संस्कार लोहे की तरह है जो कितना भी भट्टी में पड़े रहें लेकिन बदलते ही नहीं। दूसरे है जो मोड़ने से वा मेहनत से कुछ बदलते हैं। तीसरे वह जो नैचुरल ही गुलाब हैं। यह वही बच्चे हैं जिन्होंने गुलाब समान बनने में कुछ मेहनत नहीं ली। ऐसे सुनाते- सुनाते बाबा ने रीयल गुलाब के फूल को अपने हाथ में उठाकर थोड़ा घुमाया। घुमाते ही उनके सारे पत्ते गिर गये। और सिर्फ बीच का बीज रह गया। तो बाबा बोले, देखो बच्ची जैसे इनके पत्ते कितना जल्दी और सहज अलग हो गये - ऐसे ही बच्चों को ऐसा पुरुषार्थ करना है जो एकदम फट से पुराने संस्कार, पुराने देह के सम्बन्धियों रूपी पत्ते छट जायें। और फिर बीजरूप अवस्था में स्थित हो जायें। तो सभी बच्चों को यही सन्देश देना कि अपने को चेक करो कि अगर समय आ जाए तो कोई भी संस्कार रूपी पत्ते अटक तो नहीं जायेंगे, जो मेहनत करनी पड़े? कर्मातीत अवस्था सहज ही बन जायेगी या कोई कर्मबन्धन उस समय अटक डालेगा? अगर कोई कमी है तो चेक करो और भरने की कोशिश करो।
3. आज बाबा को मधुबन में आने के लिए निमन्त्रण देने के लिए गई - तो बापदादा के ईशारों से अनुभव हुआ कि आज बाबा का विचार नहीं है। इतने में ही बाबा बोले अच्छा बच्ची सभी बच्चों ने बुलाया है तो बापदादा बच्चों का सेवाधारी है। यह सुनकर संकल्प चला कि बाबा ने अभी-अभी ना की और अभी-अभी हाँ की क्यों? दिल के संकल्प को जानकर बाबा बोले - यह जानबूझ कर कर्म करके बाबा सिखला रहे हैं कि तुम बच्चों को भी एक दो की राय, एक दो के विचारों को रिगार्ड देना चाहिए। भल समझो कोई विचार देता है और तुमको नहीं जचता है तो भी उनके विचार को फौरन ठुकरा नहीं देना चाहिए। पहले तो उनको रिगार्ड दो कि हाँ, क्यों नहीं। बहुत अच्छा। जिससे उनके विचार का फोर्स कम हो जाऐं। तो फिर आप जो उन्हें समझायेंगे वह समझ सकेंगे। अगर सीधा ही उनको कट करेंगे तो दोनों फोर्स टक्कर खायेंगी और रिजल्ट में सफलता नहीं निकलेगी। इसलिए एक दो के विचार अर्थात् राय को पहले रिगार्ड देना आवश्यक है। इससे ही आपस में स्नेह और संगठन चलता रहेगा।
4. आज जब वतन में गई तो जैसे ही हम पहुँची तो बापदादा सामने थे ही लेकिन क्या देखा कि ब्रह्मा बाबा के गले में ढेर की ढेर मालायें पड़ी हुई थी। फिर बाबा ने कहा यह माला उतार कर देखो। माला उतारी तो कोई बड़ी माला थी कोई छोटी। हमने कहा बाबा इसका रहस्य क्या है? बाबा बोले बच्ची, यह सभी के उल्हनों की माला है। क्योंकि हरेक बच्चे जब एकान्त में बैठते हैं तो बाबा को स्नेह में उल्हना ही देते हैं। हरेक बच्चे ने बाप को उल्हनों की माला जरूर पहनाई है। बाबा ने कहा बच्चों को ड्रामा भल याद है लेकिन प्यारे ते प्यारी चीज तो जरूर है। तो अचानक ड्रामा को वंडरफुल देख हरेक बच्चा दिल ही दिल में उल्हना देते रहते हैं। यूँ तो ज्ञान बच्चों को है लेकिन ज्ञान के साथ प्रेम का स्नेह भी है इसलिए इन उल्हनों को गलत नहीं कहेंगे। फिर हमने पूछा बाबा, आपने इसका रेसपान्ड क्या दिया? तो बाबा बोले जैसा बच्चा वैसा रेसपान्ड। बाबा ने कहा मैं भी रेसपान्ड में बच्चों को उल्हनों की माला ही पहनाता हूँ। वह कौन सी? फिर बाबा ने सुनाया - जो बाप की आश बच्चों में थी वह साकार रूप में बाप को नहीं दिखलाई, जो अब अव्यक्त रूप में दिखलानी है। बाबा ने कहा यह उल्हना भी मीठी रूहरूहान है। यह भी एक खेलपाल बच्चों का है। साकार रूप में जो बापदादा ने श्रृंगार कराया वह अब अव्यक्त वतन में बापदादा देखेंगे। यह सीन पूरी हो गई। फिर भोग स्वीकार कराया फिर मैंने बाबा से पूछा - बाबा आप सारा दिन वतन में क्या करते हो? बाबा ने कहा चलो मैं तुमको वतन का म्युजियम दिखलाऊँ तुम तो म्युजियम बनाने के पहले प्लैन बनाते हो बाबा का म्युजियम तो एक सेकेण्ड में तैयार हो जाता है। फिर क्या देखा? एक बहुत बड़ा हाल था। एक ही हाल में हम बच्चे ढेर की ढेर माडल के रूप में खड़े थे। हमने कहा बाबा यह तो हम ही म्यूजियम में खड़े हैं। बाबा ने कहा - बच्ची बाबा का म्युजियम यही है। अभी तुम जाओ जाकर एक माडल को देखो कि बापदादा ने क्या-क्या सजाया है? जैसे आर्टिस्ट मूर्ति को सजाते हैं तो बाबा ने कहा देखो, बापदादा ने क्या-क्या सजाया है? हम जब माडल के पास गई तो हमको कुछ खास दिखाई नहीं पड़ा। पूरी सजी हुई मूर्ति दिखाई पड़ रही थी। बाबा ने कहा जो मोटा श्रृंगार है वह तो साकार में ही बच्चों का करके आये हैं। परन्तु अब अव्यक्त रूप में क्या सजा रहे हैं? सभी श्रृंगार तो है, जेवर भी है परन्तु जेवर में बीच में नग लगा रहे हैं। बाबा के कहने के बाद कोई-कोई में जैसे एकस्ट्रा नग दिखाई पड़े। बाबा ने कहा बच्चों के प्रति मुख्य शिक्षा यही है कि अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर व्यक्त भाव में आओ। जब एकान्त में बैठते हैं तो अव्यक्त स्थिति रहती है लेकिन व्यक्त में रहकर अव्यक्त भाव में स्थित रहें वह मिस कर लेते हैं इस- लिए एकरस कर्मातीत स्थिति का जो नग है, वह कम है। तो जिसके जीवन में जो कमी देखता हूँ वह सजा रहा हूँ। जैसे साकार रूप में यह कार्य करता था वही फिर अव्यक्त रूप में करता हूँ। तो बच्चों से जाकर पूछना कि सारे दिन में जैसे बाप बच्चों को सजाते हैं, ऐसे बच्चों को भासना आती है? उस टाइम जो योंगयुक्त बच्चे होंगे उनको भासना आयेगी कि बाबा अब मेरे से बात कर रहे हैं, सजा रहे हैं। जैसे मैं अव्यक्त वतन में बच्चों से मिलता, बहलता रहता हूँ। अव्यक्त रूप वाले बच्चे यह अनुभव कर सकते हैं। मैं भी खास समय पर खास बच्चों को याद करता हूँ। ऐसी टचिंग बच्चों को होती ही होगी। मैंने कहा बाबा आप सभी को अव्यक्त वतन में क्यों नहीं बुला लेते? - यहाँ ही बड़ा सेन्टर खोल दो। अभी तो सभी बच्चे उपराम हो गये हैं। बाबा ने कहा यह उपराम अवस्था होनी ही चाहिए। हमेशा तैयार रहना चाहिए। यह भी याद की यात्रा को बल मिलता है। यह उपराम अवस्था सहज याद का तरीका है। अब बच्चों को कहना ज्यादा समय नहीं है। बाबा कभी भी किसको बुला लेंगे।
5. आज जब वतन में गई तो जाते ही अनुभव हो रहा था जैसे कि लाइट के बादलों से क्रास करके वतन में जा रही हूँ। बादलों की लाइट ऐसे लग रही थी जैसे सूर्यास्त होते समय लाली देखने में आती है। जैसे ही वतन में पहुँची तो वहाँ भी ऐसे ही देखा कि लाइट के बादलों के बीच बापदादा का मुखड़ा सूर्य-चन्द्रमा समान चमकता हुआ देखने में आ रहा था। सीन तो बड़ी सुन्दर दिखाई दे रही थी लेकिन आज का वायुमण्डल बिल्कुल शान्त था। बापदादा के मुलाकात में भी शान्ति और शक्ति की भासना आ रही थी। फिर तो मुस्कराते हुए बाबा बोले - भल तुम बच्चे साकार शरीर में साकारी सृष्टि में हो फिर भी साकार में रहते ऐसे ही लाइट माइट रूप होकर रहना है जो कोई भी देखे तो महसूस करे कि यह कोई फरिश्ते घूम रहे हैं। लेकिन वह अवस्था तब होगी जब एकान्त में बैठे अन्तर्मुख अवस्था में रह अपनी चेकिंग करेंगे। ऐसी अवस्था से ही आत्माओं को आप बच्चों से साक्षात्कार होगा। आज वतन में एक तरफ तो बिल्कुल शान्ति थी, दूसरे तरफ फिर प्यार का रूप बहुत था। क्या देखा? बाबा की बाँहों में सभी बच्चे समाये हुए थे। साथ-साथ प्रेम का सागर तो था ही। बाबा ने कहा - तुम शक्तियों को भी सर्व आत्माओं को ऐसे ही अब अपने समीप लाना है। आपकी दृष्टि में बाप समान जब प्रेम और शक्ति दोनों ही पावर होगी तब आत्मायें नजदीक आयेंगी। इसके बाद बाबा ने तीसरा दृश्य दिखाया-क्या देखा बाबा के सामने ढेर कार्डस पड़े थे। बाबा ने कहा इन कार्डस को ऐसे सजाओं जिससे कोई सीनरी बन जाए क्योंकि हर कार्ड पर सीनरी की डिजाइन थी - किसमें चित्र किसमें शरीर। हम मिलाने लगी तो कभी उल्टा कभी सुल्टा हो जाता था। और बापदादा बहुत हँस रहे थे। उसमें बहुत ही सुन्दर सतयुग की सीनरियॉ थी। एक कृष्ण बाल रूप में झूले में झूल रहा था, साथ में कान्ता (दासी) झुला रही थी। दूसरे में सखे-सखियों का खेल था। मतलब तो सतयुग की दिनचर्या थी। फिर बाबा ने विदाई देते समय कहा, बच्ची सबको सन्देश देना - कि शक्ति स्वरूप भव और प्रेम स्वरूप भव।
6. आज जब इस देह और देह के देश से परे अपने को सूक्ष्मवतन जिसको ब्रह्मापुरी कहते हैं वहाँ गई तो परमात्मा बाप ने एक दृश्य दिखाया - बहुत बड़ी एक भीड़ देखी - फिर देखा जैसे कोई टिकेट बाँट रहा है और हरेक कोशिश कर रहा है कि हमें भी टिकेट मिले। लेकिन थोड़े समय में देखा कि कोई-कोई को टिकेट मिली और कोई-कोई टिकेट से वंचित रह गये। जिनको टिकेट मिली वह दिल ही दिल में हर्षाते रहे और जिन्हें नहीं मिली वह एक दो को देखते रहे। वह टिकेट कहाँ की थी उस पर एक दूसरा दृश्य देखा - एक बड़ा सुन्दर दरवाजा था जो अचानक खुला - जिन्हों के पास टिकेट थी वह तो दरवाजे के अन्दर चले गये और जिनके पास टिकेट नहीं थी वह बड़े ही पश्चाताप से देख रहे थे। उस गेट पर लिखा हुआ था - ' 'स्वर्ग का द्वार ''। बाबा ने रहस्य सुनाया - कि परमात्मा बाप सभी बच्चों द्वारा सतयुगी नई सृष्टि स्वर्ग में चलने की टिकेट दिला रहे हैं। परन्तु कई बच्चे सोच रहे हैं कि अब नहीं बाद में ले लेंगे। लेकिन ऐसे न हो कि यह टिकेट मिलना बन्द हो जाए और स्वर्ग में जाने से वंचित हो जायें। बाबा ने कहा - कई आत्मायें सुनती हैं, सोचती हैं कि यह कार्य क्या चल रहा है? तो बापदादा बच्चों प्रति यही शिक्षा दे रहे हैं कि यह जो समय आने वाला है, आप जो अब सोच रहे हो, सोचते-साचते अपने भाग्य को गंवा न दो। यह दृश्य दिखाया। फिर दूसरी सीन देखी कि नदी बह रही थी - उस नदी में दूर-दूर से कई लोग आकर स्नान कर रहे थे। कई फिर वहाँ ही नजदीक थे लेकिन नहा नहीं रहे थे। बल्कि उनसे कई पूछ रहे थे कि नदी कहाँ हैं हम जाकर स्नान करें लेकिन जो नजदीक रहने वाले थे उनको नदी में स्नान करने का महत्व नहीं था और जो प्यासे थे, उनको भी उस प्यास का मूल्य कम कराते थे। फिर बाबा ने कहा कि बच्ची यह जो ज्ञान गंगा है। गंगा के नजदीक वाले आबू निवासी हैं। दूर दूर से आकर तो इसमें स्नान करते हैं लेकिन यहाँ वाले इस महत्व को न जान उनको टालते हैं। तो कहाँ ऐसे न हो इस भूल में रह जायें इसलिए बापदादा के सब बच्चे हैं, भल आज्ञाकारी बच्चे नहीं हैं फिर भी बच्चे तो बाबा के प्रिय हैं। तो बच्चों को बाबा शिक्षा देते हैं कि यह अमूल्य समय जो ज्ञान गंगा में नहाने का मिल रहा है, वह कभी गंवा न देना। फिर थोड़े समय में देखा कि कईयों ने तो स्नान किया, कईयों ने जल को भरकर रखा लेकिन कुछ समय के बाद नदी ने रास्ता पलट लिया और जिन्होंने नहीं नहाया, न भरकर रखा वह औरों से एक-एक बूंद मांग रहे थे, तड़फ रहे थे। तो बाबा ने कहा यह समय अभी आने वाला है। फिर बाबा ने सभी बच्चों के प्रति एक महामन्त्र की सौगात दी - बाबा बोले, एक तो मुझ परमपिता की याद में रहो और अपने जीवन को पवित्र और योगी बनाओ। यही बापदादा ने स्नेह के रिटर्न में महामन्त्र की सौगात सभी प्रति दी।
7. आज जब वतन में गई तो जाते ही क्या देखा कि शिवबाबा और अपना ब्रह्मा बाबा दोनों आपस में बैठे थे और सामने जैसे एक छोटी पहाड़ी बनी हुई थी। वह किसकी थी? क्या देखा कि ढेर के ढेर पत्र थे। इतने पत्र थे, इतने पत्र थे जैसे कि पहाड़ियां बन गई थी जैसे ही हम पहुँची तो ब्रह्मा बाबा ने हमको देखा और कहा कि ईशू कहाँ है। इतने पत्र हो गये हैं। मैंने कहा बाबा मैं आई हूँ। कहा ईशू बच्ची को भी साथ लाई हो ना! देखना ईशू बच्ची, मैं दो मिनट में इतने सारे पत्र पूरा कर देता हूँ। शिव बाबा तो साक्षी होकर मुस्करा रहे थे। इतने में देखा कि ईशू बहन भी वहाँ इमर्ज हो गई। ईशू का चेहरा बिल्कुल ही शान्त था। बाबा ने कहा बच्ची क्या सोच रही हो? आज तो पत्र का जवाब देना है। उसी समय जैसे साकार वतन का संस्कार पूर्ण रीति इमर्ज था। मम्मा खड़ी होकर देख रही थी। इतने में ही शिव बाबा ने ब्रह्मा बाबा को कहा आप कहाँ हो? वतन में बैठे हो? फिर एक सेकेण्ड में ही रूप बदल गया। बाबा ने कुछ कहा नहीं, एकदम डेड साइलेन्स हो गये। इतने में बाबा ने मुझे कहा कि बच्ची यह पत्र खोलकर देखो। मैंने कहा बाबा पत्र तो ढेर हैं। बाबा ने कहा बच्ची इसमें तो एक सेकेण्ड लगेगा। क्योंकि सभी में एक ही बात है। इसके बाद बाबा ने सुनाया कि सभी पत्रों में बच्चों के उल्हने ही हैं। पत्रों में सभी उल्हने ही थे। अब देखना बाबा बच्चों को रेस्पाण्ड करते हैं। देखना एक सेकेण्ड में मैं सभी को जवाब दे देता हूँ। फिर बाबा ने सभी पत्रों का लाल अक्षरों में यहाँ माफिक ही पत्र लिखा। पत्र में क्या था - "ब्राह्मण कुल भूषण, स्वदर्शनचक्रधारी, ये रत्नों बच्चों प्रति, समाचार यह है कि सभी बच्चों के उल्हनों के पत्र सूक्ष्मवतन में पाये। रेस्पान्ड में बापदादा बच्चों को कह रहे हैं कि ड्रामा की भावी के बन्धन में सर्व आत्मायें बंधी हुई हैं। सभी पार्ट बजा रही हैं। उसी ड्रामा के मीठे-मीठे बन्धन अनुसार आज अव्यक्त वतन में पार्ट बजा रहा हूँ। सभी बच्चों को दिल व जान सिक व प्रेम से अव्यक्त रूप से याद प्यार बहुत-बहुत-बहुत स्वीकार हो। जैसे बाप की स्थिति है वैसे बच्चों को स्थिति रखनी है"। यह है बापदादा का पत्र। फिर बाबा को हमने भोग स्वीकार कराया। बाबा बोले बच्ची आज कुछ नये बच्चे भी आये हैं। पहले मैं उन्हों को खिलाता हूँ। फिर वतन में बाबा ने सभी बच्चों को इमर्ज कर अपने हस्तों से जल्दी-जल्दी एक एक दृष्टि भी दे रहे थे, हाथों से गिट्टी भी खिला रहे थे। लेकिन एक एक को एक सेकेण्ड भी जो दृष्टि दे रहे थे, उस दृष्टि में बहुत कुछ भरा हुआ था। उसके बाद फिर तीसरा दृश्य हमने देखा। बाबा को कहा कि सभी ने एक प्रश्न पूछने के लिए कहा है। बाबा ने कहा जो भी प्रश्न हैं वह पूछ सकते हो। बाबा तो एक अक्षर में जवाब दे देगा।
प्रश्न:-
सभी पूछते हैं कि पिछाड़ी के समय आप ने कुछ बोला नहीं। बाहर की सीन तो हम सभी ने सुनी है लेकिन अन्दर क्या था वह अनुभव भी सुनना चाहते हैं। बाबा बोले, हाँ बच्ची, क्यों नहीं। अपना अनुभव सुनायेंगे। अच्छा लो सुनो -
बच्ची खेल तो सिर्फ 10-15 मिनट का ही था। उस थोड़े से समय में ही अनेक खेल चले। उसमें भिन्न-भिन्न अनुभव हुए। पहला अनुभव तो यह था कि पहले जोर से युद्ध चल रही थी। किसकी? योगबल और कर्मभोग की। कर्मभोग भी फुल फोर्स में अपने तरफ खींच रहा था और योगबल भी फुल फोर्स में ही था। ऐसे अनुभव हो रहा था कि जो भी शरीर के हिसाब-किताब रहे हुऐ थे वह फट से योग अग्नि में भस्म हो रहे थे। और मैं साक्षी हो देख रहा हूँ, जैसे अखाड़े में बैठ मल्लयुद्ध देखते हैं। मतलब तो दोनों का फोर्स पूरा ही था। उसके बाद बाबा बोले कि कुछ समय बाद कर्मभोग (दर्द) तो बिल्कुल निर्बल हो गया। बिल्कुल दर्द गुम हो गया। ऐसे ही अनुभव हो रहा था कि आखरीन में योगबल ने कर्मभोग पर जीत पा ली। उस समय तीन बातें साथ-साथ चल रही थी वह कौन सी? एक तरफ तो बाबा से बातें कर रहा था कि बाबा आप हमें अपने पास बुला रहे हो। दूसरे तरफ यूँ तो कोई खास बच्चों की स्मृति नहीं, लेकिन सभी बच्चों के स्नेह की याद शुद्ध मोह के रूप में थी बाकी शुद्ध मोह की रग वा यह संकल्प कि छुट्टी नहीं ली वा और कोई भी संकल्प नहीं था। तीसरी तरफ यह भी अनुभव हो रहा था कि कैसे शरीर से आत्मा निकल रही है। कर्मातीत न्यारी अवस्था जो बाबा ने पहले मुरली भी चलाई कि कैसे भाँ भाँ होकर सन्नाटा हो जाता है। वैसे ही बिल्कुल डेड साइलेन्स का अनुभव हो रहा था और देख रहा था कि कैसे एक-एक अंग से आत्मा अपनी शक्ति छोड़ती जा रही है। तो कर्मातीत अवस्था की मृत्यु क्या चीज है वह अनुभव हो रहा था। यह है मेरा अनुभव। फिर हमने बाबा को कहा कि बाबा सभी बच्चे कहते हैं अगर हम सभी सामने होते तो बाबा को रोक लेते। तो बाबा ने कहाँ बच्ची रोक लेते तो यह ड्रामा कैसे होता। फिर हमने कहा बाबा यह सीन जैसे अब तो आर्टीफिशियल लग रही है। रीयल ड्रामा नहीं लगता। बाबा ने कहा कि बच्ची यह स्नेह की मीठी तार जुटी होने के कारण तुमको अन्त तक यह वण्डर ही देखने में आयेगा और अब तक भी तो सम्बन्ध है। भल साकार रथ गया है लेकिन ब्रह्मा के रूप में अव्यक्त पार्ट बजा रहे हैं। बाबा ने कहा मैं भी कभी साकार वतन में चला जाता हूँ फिर शिव बाबा पूछते हैं कहाँ बैठे हो? यहाँ बैठे जैसे साकार वतन में। यह मकान बन रहा है वहाँ तक जाता हूँ। मैंने कहा बाबा, कभी कभी लगता है कि जैसे बाबा चक्र लगा रहे हैं। बाबा ने कहा मैं चक्कर लगाता हूँ तो वह भासना तो बच्चों को आयेगी ही। मतलब तो रूह रूहान हो रही थी। फिर बाबा ने एक दृश्य दिखाया जैसे एक चक्र के अन्दर बहुत चक्र दिखाई पड़े। चक्र का ढंग ऐसे बनाया था कि उस चक्र से निकलने के 4-5 रास्ते दिखाई पड़े परन्तु निकल न पाये। सिर्फ ब्रह्मा बाबा का यह दिखाया कि चक्र में चलते-चलते प्याइन्ट (जीरो) पर खड़े हो गये, निकले नहीं। बाबा ने सम- झाया कि यह है ड्रामा का बन्धन। ब्रह्मा भी ड्रामा के सर्कल से निकल नहीं सकते। ड्रामा के बन्धन से कोई भी निकल नहीं सकते। उस जीरो प्याइन्ट तक पहुँच गये लेकिन फिर भी ड्रामा का मीठा बन्धन है। जिस मीठे बन्धन को खेल के रूप में दिखाया। फिर मिश्री बादामी खिलाई। छुट्टी दी, बोला, जाओ बच्ची टाइम हो गया है।
8. आज जब वतन में गई तो कोई भी नजर नहीं आ रहा था। दूर से कोई जैसे आवाज आ रही थी - ऐसे लग रहा था जैसे कोई खास कार्य हो रहा हो। मैं पहले तो कुछ रूकी लेकिन फिर आगे चलकर क्या देखा - शिवबाबा ब्रह्मा बाबा, मम्मा और विश्वकिशोर चारों ही आपस में बातचीत कर रहे थे और बहुत प्लैन उनके आगे रखे थे। जिसमें कुछ निशान आदि दिखाई दे रहे थे। लेकिन समझ में नहीं आया। मम्मा सभी बच्चों का हालचाल पूछ रही थी। मैंने कहा मम्मा आपने बाबा को भी बुला लिया। मम्मा बोली - मम्मा भी नहीं चाहती कि बच्चों से मात-पिता का साकारी साथ छूटे लेकिन ड्रामा। फिर मैंने बाबा से पूछा - बाबा यह प्लैन्स आदि क्या हैं? बाबा बोले - बच्ची, जैसे मार्शल के पास सारे नक्शे रहते हैं कि कहाँ-कहाँ क्या-क्या हो रहा है। आगे क्या होना है - वैसे यह भी स्थापना के कार्य की ही बातचीत चल रही थी। जो फिर सुनायेंगे। इसके बाद एक दृश्य दिखाया - जिसमें तीन संगठन थे। एक तो देखा लाल-लाल चीटियाँ जो आपस में गेंद के माफिक इक्ट्ठी हो जा रही थी। दृश्य ऐसा था जो ब्रह्मा बाबा ने शुरू-शुरू में देखा था -दूसरा संगठन था मूलवतन में आत्मायें शमा रूप में थी तीसरा संगठन - हम ब्राह्मणों का था। जो सभी सर्किल रूप में बैठे थे और बीच में बापदादा थे। वह ऐसे लग रहा था जैसे फूल के बीच में बूर होता है और चारों ओर पत्ते होते हैं। इसका रहस्य बाबा ने बताया - कि बच्ची जब प्रत्यक्षता शुरू हुई तो भी संगठन में देखा। अन्त में भी आत्माओं को संगठन रूप में ही रहना है और अब मध्य में भी संगठन है। संगठन की शक्ति है तो कोई भी हिला नहीं सकता। देखो, बापदादा ने कहाँ-कहाँ से चुन-चुनकर संगठन बनाया है। तो बच्चे भी जब संगठन में चलेंगे तो माया का वार नहीं होगा। जैसे गुलाब का फूल वा कोई भी फूल होता है तो उनको योग्य स्थान पर रखेंगे और अकेला पत्ता होगा तो हाथ से जल्दी मसल देंगे। तो बच्चों का भी संगठन रूपी गुलदस्ता होगा तो विजय प्राप्त करते रहेंगे। कोई वार नहीं कर सकेगा। ऐसे कहते बाबा ने कहा कि सभी बच्चों को कहना कि संगठन ही सेफ्टी का साधन है।
9. आज जब वतन में गई तो बापदादा दोनों बहुत बिजी थे। क्या देखा - दोनों के आगे बहुत से फूल भी थे और पत्ते भी थे। जैसे गुलदस्ते में फूल भी डाले जाते और पत्ते भी डाले जाते। फूल दो तीन प्रकार के अलग-अलग थे, उनको देख रहे थे और छांट रहे थे। तो बाप-दादा दोनों उसी ही कार्य में बिजी थे। मुझे देखा भी नहीं। जब मैं नजदीक गई तो मुझे देख मुस्कराया - और कहा कि मैं सारा दिन बिजी रहता हूँ। देखो बच्ची कितनी बड़ी कारोबार चल रही है। यह फूल पत्ते तीन क्वालिटी के अलग-अलग करके रखे हैं। पहले बाबा ने मुझे फूल दिखाये जिनकी संख्या बहुत कम थी फिर बीच की क्वालिटी दिखाई जिसमें फूल बहुत थे लेकिन साथ में थोड़े पत्ते भी लगे थे। फूल अच्छे थे लेकिन जो पत्ते लगे हुए थे वह कुछ डिफेक्टेड थे। तीसरी क्वालिटी में फिर पत्ते जास्ती थे और फूल बहुत ही कम थे। इस पर बाबा ने मुझे समझाया कि यह पहली क्वालिटी जिसमें थोड़े फूल हैं - यह वह बच्चे हैं जो बिल्कुल दिल पर चढ़े हुए हैं और ऐसे दिल वाले अनन्य बच्चे बहुत ही थोड़े हैं। दूसरे नम्बर वाले बच्चे हैं बहुत अच्छे, परन्तु थोड़ा कुछ कमी है। फूल बने हैं लेकिन थोड़ी कमी है। बाकी तीसरी क्वालिटी के हैं प्रजा। उनमें कोई फूल निकलता है जो पीछे जाने वाला है। बाकी सब हैं प्रजा। तो दो ऊपर की क्वालिटी बच्चों की है। बापदादा अब गुलदस्ता सजाते हैं। जब गुलदस्ता सजाया जाता है तो सिर्फ फूल डालने से गुलदस्ता नहीं शोभता। उसमें कुछ पत्ते भी चाहिए। तुम फूल हो लेकिन तुम्हारे साथ पत्ते भी चाहिए। तुम राजा बनेंगे तो प्रजा भी चाहिए ना। तो प्रजा रूपी पत्तों के बीच में फूल शोभता है। तो यहाँ बैठे तुम बच्चों का गुलदस्ता बनाता हूँ। और देखता हूँ कि एक फूल ने कितनी प्रजा बनाई है। जिसने जास्ती प्रजा बनाई है उनका गुलदस्ता भी शोभता है। फिर बाबा ने एक प्रश्न पूछा- कि जब कोई देवता पर फूल चढ़ाते हैं तो सिर्फ फूल चढ़ाते पत्ते निकाल देते हैं क्यों? पत्ते तो फूल का शो होते हैं फिर पत्ते क्यों निकाल देते? फिर बाबा ने सुनाया कि तुम बच्चों से ही यह सारी रसम-रिवाज होती है। जब तुम पहले अर्पण हुए तो अकेले थे लेकिन फूल को अगर कुछ समय रखना हो तो पत्ते साथ में होंगे तो रख सकेंगे वैसे ही जब तुम पहले अर्पण हुए तो तुम अकेले फूल अर्पण हुए हो। फिर तुमको 21 जन्मों के लिए अविनाशी चलना है - तो प्रजा रूपी पत्ते भी लगाये जाते हैं। पहले तुम आये तो प्रजा नहीं थी लेकिन अब तो तुम फूलों की शोभा ही प्रजा रूपी पत्तों से है इसलिए बापदादा कहते हैं, प्रजा बनाओ।
10. आज जब मैं वतन में गई तो ऐसे लगा जैसे कोई सूर्य के नजदीक जाए तो सूर्य की गर्मा- इस या सकाश तेज आती है, ऐसे ही आज वतन में जैसे ही आगे बढ़ते गये तो ऐसे अनुभव हुआ जैसे कोई भट्टी के आगे जाते हैं। आज बाबा लाल-लाल लाईट में जैसे अव्यक्त फीचर में दिखाई दे रहे थे और सूर्य के समान किरणें निकल रही थी। क्या देखा कि नीचे बहुत बड़ी सभा है। ऐसी सभा साकार रीति में ब्राह्मणों की कभी नहीं थी - सभी ब्राह्मणों पर वह किरणें जा रही थी। और मैं भी वतन में गई तो देखा मेरे पर भी वह किरणों की लाइट माइट आ रही है। कुछ समय बाद - मैं बाबा से उसी रूप में मिली और कहा कि बाबा मैं भोग लेकर आई हूँ। बाबा भोग स्वीकार करते हुए सिखला रहे थे कि खाते समय कैसे लाइट माइट की स्थिति में रहना है। फिर मैंने बाबा से पूछा कि बच्चों को याद-प्यार तो देंगे ना। इस पर बाबा ने कहा कि स्नेह का रूप तो बहुत देखा लेकिन स्नेह के साथ शक्ति रूप की स्थिति जो बाबा बच्चों की बनाने चाहते हैं, वह अभी तक कम है। तो आज बाबा स्नेह के साथ शक्ति भर रहे थे। और कहा इसी से ही सर्विस में सफलता होगी। बाबा ने सन्देश भी यह दिया कि सिर्फ स्नेह नहीं लेकिन साथ में शक्ति भी भरनी है। जो बाबा ने खुद दृश्य में दिखाया कि बच्चों को इस सृष्टि को लाइट-माइट की किरणें देनी है। इतने दिन बाबा का स्नेह के रूप से मिलन था लेकिन आज स्नेह के साथ लाइट-माइट का रूप था तो मैं उसे लेने में ही तत्पर हो गई और वापस साकार वतन में आ गई।
11. आज जब मैं वतन में गई तो जैसे एक सभा लगी हुई थी - क्लास हो रहा था। पहले तो मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। बापदादा ने नयनों से स्वागत किया। फिर बोले बच्ची इन सबसे मुलाकात करो और यह भोग सभी को खिलाओ। तो क्या देखा - जो आत्मायें एडवांस में शरीर छोड़कर गई हैं उन सभी को इमर्ज कर बाबा क्लास करा रहे थे। फिर सभी को मधुबन का ब्रह्मा भोजन स्वीकार कराया। उस संगठन में सभी गई हुई आत्मायें थी। फिर मैंने एक दृश्य देखा - बहुत मकान बन रहे थे। और जैसे मकान में जब छत पड़ती है तो उसको बहुत आधार देते हैं फिर जब सीमेन्ट पक्का हो जाता है तो वह आधार लकड़ी पट्टी आदि निकाल देते हैं। तो इस तरह मकान बनने की छत भरने की कारोबार बहुत जोर शोर से चल रही थी। तो मैं इस मकान को देखती रही और बाबा गायब हो गया। बाबा ने यह दिखाया कि मकान बनाने के लिए पहले आधार दिया जाता है फिर आधार निकाला जाता है। ऐसे ही दृश्य देखते यहाँ पहुँच गई।
12. आज जब मैं वतन में गई तो बाबा नहीं दिखाई दिये। थोड़ी देर के बाद बाबा को देखा तो मैंने पूछा आप कहाँ गये थे? बाबा बोले - आज गुरूवार का दिन है तो सभी बच्चों के पास चक्र लगाने गये थे। वैसे तो साकार रूप में इतने थोड़े समय में सब जगह नहीं पहुँच सकता था। अब तो अव्यक्त वतन में अव्यक्त विमान द्वारा राकेट से भी जल्द पहुँच सकते हैं। हमने कहा बाबा आपने चक्र लगाया तो उसमें आपने क्या देखा! बाबा ने कहा - मैजारटी बच्चे अभी तक स्नेह में अच्छे चल रहे हैं और बहुत ऐसे भी हैं जिन्हों के अन्दर कुछ संकल्प भी है कि ना मालूम अब क्या होगा। परन्तु संगठन के सहारे अब तक ठीक हैं। बाबा ने कहा कि स्नेह के आधार पर जो बच्चे अभी तक ठहरे हुए हैं तो अब स्नेह के साथ ज्ञान का फाउन्डेशन जरा भी ढीला हुआ तो बच्चों पर वायुमण्डल का असर बहुत सहज हो सकता है। इसलिए हर एक बच्चे को अपनी चेकिंग करनी है। फिर भी व्यक्त देह में हो तो स्नेह में पहले फोर्स अच्छा रहता है लेकिन इस स्नेह पर फिर जैसे-जैसे दिन पड़ते जायेंगे तो वायुमण्डल का असर जल्दी पड़ सकता है। स्नेह में भल कहते हैं कि शिवबाबा कल्याणकारी है या बाबा ने जो किया है वह ठीक है। स्नेह के वश संकल्प बन्द किया है। स्नेह की रिजल्ट मैजारटी की अधिक है। वायुमण्डल का असर हमारे पर न हो और हमारा असर वायुमण्डल पर हो तब कायदेमुजीब चल सकते हैं। हमने कहा कि बाबा हमारे पास तो ज्ञान की ही बातें चलती हैं। तब बाबा ने कहा बच्ची, ज्ञान के फाउन्डेशन से अपने को सन्तुष्ट रखें, ऐसे बच्चे थोड़े हैं। तो आज बाबा ने यह रिजल्ट बताई और कहा कि सभी को जाकर सुनाना कि वायुमण्डल को हमें चेंज करना है न कि वायुमण्डल हमें चेंज करे। फिर भोग स्वीकार कराने के बाद बाबा ने एक सीन दिखाई - एक बहुत बड़ा हाल था, उस हाल में चारों ओर से बहुत बदबू आ रही थी। उस कमरे में दो तीन बहुत अच्छी खुशबूदार अगरबत्ती जल रही थी। धीरे-धीरे अगरबत्ती की खुशबू ने बदबू को दबा दिया। बाबा ने सुनाया देखो बच्ची, चारों तरफ बदबू का वायुमण्डल था लेकिन इतनी सी अगरबत्ती ने वायु- मण्डल को बदल दिया। तो तुम बच्चों पर जब देखो कि वायुमण्डल का असर होता है तो अग-रबत्ती का मिसाल सामने रखो कि हम सर्वशक्तिवान बाप के बच्चे हैं। अगर वायुमण्डल का असर हमारे पर आये तो इससे तो अगरबत्ती अच्छी है। जब तुम बच्चे पावरफुल खुशबूदार बनेंगे तब यह वायुमण्डल दब जायेगा। बाबा ने कहा अब हरेक बच्चे को शिक्षा तो मिली है। शिक्षा भी सभी बड़े मीठे रूप से सुनते हैं। लेकिन जैसे मीठे रूप से सुनते हो उसी मीठे रूप से धारण भी करना है। मीठापन चिपकता बहुत जल्दी है। जो ऐसे मीठा बनेंगे तो बाप से चिपक जायेंगे। याद और मीठापन नहीं होगा तो अलग-अलग रहेंगे। जैसे नमकीन चीज आपस में कभी नहीं मिलती है। तो जो ऐसे होंगे उनकी अवस्था योगयुक्त नहीं रहेगी। अब जैसे बच्चों ने सुना वैसे ही धारण करेंगे तो बहुत बल मिलेगा।
13. आज जब मैं वतन में गई तो बाप और दादा दोनों सामने खड़े थे। और जाते ही नयनों की मुलाकात से सभी की जो यादप्यार ले गई थी वह दी। जैसे ही मैं याद दे रही थी तो साकार बाबा ने मेरा हाथ पकड़ा। उस हाथ पकड़ने में ना मालूम क्या जादू था - ऐसे अनुभव हुआ जैसे सागर में कोई स्नान करता है, ऐसे थोड़े समय के लिए मैं प्रेम के सागर में लीन हो गई। उसके बाद हमने आलमाइटी बाबा की तरफ देखा। तो बाबा ने कहा बच्ची-बाप में मुख्य दो गुण जो हैं वह बच्चों ने साकार रूप में अनुभव किया है। वह दो गुण कौन से हैं? जितना ही ज्ञान स्वरूप उतना ही प्रेम स्वरूप। तो बच्चों को भी यह दो गुण अपने हर चलन में धारण करने हैं। फिर मैंने बाबा से पूछा कि पहले वतन में जो गये हुए बच्चों का इतना संगठन था इसका रहस्य क्या था! बाबा ने कहा पूरा राज तो बाद में चलकर सुनायेंगे लेकिन साकार रूप से जो कोई सर्विस अर्थ या कुछ हिसाब किताब चुक्तू करने अर्थ चले गये हैं उन बच्चों से मुलाकात करने के लिए बुलाया था। बाबा उनसे हालचाल पूछ रहे थे कि कौन-कौन, किस रीति से किस रूप से क्या-क्या कर रहे हैं। हमने कहा बाबा, यह किस रूप से स्थापना के कार्य में बिजी हैं? तो बाबा बोले बच्ची यह आगे चलकर स्पष्ट करेंगे, फिर भी शार्ट में सुनाते हैं। बाबा ने कहा - बच्ची जब लड़ाई होती है तो किसी भी लश्कर को जब जीतना होता है तो सिर्फ एक तरफ से नहीं चारों तरफ से लश्कर भेजकर पूरा घेराव डाल देते हैं। इस संगठन से यह मालूम हुआ कि जो भी बच्चे गये हैं वह चारों और फैल गये हैं। अभी चारों तरफ स्थापना की नीव पड़ गई है। बाकी अब आर्डर देने की जरूरत है।
फिर बाबा ने चार स्टेजेस की एक सीढ़ी दिखाई। पहली स्टेज दिखाई - ज्ञान सुनना, सोचना- समझना और निश्चय करना। कोई सोच करता है, कोई मंथन करता है। दूसरी स्टेज बताई - कि अन्त समय कैसे विनाश हो रहा है। कहाँ बाढ़ से डूब रहे हैं, कहाँ क्या हो रहा है लेकिन शक्ति दल और पाण्डव बिल्कुल अडोल खड़े थे। तीसरी स्टेज दिखाई कि आत्मायें जैसे निकल कर परमधाम में गुब्बारे माफिक जा रही हैं। फिर परमधाम की सीन भी बाबा ने दिखाई। चौथी सीन - स्वर्ग की दिखाई। स्वर्ग में आत्मायें कैसे छोटे-छोटे बच्चों में प्रवेश हो रही हैं। तो यह सभी स्टेजेस सीढ़ी के चित्र के रूप में दिखाई। यह सीढ़ी दिखाने का रहस्य बताते हुए बाबा ने कहा, बच्चों की बुद्धि में यह घूमता रहे कि अब हमारी क्या स्टेज है। जो अन्तिम स्टेज धारण करनी है वह लक्ष्य पहले से ही बुद्धि में रखेंगे तो पुरूषार्थ तेज चलेगा। विनाश के समय की जो सीन दिखाई उसमें आप बच्चों की अडोल अवस्था रहे। फिर बाबा ने हमें ढेर हीरे हाथ में दिये और कहा इन हीरों का टीका सभी बच्चों को लगाना। यह हीरे क्यों दे रहा हूँ? क्योंकि हीरे मिसल आत्मा मस्तक में रहती हैं। तो हरेक आत्मा सच्चा हीरा बन चमकती रहे।
अच्छा !
21-01-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"अमृतवेले – प्राप्त दिव्य सन्देश"
आज जब वतन में गई तो सभी बच्चों की ओर से बाबा को यादप्यार दी और अर्जी डाली। ब्रह्मा बाबा को भी अर्जी डाली। तो ब्रह्मा बाबा यही बोले कि मेरा हाथ तो शिवबाबा के पास है। जो करायेंगे हम वही करेंगे। हमने शिवबाबा से बोला - बाबा, इतने सभी आपके बच्चे हैं, आप सभी आशायें पूर्ण करने वाले हो। बाबा एक आश हमारी पूर्ण कर दो-तो बाबा ने फौरन एक डाल दिखाई जिसके बीच में लिखा हुआ था - भावी टाले नाहिं टले। तो हमने बाबा को कहा अगर यही भावी है तो सभी बच्चे जो इक्ट्ठे हुए हैं वे शिवबाबा और ब्रह्मा बाबा दोनों से मिलना चाहते हैं। बापदादा ने कहा जैसे हमेशा बापदादा बच्चों से मिलते हैं वैसे आज भी बच्चों से मिलेंगे। फिर शिवबाबा ने ब्रह्मा बाबा से कहा कि आपकी क्या राय है। शिवबाबा ने कहा कि जब बच्चा बड़ा होता है तो बाप और बच्चा समान होता है। तो मैं भी मुरब्बी बच्चे की राय बिना कुछ नहीं कर सकता हूँ। पहले बाप फिर बच्चा, अभी है पहले बच्चा फिर बाप। तो यही वतन में देखा - दोनों ही एक समान और एक दो के बहुत स्नेह और प्रेम में थे। जैसे दो मित्र मिलते हैं, ऐसे ही बाप-दादा दोनों की आपस में रूहरूहान की सीन दिखाई दे रही थी। ब्रह्मा बाबा कहे जो आज्ञा और शिवबाबा कहे जो बच्चे की राय। दोनों ही मुस्करा रहे थे। हमने कहा एक सेकेण्ड के लिए बच्चों से मुलाकात करके आइये। उस समय दोनों की तरफ देखा तो आँखों से ऐसा लगा कि जो शिवबाबा ने कहा वह ब्रह्मा बाबा को मंजूर था।
(बापदादा गुलजार सन्देशी के तन में पधारे - और महावाक्य उच्चारण किये)
"आपको आकारी बनाने बापदादा अभी भी कायम है और कायम रहेगा। अभी बापदादा आप रूहानी रत्नों से मिल विदाई लेते हैं फिर मिलेंगे। जो होता है उसमें कल्याण है। बापदादा और कल्याण। और कोई शब्द नहीं।"
(सन्देशी के वापस आने पर वतन का सन्देश)
बाबा ने कहा - प्यार और याद। जैसे इस समय हर एक के अन्दर बाबा देखकर आये हैं। ऐसे ही याद और प्यार हमेशा कायम रखेंगे। यह याद और प्यार जैसे कि एक रस्सी है। उस रस्सी को कायम रखना है। इस रस्सी के जरिये बीच में मिलते रहेंगे। बाबा ने कहा स्थापना का कार्य जो और जैसे आदि से चला है अन्त तक ऐसे ही चलेगा। अन्तर नहीं। जिन बच्चों को बाबा निमित्त रखते हैं उन्हों द्वारा बापदादा सभी बच्चों को डायरेक्शन देते रहेंगे। और बच्चे अनुभव करते रहेंगे कि कैसे बापदादा की इक्टठी डायरेक्शन होगी। संगमयुग पर बापदादा दोनों को अलग नहीं होना है। बाबा ने कहा सभी को दो शब्द कहना - अटल और अखण्ड। यह बापदादा दोनों की सौगात है। जैसे कोई बड़े लोग कहाँ जाते हैं तो सौगात देते हैं। ऐसे बापदादा दोनों ही दो शब्दों की सौगात देते हैं अटल और अखण्ड। इसे बुद्धि रूपी तिजोरी में ऐसा रखें जो कितना भी कोई चुराने की कोशिश करे तो भी सौगात साथ रहे। फिर बाबा ने कहा, अब थोड़े समय के लिए विदाई लेता हूँ। फिर जैसे-जैसे कार्य होगा डायरेक्शन देता रहूँगा।
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02-02-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"अव्यक्त मिलन के अनुभव की विधि"
प्रेम स्वरूप बच्चे, ज्ञान सहित प्रेम जो होता है वही यथार्थ प्रेम होता है। आप सभी का प्रेमरस बापदादा को भी खींच लाता है। सभी बच्चों के दिल के अन्दर एक आशा दिखाई दे रही है। वह कौन सी? कई बच्चों ने सन्देश भेजा कि आप हमें भी अपने अव्यक्त वतन का अनुभव कराओ। यह सभी बच्चों की आशायें अब पूर्ण होने का समय पहुँच ही गया है। आप कहेंगे कि सभी सन्देशी बन जायेंगे। लेकिन नहीं। अव्यक्त वतन का अनुभव भी बच्चे करेंगे। लेकिन दिव्य- बुद्धि के आधार पर जो अब अलौकिक अनुभव कर सकते हो वह दिव्य दृष्टि द्वारा करने से भी बहुत लाभदायक, अलौकिक और अनोखा है। इसलिए जो भी बच्चे चाहते हैं कि अव्यक्त बाप से मुलाकात करें, वह कर सकते हैं। कैसे कर सकते हैं, इसका तरीका सिर्फ यही है कि अमृत- वेले याद में बैठो और यही संकल्प रखो कि अब हम अव्यक्त बापदादा से मुलाकात करें। जैसे साकार में मिलने का समय मालूम होता था तो नींद नहीं आती थी और समय से पहले ही बुद्धि द्वारा इसी अनुभव में रहते थे। वैसे अब भी अव्यक्त मिलन का अनुभव प्राप्त करना चाहते हो तो उसका बहुत सहज तरीका यह है। अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर रूह-रूहान करो। तो अनु- भव करेंगे कि सचमुच बाप के साथ बातचीत कर रहे हैं। और इसी रूह-रूहान में जैसे सन्दे- शियों को कई दृश्य दिखाते हैं वैसे ही बहुत गुह्य, गोपनीय रहस्य बुद्धियोग से अनुभव करेंगे। लेकिन एक बात यह अनुभव करने के लिए आवश्यक है। वह कौनसी? मालूम है? अमृतवेले भी अव्वक्त स्थिति में वही स्थित हो सकेंगे जो सारा दिन अव्यक्त स्थिति में और अन्तर्मुख स्थिति में स्थित होंगे। वही अमृतवेले यह अनुभव कर सकेंगे। इसलिए अगर स्नेह है और मिलने की आशा है तो यह तरीका बहुत सहज है। करने वाले कर सकते हैं और मुलाकात का अनोखा अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
वतन में बैठे-बैठे कई बच्चों के दिलों की आवाज पहुँचती रहती है। आप सोचते होंगे - शिव- बाबा बहुत कठोर है लेकिन जो होता है उसमें रहस्य और कल्याण है। इसलिए जो आवाज पहुँ- चती है वह सुनकर के हर्षाता रहता हूँ। क्या बापदादा निर्मोही है? आप सभी बच्चे निर्मोही हो? निर्मोही बने हो? तो बापदादा निर्मोही और बच्चों में शुद्ध मोह तो मिलन कैसे होगा। बापदादा में शुद्ध मोह है? (साकार बाबा का बच्चों में शुद्ध प्यार था) शिवबाबा का नहीं है? बापदादा का है? (जैसा हमारा है वैसा नहीं) शुद्ध मोह बच्चों से भी जास्ती है। लेकिन बापदादा और बच्चों में एक अन्तर है। वह शुद्ध मोह में आते हुए भी निर्मोही हैं और बच्चे शुद्ध मोह में आते हैं तो कुछ स्वरूप बन जाते हैं। या तो प्यारे बनते या तो न्यारे बनते। लेकिन बापदादा न्यारे और प्यारे साथ-साथ बनते हैं। यह अन्तर जो रहा हुआ है इसको जब मिटायेंगे तो क्या बनेंगे? अन्तर्मुख, अव्यक्त, अलौकिक। अभी कुछ कुछ लौकिकपन भी मिल जाता है। लेकिन जब यह अन्तर खत्म कर देंगे तो बिल्कुल अलौकिक और अन्तर्मुखी, अव्यक्त फरिश्ते नजर आयेंगे। इस साकार वतन में रहते हुए भी फरिश्ते बन सकते हो। आप फिर कहेंगे आप वतन में जाकर फरिश्ता क्यों बनें? यहाँ ही बनते। लेकिन नहीं। जो बच्चों का काम वह बच्चों को साजे। जो बाप का कार्य है वह बाप ही करते हैं। बच्चों को अब पढ़ाई का शो दिखाना है। टीचर को पढ़ाई का शो नहीं दिखना है? टीचर को पढ़ाई पढ़ानी होती है। स्टूडेन्ट को पढ़ाई का शो दिखाना होता है। शो केस में शक्तियों को पाण्डवों को आना है। बापदादा तो है ही गुप्त।
अभी सभी के दिल में यही संकल्प है कि अब जल्दी-जल्दी ड्रामा की सीन चलकर खत्म हो लेकिन जल्दी होगी? हो सकती है? होगी या हो सकती है? भावी जो बनी हुई है, वह तो बनी हुई बनी ही रहेगी। लेकिन बनी हुई भावी में यह इतना नजर आता है कि अगर कल्प पहले माफिक संकल्प आता है तो संकल्प के साथ-साथ अवश्य पहले भी पुरूषार्थ तीव्र किया होगा। तो यह भी संकल्प आता है कि ड्रामा का सीन जल्दी पूरा कर सभी अव्यक्तवतन वासी बन जायें। बनना तो है। लेकिन आप बच्चों में इतनी शक्ति है जो अव्यक्त वतन को भी व्यक्त में खींचकर ला सकते हो। अव्यक्त वतन का नक्शा व्यक्त वतन में बना सकते हो। आशायें तो हरेक की बहुत हैं। ऐसे ही पहुँचती हैं जैसे इस साकार दुनिया में बहुत बड़ी आफिस होती है टेलीफोन और टेलीग्राफ की, वैसे ही बहुत शुद्ध संकल्पों की तारे वतन में पहुँचती रहती हैं। अभी क्या करना है? कई बच्चों के कुछ लोक संग्रह प्रति प्रश्न भी हैं वह भी पहुँचते हैं। कई बच्चे मूंझते हैं कि साकार द्वारा तो यह कहा कि सूक्ष्मवतन है ही नहीं, तो बाबा कहाँ गये? कहाँ से मिलने आते हैं? कहाँ यह सन्देश भेजते हैं? क्यों भोग लगाते हो? इसका भी राज है। क्यों कहा गया था? इसका मूल कारण यही है कि जैसे आप लोगों ने देखा होगा कि कभी-कभी छोटे बच्चे जब कोई चीज के पीछे लग जाते हैं तो वह चीज भल अच्छी भी होती है लेकिन हद से ज्यादा उस अच्छी चीज के पीछे पड़ जाते हैं तो बच्चों से क्या किया जाता है? वह चीज उनकी आँखों से छिपाकर यह कहा जाता है कि है ही नहीं। इसलिए ही कहा जाता है कि इसकी जो एकस्ट्रा लगन लग गई है, वह कुछ ठीक हो जाए। इसी रीति से वर्तमान समय कई बच्चे इन्ही बातों में कुछ चटक गये थे। तो उनको छुड़ाने के लिए साकार में कहते थे कि यह सूक्ष्मवतन है ही नहीं। तो यह भी बच्चों की इस बात से बुद्धि हटाने के लिए कहा गया था। लेकिन इसका भाव यह नहीं है कि अगर बच्चों से चीज छिपाई जाती है तो वह चीज खत्म हो जाती है। नहीं। यह एक युक्ति है, चटकी हुई चीज से छुड़ाने की। तो यह भी युक्ति की। अगर सूक्ष्मवतन नहीं तो भोग कहाँ लगाते हो? इस रसम रिवाज को कायम क्यों रखा? कोई भी ऐसा कार्य होता है तो खुद भी सन्देश क्यों पुछवाते थे? तो ऐसे भी नहीं कि सूक्ष्मवतन नहीं है। सूक्ष्मवतन है। लेकिन अब सूक्ष्मवतन में आने जाने के बजाए स्वयं ही सूक्ष्मवतन वासी बनना है। यही बापदादा की बच्चों में आशा है। आना-जाना ज्यादा नहीं होना चाहिए। यह यथार्थ है। कमाई किसमें है? तो बाप बच्चों की कमाई को देखते हैं और कमाई के लायक बनाते हैं। इसलिए यह सभी रहस्य बोलते रहे। अभी समझा कि क्यों कहा था और अब क्या है? सूक्ष्मवतन के अव्यक्त अनुभव को अनुभव करो। सूक्ष्म स्थिति को अनुभव करो। आने जाने की आशा अल्पकाल की है। अल्पकाल के बजाए सदा अपने को सूक्ष्मवतनवासी क्यों नहीं बनाते? और सूक्ष्मवतनवासी बनने से ही बहुत वण्डरफुल अनुभव करेंगे। खुद आप लोग वर्णन करेंगे कि यह अनुभव और सन्देशियों के अनु- भव में कितना फर्क है, वह कमाई नहीं। यह कमाई भी है और अनुभव भी। तो एक ही समय दो प्राप्ति हो वह अच्छा या एक ही चाहते हो? और कई बच्चों के मन में यह भी प्रश्न है कि ना मालूम जो बापदादा कहते थे कि सभी को साथ में ले जायेंगे, अब वह तो चले गये। लेकिन वह चले गये हैं? मुक्तिधाम में जा नहीं सकते - सिवाए बारात वा बच्चों के। बारात के बिगर अकेले जा सकते हैं? बारात तैयार है? यही सुना है अब तक कि बारात के साथ ही जायेंगे। जब बारात ही सज रही है तो अकेले कैसे जायेंगे। अभी तो सूक्ष्मवतन में ही अव्यक्त रूप से स्थापना का कार्य चलता रहेगा। जब तक स्थापना का कार्य समाप्त नहीं हुआ है तब तक बिना कार्य सफल किये हुए घर नहीं लौटेंगे, साथ ही चलेंगे और फिर चलने के बाद क्या करेंगे? मालूम है - क्या करेंगे? साथ चलेंगे और साथ रहेंगे। और फिर साथ-साथ ही सृष्टि पर आयेंगे। आप बच्चों का जो गीत है कभी भी हाथ और साथ न छूटे, तो बच्चों का भी वायदा है तो बाप का भी वायदा है। बाप अपने वायदे से बदल नहीं सकते। और भी कोई प्रश्न है? यूँ तो समय प्रति समय सब स्पष्ट होता ही जायेगा। कईयों के मन में यह भी है ना कि ना मालूम जन्म होगा वा क्या होगा? जन्म होगा? जैसे आप की मम्मा का जन्म हुआ वैसे होगा? आप बच्चों का विवेक क्या कहता है? ड्रामा की भावी को देख सकते हो? थोड़ा-थोड़ा देख सकते हो? जब आप लोग सबको कहते हो कि हम त्रिकालदर्शी बाप के बच्चे हैं तो आने वाले काल को नहीं जानते हो? आपके मन के विवेक अनुसार क्या होना चाहिए? अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर हाँ वा नाँ कहो? तो जवाब निकल आयेगा। (इस रीति से बापदादा ने दो चार से पूछा) बहुत करके सभी का यही विचार था कि नहीं होगा। आज ही उत्तर चाहते हो या बाद में! हलचल तो नहीं चम रही है। यह भी एक खेल रचा जाता है। छोटे-छोटे बच्चे तालाब में पत्थर मारकर उनकी लहरों से खेलते हैं। तो यह भी एक खेल है। बाप तुम सभी के विचार सागर में प्रश्रों के पत्थर फेंक कर तुम्हारे बुद्धि रूपी सागर में लहर उत्पन्न कर रहे हैं। उन्ही लहरों का खेल बापदादा देख रहे हैं। अभी आप सबके साथ ही अव्यक्त रूप से स्थापना के कार्य में लगे रहेंगे। जब तक स्थापना का पार्ट है तब तक अव्यक्त रूप से आप सभी के साथ ही हैं। समझ गये? वतन में मम्मा को भी इमर्ज किया था। पता है क्या बात चली? जैसे साकार रूप में साकर वतन में मम्मा बोलती थी कि बाबा आप बैठे रहिये हम सभी काम कर लेंगे। इसी ही रीति से वतन में भी यही कहा कि हम सभी कार्य स्थापना के जो करने हैं वह करेंगे। आप बच्चों के साथ ही बच्चों को बहलाते रहिये। ऐसे ही साकार में कहती थी। वही वतन में रूह-रूहान चली। आप सभी के मन में तो होगा ही-कि हमारी मम्मा कहाँ गई। अभी यह राज इस समय स्पष्ट करने का नहीं है। कुछ समय के बाद सुनायेंगे कि वह कहाँ और क्या कर रही है। स्थापना के कार्य में भी मददगार है लेकिन भिन्न नाम रूप से। अच्छा - अब तो टाइम हो गया है।
आज वतन में दूर से ही सवेरे से खुशबू आ रही थी। देख रहे थे कैसे स्नेह से चीजे बना रहे हैं। आपने देखा, भण्डारे में चक्र लगाया? चीजों की खुशबू नहीं स्नेह की खुशबू आ रही थी। यह स्नेह ही अविनाशी बनता है। अविनाशी स्नेह है ना? याद हरेक की पहुँचती है, उसका रेसपोंड लेने के लिए अवस्था चाहिए। रेसपान्ड फौरन मिलता है। जैसे साकार में बच्चे बाबा कहते थे तो बच्चों को रेसपांड मिलता था। तो रेसपान्ड अब भी फौरन मिलता है लेकिन बीच में व्यक्त भाव को छोड़ना पड़ेगा तब ही उस रेसपान्ड को सुन सकेंगे। अब तो और ही ज्यादा चारों ओर सर्विस करने का अनुभव कर रहे हैं। अब अव्यक्त होने के कारण एक और क्वालिटी बढ़ गई है। कौन सी? मालूम है? वह यह है - पहले तो बाहरयामी था, अभी अन्तर्यामी हो गया हूँ। अव्यक्त स्थिति में जानने की आवश्यकता नहीं रहती। स्वत: ही एक सेकेण्ड में सभी का नक्शा देखने में आ रहा है। इसलिए कहते हैं कि पहले से एक और गुण बढ़ गया है। अव्यक्त स्थिति में तो खुशबू से ही पेट भर जाता है। आप लोगों को मालूम है?
एक मुख्य शिक्षा बच्चों के प्रति दे रहे हैं। अब सर्विस तो करनी ही है, यह तो सभी बच्चों की बुद्धि में लक्ष्य है और लक्ष्य को पूर्ण भी करेंगे लेकिन इस लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए बीच में एक मुख्य विघ्न आयेगा। वह कौन सा, पता है? मुख्य विघ्न सर्विस में बाधा डालने के लिए कौन सा आयेगा? सभी के आगे नहीं मैजारटी के आगे आयेगा! वह कौन सा विघ्न है? पहले से ही बता देते हैं। सर्विस करते-करते यह ध्यान रखना कि मैंने यह किया, मैं ही यह कर सकता हूँ यह मैं पन आना इसको ही कहा जाता है ज्ञान का अभिमान, बुद्धि का अभिमान, सर्विस का अभिमान। इन रूपों में आगे चलकर विघ्न आयेंगे। लेकिन पहले से ही इस मुख्य विघ्न को आने नहीं देना। इसके लिए सदा एक शब्द याद रखना कि मैं निमित्त हूँ। निमित्त बनने से ही निरा- कारी, निरहंकारी और नम्रचित, निःसंकल्प अवस्था में रह सकते हैं।
अगर मैंने किया, मैं-मैं आया तो मालूम है क्या होगा? जैसे निमित्त बनने से निराकारी, निरहंकारी, निरसंकल्प स्थिति होती है वैसे ही मैं मैं आने से मगरूरी, मुरझाइस, मायूसी आ जायेगी। उसकी फिर रिजल्ट क्या होगी? आखरीन अन्त में उसकी रिजल्ट यही होती है कि चलते-चलते जीते हुए भी मर जाते हैं। इसलिए इस मुख्य शिक्षा को हमेशा साथ रखना कि मैं निमित्त हूँ। निमित्त बनने से कोई भी अहंकार उत्पन्न नहीं होगा। नहीं तो अगर मैं पन आ गया तो मतभेद के चक्र में आ जायेंगे। इसलिए इन अनेक व्यर्थ के चक्करों से बचने के लिए स्वदर्शनचक्र को याद रखना। क्योंकि जैसे-जैसे महारथी बनेंगे वैसे ही माया भी महारथी रूप में आयेगी। साकार रूप में अन्त तक कर्म करके दिखाया। क्या कर्म करके दिखाया? याद है? क्या शिक्षा दी यही कि निरहंकारी और निर्माणचित होकर एक दो में प्रेम प्यार से चलना है। एक माताओं का संगठन बनाना। जैसे कुमारियों का ट्रेनिंग क्लास किया है वैसे ही मातायें जो मददगार बन सकती हैं और हैं, उन्हों का मधुबन में संगठन रखना। कुमारियों के साथ माताओं का संगठन हो। संगठन के समय फिर आना होगा। स्नेह को देखते हैं तो ड्रामा याद आ जाता है। ड्रामा जब बीच में आता है तो साइलेन्स हो जाते हैं। स्नेह में आये तो क्या हाल हो जायेगा। नदी बन जायेंगे। लेकिन नहीं, ड्रामा। जो कर्म हम करेंगे वह फिर सभी करेंगे, इसलिए साइलेन्स। अगर सभी साथ होते तो जो अन्तिम कर्मातीत अवस्था का अनुभव था वह ड्रामा प्रमाण और होता। लेकिन था ही ऐसे इसलिए थोड़े ही सामने थे। सामने होते भी जैसे सामने नहीं थे। स्नेह तो वतन में भी है और रहेगा। अविनाशी है ना। लेकिन जो सुनाया कि स्नेह को ड्रामा साइलेन्स में ले आता है। और यही साइलेन्स, शक्ति को लायेगी। फिर वहाँ साकार में मिलन होगा। अभी अव्यक्त रूप में मिलते हैं। फिर साकार रूप में सतयुग में मिलेंगे। वह सीन तो याद आती है ना। खेलेंगे, पाठ- शाला में आयेंगे, मिलेंगे। आप नूरे रत्न सतयुग की सीनरी वतन में देखते रहते हो। जो बाप देखते हैं वह बच्चे भी देखते रहते हैं और देखते जायेंगे।
अब तो ज्वाला रूप होना है। आपका ही ज्वाला रूप का यादगार है। पता है ज्वाला देवी भी है वह कौन है? यह सभी शक्तियों को ज्वालारूप देवी बनना है। ऐसी ज्वाला प्रज्जवलित करनी है। जिस ज्वाला में यह कलियुगी संसार जलकर भस्म हो जायेगा। अच्छा -
विदाई के समय :-
सभी सेन्टर्स के अव्यक्त स्थिति में स्थत हुए नूरे रत्नों को बाप व दादा का अव्यक्त यादप्यार स्वीकार हो। साथ-साथ जो ईशारा दिया है उसको जल्दी से जल्दी जीवन में लाने का तीव्र पुरूषार्थ करना है। अच्छा गुडनाईट। सभी शिव शक्तियों और पाण्डवों प्रति बाप का नमस्ते।
06-02-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"महिमा सुनना छोड़ो – महान बनों"
सभी याद की यात्रा में बैठे हो? पढ़ाई का सार तो समझ में आ गया। उस सार को जीवन में लाकर के दुनिया को वह राज सुनाना है। रचयिता और रचना की नालेज को तो समझ गये हो। सुना तो बहुत है लेकिन अब जो सुना है वह स्वरूप बनके सभी को दिखाना है। कैसे दिखायेंगे? आपकी हर चलन से बाप और दादा के चरित्र नजर आवे। आपकी आँखों में उस ही बाप को देखें। आपकी वाणी से उन्हीं की नालेज को सुनें। हर चलन में, हर चरित्र समाया हुआ होना चाहिए। सिर्फ बाप के चरित्र नहीं लेकिन बाप के चरित्र देख बच्चे भी चरित्रवान बन जायें। आपके चित्र में उसी अलौकिक चित्र को देखें। आप के व्यक्त रूप में अव्यक्त मूर्त नजर आवे। ऐसा पुरूषार्थ करके, जो बापदादा ने मेहनत की है उसका फल स्वरूप दिखाना है। जैसे अज्ञान काल में भी कोई-कोई बच्चों में जैसे कि बाप ही नजर आता है। उनके बोल-चाल से अनुभव होता है जैसे कि बाप है। इसी रीति से जो अनन्य बच्चे हैं उन एक एक बच्चे द्वारा बाप के गुण प्रत्यक्ष होने चाहिए और होंगे। कैसे होंगे? उसका मुख्य प्रयत्न क्या है? मुख्य बात यही है जो साकार रूप से भी सुनाया है कि याद की यात्रा, अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर हर कर्म करना है। अब तो बच्चों को बहुत सामना करना है। लेकिन समर्थ साथ है इसलिए कोई मुश्किल नहीं है। सिर्फ एक बात सभी को ध्यान में रखनी है कि सामना करने के लिए बीच में रूकावट भी आयेगी। सामना करने में रूकावट कौन सी आयेगी? मालूम है? (देह अभिमान) देह अभिमान तो एक मूल बात है लेकिन सामना करने के लिए बीच में कामना विघ्न डालेगी। कौन सी कामना? मेरा नाम हो, मैं ऐसा हूँ, मेरे से राय क्यों नहीं ली, मेरा मूल्य क्यों नहीं रखा? यह अनेक प्रकार की कामनायें सामना करने में विघ्न रूप में आयेगी। यह याद रखना है हमको कोई कामना नहीं करनी है। सामना करना है। अगर कोई कामना की तो सामना नहीं कर सकेंगे, और अव्यक्त स्थिति में महान बनने के लिए एक बात जो कहते रहते हैं - वह धारण कर ली तो बहुत जल्दी और सहज अव्यक्त स्थिति में स्थित हो जायेंगे। वह कौन-सी बात? हम अभी मेहमान है। क्योंकि आप सभी को भी वाया सूक्ष्मवतन होकर घर चलना है। हम मेहमान हैं ऐसा समझने से महान् स्थिति में स्थित हो जायेंगे। मेहमान के बजाए जरा भी एक शब्द में अन्तर कर लिया तो गिरावट भी आ जायेगी। वह कौन सा शब्द? मेहमान समझना है लेकिन महिमा में नहीं आना है। अगर महिमा में आ गये तो मेहमान नहीं बनेंगे। मेहमान समझेंगे तो महान् बनेंगे। है जरा सा अन्तर। मेहमान और महिमा। लेकिन जरा सा अन्तर भी अवस्था को बहुत नीचे ऊपर कर देता है।
तुम सभी को ज्ञान कौनसा देते हो? त्रिमूर्ति का। जैसे त्रिमूर्ति का ज्ञान औरों को देते हो वैसे अपने पास भी तीन बातों का ज्ञान रखना है। तीन बातें छोड़ो और तीन बातें धारण करो। अब यह तीन बातें छोड़ेंगे तब ही स्वरूप में स्थित होंगे। सर्विस में सफलता भी होगी। बताओ कौन सी तीन बातें छोड़नी है? जो सर्विस में विघ्न डालती है, वह छोड़नी है। एक तो-कभी भी कोई बहाना नहीं देना। दूसरा कभी भी किससे सर्विस के लिए कहलाना नहीं। तीसरा - सर्विस करते कभी मुरझाना नहीं। बहाना, कहलाना और मुरझाना यह तीन बातें छोड़नी है। और फिर कौनसी तीन बातें धारण करनी हैं? त्याग, तपस्वा और सेवा। यह तीन बातें धारणा में चाहिए। तपस्वा अर्थात् याद की यात्रा और सर्विस के बिना भी जीवन नहीं बन सकती। इन दोनों बातों की सफलता त्याग के बिना नहीं हो सकती। इसलिए तीन बातें छोड़नी है और तीन बातें धारण करनी है। अगर इन तीनों बातों की धारणा हुई तो क्या बन जायेंगे? जो आपका गायन है ना वही स्वरूप बन जायेंगे। यहाँ आबू में भी आपका गायन है किस रूप में और कौन सा रूप यादगार का है? तपस्या के साथ-साथ और भी कोई मुख्य रूप का यादगार है? जिन्होंने देलवाड़ा मन्दिर ध्यान से देखा होगा उन्हें याद होगा। जैसे तपस्वी हैं, तो त्रिनेत्री भी हैं। तपस्वा के साथ-साथ याद त्रिमूर्ति की है। तो जैसा यादगार है त्रिनेत्री का, ऐसा बनना है। तीसरा नेत्र कौन सा है? ज्ञान का। ज्ञान का तीसरा नेत्र ही यादगार के रूप में दिखाया है। तपस्वी और त्रिनेत्री। तीसरा नेत्र कायम होगा तब ही तपस्वी बन सकेंगे। अगर ज्ञान का नेत्र गायब हो जाता है तो तपस्या भी नहीं रह सकती। इसलिए अब त्रिमूर्ति शब्द को भी याद करके धारणा में चलेंगे तो वह बन जायेंगे। जो शक्तियों का गायन है, जो प्रभाव है वह देखने में आयेगा। अभी गुप्त है। अभी तक शक्तियाँ गुप्त क्यों हैं? क्योंकि अभी तक अपने स्वमान, अपनी सर्विस और अपनी श्रेष्ठतायें अपने से ही गुप्त हैं। अपने से ही गुप्त होने कारण सृष्टि से भी गुप्त हैं। जब अपने में प्रत्यक्षता आयेगी तब सृष्टि में भी प्रत्यक्षता होगी।
अभी शिवरात्रि का जो पर्व आ रहा है उनको और भी धूमधाम से मनाना है। बड़े उमंग और हुल्लास से परिचय देना है। क्योंकि बाप के परिचय में बच्चों का परिचय भी आ जाता हे। बच्चे बाप का परिचय देंगे तो बाप फिर अव्यक्त में बच्चों का परिचय, बच्चों का साक्षात्कार आत्माओं को कराते रहेंगे। तो इस शिवरात्रि पर कुछ नवीनता करके दिखाना है। क्या नवीनता करेंगे? अब तक जो भाषण किये हैं वह यथा योग यथाशक्ति तो करते रहते हो लेकिन अब खास शक्ति रूप से भाषण करने हैं। शक्ति रूप का भाषण क्या होता है? ललकार करना। क्या ललकार करेंगे? और ही जोर-शोर से समय की पहचान दो। और उन्हों को बार-बार सुनाओ कि यह बाप का कर्तव्य अब जास्ती समय नहीं है। कुछ तो हाथ से गंवा दिया लेकिन जो कुछ थोड़ा समय रहा है, उनको भी गंवा न दो। ऐसे फोर्स से समय की पहचान दो। जैसे आजकल साइंस वाले ऐसे-ऐसे बाम्बस बना रहे हैं जो अपने स्थान पर बैठे हुए भी जहाँ बम लगाना होगा वहाँ का निशाना दूर बैठे भी कर सकते हैं। तो साइंस की शक्ति से तो श्रेष्ठ साइलेन्स है। जैसे वह साइंस के गोले बनाते हैं - वैसे अब शक्तियों को साइलेन्स की शक्ति से गोले फेंकने हैं। शुरू-शुरू में शक्तियों की ललकार ही चलती थी। अभी शुरू जैसे ललकार नहीं है। अभी विस्तार में पड़ गये हैं। विस्तार में पड़ने से ललकार का रूप गुप्त हो गया है। अभी फिर से बीजरूप अवस्था में स्थित होकर ललकार करो। उस ललकार से कईयों में बीज पड़ सकता है। लेकिन बीजरूप स्थिति में स्थिति रहेंगे तो अनेक आत्माओं में समय की पहचान और बाप की पहचान का बीज पड़ेगा। अगर बीजरूप स्थिति में स्थित न रहे सिर्फ विस्तार में चले गये तो क्या होगा? ज्यादा विस्तार से भी वैल्यु नहीं रहेगी। व्यर्थ हो जायेगा। इसलिए बीजरूप स्थिति में स्थित हो बीजरूप की याद में स्थित हो फिर बीज डालो। फिर देखना यह बीज का फल कितना अच्छा और सहज निकलता है। अभी तक मेहनत जास्ती की है प्रत्यक्षफल कम है। अभी मेहनत कम करो प्रत्यक्षफल ज्यादा दिखाओ। स्नेह तो सभी का है ही लेकिन स्नेह का स्वरूप भी कुछ दिखाना है। यूँ तो सदैव इस स्थिति में रहना चाहिए लेकिन खास शिवरात्रि तक हरेक बच्चे को ऐसा समझना चाहिए जैसे शुरू में आप बच्चों की भट्टी के प्रोग्राम चलते थे, इसी रीति से हरेक को समझना चाहिए शिवरात्रि तक हमको याद की यात्रा की भट्टी में ही रहना है। बिल्कुल अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने का, अपनी चेकिंग करने का ध्यान रखो। फिर इस अव्यक्त स्थिति का कितना प्रभाव निकलता है। मुश्किल नहीं है। बहुत सहज है। कारोबार में आते हुए भी भट्टी चल सकती है। यह तो आन्तरिक स्थिति है। आन्तरिक स्थिति का प्रभाव जास्ती पड़ता है।
सभी अमृतवेले मुलाकात करते हो? अभी तक ऐसा वायुमण्डल नहीं पहुँचा है। अब तक मधुबन वालों ने भी स्नेह का सबूत नहीं दिया है। चारों ओर से बहुत कम बच्चे हैं जिन्होंने स्नेह का सबूत दिया है। बाप का बच्चों से कितना स्नेह था। स्नेह का सबूत प्रैक्टिकल में कितना समय दिया। क्या दिया था? याद है? खास अपनी तबियत को भी न देखकर क्या सबूत दिया था? अपनी शारीरिक स्थिति को न देखते भी कितना समय खास सर्च लाईट देते थे। कितना समय स्नेह का सबूत दिया। आप कहते थे शरीर पर इफेक्ट आता है लेकिन बाबा ने अपने शरीर को देखा? यह स्नेह का सबूत था। अब बच्चों को भी रिटर्न में स्नेह का सबूत देना है। जो कर्म करके दिखाया वही करना है। अमृतवेले जैसे साकार रूप में करके दिखाया वैसे ही बच्चों को करना चाहिए। नहीं तो अब तक यही रिजल्ट देखी है, इस बात में अपने दिल को खुश कर लेते हैं। उठे और बैठे। लेकिन वह रूहाब, शक्ति स्वरूप की स्मृति नहीं रहती। शक्ति रूप के बदले क्या मिक्स हो गया है? सुस्ती। तो सुस्ती मिक्स होने से मुलाकात करते हैं लेकिन लाइन क्लीयर नहीं होती है इसलिए मुलाकात से जो अनुभव होना चाहिए वह नहीं कर पाते हैं। मिक्स-चर है। यहाँ शुरू करेंगे तो मधुबन-वासियों को देख सब करेंगे। मधुबन निवासी जो खास स्नेही हैं उनको खास सैक्रीफाइज (बलिदान) करना है। स्नेह में हमेशा सेक्रीफाइज किया जाता है।
अच्छा - ओम् शान्ति।
15-02-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"शिवरात्रि के अवसर पर अव्यक्त बापदादा के महावाक्य"
(सन्तरी दादी के तन द्वारा)
आज किसके स्वागत का दिन है? (बाप और बच्चों का) परन्तु कई बच्चे अपने को भी भूले हुए हैं तो बाप को भी भुला दिया है। आज कि दिन वह स्वागत है जैसे पहले होती थी? कितनी तारें आती थी! तो भूला ना। बाप जब है ही तो फिर भुलाना कहाँ तक! यह है निश्चय, यह है पढ़ाई। जब पढ़ाई कायम है तो वह कार्य भी जैसा का वैसा चलता रहेगा। वह निश्चय नहीं तो कार्य में भी जरा बच्चे अपने मर्तबे को समझते हैं कि मैं किसका बच्चा हूँ? बाप सदा है तो बच्चे भी सदा है। परन्तु देह अभिमान अपने स्वधर्म को भुला देता है। भूलने से कार्य कैसे चलेगा। आगे कैसे बढ़ेंगे? जबकि बाप ने अपना परिचय दिया है, बच्चों को भी अपना परिचय मिला हुआ है। कितना समय से इसी लक्ष्य को पक्का कराने के लिए मेहनत की गई है, उस मेहनत का फल कहाँ तक? सिर्फ याद कराने के लिए यह कह रहा हूँ, मुरली तो चलानी नहीं है। सिर्फ बच्चों से मिलने आया हूँ। बच्ची ने कहा बहुत याद कर रहे हैं, बाबा आप चलेंगे तो रिफ्रेश करेंगे। रिफ्रेश तो हो ही - अगर निश्चय है तो। फिर भी बच्चों से मिलने के लिए आना पड़ा, थोड़े समय के लिए। स्वमान की स्मृति दिलाने के लिए आये हैं। बच्चे, सदैव अपने को सौभाग्यशाली समझें। सदा सौभाग्यशाली उनको कहा जाता है जिनका बाप, टीचर और सतगुरू से पूरा कनेक्शन, पूरी लगन है।
कन्या की सगाई के बाद क्या होता है? पति के साथ लगन लग जाती है। तब उनको कहते हैं सदा सुहागिन। परन्तु वह कहाँ तक सुहागिन है? अन्दर में क्या भरा पड़ा है! कन्या सौ ब्राह्माणों से उत्तम गिनी जाती है। सगाई करने के बाद अशुद्ध बनने कारण आन्तरिक अभागिन है। यह किसको भी पता नहीं है। बाप ही बतलाते हैं सदा सुहागिन कौन है। सदा के लिए परमात्मा से पूरी लगन रहे, वो सदा सुहागिन है।
यह तो अभी पढ़ाई का समय है, बाप अपना कर्तव्य कर रहे हैं, डायरेक्शन देते पढ़ाते हैं। जब तक पढ़ाना है, पढ़ाते रहेंगे। विनाश सामने खड़ा है, उसका कनेक्शन बाप के साथ है। ऐसे मत समझो बाप की जुदाई है। जुदाई भी नहीं विदाई भी नहीं। जब तक विनाश नहीं तब तक बाप साथ है। वतन में बाप गया है कोई कार्य के लिए। समय अनुसार वह सब कुछ होता रहेगा। इसमें न कोई विदाई है, न जुदाई, जुदाई लगती है? तुमने विदाई दी थी? अगर विदाई दी होगी तो जुदाई भी होगी। विदाई नहीं दी होगी तो जुदाई भी नहीं होगी। यह ड्रामा के अन्दर पार्ट चलता रहता है। बाप का खेल चल रहा है। खेल में खेल चलता रहेगा। आगे तो बहुत ही खेल देखने हैं। इतनी हिम्मत है? जब हिम्मत रखेंगे तब बहुत देखेंगे। आगे बहुत कुछ देखना है। परन्तु कदम को सम्भाल-सम्भाल कर चलाना है। अगर सम्भल कर नहीं चलेंगे तो कहाँ खड्डा भी आ जायेगा। एक्सीडेंट भी हो पड़ेंगे। बच्चों से मिलने के लिए थोड़े समय के लिए आया हूँ। बहुत कार्य करना है। वतन से बहुत कुछ करना पड़ता है। बच्चों की भी दिल पूरी करनी पड़ती है तो भक्तों की भी दिल पूरी करनी पड़ती है। सभी कार्य काम पर ही होते हैं। बाप का परिचय मिला ,खज़ाना, लाटरी मिली। अभी बच्चों की सर्विस पूरी की। वतन से अभी सबकी करनी है। बच्चे सगे भी हैं तो लगे भी हैं। सर्विस तो सबकी करनी है। सवेरे भी आकर दृष्टि से परिचय दे दिया। दृष्टि द्वारा सर्चलाइट दे सभी को सुख देना बाप का कर्तव्य है। अभी तो सभी को म्यूजियम की सर्विस करनी है। सबको बाप का परिचय देना है। बाप ने जो सर्विस के चित्र बनवाये हैं, उस पर सर्विस करनी है। अंगुली देने से पहाड़ उठता है ना। यही गायन है गोप गोपियों ने अंगुली से पहाड़ उठाया। अंगुली नहीं देंगे तो पहाड़ नहीं उठेगा। सृष्टि पर आत्माओं का उद्धार कर, वह पहाड़ उठाकर फिर साथ ले जाना है। समूह होता है ना। अन्त में समूह बनकर सभी के साथ रहना है। पहले-पहले साक्षात्कार में लाल-लाल समूह देखा था तब तो समझ में नहीं आया परन्तु अब वही आत्माओं का समूह है, जिनको साथ ले जाने का ड्रामा के अन्दर प्रोग्राम है। सभी की सर्विस करनी है। अच्छा
सवेरे उठकर बाप की याद में रहो, क्योंकि उस समय बाप सभी को याद करते हैं। उस समय कोई-कोई बच्चे दिखाई नहीं पड़ते हैं। ढूढना पड़ता है। भल अकेले रीति याद करते हैं, परन्तु संगठन के साथ भी जरूर चलना है। जितना याद में रहेंगे उतना ही बाप के नजदीक होते जायेंगे। बाप को भुलाने से मूंझते है। बाप को सदैव साथ रखेंगे तो भूल नहीं सकते।
04-03-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“होली के शुभ अवसर”
आज आपकी खास होली है क्या? होली कैसे मनाई जाती है? होली मनाने आती है? काम की होली कौन सी है? वर्तमान पार्ट अनुसार होली कैसे मनायेंगे? वर्तमान समय कौन सी होली मनाने की आवश्यकता है? होली में कई बातें करनी होती है। लग भी जाता है। जलाया भी जाता है और साथ-साथ श्रृंगारा भी जाता है। और कुछ मिटाना भी होता है। जो भी बातें होली में करनी है वह सभी इस समय चल रही है। जलाना क्या है, मिटाना क्या है, रंगना क्या है और श्रृंगारना क्या है? यह सभी कर लेना इसको कहा जाता है मनाना। अगर इन चारों बातों में से कुछ कमी है तो मनाना नहीं कहेंगे। होली के दिनों में बहुत सुन्दर सजते हैं। कैसे सजते हैं? देव- ताओं के समान। आप सभी सजे हुए हैं? सजावट में कोई कमी तो नहीं है। सजावट में मुख्य होली का श्रृंगार कौनसा होता है? सांग जो बनाते हैं उन्हों को पहले-पहले मस्तक में बल्ब लगाते हैं। यह भी इस समय की कॉपी की हुई है। आप का भी काम का मुख्य श्रृंगार है मस्तक पर आत्मा का दीपक जलाना। इसकी निशानी बल्व जलाते हैं। लेकिन यह सभी बातें होने लिए होली का अर्थ याद रखना है। ' 'होली '' जो कुछ हुआ वह हो गया। हो लिया। जो सीन हुई होली अर्थात् बीत चुकी। वर्तमान समय जो प्याइन्ट ध्यान में रखनी है वह है यह होली की अर्थात् ड्रामा के ढाल की। जब ऐसे मजबूत होंगे तब वह रंग भी पक्का लग सकेगा। अगर होली का अर्थ जीवन में नहीं लायेंगे तो रंग कच्चा हो जाता है। पक्का रंग खाने के लिए हर वक्त सोचो हो ली। जो बीता हो ही गया। ऐसी होली मना रहे हो? वा कभी-कभी ड्रामा की सीन देखकर कुछ मंथन चलता है। ज्ञान का मंथन दूसरी बात है। लेकिन ड्रामा की सीन पर मंथन करना क्यों, क्या, कैसे। वह किस चीज का मंथन किया जाता। दही को जब मंथन किया जाता है तब मक्खन निकलता है। अगर पानी को मंथन करेंगे तो क्या निकलेगा? कुछ भी नहीं। रिजल्ट में यही होगा एक तो थकावट, दूसरा टाइम वेस्ट। इसलिए यह हुआ पानी का मंथन। ऐसा मंथन करने के बजाये ज्ञान का मंथन करना है। साकार रूप में लास्ट दिनों में सर्विस की मुख्य युक्ति कौन सी सुनाई थी? ' 'घेराव डालना' ' डबल घेराव डालना है एक तो वाणी द्वारा सर्विस का दूसरा- अव्यक्त आकर्षण का। यह ऐसा घराव डालना है जो खुद न उससे निकल सकें, न दूसरे निकल सकें। घेराव डालने का ढंग अभी तक प्रैक्टिकल में दिखाया नहीं है। म्युजियम बनाना तो सहज है। म्युजियम बनाना यह कोई घेराव डालना नहीं है। लेकिन अपने अव्यक्त आकर्षण से उन्हों को घायल करना यह है घेराव डालना। वह अभी चल रहा है। अभी सर्विस का समय भी ज्यादा नहीं मिलेगा। समस्यायें ऐसी खड़ी हो जाएँगी जो आपके सर्विस में भी बाधा पड़ने की सम्भावना होगी। इसलिए जो समय मिल रहा है उसमें जिसको जितनी सर्विस करनी है वह अधिक से अधिक कर लें। नहीं तो सर्विस का समय भी होली हो जायेगा। यानी बीत जायेगा। इसलिए अब अपने को आपे ही ज्यादा में ज्यादा सर्विस के बन्धन में बांधना चाहिए। इस एक बन्धन से ही अनेक बन्धन मिट जाते हैं। अपने को खुद ईश्वरीय सेवा में लगाना चाहिए औरों के कहने से नहीं। औरों के कहने से क्या होगा? आधा फल मिलेगा। क्योंकि जिसने कहा अथवा प्रेरणा दी उनकी भाईवारी हो जाती है। दुकान में अगर दो भाईवार (साझीदार) हो तो बंटवारा हो जाता है ना! एक है तो वह मालिक हो रहता है। इसलिए अगर किसके कहने से करते हैं तो उस कार्य में भाईवारी हो जाती है। और स्वयं ही मालिक बन करके करते हैं तो सारी मिलकियत के अधिकारी बन जाते हैं। इसलिए हरेक को मालिक बनकर करना है लेकिन मालिकपने के साथ-साथ बालकपन भी पूरा होना चाहिए। कहाँ-कहाँ मालिक बनकर खड़े हो जाते हैं, कहाँ फिर बालक होकर छोड़ देते हैं। तो न छोड़ना है न पकड़ना है। पकड़ना अर्थात् जिद से नहीं पकड़ना है। कोई चीज को अगर बहुत जोर से पकड़ा जाता है तो उस चीज का रूप बदल जाता है ना। फूल को जोर से पकड़ों तो क्या हाल होगा। पकड़ना तो है लेकिन कहाँ तक, कैसे पकड़ना है, यह भी समझना है। या तो पकड़ते अटक जाते हैं वा छोड़ते हैं तो छूट जाते हैं। दोनों ही समान रहे यह पुरुषार्थ करना है। जो मालिक और बालक दोनों रीति से चलने वाला होगा उनकी मुख्य परख यह होगी - एक तो निर्माणता होगी उसके साथ निरहंकारी, निर्माण और साथ-साथ प्रेम स्वरूप। यह चारों ही बातें उनके हर चलन से देखने में आएँगी। अगर चारों में से कोई भी कम है तो कुछ स्टेज की कमी है। अच्छा-
वतन में आज होली कैसे खेली मालूम है? सिर्फ बच्चों के साथ ही थे। आप भी होली मना रहे हो ना! वहाँ सन्देशी आई तो एक खेल किया। कौन सा खेल किया होगा? (आप ले चलो तो देखे) बुद्धि का विमान तो है। बुद्धि का विमान तो दिव्य दृष्टि से भी अच्छा है। यहाँ तो वह हो ही नहीं सकता। वह चीज ही नहीं। आज सुहेजों का दिन था ना! तो जब सन्देशियॉ वतन में आई तो साकार को छिपा दिया। एक बहुत सुन्दर फूलों की पहाड़ी बनाई थी उनके अन्दर साकार को छिपाया हुआ था। दूर से देखने में तो पहाड़ी ही नजर आती थी। तो जब सदेशी आई तो साकार को देखा नहीं। बहुत ढूढा देखने में ही नहीं आया। फिर अचानक ही जैसे छिपने का खेल करते हैं ना! ऐसा खेल देखा। फूलों के बीच साकार बैठा हुआ नजर आया। वह सीन बड़ी अच्छी थी।
अव्यक्त बापदादा हरेक को अमृत कर भोग दे रहे थे और एकएक से मुलाकात भी कर रहे थे। खास म्युजियम वालों को डायरेक्शन दे रहे थे अव्यक्ति आकर्षण से म्युजियम ऐसा बनाओ जो कोई भी अन्दर आये, देखे तो एकदम आकर्षित हो जाये।
अच्छा !!!
13-03-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“प्रेम और शक्ति के गणों की समानता”
आत्म-अभिमानी हो याद की यात्रा में बैठे हो? याद की यात्रा में भी मुख्य किस गुण में स्थित हो? याद की यात्रा में होते हुए भी मुख्य किस गुण स्वरूप हो? इस समय आप का मुख्य गुण कौन सा है? (सभी ने अपना-अपना विचार सुनाया) इस समय तो सभी विशेष प्रेम स्वरूप की स्थिति में हैं। लेकिन प्रेम के साथ-साथ वर्तमान समय की परिस्थितियों के प्रमाण जितना ही प्रेम स्वरूप उतना ही शक्ति स्वरूप भी होना चाहिए। देवियों के चित्र देखे हैं - देवियों के चित्र में मुख्य क्या विशेषता होती है? अपने चित्रों को कब ध्यान से देखा नहीं है? जब देवियों के चित्र बनाते हैं। काली के सिवाए बाकी जो भी देवियाँ हैं उन्हों के नयन हमेशा गीले दिखाते हैं। प्रेम में जैसे डूबे हुए नयन दिखाते हैं और साथ-साथ जो उनका चेहरा आदि बनाते हैं तो उनकी सूरत से ही शक्ति के संस्कार देखने में आते हैं। लेकिन नयनों में प्रेम, दया, शीतलता देखने में आती है। मातापन के प्रेम के संस्कार इन नयनों से दिखाई पड़ते हैं। उन्हों के ठहरने का ढंग वा सवारी अस्त्र-शस्त्र दिखाते हैं, वह शक्ति रूप प्रगट करता है। तो ऐसे ही आप शक्तियों में भी दोनों गुण समान होने चाहिए। जितना शक्ति स्वरूप उतना ही प्रेम स्वरूप। अभी तक दोनों नहीं हैं। कभी प्रेम की लहर में कभी शक्ति रूप में स्थित रहते हो। दोनों ही साथ और समान रहे। यह है शक्तिपन की अन्तिम सम्पूर्णता की निशानी। अभी बापदादा को अपने बच्चों के मस्तक में क्या देखने में आता है? अपने मस्तक में देखा है क्या है? प्रारब्ध देखते हो वा वर्तमान सौभाग्य का सितारा चमकता हुआ देखते हो वा और कुछ? (हरेक ने अपना-अपना विचार सुनाया) तीनों सम्बन्धों से तीनों ही बातें देखने में आती हैं। इसीलिए आपको त्रिशूल सौगात भेजी थी। तीनों ही सितारे दिखाई दे रहे हैं। एक तो भविष्य का, दूसरा वर्तमान सौभाग्य का और तीसरा जो परम- धाम में आपकी आत्मा की सम्पूर्ण अवस्था होनी है, वह आत्मा की सम्पूर्ण स्थिति का सितारा। तीनों ही सितारे दिखाई पड़ते हैं। इन तीनों सितारों को देखते रहना। कभी -कभी सितारों के बीच बादल आ जाते हैं। कभी-कभी सितारे जगह भी बदली करते हैं। कभी टूट भी पड़ते हैं। यहाँ भी ऐसे जगह भी बदली करते हैं। कभी टूट भी पड़ते हैं। कभी देखो तो बहुत ऊपर, कभी देखो तो बीच में, कभी देखो तो उससे भी नीचे। जगह भी अभी बदली नहीं करनी चाहिए। अगर बदली करो तो आगे भल बढ़ो। नीचे नहीं उतरो। अविनाशी सम्पूर्ण स्थिति में सदैव चढ़ते रहो। ऐसा सितारा बनना है। टूटने की तो यहाँ बात ही नहीं। सभी अच्छे पुरुषार्थी बैठे हुए हैं। बाकी जगह बदली की आदत को मिटाना है।
कुमारियों की रिजल्ट कैसी है? आप अपनी रिजल्ट क्या समझती हो? विशेष किस बात में उन्नति समझती हो? (हरेक ने अपना सुनाया) याद की यात्रा में कमी है। इसलिए इतनी महसूसता नहीं होती। अमृतवेले याद का इतना अनुभव नहीं होता है इसलिए जैसे साकार में यहाँ बाहर खुली हवा में सैर भी कराते थे, लक्ष्य भी देते थे, योग का अनुभव भी कराते थे। इसी रीति जो कुमारियों के निमित्त टीचर्स हैं वह उन्हों को आधा घण्टा एकान्त में सैर करावे। जैसे शुरू में तुम अलग-अलग जाकर बैठते थे, सागर के किनारे, कोई कहाँ, कोई कहाँ जाकर बैठते थे। ऐसी प्रैक्टिस कराओ। छतें तो यहाँ बहुत बड़ी-बड़ी हैं। फिर शाम के समय भी 7 से 7:30 तक यह समय विशेष अच्छा होता है। जैसे अमृतवेले का सतोगुणी टाइम होता है वैसे यह शाम का टाइम भी सतोगुणी है। सैर पर भी इसी टाइम निकलते हैं। उसी समय संगठन में योग कराओ और बीच-बीच में अव्यक्त रूप से बोलते रहो, कोई का बुद्धियोग यहाँ वहाँ होगा तो फिर अटेन्शन खैचेगा। योग की सबजेक्ट में बहुत कमी है। भाषण करना, प्रदर्शनी में समझाना यह तो आजकल के स्कूलों की कुमारियों को एक सप्ताह ट्रेनिंग दे दो तो बहुत अच्छा समझा लेंगी। लेकिन यह तो जीवन में अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करना है ना। उसी समय ऐसे समझो जैसे कि बापदादा के निमन्त्रण पर जा रहे हैं। जैसे बापदादा सैर करने आते हैं वैसे बुद्धियोग बल से तुम सैर कर सकती हो। जब याद की यात्रा का अनुभव करेंगे तो अव्यक्त स्थिति का प्रभाव आपके नयनों से, चलन से प्रत्यक्ष देखने में आयेगा। फिर उन्हों से माला बनवायेंगे। जैसे शुरू में आप खुद माला बनाती थी ना।
इस ग्रुप को उमंग उत्साह अच्छा है। बाकी एक बात खास ध्यान में रखनी है - कि एक दो के सस्कारों को जान करके, एक दो के स्नेह में एक दो से बिल्कुल मिल-जुल कर रहना है। जैसे कोई से विशेष स्नेह होता है तो उनसे कितना मिक्स हो जाते हैं। ऐसे ही सभी को एक दो में मिक्स होना चाहिए। जब कुमारियाँ ऐसा शो करके दिखायेंगी तब फिर और भी बुनमारियॉ सर्विस करने के निमित्त बनेगी। और जो निमित्त बनता है उनको उसका फल भी मिल जाता है। आप शोकेस हो अनेक कुमारियों को उमंग और उत्साह, उन्नति में लाने की। जितना ही उमंग से साकार - निराकार दोनों ने मिलकर यह प्रोग्राम बनाया है उतना ही इसका उजूरा दिखाना है। कई कुमारियों की उन्नति के निमित्त बन सकती हो। अपनी हमजिन्स को गिरने से बचा सकती हो। बुनमारियों के साथ बापदादा का काफी स्नेह है। क्योंकि बापदादा परमपवित्र है और कुमारियाँ भी पवित्र है। तो पवित्रता, पवित्रता को खींचती है। वर्तमान समय मुख्य विशेषता यही चाहिए, हरेक महारथी का फर्ज है अपना गुण औरों में भरना। जैसे ज्ञान का दान देना होता है वैसे गुणों का भी दान करना चाहिए। जैसे ज्ञान रत्नों का दान करते हो इसलिए महारथी कहलाये जाते हो, वैसे गुणों का दान भी बहुत बड़ा दान है। ज्ञान देना तो सहज है। गुणों का दान देना, इसमें जरा मेहनत है। गुणों का दान करने में - सभी महारथियों से नम्बरबन कौन है? जनक। यह गुण उसमें विशेष है। तो एक दो से यह गुण उठाना चाहिए।
(आबू म्यूजियम की तैयारी के बारे में बापदादा ने पूछा)
दूरादेशी और विशाल बुद्धि बन म्युजियम तैयार करना है। पहले ही भविष्य को सोच समय को सफल करने का गुण धारण करना है और टाइम पर तैयार भी करना है। जल्दी भी हो और सम्पूर्ण भी हो तो कमाल है। अगर कोई भी कमी रही तो उस कमी की तरफ सभी की नजर जायेगी। ऐसी कमी न हो। सभी के मुख से कमाल है, ऐसा निकलना चाहिए। सारा दैवी परिवार आपका चेहरा म्युजियम के दर्पण में देखेंगे।
अच्छा !!!
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17-04-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"आबू 'आध्यात्मिक संग्रहालय' का उद्घाटन"
सर्व स्नेही बच्चों को बाप की नमस्ते। आपका स्नेह किससे है? (कोई ने कहा बाप से, कोई ने कहा सर्विस से) और भी किससे स्नेह है? अभी भी एक बात रह गई है। बापदादा से स्नेह तो है, लेकिन साथ-साथ पुरुषार्थ से भी ज्यादा स्नेह रखना चाहिए। दैवी परिवार से स्नेह, सर्विस से स्नेह, बापदादा से स्नेह, यह तो है ही। लेकिन वर्तमान समय पुरुषार्थ से ज्यादा स्नेह रखना चाहिए। जो पुरुषार्थ के स्नेही होंगे वो सबके स्नेही होंगे। पुरुषार्थ से हरेक का कितना स्नेह है वो हरेक को चैक करना है। बापदादा से भी स्नेह इसलिए है कि वो पुरुषार्थ कराते हैं। प्रालब्ध से भी स्नेह तब होगा जब पहले पुरुषार्थ से स्नेह होगा। दैवी परिवार का भी स्नेह तब तक ले अथवा दे नहीं सकते जब तक पुरुषार्थ से स्नेह नहीं। अगर पुरुषार्थ से स्नेह है तो वो एक दो के स्नेह के पात्र बन सकते हैं। स्नेह के कारण ही यहाँ इकट्ठे हुए हो, लेकिन बापदादा के स्नेह में रहते हो। अब पुरुषार्थ से भी स्नेह रखना है। क्योंकि यही पुरुषार्थ ही तुम बच्चों की सारे कल्प की प्रालब्ध बनाता है। जितना बच्चों का स्नेह है उतना उससे बहुत अधिक बापदादा का भी है। जितना जो स्नेही है उतना उसको स्नेह का रेसपान्ड मिलता रहता है। अव्यक्त रूप से स्नेह को लेना है। अव्यक्त स्नेह का पाठ कहाँ तक पढ़ा है? वर्तमान समय का पाठ यही है। अव्यक्त रूप से स्नेह को लेना और स्नेह से सर्विस का सबूत देना है। यह अव्यक्त स्नेह का पाठ कहाँ तक पक्का किया है? अब क्या रिजल्ट समझते हो? आधे तक पहुँचे हो? मैजारटी की रिजल्ट पूछते हैं। (कोई ने कहा 25 कोई ने कहा 75, 25 और 75 में कितना फर्क है। मैजारटी 25 समझते हैं, ऐसी रिजल्ट क्यों है? इसका कारण क्या है? 25 अव्यक्त स्नेह है तो बाकी 75 कौन सा स्नेह है? मैजारटी की अगर 25 रिजल्ट रही तो जो भविष्य समय आने वाला है उसमें पास मार्क्स कैसे होगी? अब तो अव्यक्त स्नेह ही मुख्य है। अव्यक्त स्नेह ही याद की यात्रा को बल देता है। अव्यक्त स्नेह ही अव्यक्त स्थिति बनाने की मदद देता है। 25 यह रिजल्ट क्यों? कारण सोचा है? समय अनुसार अब तक यह रिजल्ट नहीं होनी चाहिए। समय के प्रमाण तो 75 होनी चाहिए। फिर ऐसी रिजल्ट बनाने के लिए क्या करेंगे? उसका तरीका क्या है? (अन्तर्मुखता) यह तो सदैव कहते हो अन्तर्मुख होना है। लेकिन ना होने का कारण क्या है?
बापदादा से, सर्विस से स्नेह तो है ही। लेकिन पुरुषार्थ से स्नेह कम है। इसका भी कारण यह देखा जाता है कि बहुत करके परिस्थितियों को देख परेशान हो जाते हैं। परिस्थितियों का आधार ले स्थिति को बनाते हैं। स्थिति से परिस्थिति को बदलते नहीं। समझते हैं कि जब परिस्थिति को बदलेंगे तब स्थिति होगी। लेकिन होनी चाहिए स्व-स्थिति की पावर जिससे ही परिस्थितियों बदलती हैं। वो परिस्थिति है, यह स्व-स्थिति है। परिस्थिति में आने से कमजोरी में आ जाते। स्व- स्थिति में आने से शक्ति आती है। तो परिस्थिति में आकर ठहर नहीं जाना है। स्व-स्थिति की इतनी शक्ति है जो कोई भी परिस्थिति को परिवर्तन कर सकती है। स्व-स्थिति की कमजोरी होने के कारण कहाँ-कहाँ परिस्थिति प्रबल हो जाती है। मैजारटी बच्चे यही कहते रहते हैं - बाबा इस बात को ठीक करो तो हम ऐसे बने। इस बात की रुकावट है। ऐसे कोई विरले हैं जो अपनी हिम्मत दिखाते हैं, कि इस परिस्थिति को पार करके ही दिखायेंगे। अर्जी डालते हैं, यह भी ठीक है लेकिन अर्जी के साथ-साथ जो शिक्षा मिलती है, उसको स्वरूप में लाते नहीं। सबकी अर्जियों की फाईल बहुत इकट्ठी हो गई हैं। जैसे धर्मराज के चौपड़े होते हैं ना। वैसे वर्तमान समय बाप- दादा पास बच्चों की अर्जियाँ बहुत हैं। हरेक का फाईल है। मुख्य बात तो सुनाई कि पुरुषार्थ से स्नेह रखना है। अपने को आप क्या कहते हो? ( पुरुषार्थी हैं) आप पुरुषार्थी हो फिर पुरुषार्थ को नहीं जानते हो, अपनी फाईल को जानते हो? अपना पुरुषार्थ क्या है उसका पता है? साकार रूप में फाईनल स्थिति देखी ना। तो साकार रूप में कर्म करके दिखाया तो उससे फाईनल स्टेज का पता पड़ा ना। फाईनल स्टेज के प्रमाण जो कुछ कमी देखने में आती है, उस कमी को शीघ्र निकालना ही पुरुषार्थ से प्यार है। धीरे-धीरे नहीं करना चाहिए। साकार का भी मुख्य गुण देखा वह कोई भी बात को पीछे के लिए नहीं छोड़ते थे। अभी ही करना है। जैसे ही वो "अभी करते थे" वैसे ही अभी करना है। ऐसे नहीं कि कब कर लेंगे, 10 व 15 दिन के बाद कर लेंगे। मधुबन जाकर पिछाड़ी को प्रैक्टिस कर लेंगे। ऐसे इन्तजार बहुत करते हैं। इन्तजाम को भूल जाते हैं। इन्तजाम नहीं करते। बातों का इन्तजार बहुत करते हैं। इन्तजार को निकाल इन्तजाम में लग जायेंगे फिर 75 रिजल्ट हो जायेगी। वर्तमान समय मैजारटी के पुरुषार्थ की रिजल्ट 75 से कम नहीं होनी चाहिए। कारण भी सुना रहे हैं, कोई समय का इन्तजार कर रहे हैं कोई समस्याओं का, कोई सम्बन्धों का, कोई फिर अपने शरीर का। लेकिन जैसे हैं, जो भी सामने हैं वैसी ही हालतो में इस ही शरीर में हमको सम्पूर्ण बनना है, यह लक्ष्य रखना है। अभी कुछ आधार होने के कारण अधीन बन जाते हैं। बातों के अधीन हैं। हरेक अपनी-अपनी कहानी अमृतवेले सुनाते हैं। कोई कहते हैं शरीर का रोग ना हो तो हम बहुत पुरुषार्थ करें। कोई कहते बन्धन हटा दो। लेकिन यह तो एक बन्धन हटेगा दूसरा आयेगा। तन का बन्धन हटेगा, मन का आयेगा, धन का आयेगा, सम्बन्ध का आयेगा फिर क्या करेंगे? यह खुद नहीं हटेंगे। अपनी ही शक्ति से हटाने हैं। कई समझते हैं बापदादा हटायेंगे या समय प्रमाण हटेंगे। परन्तु यह नहीं समझना है। अभी तो समय नजदीक पहुँच गया है, जिसमें अगर ढीला पुरुषार्थ रहा तो यह पुरुषार्थ का समय हाथ से खो देंगे। अभी तो एकएक सैकेण्ड, एक-एक श्वांस, मालूम है कितने श्वांस चलते हैं? अनगिनत है ना। तो एक-एक श्वांस, एक-एक सैकेण्ड, सफल होना चाहिए। अभी ऐसा समय है - अगर कुछ भी अलबेलापन रहा तो जैसे कई बच्चों ने साकार मधुर मिलन का सौभाग्य गंवा दिया, वैसे ही यह पुरुषार्थ के सौभाग्य का समय भी हाथ से चला जायेगा। इसलिए पहले से ही सुना रहे हैं। पुरुषार्थ से स्नेह रख पुरुषार्थ को आगे बढ़ाओ।
ऊपर से सारा खेल देखते रहते हैं। तुम भी आकर देखो तो बड़ा मजा आयेगा। बहुत रमणीक खेल बच्चों का देखते हैं। आप भी देख सकते हो। अगर अपनी ऊँच अवस्था में स्थित होकर देखो तो अपने सहित औरों का भी खेल देखने में आयेगा। बापदादा तो देखते रहते हैं। हंसी का खेल है। बड़े-बड़े महारथी शेर से नहीं डरते, मगर चींटी से डर जाते हैं। शेर से बड़ा सहज मुकाबला कर लेते, लेकिन चींटी को कुचलने का तरीका नहीं जानते। यह है महारथियों का खेल। घोड़े सवार पता है क्या करते हैं? (गैलप करते हैं) घोड़ेसवारों का भी खेल देखते हैं। महारथियों का तो सुनाया? घोड़ेसवार जो हैं - उन्हों की हिम्मत उत्साह बहुत है, पुरुषार्थ में कदम भी बढ़ाते हैं। लेकिन गैलप करते-करते (फिसल जाते हैं) फिसलते भी नहीं, गिरते भी नहीं, थकते भी नहीं। अथक भी हैं, चलते भी बहुत अच्छे हैं लेकिन जो मार्ग की सीन सीनरियॉ हैं उनमें आकर्षित हो जाते हैं। अपने पुरुषार्थ को चलाते भी रहते हैं लेकिन देखने के संस्कार जाती है। यह क्या कर रहे हैं, यह कैसे करते हैं, तो हम भी करें। रीस करते हैं। तो घोड़े सवारों में देखने का आकर्षण ज्यादा है। प्यादों की एक हंसी की बात है। खेल सुना रहे हैं ना। वो क्या करते हैं? होती है बहुत छोटी सी बात लेकिन उसको इतना बड़ा पहाड़ बना देते। पहाड़ को राई नहीं। राई को पहाड़ बनाकर उसमें खुद ही परेशान हो जाते हैं। है कुछ भी नहीं, उनको सब कुछ बना देते। ऊँचा-ऊँचा देख हिम्मतहीन हो जाते हैं। फिर भी वर्तमान समय जो भी तीनों ही हैं उनमें से आधा क्वालिटी ऐसी है जो अपने को कुछ बदल रहे हैं। इसलिए फिर भी बापदादा हर्षित होते हैं, उन्हों की हिम्मत हुल्लास, कदम आगे बढ़ता हुआ देख। हरेक से पूछे कि कौन महारथी घोड़सवार प्यादे हैं तो बता सकेंगे?
अच्छा - ओम् शान्ति।
17-04-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"ब्राह्मणों का मुख्य संस्कार - सर्वस्व त्यागी"
आप सभी का संगठन खास किसलिए मंगाया है? संगठन के लिए मुख्य चार बातें जरूरी हैं - 1 - आपस में एक दो में स्नेह 2-नजदीक सम्बन्ध 3-सर्विस की जिम्मेवारी और 4-ज्ञान-योग की धारणा का सबूत। इन चारों बातों में तैयार हो? एक दो में स्नेही कैसे बनना होता है? स्नेही बनने का साधन कौन-सा है? यह जो एक दो से दूर हो जाते हैं उसका कारण यह है - क्योंकि एक दो के संस्कार, एक दो के संकल्प नहीं मिलते हैं। सभी के संकल्प, संस्कार एक हो कैसे सकते हैं? (संस्कार तो हरेक के अपने-अपने होते हैं) संगमयुगी ब्राह्मणों का मुख्य संस्कार कौन- सा है? साकार रूप में मुख्य संस्कार कौन-सा था? जो ब्रह्मा का संस्कार वह ब्राह्मणों का। साकार ब्रह्मा का मुख्य संस्कार कौन सा था। ब्रह्मा में तो वह संस्कार सम्पूर्ण रूप से देख लिया। लेकिन ब्राह्मणों में यथा योग, यथा शक्ति है। उनका मुख्य संस्कार था - सर्वस्व त्यागी। निरहंकारी का मतलब ही है सर्वस्व त्यागी। अपना सभी कुछ त्याग कर लेते हैं। सर्वस्व त्यागी होने से सर्वगुण आ जाते हैं। दूसरों के अवगुणों को न देखना, यह भी त्याग है। त्याग का अभ्यास होगा तो यह भी त्याग कर सकेंगे। सर्वस्व त्यागी अर्थात् देह के भान का भी त्याग। तो ब्राह्मणों का मुख्य संस्कार है - सर्वस्व त्यागी। इस त्याग से मुख्य गुण कौन से आते हैं? सरलता और सहनशी- लता। जिसमें सरलता, सहनशीलता होगी वह दूसरों को भी आकर्षण जरूर करेंगे। और एक दो के स्नेही बन सकेंगे। अगर सरलता नहीं तो स्नेह भी नहीं हो सकता। एक दो में स्नेही बनना है तो उसका तरीका यह है। एक तो सर्वस्व त्यागी देह सहित। इस सर्वस्व त्यागी से सरलता, सह- नशीलता आपे ही आयेगी। सर्वस्व त्यागी की यह निशानी होगी - सरलता और सहनशीलता। साकर रूप में भी देखा ना। जितना ही नालेजकुल उतना ही सरल स्वभाव। जिसको कहते हैं बचपन के संस्कार। बुजुर्ग का बुजुर्ग, बचपन का बचपन।
आप सभी की चलन ऐसी हो जो आपकी चलन से बाप और दादा का चित्र देखने में आये। बोलने से नहीं। चलन से चित्र देखने में आयेगा। ऐसी चलन अभी है? अपकी चलन से बापदादा का चित्र देखने में आता है?
देखने में तो आता है लेकिन कभी-कभी। जब उस स्थिति में रहकर सर्विस करते हो तब आपकी वाणी से, सूरत से समझते हैं कि इन्हों को ज्ञान देने वाला बहुत ऊँचा है। कहते हैं ना आपकी चलन से बापदादा के चित्र देखते हैं। लेकिन कभी-कभी। आप भी कैमरा हो। आपके कैमरे में बापदादा के चित्र छपे हुए हैं। वह कभी-कभी दिखाते हो, क्यों? सदैव वही चित्र चलन से क्यों नहीं दिखाते हो? (पुरुषार्थ है) यह पुरुषार्थ शब्द कहाँ तक चलना है? कितना समय अभी पुरु- षार्थ करना है? क्या अन्त तक ऐसे ही कहते रहेंगे? कि हम पुरुषार्थी हैं। जैसे अब कह रहे हो ऐसे ही अन्त तक कहेंगे? पुरुषार्थ शब्द भी अब चेन्ज़ होना है। भले पुरुषार्थी तो अन्त तक रहेंगे लेकिन वह पुरुषार्थ ऐसा नहीं होगा जैसे अभी कहते हो। पुरुषार्थ का अर्थ ही है जो एक बार गलती हो फिर दूसरे बारी न हो। ऐसा पुरुषार्थ है? पुरुषार्थ का जो अर्थ है उसमें प्रैक्टिकल में आना है। एक ही भूल बार-बार हो तो उसको पुरुषार्थ कैसे कहेंगे? पुरुषार्थ का लक्ष्य जो होना चाहिए वह पुरुषार्थी बनने का भी पुरुषार्थ करना है। बाकी इस तरह का पुरुषार्थ शब्द भी निकल जाना चाहिए।
एक दो के स्नेही कैसे बन सकेंगे? सिर्फ पत्र व्यवहार करना, संगठन करना? इससे नहीं बनेंगे। यह तो स्थूल बात है। लेकिन एक दो के स्नेही तब बनेंगे जबकि संस्कार और सकल्पों को एक दो से मिलायेंगे। उसका तरीका भी बताया (सर्वस्व त्यागी) सर्वस्व त्यागी की निशानी क्या होगी? (सरलता, सहनशीलता) यह बातें जब धारण करेंगे तब स्नेही बनेंगे। सरलता लाने के लिए सिर्फ एक बात जरूर वर्तमान समय ध्यान में रखनी है। वर्तमान समय देखा जाता है - आजकल की स्थिति जो है वह कुछ स्तुति के आधार पर है। स्तुति और निंदा दो शब्द हैं ना। तो वर्तमान समय स्तुति के आधार पर स्थिति है। अर्थात् जो कर्म करते हैं उनके फल की इच्छा वा लोभ रहता है। कन्तव्य के फल की इच्छा ज्यादा रखते हो। स्तुति नहीं मिलती है तो स्थिति भी नहीं रहती। स्तुति होती है तो स्थिति भी रहती है। अगर निंदा होती है तो निधन के बन जाते हैं। अपनी स्टेज को छोड़ देते हैं और धनी को भी भूल जाते हैं। तो यह कभी नहीं सोचना कि हमारी स्तुति हो। स्तुति के आधार पर स्थिति नहीं रखना। स्तुति के आधार पर स्थिति रखी तो डगमग होते रहेंगे।
जो अनन्य हैं, उन्हों का प्रभाव दिन प्रतिदिन आपे ही निकलेगा। लेकिन प्रभाव में खुद ही प्रभावित नहीं होना है। यहाँ ही फल को स्वीकार कर लिया तो भविष्य फल को खत्म कर लेंगे। जितना गुप्त पुरुषार्थ, उतना गुप्त मददगार, उतना ही गुप्त पद बन जाता है। दूसरे भले कितनी भी महिमा करे लेकिन उनकी महिमा के प्रभाव में खुद प्रभावित नहीं होना है।
कोई भी कार्य करना है तो संगम पर ठहर कर जजमेंन्ट करना है। क्योंकि आप सभी संगमयुगी कहलाते हो। इसलिए जो भी बात होती है हर बात के दो तरफ तो होते है। दोनों तरफ से संगम पर ठहर जजमेंन्ट करनी है। न उस तरफ ज्यादा न इस तरफ ज्यादा। संगम पर ठहरना है। तुम संगमयुगी ब्राह्मणों का जो भी कन्तव्य चलता है वह संगम पर नहीं ठहरता है। इस तरफ वा उस तरफ चला जाता है। जैसे आप लोग गहस्थ व्यवहार में रहते हो और सर्विस में भी मददगार हो तो दोनों तरफ सम्भालने के लिए बीच में ठहरना पड़ेगा। दोनों के बीच की अवस्था में स्थित रहना है। संगम पर होंगे तो दोनों को ठीक करेंगे। तुम्हारा खान-पान, पहनना आदि सभी बीच का ही है। इस रीति जो जजमेंन्ट करते हो तो बीच की स्थिति में स्थित होकर दोनों तरफ की जज- मेंन्ट कर फिर चलना है। कई बातों में दिखाई पड़ता है इस तरफ वा उस तरफ विशेष हो जाते हो। होना चाहिए बीच में। बीच की अवस्था है बीज। बिन्दी। जैसे बीज सूक्ष्म होता है वैसे बीच की स्थिति भी सूक्ष्म है। उस पर ही ठहरने की हिम्मत और तरीका चाहिए।
यह भी लक्ष्य दिया हुआ है - कहाँ बालक हो चलना है, कहाँ मालिक हो चलना है। जहाँ मालिक हो चलना है वहाँ बालक नहीं बनना है। और जहाँ बालक बनना है वहाँ मालिक नहीं बनना चाहिए। यह भी बहुतों से मिसअन्डरस्टेन्डिग हो जाती है। यह भी चेकिंग बहुत रखनी है। बालकपन भी पूरा तो मालिकपन भी पूरा रखना है। इसलिए कहा कि संगम पर ठहरना है। सिर्फ बालक भी नहीं बनना है और सिर्फ मलिक भी नहीं बनना है। दोनों गुण होने से सभी ठीक चला सकेंगे। बालकपन अर्थात् निरसंकल्प हो। जो कोई भी आज्ञा मिले, डायरेक्शन मिले उस पर चलना। मालिकपन अर्थात् अपनी राय देना। किस स्थान पर मालिक बनना है वह स्थान और बात देखनी है। सभी जगह मालिक नहीं बनना है। जहाँ बालक बनना है वहाँ अगर मालिक बन जायेंगे तो फिर सस्कारों का टक्कर हो जायेगा। इसलिए आपस में एक दो के मददगार बनने के लिए दोनों ही बातें धारण करनी है। नहीं तो सस्कारों का टक्कर होगा। जहाँ बालक बनना चाहिए वहाँ मालिक बन जाते हैं तो दो मालिक बनने से फिर सस्कारों का टक्कर हो जाता है। मालिक भी बनना है, बालक भी बनना है। राय दी, मालिक बने। फिर जब फाईनल होता है तो बालक बन जाना चाहिए, फिर मालिक। किस समय बालक किस समय मालिक बनना है यह भी बुद्धि की जजमेंन्ट चाहिए। किस समय कौन-सा स्वरूप धारण करना है, वह भी विचार करना है। बहुरूपी बनना है ना। सदैव एक रूप नहीं। जैसा समय वैसा रूप। उल्टे रूप से बहुरूपी नहीं बनना है। सुल्टे रूप से बनना है।
अच्छा - ओम् शान्ति
08-05-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"मंसा वाचा कर्मणा को ठीक करने की युक्ति"
आज बाप खास एक विशेष कार्य के लिये आये हैं। यहाँ जो भी सभी बैठे हैं वह सभी अपने को निश्चय बुद्धि समझते हैं? नम्बरवार हैं। भले नम्बरवार हैं लेकिन निश्चयबुद्धि हैं? निश्चय बुद्धि का टाइटिल दे सकते हैं। निश्चय में नम्बर होते हैं वा पुरुषार्थ में नम्बर होते हैं? निश्चय में कब भी परसेन्टेज नहीं होती है, न निश्चय में नम्बरवार होते हैं। पुरुषार्थ की स्टेज में नम्बर हो सकते हैं। निश्चय बुद्धि में नम्बर नहीं होते। वा तो है निश्चय वा संशय। निश्चय में अगर जरा भी संशय है चाहे मन्सा में, चाहे वाचा में अथवा कर्मणा में, लेकिन मन्सा का एक भी संकल्प संशय का है तो संशय बुद्धि कहेंगे। ऐसे निश्चय बुद्धि सभी हैं? निश्चय बुद्धि की मुख्य परख कौन-सी है? पर- खने की कोई मुख्य बात है? आपके सामने काई नया आये उनकी हिस्ट्री आदि आप ने सुनी नहीं है, उनको कैसे परख सकेंगे? (वायब्रेशन आयेगा) कौन-सा वायब्रेशन आवेगा जिससे परख होगी? अभी यह प्रैक्टिस करनी है। क्योंकि वर्तमान समय बहुत प्रजा बढ़ती रहेगी। तो प्रजा और नजदीक वाले को परखने के लिए बहुत प्रैक्टिस चाहिए। परखने की मुख्य बात यह है कि उनके नयनों से ऐसा महसूस होगा जैसे कोई निशाने तरफ किसका खास अटेन्शन होता है तो उनके नयन कैसे होते हैं? तीर लगाने वाले वा निशाना लगाने वाले जो मिलेट्री के होते हैं, वो पूरा निशाना रखते हैं। उनके नयन, उनकी वृत्ति उस समय एक ही तरफ होगी। तो जो ऐसा निश्चय बुद्धि पक्का होगा उनके चेहरे से ऐसे महसूस होगा जैसेकि कोई निशान-बाज है। आप लोगों को मुख्य शिक्षा मिलती है एक निशान को देखो अर्थात् बिन्दी को देखो। तो बिन्दी को देखना भी निशान को देखना है। तो निश्चय बुद्धि की निशानी क्या होगी? पूरा निशाना होगा। निशान जरा भी हिल जाता है तो फिर हार हो जाती है। निश्चय बुद्धि के नयनों से ऐसे महसूस होगा जैसे देखते हुए भी कुछ और देखते हैं। उनके बोल भी वही निकलेंगे। यह है निश्चय बुद्धि की निशानी। निशान-बाज की स्थिति नशे वाली होती है तो निश्चय बुद्धि की परख है निशाना और उनकी स्थिति नशे वाली होगी। यह प्रैक्टिस अभी करो। फिर जज करो हमारी परख ठीक है वा नहीं। फिर प्रैक्टिस करते-करते परख यथार्थ हो जावेगी। दृष्टि में सृष्टि कहा जाता है ना। तो आप उनकी दृष्टि से पूरी सृष्टि को जान सकते हो।
मन्सा-वाचा-कर्मणा तीनों को ठीक करने लिये सिर्फ तीन अक्षर याद रहे। वह तीन अक्षर कौन से हैं? यह तीन अक्षर रोज मुरली में भी आते है। मन्सा के लिए है निराकारी। वाचा के लिए है निरहंकारी। कर्मणा के लिए है निर्विकारी। देवताओं का सबूत वाचा और कर्मणा का यही है ना। तो निराकारी, निरहंकारी और निर्विकारी यह तीन बातें अगर याद रखी तो मन्सा-वाचा-कर्मणा तीनों ही बहुत अच्छे रहेंगे। जितना निराकारी स्थिति में रहेंगे उतना ही निरहंकारी और निर्विकारी भी रहेंगे। विकार की कोई बदबू नहीं रहेगी। यह है मुख्य पुरुषार्थ। यह तीन बातें याद रखने से क्या बन जावेंगे? त्रिकालदर्शी भी बन जायेंगे। और भविष्य में फिर विश्व के मालिक। अभी बनेंगे त्रिलोकीनाथ और त्रिकालदर्शी। त्रिलोकीनाथ का अर्थ तो समझा है। जो तीनों लोकों के जान के सिमरण करते हैं वह हैं त्रिलोकीनाथ क्योंकि बाप के साथ आप सभी बच्चे भी हैं। अच्छा !
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18-05-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"रूहानी ज्ञान-योग की ज्योतिषी"
आप सभी ने बुलाया या बापदादा ने आप सभी को बुलाया है? किसने किसको बुलाया है? जो बच्चे बाप के कन्तव्य में निमित्त बने हुये हैं - उन्हों को यह बात हर वक्त याद रखनी है कि हमें हर समय हर हालत में एवररेडी और आलराउन्ड होना है। अगर यह दो बातें सभी में आ जाये तो सर्विस का सबूत श्रेष्ठ निकल सकता है। लेकिन नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार यह बातें हैं। आप निमित्त बने हुए बच्चों को यह सलोगन याद रखना चाहिये कि हम जो कर्म करेंगे मुझे देख और सभी करेंगे। हर समय अपने को ऐसा समझो। जैसे ड्रामा के स्टेज पर सभी के सामने हम पार्ट बजा रहे हैं। एक होता है अपने आप से रिहर्सल। एक होता है स्टेज पर सभी के सामने पार्ट बजाना। तो स्टेज पर एक्ट करने वाले का अपने ऊपर कितना ध्यान रहता है। एक-एक एक्ट पर हर समय अटेन्शन रहता है। हाथों पर, पावों पर, आँखों पर सभी पर ध्यान रहता है। अगर कोई भी बात नीचे ऊपर होती है तो एक्टर के एक्ट में शोभा नहीं देती। तो ऐसे अपने को समझकर चलना है।
तीन मिनट का रिकार्ड जब भरते हैं तो कितना ध्यान देते हैं। आप सभी भी अपने 21 जन्मों का रिकार्ड भर रहे हो तो भरते समय बहुत ध्यान रखना है। रिकार्ड में जरा भी नीचे-ऊपर हो जाता है तो वह रिकार्ड हमेशा के लिये रद्धी हो जाता है। तुम्हारा भी 21 जन्मों के लिये सतयुगी राज- धानी का जो रिकार्ड भरता है तो वह रद्द न हो जाये। रद्द हुआ तो फिर दूर हो जाते हैं। तो यह सोचना चाहिए - हमारे हर कर्म के ऊपर सभी की आँख है। एक्टर्स जब देखते हैं, हमको सभी देख रहे हैं तो खास अटेन्शन रहता है। कोई देखने वाला नहीं होता है तो अलबेलापन रहता है। तो हमेशा समझना चाहिए हम भले अकेलेपन में कुछ करते, तो भी सृष्टि के सामने हैं। सारी सृष्टि की आत्मायें चारों ओर से हमें देख रही हैं। अगर एक-एक फूल ऐसा सम्पूर्ण और सुन्दर हो जाये तो इस बगीचे की खुशबू कितनी फैल जाती! लेकिन क्यों नहीं फैलती, उसका कारण क्या? खुशबू के साथ-साथ कहाँ-कहाँ बीच में और बात भी आ जाती है। भले खुशबू कितनी हो लेकिन खुशबू से भी जल्दी फ़ैलने वाली बदबू होती है, जो जरा सी बात सारी खुशबू को समाप्त कर देती है। अविनाशी खुशबू जिसको सदा गुलाब कहते हैं। एक होता है सदा गुलाब, दूसरा होता गुलाब, तीसरा होता है रूहें गुलाब। पहला नम्बर है रूहें गुलाब। वह रूह की स्थिति में रहता है और रूहानी रूह के हमेंशा नजदीक है। ऐसे है रूहे गुलाब। और दूसरी क्वालिटी जो है वह फिर सर्विस में बहुत अच्छे रहते हैं बाकी रूहानी स्थिति में कमी है। सर्विस में, धारणा में अच्छे हैं, संस्कार शीतल हैं। खुद अपने को क्या समझते हो? किस नम्बर का फूल समझते हो? कांटे तो यहाँ हो भी न सके। हैं तो सभी गुलाब। लेकिन गुलाब में भी फर्क है। जो रूहे गुलाब होंगे उनकी निशानी क्या होगी? आप लोगों को मस्तक की रेखा परखने आती है? ज्योतिषी बने हो वा नहीं? बापदादा जो ज्ञान और योग की ज्योतिषी दिखाते हैं उनसे क्या देखते हो? हरेक के मुखड़े से, नयनों से, मस्तक से मालूम पड़ता है। इसमें भी विशेष मस्तक और नयनों से मालूम पड़ता है। आप ज्योतिष बनकर हरेक को परख सकते हो? नयनों में और मस्तक में वह रेखायें जरूर रहती हैं। किसको परखना यह भी ज्योतिष विद्या है। तो यह जो विद्या है परखने की यह कईयों में कम है। ज्ञान और योग सीखते हैं लेकिन यह परखने की ज्योतिष विद्या भी जाननी है। कोई भी व्यक्ति सामने आए तो आप लोगों को तो एक सेकेण्ड में उनके तीनों कालों को परख लेना चाहिए। एक तो पास्ट में उनकी लाइफ क्या थी और वर्तमान समय उनकी वृत्ति, दृष्टि और भविष्य में कहाँ तक यह अपनी प्रालब्ध बना सकते हैं। यह जानने की प्रैक्टिस चाहिए। यह परखने की जो नालेज है वह बहुत कम है। यह कमी अभी भरनी चाहिए। वर्तमान समय जो आने वाला है उसमें अगर यह गुण नहीं होगा, कमी होगी तो धोखे में आ जायेंगे। कई ऐसी आत्माएं आप के सामने आयेंगी जो अन्दर एक और बाहर से दूसरी होगी। परीक्षा के लिए आयेंगी। क्योंकि कई समझते हैं कि यह सिर्फ रटे हुए हैं। तो कई रंग रूप से आर्टिफीसियल रूप में भी परखने लिए आयेंगे, भिन्न-भिन्न रूप से। इसलिये यह ध्यान रखना है कि यह किसलिये आया है? उनकी वृत्ति क्या है? और अशुद्ध आत्माओं की भी बड़ी सम्भाल करनी है। ऐसे-ऐसे केस भी बहुत होंगे दिन प्रतिदिन पाप आत्मायें तो बहुत होते हैं। आपदायें, अकाले मृत्यु, पाप कर्म बढ़ते जाते हैं तो उन्हों की वासनायें जो रह जाती हैं वह फिर अशुद्ध आत्माओं के रूप में भटकती हैं। इसलिये यह भी बहुत बड़ी सम्भाल रखनी है। कोई में अशुद्ध आत्मा की प्रवेशता होती है तो उनको भगाने लिए एक तो धूप जलाते हैं और आग में चीज को तपाकर लगाते हैं और लाल मिर्ची भी खिलाते हैं। तो आप सभी को फिर योग की अग्नि से काम लेना है। हर कर्मेन्द्रियों को योगाग्नि में तपाना है तो फिर कोई वार नहीं कर सकेंगे। थोड़ा भी कहाँ ढीलापन हुआ, कोई भी कर्मेन्द्रियाँ ढीली हुई तो फिर प्रवेशता हो सकती है। वह अशुद्ध आत्माएं भी बड़ी पावरफुल होती हैं। वह माया की पावर भी कम नहीं होती। यह बहुत ध्यान रखना है। और कई प्राकृतिक आपदायें भी अपना कन्तव्य करेगी। उसका सामना करने लिये अपने में ईश्वरीय शक्ति धारण करनी है। उस समय स्नेह नहीं रखना है। उस समय शक्ति- रूप की आवश्यकता है। किस समय स्नेहमूर्त, किस समय शक्तिरूप बनना है यह भी सोचना है। इन सभी बातों में शक्तिरूप की आवश्यकता है। अगर कोई ऐसा आया और उनको ज्यादा स्नेह दिखाया तो कहाँ नुकसान भी हो सकता है। स्नेह बापदादा और दैवी परिवार से करना है। बाकी सभी से शक्तिरूप से सामना करना है। कई बच्चे गफलत करते हैं जो उन्हों के स्नेह में आ जाते हैं। वह स्नेह वृद्धि होकर कमजोर कर देता है, इसलिये अब शक्तिरूप की आवश्यकता है। अन्तिम नारा भी भारत माता शक्ति अवतार का गायन है। गोपी माता थोड़ेही कहते हैं। अब शक्ति रूप का पार्ट है। गोपीकाओं का रूप साकार में था। अब अव्यक्त रूप से शक्ति का पार्ट है। हरेक जब अपने शक्तिरूप में स्थित होंगे तो इतने सभी की शक्ति मिलाकर कमाल कर दिखायेगी। यादगार रूप में अन्तिम चित्र कौन सा दिखाया हुआ है? पहाड़ को अंगुली देने का। अंगुली, यह शक्ति की देनी है। इससे ही कलियुगी पहाड़ खत्म होगा। इसमें हरेक की अंगुली की दरकार है। अभी वह अंगुली पुरी रीति नहीं है। उठाते जरूर हैं परन्तु कोई की कभी सीधी कोई की कभी टेढ़ी हो जाती है। जब पूरी अंगुली होगी तब प्रभाव निकलेगा। एक जैसे अंगुली देनी है। इस कलियुगी पहाड़ को जल्दी अंगुली देकर फिर सतयुगी दुनिया को लाना है।
साकार के साथ स्नेह है तो जल्दी-जल्दी इस पुरानी दुनिया से चलने की तैयारी करो। आप कहेंगे अभी सर्विस कहाँ हुई है लेकिन सर्विस भी किसके लिये रुकी है? अगर आप हरेक शक्तिरूप में स्थित हो जाओ तो आप के जो भूले भटके भक्त हैं, न चाहते भी चकमक (चुम्बक) के आगे आ जायेंगे, देरी नहीं लगेगी।
अच्छा !
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09-06-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“सुस्ती का मीठा रूप – आलस्य”
सभी व्यक्त में होते अव्यक्त स्थिति में हो? अव्यक्त स्थिति किसको कहते हैं, उसकी पहचान है? पहले है अव्यक्त स्थिति की पहचान और पहचान के बाद फिर है परख तो इन दोनों बातों का ज्ञान है? अव्यक्त स्थिति किसको कहते हैं? (व्यक्त का भान न रहे) व्यक्त में कार्य करते हुए भी व्यक्त का भान कैसे नहीं रहेगा? व्यक्त में होते हुए अव्यक्त स्थिति रहे, यह कितना अनुभव होता है, आज यह सभी से पूछना है! अव्यक्त स्थिति में ज्यादा से ज्यादा कितना समय रहते हो? ज्यादा में ज्यादा कितना समय होना चाहिए, मालूम है? (आठ घंटा) सम्पूर्ण स्टेज के हिसाब से तो आठ घंटा भी कम से कम है। आप के वर्तमाँन पुरुषार्थ के हिसाब से आठ घंटा ज्यादा है? (कोई ने भी हाथ नहीं उठाया) अच्छा। जो ६ घंटे तक पहुँचे है वह हाथ उठाये। (कोई नहीं उठाते है।) अच्छा 4 घंटे तक जो पहुँचे है वह हाथ उठाये (कोई ने 4 घंटे में कोई ने 2 घंटे में हाथ उठाया) इस रिजल्ट के हिसाब से कितना समय पुरुषार्थ का चाहिए? कोर्स भी पूरा हो गया। रिवाइज कोर्स भी हो रहा है फिर भी मैजारिटी की रिजल्ट इसका क्या कारण है? सभी पुरुषार्थ भी करते हो, उमंग भी है, लक्ष्य भी है फिर भी क्यों नहीं होता है? (अटेन्शन कम है) किस बात का अटेन्शन कम है? यह तो अटेन्शन सभी रखते हैं कि लायक बने, नज- दीक आये फिर भी मुख्य कौन सा अटेन्शन कम है, जिस कारण अव्यक्त स्थिति कम रहती है? सभी पुरुषार्थी ही यहाँ बैठे हो। ऐसा कोई होगा जो कहे मैं पुरुषार्थी नहीं हूँ। पुरुषार्थी होते हुए भी कमी क्यों? क्या कारण है? अन्तर्मुख रहना चाहते हुए भी क्यों नहीं रह सकते हो? बाहरमुखता में भी क्यों आ जाते हो? ज्ञानी तू आत्मा भी तो सभी बने हैं, ज्ञानी तू आत्मा, समझदार बनते हुए फिर बेसमझ क्यों बन जाते हो। समझ तो मिली है। समझ का कोर्स भी पूरा हो चूका है। कोर्स पूरा हुआ गोया समझदार बन ही गये। फिर भी बेसमझ क्यों बनते हो? मुख्य कारण यह देखा जाता है -कोई-कोई में अलबेलापन आ गया है, जिसको सुस्ती कहते हैं। सुस्ती का मीठा रूप है आलस्य। आलस्य भी कई प्रकार का होता है। तो मैजारिटी में किस न किस रूप में आलस्य और अलबेलापन आ गया है। इच्छा भी है, पुरुषार्थ भी है लेकिन अलबेलापन होने कारण जिस तरह से पुरुषार्थ करना चाहिए वह नहीं कर पाते हैं। बुद्धि में ज्यादा ज्ञान आ जाता है तो उससे फिर ज्यादा अलबेलापन हो जाता है। जो अपने को कम समझदार समझते हैं वह फिर भी तीव्र पुरुषार्थ कर रहे हैं। लेकिन जो अपने को ज्यादा समझदार समझते हैं, वह ज्यादा अलबेलेपन में आ गये हैं। जैसे पहले-पहले पुरुषार्थ की तड़पन थी। ऐसा बन कर दिखायेंगे। यह करके दिखायेंगे। अभी वह तड़पन खत्म हो गई है। तृप्ति हो गई है। अपने आप से तृप्त हो गये हैं। ज्ञान तो समझ लिया, सर्विस तो कर ही रहे हैं। चल ही रहे हैं, यह तृप्त आत्मा इस रूप से नहीं बनना है। पुरुषार्थ में तड़प होनी चाहिए। जैसे बांधेलियाँ तड़फती हैं तो पुरुषार्थ भी तीव्र करती हैं। और जो बांधेली नहीं, वह तृप्त होती हैं तो अलबेले हो जाते हैं। ऐसी रिजल्ट मेजा- रिटी पुरुषार्थियों की देखने में आती है। हमेशा समझो कि हम नम्बरवन पुरुषार्थी बन रहे हैं। बन नहीं गये हैं। तीनों कालों का ज्ञान बुद्धि में आने से अपने को ज्यादा समझदार समझते हैं। पहले भी सुनाया था ना - जहाँ बालक बनना चाहिए वहाँ मालिक बन जाते हो, जहाँ मालिक बनना चाहिए वहाँ बालक बन जाते हो। तो अभी बच्चे रूप का मीठा-मीठा पुरुषार्थ तो कर रहे हो। राज्य के अधिकारी तो बन गये। तिलक भी आ गया लेकिन यह ढीला और मीठा पुरुषार्थ अभी नहीं चल सकेगा। जितना शक्तिरूप में स्थित होंगे तो पुरुषार्थ भी शक्तिशाली होगा। अभी पुरु- षार्थ शक्तिशाली नहीं है। ढीला-ढीला है। पुरुषार्थी तो सभी हैं लेकिन पुरुषार्थ शक्तिशाली जो होना चाहिए वह शक्ति पुरुषार्थ में नहीं भरी है। सवेरे उठते ही पुरुषार्थ में शक्ति भरने की कोई न कोई प्याइन्ट सामने रखो। अमृतवेले जैसे रूह-रूहान करते हो वैसे ही अपने पुरुषार्थ को शक्तिशाली बनाने के लिए भी कोई न कोई प्याइन्ट विशेष रूप से बुद्धि में याद रखो। अभी विशेष पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। साधारण पुरुषार्थ करने के दिन अभी बीत रहे हैं। जैसे विशेष फंक्शन आदि के प्रोग्राम रखते हो ना वैसे अब यही समझना है कि समय थोड़ा है। उसमें विशेष पुरुषार्थ का प्रोग्राम रखना है। यह विशेष पुरुषार्थ करने का लक्ष्य रख आगे बढ़ना है। अगर ऐसी ढीली रिजल्ट में रहेंगे तो जो आने वाली परीक्षायें हैं उनकी रिजल्ट क्या रहेगी? परीक्षायें कड़ी आने वाली हैं। उसका सामना करने के लिए पुरुषार्थ भी कड़ा चाहिए। अगर पुरु- षार्थ साधारण, परीक्षा कड़ी तो रिजल्ट क्या होगी?
अच्छा आज तो गोपों से मुलाकात करते हैं। अपने पुरुषार्थ में सन्तुष्ट हो? चल तो रहे हो लेकिन कितनी परसेन्टेज में? जो समझते हैं हम 75 श्रीमत पर चल रहे हैं वह हाथ उठाये। (कइयों ने हाथ उठाया) अच्छा मुख्य श्रीमत क्या है? मुख्य श्रीमत यही है कि ज्यादा से ज्यादा समय याद की यात्रा में रहना। वयोंकि इस याद की यात्रा से ही पवित्रता, दैवीगुण और सर्विस की सफलता भी होगी। जो 75 श्रीमत पर चलते हैं उन्हों का याद का चार्ट कितना है? याद का चार्ट भी 75 होना चाहिए। इसको कहेंगे पूरी-पूरी श्रीमत पर चलने वाले। आज खास गोपों को आगे किया है। गोपियों को पीछे मंगाया है क्योंकि जब भी मिलन की कोई बात होती है तो गोपियों जल्दी आ जाती हैं। गोप देखते-देखते रह जाते हैं। गोपों को जिम्मेवारी भी देनी है। यूँ तो दी हुई है। जैसे आप लोगों के चित्र में दिखाया है ना कि द्वापर के बाद ताज उतर जाते हैं। तो यह जिम्मेवारी का ताज भी दिया हुआ तो है लेकिन कभी-कभी जानबूझ कर भी उतार देते हैं और माया भी उतार देती है। सतयुग में तो ताज इतना हल्का होता है जो मालूम भी नहीं पड़ता है कि कुछ बोझ सिर पर है। सतयुग की सीन सीनरियॉ सामने आती हैं कि नहीं? सतयुग के नजारे स्वयं ही सामने आते हैं या लाते हो? जितना-जितना आगे बढ़ेंगे तो न चाहते हुए भी सतयुगी नजारे स्वयं ही सामने आयेंगे। लाने की भी जरूरत नहीं। जितना-जितना नजदीक होते जायेंगे, उतना-उतना नजारे भी नजदीक होते जायेंगे। सतयुग में चलना है और खेल-पाल करना है। यह तो निश्चित है ही आज जो भी सभी बैठे हैं उनमें से कौन समझता है कि हम श्रीकृष्ण के साथ पहले जन्म में आयेंगे? उनके फैमिली में आयेंगे वा सखी सखा बनेंगे वा तो स्कूल के साथी बनेंगे? जो समझते हैं तीनों में से कोई न कोई जरूर बनेंगे ऐसे निश्चय बुद्धि कौन है? (सभी ने हाथ उठाया) नजदीक आने वालों की संगमयुग में निशानी क्या होगी? यहाँ कौन अपने को नजदीक समझते हैं? यज्ञ सर्विस वा जो बापदादा का कार्य है उसमें जो नजदीक होगा वही वहाँ खेल-पाल आदि में नजदीक होंगे। यज्ञ की जिम्मेवारी वा बापदादा के कार्य की जिम्मेवारी के नजदीक जितना-जितना होंगे उतना वहाँ भी नजदीक होंगे। नजदीक होने की परख कैसे होगी? हरेक को अपने आप से पूछना चाहिए-जितनी बुद्धि, जितना तन-मन-धन और जितना समय लौकिक जिम्मेवारियों में देते हो उतना ही इस तरफ देते हो? इस तरफ ज्यादा देना चाहिए। अगर ज्यादा नहीं तो उसका वजन एक जैसा है? अगर दोनों तरफ का एक जितना है तो भी नजदीक गिना जायेगा। इस हिसाब से अपने को परखना है। अभी तक रिजल्ट में लौकिक जिम्मेवारियों का बोझ ज्यादा देखने में आता है। खास मुख्य गोपों को यह बातें जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि आज का दिन जो बीता कितना समय लौकिक जिम्मेवारी तरफ दिया और कितना समय अलौकिक वा पारलौकिक जिम्मेवारी तरफ दिया? कितने मददगार बने? यह चेकिंग करते रहेंगे तो पता पड़ेगा कि कौन सा तरफ खाली है। सभी प्रकार की परिस्थितियों में रहते हुए भी कम से कम दोनों तरफ एक जितना जरूर होना चाहिए। कम नहीं। उस तरफ कम हुआ तो हर्जा नहीं। इस तरफ कम नहीं होना चाहिए। तो फिर लौकिक जिम्मेवारी के कमी को भी ठीक कर सकेंगे। परमार्थ से व्यवहार भी सिद्ध हो जाता है। कोई-कोई कहते हैं पहले व्यवहार को ठीक कर परमार्थ में लगें। यह ठीक नहीं है। तो यह खास ध्यान रखना है। खास गोपों में बापदादा की उम्मीद है जो गोप ही पूरी कर सकते हैं। गोपियों से नहीं हो सकती। वह कौन सी उम्मीद है? पाण्डवों का मुख्य कार्य यही है जो कई प्रकार के लोग और कई प्रकार की परीक्षायें समय प्रति समय आने वाली भी हैं और आती भी रहती हैं तो परीक्षा और लोगों की परख यह विशेष गोपों का काम है। क्योंकि पाण्डवों को शक्तियों की रखवाली करने का मुख्य कार्य है। शक्तियों का काम है तीर लगाना लेकिन हर प्रकार की परीक्षा और लोगों को परखना और शक्तियों की रखवाली करना पाण्डवों का काम है। इतनी जिम्मेवारी उठा सकते हो? कि शक्तियों के रखवाली की आप को आवश्यकता है? कहाँ-कहाँ देखने में आता है पाण्डव अपनी रखवाली की औरों से उम्मीद रखते हैं लेकिन पाण्डवों को अपनी रखवाली के साथ चारों ओर की रखवाली करनी है। बेहद में दृष्टि होनी चाहिए न कि हद में। अगर अपनी ही रखवाली नहीं करेंगे तो फिर औरों की मुश्किल हो जायेगी।
अच्छा !!!
16-06-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बड़े-से-बड़ा त्याग - अवगुणों का त्याग”
सभी किस स्वरूप में बैठे हो? स्नेह रूप में बैठे हो या शक्तिरूप में बैठे हो? इस समय कौन सा रूप है? स्नेह में शक्ति रहती है। दोनों इकट्ठी रह सकती है? क्यों नहीं कहते हो दोनों रूप हैं। बापदादा के साथ स्नेह क्यों है? बापदादा से स्नेह इसलिए है कि जो शिवबाबा का मुख्य टाइटिल है उसमें आप समान होना है। मुख्य टाइटिल कौन सा है? (सर्वशक्तिवान) तो सिर्फ स्नेह जो होता है तो वह कभी टूट भी सकता है लेकिन स्नेह और शक्ति दोनों का जहाँ मिलाप होता है, वहाँ आत्मा और परमात्मा का मिलाप भी अविनाशी अमर रहता है। तो अपने इस मिलन को अविनाशी बनाने के लिये क्या साधन करना पड़ेगा? स्नेह और शक्ति दोनों का मिलाप अपने अन्दर करना पड़ेगा- तब कहेंगे आत्मा और परमात्मा का मिलाप। मेले में तो बैठे हो लेकिन कई मेले में बैठे हुए भी दोनों के मिलाप को भूल जाते हैं। अच्छा - आज तो खास कुमारियों के प्रति ही आये हैं। आज कुमारियों का कौन सा दिन है? (मिलन दिन) रिजल्ट भी आप सभी की निकली है? अपने रिजल्ट को खुद जान सकती हो? त्रिकालदर्शी बनी हो? इस ग्रुप से नम्बरवन कुमारी कौन निकली है? (चन्द्रिका) नम्बरवन का मुख्य कर्तव्य है - अपने जैसा नम्बरवन बनाना। कुमारियों को तो अभी एक और पेपर देना हैं। वह पेपर प्रैक्टिकल का, न कि लिखने का। अभी तो एक माँस की ट्रेनिंग की रिजल्ट में नम्बरवन हैं। लेकिन फाइनल रिजल्ट में भी नम्बरवन आ सकती हैं। लेकिन उसके लिये कौन सी मुख्य बात बुद्धि में रखनी है? त्याग और सेवा तो है, एक और मुख्य बात है। सभी से बड़ा बलिदान कौन सा है और सभी से बड़ा त्याग कौन सा है? दूसरों के अवगुणों को त्याग करना- यह है बड़ा त्याग। सभी से बड़ी सेवा कौन सी है? जो श्रेष्ठ सेवाधारी होंगे - वह मुख्य कौन सी सेवा करेंगे? जो तीव्र पुरुषार्थी होंगे वह तीव्र पुरुषार्थ का सबूत क्या दिखावेंगे? कोई भी सामने आये तो एक सेकेण्ड में उनको मरजीवा बनाना। कहते हैं ना एक धक से मरजीवा बनना। जिसको झाटकू कहते हैं। अधूरा नहीं छोड़ना। श्रेष्ठ सेवा यह है जो उनको झट झाटकू बना देना। अभी तो आप तीर मारते हो, बाहर फिर जिन्दा हो जाते हैं। लेकिन ऐसा समय आना है जो एक सेकेण्ड में नजर से निहाल कर देंगे तब सर्विस की सफलता और प्रभाव निकलेगा। अभी मरजीवा भल बनाते हो - झाटकू नहीं बनाते हो। दो बातों की कमी है। वह बातें आ जाये तो अपना रगरंग दूसरों को भी चढ़ा सकती हो। आप झाटकू बनी हो? (पुरुषार्थी हैं) कहाँ-कहाँ भूल होती रहे तो उनको पुरुषार्थी कहेंगे? प्रतिज्ञा यह करनी है - आज से हम झाटकू बन गये हैं फिर जिन्दा नहीं होंगे, पुरानी दुनिया में। हिम्मतवान को फिर मदद भी मिलती है। हिम्मत के कारण बापदादा का स्नेह रहता है। तो दो बातों की कमी बता रहे थे एक मुख्य कमी है एकान्तवासी कम रहते हो। और दूसरी कमी हैं एकता में कम रहते हो। एकता और एकान्त में बहुत थोड़ा फर्क है। एकान्त स्थूल भी होती है, सूक्ष्म भी होती हैं। इसमें दोनों की आवश्यकता है। एकान्त के आनन्द के अनुभवी बन जाये तो फिर बाहरमुखता अच्छी नहीं लगेगी। अभी बाहरमुखता में सभी का इन्ट्रेन्ट जास्ती जाता है। इन दो बातों की मैजारिटी में कमी है। अव्यक्त स्थिति को बढ़ाने के लिए इसकी बहुत आव- श्यकता है। इससे ज्यादा एकान्त में रुचि रखनी है। कुमारियों को अब जाना है - प्रैक्टिकल कोर्स देने। अब कुमारियों को तीन सौगात देनी हैं। सौगात है स्नेह की निशानी। तो तीनों सम्बन्ध से तीन सौगात देते हैं। जो कभी भूलना नहीं है। बापदादा की सौगात सदा अपने साथ रखना। सौगात छिपाकर रखनी होती है ना। तो बाप के रूप में एक शिक्षा की सौगात याद रखना। क्या शिक्षा देते हैं कि सदैव बापदादा और जो निमित्त बनी हुई बहने हैं और जो भी दैवी परिवार है उन सबसे आज्ञाकारी वफादार बनकर के चलना है, यह है बाप के रूप में शिक्षा की सौगात। और फिर टीचर के रूप में कौन सी शिक्षा की सौगात देते हैं? शिक्षा को ग्रहण किया जाता है ना। जहाँ भी जाओ तो टीचर के रूप में एक तो ज्ञान ग्रहण, दूसरा गुणग्रहाक यह शिक्षा हमेशा याद रखना और गुरू के रूप से यही शिक्षा है सदैव एक मत होना है, एकरस और एक के ही याद में रहना। विष्णु को जो अलंकार दिखाये हैं वह अभी शक्तिरूप में धारण करने हैं। यह अलंकार सदैव अपने सामने रखो। यह है बाप टीचर और गुरू तीनों सम्बन्ध से शिक्षा की सौगात - खास कुमारियों प्रति। अब देखेंगे कौन-कौन इस सौगात को साथ रखते हैं।
वह लोग भी रिफाइन बम्बस बना रहे हैं ना। तुमको भी अब रिफाइन बम्बस गिराने हैं। चींटी मार्ग की सर्विस बहुत की। बम गिराने से झट सफाई हो जाती है। तो विशेष आवाज फैलाने की सर्विस करनी है, उसको बम गिराना कहते हैं। जितना जो रिफाइन होंगे उतना रिफाइन बम फेकेंगे - औरों पर। अभी आलराउण्डर बनना है। जितना-जितना बनेंगी उतना-उतना नजदीक आयेंगी सतयुगी परिवार के। आलराउण्ड चक्र लगाकर अपना शो दिखाना -तब है ट्रेनिंग की रिजल्ट। प्रैक्टिकल कोर्स के बाद फिर रिजल्ट देखेंगे। अभी फिर एक माँस के बाद मधुबन में आओ तो अकेले नहीं आना है। अभी ट्रेनिंग पूरी नहीं है। प्रैक्टिकल अभी है। अकेला कोई को लौटना नहीं है। कोई न कोई का पण्डा बनकर आना है, यात्री ले आना है। बापदादा की इन कुमारियों में बहुत उम्मीद है। उम्मीदवार रत्नों को बापदादा नयनों में समाते हैं।
अच्छा !!!
18-06-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“पार्टियों के साथ”
1. पाठशाला में जाते हो। पाठशाला का पहला पाठ क्या है? अपने को मरजीवा बनाना मरजीवा अर्थात् अपने देह से, मित्र सम्बन्धियों से, पुरानी दुनिया से मरजीवा। यह पहला पाठ पक्का किया है? (संस्कार से मरजीवा नहीं हुए हैं) जब कोई मर जाता है तो पिछले संस्कार भी खत्म हो जाते हैं। तो यहाँ भी पिछले संस्कार क्यों याद आना चाहिए। जबकि जन्म ही दूसरा तो पिछली बातें भी खत्म होनी चाहिए। यह पहला पाठ है मरजीवा बनने का। वह पक्का करना है। पिछले पुराने संस्कार ऐसे लगने चाहिए जैसे और कोई के थे। हमारे नहीं। पहले शूद्रों के थे अभी ब्राह्मणों के हैं। तो पुराने शूद्रों के संस्कार नहीं होने चाहिए। पराये संस्कार अपने क्यों बनाते हो। जो पराई चीज को अपना बनाते हैं उनको क्या कहेंगे? चोर। तो यह भी चोरी क्यों करते हो? यह तो - शूद्रों के संस्कार हैं, ब्राह्मणों के नहीं। शूद्र की चीज को ब्राह्मण स्वीकार क्यों करते हैं। अछूत के साथ कपड़ा भी लग जाये तो नहाते हैं। तो शुद्रपने का संस्कार ब्राह्मणों को लग जाये तो क्या करना चाहिए? उसके लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। जैसे गन्दी चीज को नहीं छूते हैं वैसे पुराने सस्कारों से बचना है। छूना नहीं है। इतना जब ध्यान रखेंगे तो औरों को भी ध्यान दिला सकेंगे।
2. सर्विस की सफलता का मुख्य गुण कौन सा है? नम्रता। जितनी नम्रता उतनी सफलता। नम्रता आती है निमित्त समझने से। निमित्त समझकर सर्विस करना। नम्रता के गुण से सब आप के आगे नमन करेंगे। जो खुद झुकता है उसके आगे सभी झुकते हैं। निमित्त समझकर कार्य करना है। जैसे बाप शरीर का आधार निमित्त मात्र लेते हैं। वैसे आप समझो कि निमित्त मात्र शरीर का आधार लिया है। एक तो शरीर को निमित्त मात्र समझना है और दूसरा सर्विस में अपने को निमित्त सम- झना। तब नम्रता आयेगी। फिर देखो सफलता आप के आगे चलेगी। जैसे बापदादा टेम्प्रेरी देह में आते हैं ऐसे देह को निमित्त आधार समझो। बापदादा की देह में अटेचमेंन्ट होती है क्या? आधार समझने से अधीन नहीं होंगे। अभी देह के अधीन होते हो फिर देह को अधीन करेंगे।
3. गायन है दृष्टि से सृष्टि बनती है। कौन सी सृष्टि बनती है और कब बनती है? दृष्टि और सृष्टि का ही गायन क्यों है, मुख का गायन क्यों नहीं हैं? काम पर पहले-पहले क्या बदली करते हैं? पहला पाठ क्या पढ़ाते हैं? भाई-भाई की दृष्टि से देखो। भाई-भाई की दृष्टि अर्थात् पहले दृष्टि को बदलने से सब बातें बदल जाती हैं। इसलिए गायन है कि दृष्टि से सृष्टि बनती है। जब आत्मा को देखते हैं तब यह सृष्टि पुरानी देखने में आती है। पुरुषार्थ भी मुख्य इस चीज का ही है दृष्टि बदलने का। जब यह दृष्टि बदल जाती है तो स्थिति और परिस्थिति भी बदल जाती है। दृष्टि बदलने से गुण और कर्म आप ही बदल जाते हैं। यह आत्मिक दृष्टि नैचुरल हो जाये।
4. जो संगमयुग पर अपना राजा बनता है वह प्रजा का भी राजा बन सकता है। जो यहाँ अपना राजा नहीं वह वहाँ प्रजा का राजा भी नहीं बन सकता। संगमयुग पर ही सभी सस्कारों का बीज पड़ता है। यहाँ के बीज के सिवाए भविष्य का वृक्ष पैदा हो नहीं सकता है। यहाँ बीज न डालेंगे तो फूल कहाँ से निकलेगा। यहाँ अपना राजा बनने से क्या होगा? अपने को अधिकारी समझेंगे। अधिकारी बनने के लिए उदारचित का विशेष गुण चाहिए। जितना उदारचित्त होंगे उतना अधि- कारी बनेंगे। ब्राह्मणों का मुख्य कर्तव्य है पढ़ना और पढ़ाना। इसमें बिजी रहेंगे तो और बातों में बुद्धि नहीं जायेगी। तो अपने को पढ़ने और पढ़ाने में बिजी रखो। आजकल तक बापदादा ने सुनाया है कि मन की वृत्ति और अव्यक्त दृष्टि से सर्विस कर सकते हो। अपनी वृत्ति-दृष्टि से सर्विस करने में कोई बन्धन नहीं हैं। जिस बात में स्वतन्त्र हो वह सर्विस करनी चाहिए।
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06-07-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“टीचर्स के मति अव्यकत बापदादा के महावाक्य”
सभी किसकी याद में बैठे हो? एक की याद थी या दो की? जो एक की याद में थे वह हाथ उठायें। और जो दो की याद में थे वह भी हाथ उठायें। अब वह दो कौन? अव्यक्त-वतन वासी वा व्यवत्त-वतन वासी?
आप सब टीचर्स हैं ना। आपके पास कोई जिज्ञासू आवे तो उनको कौन-सा ठिकाना देंगे? सबको टीचिंग क्या देंगे! आप टीचर्स हो ना। टीचर्स अपने टीचर का शो निकालते हैं। जिज्ञासू को जिस रीति परवरिश करेंगे और ठिकाना देंगे, वह टीचर का शो निकलता है। अगर आप जिज्ञासू को आने से ही अव्यक्त वतन का ठिकाना देंगे जो रास्ता कब देखा ही नहीं तो पहुँचेगा कैसे? पहले एड्रेस कौन-सी दी जाती है? आप संग्रहालय में क्या समझाते हो? जिज्ञासू को क्या परिचय दते हो? उनको कौन-सा रास्ता कौन-सा ठिकाना देते हो? बीज किसने बोया? बीज तो बीज ही है। वह बीज भल सड़ भी जाए तो भी समय पर कुछ न कुछ टालियॉ आदि निकलती रहती हैं। बरसात पड़ती है तो निकल आता है। आप बीज को भूल जायेंगे तो फिर रास्ता कैसे बतायेंगे। बीज कौन-सा है?
टीचर्स को युक्तियुक्त बोलना चाहिए। छोटे बच्चे तो नहीं हो ना। छोटे बच्चों को पहले से सिख- लाया जाता है। आप तो सीखकर इतनी परवरिश लेकर यही इम्तहान देने आये हो। पढेंगे भी साथ में, इम्तहान भी देंगे। दोनों कार्य इक्ट्ठे चलेगें। बाप अव्यक्त वतन वासी बना तो आप सबको भी अव्यक्त-वतन वासी बनना है। वह किस सृष्टि पर खड़े होकर अव्यक्त बने? आपको कहाँ बनना है? (साकार सृष्टि में तो सृष्टि है।) सृष्टि तो आलराउन्ड गोल है। सृष्टि में सारा झाड़ समाया हुआ है। परन्तु सृष्टि का ठिकाना संगम है। संगम की बलिहारी है, जिसने आप सबको यहाँ पहुँचाया। आप अपने ठिकाने को भूल जायेंगे तो फिर क्या होगा? ठिकाना देने वाला ही भूल जायेगा। ठिकाना पक्का याद करो। और बापदादा की जो पढ़ाई मिली है उनको धारण करो। धारण से धीर्यवत, अन्तर्मुख होंगे। धीर्यता होगी। उससे कलियुगी रावण राज्य को खत्म कर देंगे। तो अब पढ़ाई का समय और साथ-साथ इम्तहान देने का भी समय है। यह हुई एक बात। दूसरी बात-जरा ध्यान में रखो इतना समय जो बापदादा की गोद में पले और उसमें जो भी कुछ कर्तव्य किया। ऐसे भी हैं कोई ने लज्जा के मारे बापदादा से छिपाया है। ऐसे नहीं बाप को पहचान कर सब बाप के आगे रखा है। नहीं। जो समझते हैं ऐसी भी भूल हुई है, जैसे कोई अपनी दिल से भूल नहीं करते हैं, परन्तु अलबेलाई से हो जाती है। तो यह सबको लिखना है। बापदादा से जिन्होंने बात की है, उन्हों को भी लिखना है। सारी जन्म-पत्री। यह अन्त का समय है ना 84 का हिसाब-किताब यहाँ ही चूक्तू होता है। सच्चाई और सफाई-अक्षर तो कहते हैं परन्तु सच्चाई और सफाई में भी अन्तर क्या है, उस अर्थ को नहीं समझा है। अब उसकी गहराई में जाकर सारा लिखना है।
अव्यक्त वतन से बापदादा बच्चों की सर्विस करने और साफ बनाने लिए आये हैं। बाप सेवा करते हैं। आप सब बच्चों का शुरू से लेकर अन्त तक बाप सेवक है। सेवा करने लिए सदैव तैयार है। बाप को कितना फखुर रहता है -हमारे बच्चे सिरमोर हैं, आँखों के सितारे हैं। जिन्हों के लिए स्वर्ग स्थापन हो रहा है। उस स्वर्ग के वासी बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं। जो सम- झते हैं हम लक्ष्मी-नारायण बनेंगे इतना लक्ष्य पकड़कर फिर भी गफलत करते रहते हैं तो इस- लिए बापदादा फिर भी सेवा करने आये हैं।
अन्त मती सो गति। समय नहीं है। समय बहुत नजदीक आने वाला है। आप शेरनी शक्तियों को भुजायें तैयार करनी है। तब तो दुश्मन से लड़ सकेंगे। अगर अपने में फैथ नहीं, बापदादा का पूरा परिचय नहीं तो न शक्ति सेना बन सकेंगे न वह शक्तिपने के अलंकार आयेंगे। अगर शक्ति अपने में धारण की तो फिर आने वालों को भी पूरा ठिकाना मिलेगा। और वह सब शक्ति सेना में दाखिल हो जायेंगे, तो अपने को सच्चा जेवर बनाने, खामियों सब निकाल स्वच्छ बनना है। सोना कितने किस्म का होता है! कोई 9 कैरेट कोई 12... प्युअर तो प्युअर ही है। कैरेट अक्षर निकल जाना चाहिए। अपने को करेक्ट करना है। अब करेक्शन करने का समय मिला है। यह बात अच्छी रीति ध्यान पर रखना।
धरत परिये धर्म न छोड़िये। कौन-सा धर्म, कौन-सा धरत? मालूम है? एक बार वायदा कर लिया, बापदादा को हाथ दे दिया फिर धर्म को नहीं छोड़ना है। पवित्रता नारी जो होती है वह अपने धर्म में बहुत पक्की रहती है। आप सच्ची-सच्ची सीता, सच्ची लक्ष्मी हो जो महालक्ष्मी बनने वाली हो। उन्हों का लक्ष्य क्या है? अपने लक्ष्य से अगर उतर गये हो तो फिर जम्प मार लक्ष्य पर बैठ जाओ।
बापदादा आप बच्चों की सेवा करने के लिए सेवक बनकर शिक्षा दे रहे हैं। फरमान नहीं करते हैं परन्तु शिक्षा देते हैं। क्योंकि बाप टीचर भी है, सतगुरू भी है। अगर बच्चों को फरमान करे और न माने तो वह भी अच्छा नहीं इसलिए शिक्षा देते हैं।
आज फाउंडेशन पड़ता है। छोटे बच्चों को तो टीका लगाया जाता है, उनको रास्ता बताना होता है, क्या करना है, कैसे बनना है। आप सब को रास्ता तो मिल ही गया है। आप औरों को रास्ता बताने निमित्त बने हो। अगर उस रास्ते में कोई गड़बड़ है, अगर-मगर है तो वह निकालनी है। अब भी नहीं निकलेगी तो आगे के लिए जो शक्तियों को बल मिला है, वह खलास समझो। ऐसा बापदादा को कहाँ-कहाँ दिखाई दे रहा है। तब संगठन में सबके दिलों को एक दिल बनाने, पूरा रास्ता बताने लिए आप को बुलाया है। आप सबको खुशी होगी। छोटे-छोटे बच्चों को कहाँ फंक्शन आदि पर ले जाना होता है तो बहुत खुशी होती है ना। वहाँ जायेंगे, नया कपड़ा पहनेंगे। आप सबको नया कपड़ा श्रृंगार आदि कौन-सा करना है? एक तरफ सेवक भी बनना है। सेवक अर्थात् पतित आत्माओं का उद्धार करना। उस सेवा को कायम रखो। आप सबको आने वाली आत्माओं का कैसे उद्धार करना है? कैसे विघ्नों को हटाना है? तीर में जौहर भरा हुआ होगा तो एक ही बार में पूरा तीर लग जायेगा। उस आत्मा का भी उद्धार हो जायेगा। छोटी-छोटी बच्चियों किसका उद्धार करेंगी। कौन-सा पहाड़ उठाया है? पहाड़ उठाने कौन निमित्त हैं? गोप-गोपिकायें। गोपिका भी तब हो सकती जब पूरा कर्तव्य करे। पहाड़ भी तब उठा सकते जब इतना बल हो। तो इन सब बातों की रोशनी देने लिए बाप को आना पड़ा है।
बाकी टीका तो एक ही बार बापदादा ने लगा दिया है। लाल टीका है या चन्दन का? लाल टीका है सूरत की शोभा। चन्दन है आत्मा की शोभा। तुमको जेवर भी सूरत की शोभा के लिए नहीं पहनने हैं। वस्त्र भी दुनिया को दिखाने लिए नहीं पहनने हैं। परन्तु आन्तरिक अपने को ऐसा श्रृंगारना है, जेवर ऐसा पहनना है जो लोकपसन्द हो वा दिल पसन्द हो। लोक पसन्द है बाहर मुख। दिल पसन्द है अन्तर्मुख। तो अन्तर्मुख होकर अपने को सजाना है। लोकपसन्द भाषण किया। खुश किया परन्तु भाषा का जो रहस्य, तन्त है वह एक-एक अपनी कर्मेन्द्रियों में बस जाए, तब ही शोभा हो। कर्तव्य से दैवी गुणों का शो हो। दैवी गुणों का क्लास होता है -सजने के लिए। ऐसे ही सज-सज कर संगम से पार होना है। फिर अपने घर जाना है। फिर घर से कहाँ जाना है? ससुरघर। कन्या ससुरघर जाती है अगर पढ़ी लिखी अक्लमंद नहीं होती तो सासु-ससुर कहते हैं इनमें चलने, उठने, बैठने का अक्ल नहीं है। अब तुमको ससुरघर चलना है। तो बाप कदम-कदम को नहीं देखते। परन्तु एक-एक कर्मेन्द्रियों को देखेंगे। कदम अक्षर मोटा है। कदम से पदम मिलता है। वह अपने कल्याण के लिए है। परन्तु कर्मेन्द्रियों को सजाना है। गहना पहनकर चलना है। अब सजने के लिए किसके पास आये हो? बापदादा के घर सो अपने घर आये। सजाने वाले कौन है? जब सगाई होती है तो गहना बनाने वाला एक होता है, पहनाने वाला दूसरा होता है। तो अब सजकर चलना है। समझा। समझू, सयानी टीचर तो हो ही। 15 दिन की रिजल्ट मानो अन्त की रिजल्ट है। इतना पुरुषार्थ कर प्रवीण टीचर सबको बनना है। फिर जब अपना सेन्टर जाकर सम्भालेंगे तो आने वाले को दृष्टि से सतयुगी सृष्टि दिखा सकेंगे। वह तब होगा जब गहने अच्छी रीति पहनेगे। अगर लापरवाही से कोई गहना गिर गया तो नुक- सान भी होगा और सजावट की शोभा भी चली जायेगी। इसलिए न शोभा को हटाना है, न गहनों को उतारना है। बड़ी बात नहीं है। छोटी समझेंगे तो सहज समझ आयेगी। अगर कहेंगे बहुत बड़ा ऊँचा ज्ञान है, तो कोई नहीं आयेगा। कहेंगे 7 दिन में जीवन मुक्ति की प्राप्ति होती है तो लाटरी लेने सब आयेंगे। लाटरी सब डाल देते हैं, फिर लाटरी में किसको कुछ मिल जाता है तो नसीब मानते हैं। चांस है देखे नसीब किसका लगता है। किसको बड़ी लाटरी मिलती है, किसको छोटी। पेपर लास्ट में होगा। 3 नम्बर निकलेंगे। जितना जो पुरुषार्थ करेंगे उतना नम्बर मिलेगा। नसीब को बनाना खुद के हाथ में है। तो अब लाटरी की इन्तजार में नहीं रहना, इन्तजाम करते रहना। तो कैसे योग से एम पूरा होगा। परन्तु निरसंकल्प जो होता है उनको ही सच्चा योगी कहा जाता हैं। उनमें जो लक्ष्य है वह धारण करना है। अच्छा - बहुत कुछ खजाना मिला। अब उसको अपने पास जमा करो। और गऊ मिसल उगारना है। आप सब गायें भी हो। गोपियां भी हो। पहाड़ को कैसे उठाना है। गऊ बन कैसे उगारना है, यह कर्तव्य इस भट्टी में करना है। बहु रूप धारण कर बहु कर्तव्य बजाना है। भट्टी के अन्दर सब अनुभव करना है। जितना पुरुषार्थ करेंगे उतनी रिजल्ट निकलेगी। सम्पूर्ण अवस्था को प्राप्त करने का लक्ष्य क्या है? साधन क्या है? उसको जानना है। साधन मिल जायेंगे तो लक्ष्य को पकड़ लेंगे।
रत्नों की भी परख चाहिए ना। पूरी वैल्यु रखनी है। जेवर की वैल्यु जवाहरी ही परख सकेगा। जिनको परख नहीं उनके पास वैल्यु नहीं रहेगी। आप सबकी परख तब होगी जब जेवर पर पालिश हो, चमक हो, तब वैल्यु भी होगी और पहचानने वाले पहचान लेंगे। चमत्कार नहीं होगा तो खरीद कौन करेंगे? समझेंगे पता नहीं सच्चा है वा झूठा जेवर है। पैसा भी देवें, जेवर भी काम का न हो इससे क्या फायदा। तो आप सबकी पूरी सजावट हो जायेगी, तो खरीददार भी निकलेंगे और आप वतनवासी बनते जायेंगे।
16-07-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“मधुबन निवासी गोपों के साथ अव्यक्त बापदादा की अव्यक्त रूह-रूहान”
आज किसलिये निमन्त्रण दिया है? मिलने के लिए ही बुलाया है या और कुछ लक्ष्य है? आप सभी इस संगठन में किस निमन्त्रण पर आये हो? मधुबन निवासी गोपों का किस लक्ष्य से यह समागम हुआ है?बापदादा तो इसलिए आये हैं कि आप सभी बच्चों का परिवर्तन समारोह है। तो परिवर्तन समारोह पर आये हुए हैं। भट्टी में किस लिए बैठे थै? परिवर्तन के लिए। तो आज परिवर्तन समरोह में मिल रहे हैं। परिवर्तन की उत्कंठा सभी में बहुत अच्छी है। उत्साह भी है, हिम्मत भी है। आज की भट्टी के चार्ट से ये देखने में आ रहा है। इन गोपों के परिवर्तन के उत्साह से आपको (कुमारका दादी को) क्या-क्या देखने में आता है? जैसे आंधी को देखकर मालूम पड़ता है कि वर्षा आने वाली है। इस परिवर्तन के उमंग से आप क्या समझती हो? परि- वर्तन क्या पहचान देता हैं? इस परिवर्तन का उमंग खास इस बात की पहचान देता ह कि अभी प्रत्यक्षता का समय नजदीक है। पहले प्रत्यक्षाता होगी फिर इस सृष्टि पर स्वर्ग प्रख्यात होगा। तो यह पहचान देता है प्रत्यक्षता की। वर्तमान समय देखा जाता है कि हरेक वत्स अपनी-अपनी प्रत्यक्षता प्रत्यक्ष रूप में ला रहे हैं। पहले गुप्त था। जैसे सूर्य के रोशनी में सितारे छिपे हुये होते हैं। जब सूर्य दूसरे किनारे चला जाता है तो सितारों की चमक प्रत्यक्ष होती है। तो अब ज्ञान-सूर्य व्यक्त किनारा छोड़ अव्यवत्त वतन में खड़े हैं तो आप व्यक्त देश में सितारों की प्रत्यक्षता देखने में आती है। पहले से अभी एक दो को ज्यादा पहचानते हो ना। जैसे कहते हैं ना एक-एक स्टार में दुनिया है। लेकिन यह पता नहीं हैं कि एक-एक स्टार की कौन सी दुनिया है। इस आकाश के सितारों में कोई दुनिया नहीं है। लेकिन यह धरनी के चैतन्य सितारों में एक-एक दुनिया है। अपनी दुनिया का साक्षात्कार होता जाता है? थोड़े समय में ही देखेंगे जो संगम का सम्पूर्ण रूप आप सभी का है। मालूम है संगम का सम्पूर्ण रूप कौनसा है? शक्तियों और पाण्डवों के रूप में। तो यह संगम का जो सम्पूर्ण स्वरूप है वह अब प्रत्यक्ष आप सभी को अपने में महसूस होगा। मालूम पड़ेगा हमारे कौन से भक्त हैं, कौन सी प्रजा है। जो प्रजा होगी वह तो नजदीक आयेंगे और जो भक्त होंगे वह आखरीन पिछाड़ी में चरणों पर झुकेंगे। तो हरेक सितारे के अन्दर जो राजधानी अथवा दुनिया बनी हुई है, वह अब प्रत्यक्ष रूप लेगी। जब वह प्रत्यक्षता होगी तब सभी अहो प्रभु का नारा लगायेंगे। अब यह समय नजदीक आ रहा है। इसलिए अब जल्दी परिवर्तन को लाना है।
आप रचयिता हो ना! जैसा रचयिता होगा वैसी रचना होगी। रचयिता को अपने रचना का ध्यान रखना है। इस समय पर बापदादा को भी हर्ष हो रहा है - स्नेह और साहस यह दो चीज देख- कर के हर्षित हो रहे हैं। हरेक में स्नेह और साहस है। उसका सिर्फ बीज नहीं लेकिन बीज का कुछ प्रत्यक्ष फल भी देखने में आता है। वह प्रत्यक्षफल देखकर हर्षित होते हैं। लेकिन जब फल निकलता है तो फिर उनकी बहुत सम्भाल करनी पड़ती है। तो आप भी इस फल की बहुत सम्भाल रखना। क्योंकि यह फल बापदादा को ही स्वीकार कराना है। लेकिन यह खबरदारी रखनी है कि बीच में माया रूपी चिडिया फल को जूठा न कर देवे। फल जब पक जाता हैं तो फिर पक्षी उसको खाने की चिड़िया बहुत कोशिश करते हैं तो यह माया भी इस फल को खाने के लिए कोशिश करेगी। लेकिन आप लोगों ने किसके लिए फल पकाया है! तो सम्भाल भी पूरी करनी है। अभी अजुन फल निकला है पूरा पक जायेगा फिर स्वीकार करेंगे। तब तक सम्भाल करनी है। फल के सम्भाल के लिए क्या प्रयत्न करेंगे? उसका क्या साधन है आपके पास? जरा भी फल अगर जूठा हो गया फिर स्वीकार थोड़ेही होगा। अब उम्मीद तो बहुत अच्छी है। सभी के मस्तक पर आत्मा का सितारा तो देखने में आता ही है लेकिन उसके साथ-साथ आपके मस्तक पर क्या चमक रहा है? उम्मीदों का सितारा चमकता हुआ बाप दादा देख रहे हैं। सिर्फ इस सितारे के आगे बादल को आने नहीं देना। नहीं तो सितारा छिप जायेगा। यह जो उम्मीद का सितारा चम- कता हुआ देखने में आ रहा है उसकी परवरिश करते रहना। कभी भी कोई कार्य में चाहे स्थूल, चाहे सूक्ष्म एक तो कभी साहस नहीं छोड़ना दूसरा आपस में स्नेह कायम रखना। तो फिर पाण्डवों की जय-जयकार हो जायेगी। जय-जयकार के नारे सुनने में आयेगें। अभी तो कभी कुछ कभी कुछ हो रहा है। जब जय-जयकार हो जाती है तो फिर नाटक समाप्त हो जाता है। फिर आप सभी को अव्यक्त स्थिति का झंडा दूर से देखने में आयेगा। आप सभी की अव्यक्त, एक्य रस स्थिति का झंडा सारी दुनिया को लहराता हुआ देखने में आयेगा। आज जो यह परिवर्तन की प्रतिज्ञा का कंगन बांधा है - यह अविनाशी रखना। कंगन उतारना नहीं है। कोई भी कंगन बाधते हैं तो जब तक वह कार्य सफल न हो तब तक उतार नहीं सकते हैं। तो यह कंगन भी कभी उतारना नहीं है।
आगे चल कर बहुत अच्छी सीन-सीनरियॉ आयेंगी। लेकिन वह सीन-सीनरियॉ आपका परिवर्तन ही नजदीक लायेगा। अपनी वैल्यू का भी पता पड़ेगा जब अपनी वैल्यु का पता पड़ेगा तब वह नशा चढ़ेगा। अभी कभी क्या वैल्यु रखते हो कभी क्या वैल्यु रखते हो। भाव में हेर-फेर होते हैं। जैसे कोई चीज निकलती है तो पहले भाव थोड़ा नीचे ऊपर होता है फिर फाइनल हो जाता है। अपनी वैल्यू का अभी फाइनल मालूम नहीं पड़ा है। कभी समझते हो बहुत वैल्यू है, कभी कम समझते हो। लेकिन यथार्थ हर एक की वैल्यू क्या है - वह अभी जल्दी मालूम पड़ेगा।
यह मधुबन जहाँ आप बैठे हो यह सारी सृष्टि के बीच में क्या है? मधुबन है बापदादा का सारी दुनिया के बीच में बड़े प्यार से बनाया हुआ शो केस। जैसे शोकेस में बहुत अच्छी-अच्छी चीज़ें रखते हैं और सभी चीजों से ऊंची चीज शोकेश में रखते हैं। तो मधुबन सारी दुनिया के लिए शोकेस है। उस शोकेस में आप अमूल्य रत्न रखे हुए हो। यह मालूम है कि हम मधुबन शोकेस में अमूल्य रत्न हैं? शोकेस में जो चीज़ें रखी जाती हैं उसका खास ध्यान रखा जाता है। तो आप सभी भी शोकेस के मुख्य रत्न हो। आप को देखकर सभी समझेंगे कि अन्दर माल क्या है। अगर एक बात याद रखेंगे तो शोकेस से शो करेंगे। ' 'जो कर्म हम करेंगे हमको देख और करेंगे '' हरेक को समझना चाहिये मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे आगे पीछे सारी राजधानी है। मेरी प्रजा मेरे भक्त मुझे देख रहे हैं। हम अकेले नहीं हैं। अकेला जो काम किया जाता है उसका इतना विचार नहीं रहता है। अभी अपने को, अपनी प्रजा और भक्तों के बीच में समझना है। सभी आप को फालो करेंगे। जो भी सेकेण्ड-सेकेण्ड कदम चलता है वह तुम्हारा संस्कार आपको जो भक्त और प्रजा है, उनमें भरता जायेगा। जैसे माँ के पेट में गर्भ होता है तो कितनी सम्भाल करते हैं। क्योंकि माँ जो करेगी जो खायेगी वह संस्कार बच्चे में भरेंगे। तो आप सभी को भी इतना ध्यान रखना है जो कर्म हम करेंगे हमको देख हमारी प्रजा और हमारे द्वापर से कलियुग तक के भक्त भी ऐसे बनेंगे। मंदिर भी ऐसा बनेगा। मूर्ति भी ऐसी बनेगी, मंदिर को स्थान भी ऐसा मिलेगा। इसलिए हमेशा लक्ष्य रखो कि हम अभी अकेले नहीं हैं। हम मास्टर रचयिता के साथ रचना भी है। माँ बाप जब अकेले होते हैं तो जो भी करें। लेकिन अपनी रचना के सामने होते हैं तो कितना ध्यान देते हैं। तो आप भी रचयिता हो! जो रचयिता करेंगे वही रचना करेगी। जब अपने ऊपर जिम्मेवारी समझेंगे तो जिम्मेवारी पड़ने से अलबेलापन और आलस्य खत्म हो जायेगा। कौन सी जिम्मेवारी? जो कर्म हम करेंगे। हरेक सितारे को अपनी दुनिया की परख रखनी है। फिर कोई की छोटी दुनिया है, कोई की बड़ी दुनिया है।
समारोह किया ही इसलिए जाता है कि जीवन भर के लिए यादगार बन जाये। यह समारोह भी इसलिए है। आज का दिन यादगार है। समारोह में निशानी दी जाती है ना। बापदादा कौन सी निशानी देते हैं? बाप दादा दो बातों की सौगात देते हैं - खास मधुबन वालों को। शिक्षा तो मिली है कि साहस और स्नेह नहीं छोड़ना है। सौगात क्या दे रहे हैं? (1) एक ही लगन में हर वक्त रहना। हमारा तो एक दूसरा न काई। और (2) ऐकानामी में रहना। एक की याद और एकानामी। यह दो सौगात आज के समारोह की है। कितना भी कोई अपनी तरफ खीचें लेकिन एक के सिवाय दूसरा न कोई। यह है मन्सा की बात। और एकानामी है कर्मणा की। तो मन्सा और कर्मणा दोनों ही ठीक रहे तो वाणी ठीक रहेगी। यह दो बातें खास ध्यान पर रखनी है। जैसे साकार रूप में भी देखा ना कि एक लग्न और एकानामी। इसलिए याद है मन्त्र कौन सा सुनाते थे? कम खर्च बालानशीन। एकानामी के साथ यह मन्त्र भी नहीं भूलना। एकानामी भी हो, साथ-साथ जितनी एकानामी उतना ही फ्राक दिल भी हो। फ्राक दिल में एकानामी समाई हुई हो। इसको कहा जाता है कम खर्च बालानशीन।
आप और सभी से एकस्ट्रा भाग्यशाली हो क्यों? कहते हैं ना कि जिनके घर में बहुत मेहमान आते हो वह बहुत भाग्यशाली होते हैं। तो तुम एकस्ट्रा भाग्यशाली हो क्योंकि सभी से ज्यादा मेहमान यहा आते हैं। लेकिन मेहमाननिवाजी भी करनी पड़ती है। मेहमाननिवाजी ऐसी करनी है जो अपने घर से पूरा ही मेहमान हो जाये। आप की मेहमाननिवाजी उनको सदा के लिए मेहमान बना दे। बापदादा साकार में यह करके दिखाते थे। एक दिन की मेहमाननिवाजी में पूरे जीवन के मेहमान बनाना। ऐसी मेहमाननिवाजी करनी है। इसको कहा जाता है सन शोज फादर। अच्छा- इस क्लास के अन्दर सभी से ज्यादा पुरुषार्थी कौन है? नम्बरवन कौन है? एक दो से सभी अच्छे हैं। यह तो कमाल है। यही ग्रुप है जो सभी ने नम्बरवन नम्बर उठाया है। क्योंकि कोई ने किस बात में विशेष पुरुषार्थ किया है, कोई ने किस बात में किया है। इसलिये सभी नम्बरवन हैं। इस ग्रुप ने यह नम्बरवन का ठप्पा अपने ऊपर लगाया है।
यह नम्बरवन का ठप्पा नहीं भूलना। मुख्य चार बातें नहीं भूलनी है। एक तो शिक्षा, सावधानी, ठप्पा और एक दो को आगे कर उन्नति को पाना। यह चार बातें कभी भूलनी नहीं है।
अच्छा !!!
17-07-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“अव्यक्त स्थिति बनाने की युक्तियाँ”
अव्यक्त स्थिति अच्छी लगती है या व्यक्त में आना अच्छा लगता है? अव्यक्त स्थिति में आवाज है? आवाज से परे रहना चाहते हो? जब आप सभी आवाज से परे रहने का प्रयत्न करते हो, अच्छा भी लगता है। तो फिर बापदादा को व्यक्त में क्यों बुलाते हो? हर वक्त अव्यक्त स्थिति में रहें, उसके लिए क्या पुरुषार्थ करना है? सिर्फ एक अक्षर बताओ। जिस एक अक्षर से अव्यक्त स्थिति रहे। कौन सा एक अक्षर याद रखेंगे जो अव्यक्त स्थिति बन जाये? मन्सा-वाचा-कर्मणा तीनों ही व्यक्त में होते अव्यक्त रहे इसके लिए एक अक्षर बताओ? आत्म- अभिमानी बनना, आत्मभिमानी अर्थात् अव्यक्त स्थिति। लेकिन उस स्थिति के लिए याद क्या रखें? पुरुषार्थ क्या करें?
धीरे-धीरे ऐसी स्थिति सभी की हो जायेगी। जो किसके अन्दर में जो बात होगी वह पहले से ही आप को मालूम पड़ेगा। इसलिए प्रैक्टिस करा रहे हैं। जितना-जितना अव्यक्त स्थिति में स्थित होंगे, कोई मुख से बोले न बोले लेकिन उनके अन्दर का भाव पहले से ही जान लेंगे। ऐसा समय आयेगा। इसलिए यह प्रैविटस कराते हैं। तो पहली बात पूछ रहे थे कि एक अक्षर कौन सा याद रखें? अपने को मेहमान समझना। अगर मेहमन समझेंगे तो फिर जो अन्तिम सम्पूर्ण स्थिति का वर्णन है वह इस मेहमान बनने से होगा। अपने को मेहमान समझेंगे तो फिर व्यक्त में होते हुए भी अव्यक्त में रहेंगे। मेहमान का किसके साथ भी लगाव नहीं होता है। हम इस शरीर में भी मेहमान हैं। इस पुरानी दुनिया में भी मेहमान है। जब शरीर में ही मेहमान हैं तो शरीर से भी क्या लगन रखें। सिर्फ थोड़े समय के लिए यह शरीर काम में लाना है।
यहा मेहमान बनेंगे तो फिर वहाँ क्या बनेंगे? जितना यहाँ मेहमान बनेंगे उतना ही फिर वहाँ विश्व का मालिक बनेंगे। इस दुनिया के मालिक नहीं हैं। इस दुनिया में हम मेहमान हैं। नई दुनिया के मालिक हैं। यह जो व्यक्त भाव में आ जाते हैं तो उसका कारण यही है जो अपने को मेहमान नहीं समझते हैं। वस्तुओं पर भी अपना अधिकार समझते हैं। इसलिए उसमें अटैचमेंट हो जाती है। अपने को अगर मेहमान समझो तो फिर यह सभी बातें खत्म हो जायें।
अपना बैक बैलेन्स भी नोट करना है। जितना कमाते हैं उतना खाते हैं या कुछ जमा भी होता है। टोटल हिसाब निकाला है कितना जमा किया है? उस जमा के हिसाब से खुद अपने से सन्तुष्ट हो?(नहीं) तो जमा करने का और कोई समय रहा हुआ है? कितना समय है? समय भी नहीं है, सन्तुष्ट भी नहीं तो फिर क्या होगा? अभी सभी को यह खास ध्यान रखना चाहिए। अपना बैलेन्स बढ़ाना चाहिए। कम से कम इतना तो होना चाहिए जो खुद सन्तुष्ट रहे। अपनी कमाई से खुद भी सन्तुष्ट नहीं रहेंगे तो औरों को क्या कहेंगे। एक एक को इतना जमा करना है। क्या सिर्फ अपने लिए ही जमा करना है या औरों के लिए भी करना है। औरों को दान करने के लिये जमा नहीं करना है?
ऐसा समय अभी आयेगा जो सभी भिखारी रूप में आप लोगों से यह भीख माँगेंगे। तो उन्हों को नहीं देंगे? इतना जमा करना पड़ेगा ना। अपने लिए तो करना ही है लेकिन साथ-साथ ऐसा दृश्य सभी के सामने होगा। जो आज अपने को भरपूर समझते हैं वह भी भिखारी के रूप में आप सभी से भीख माँगेंगे। तो भीख कैसे दे सकेंगे? जब जमा होगा ना। दाता के बच्चे तो सभी देने वाले ठहरे। आप सभी के एक सेकेण्ड की दृष्टि के, अमूल्य बोल के भी प्यासे रहेंगे। ऐसा अन्तिम दृश्य अपने सामने रख पुरुषार्थ करो। ऐसा न हो कि दर पर आयी हुई कोई भूखी आत्मा खाली हाथ जाये। साकार में क्या करके दिखाया? कोई भी आत्मा असन्तुष्ट होकर न जाये। भल कैसी भी आत्मा हो लेकिन सन्तुष्ट होकर जाये। तो ऐसी बातें सोचनी चाहिए। सिर्फ अपने लिए नहीं।
अभी आप रचयिता हो। आप के एक-एक रचना के पीछे फिर रचना भी है। माँ-बाप को जब तक बच्चे नहीं होते हैं, माँ-बाप की कमाई अपने प्रति ही होती है। जब रचना होती है तो फिर रचना का भी पूरा ध्यान रखना पड़ता है। अब अपने लिए जो कमाई थी वह तो बहुत समय खाया, मनाया। लेकिन अब अपनी रचना का भी ध्यान रखना है। आपने अपनी रचना देखी है? कितनी रचना है। छोटी है व बड़ी है। बापदादा हरेक की रिजल्ट देखते हैं। उस हिसाब से कह देते हैं। एक-एक सितारे की कितनी रचना है। जितनी यहाँ रचना होगी उतना वहाँ बड़ा राज्य होगा। यहाँ कितनी रचना रची है? अपनी रचना देखी है? भविष्य को जानते हो? रचयिता तो सभी हैं लेकिन बड़ी रचना की है या छोटी रचना की हैं? (आश तो बड़ी की है) बड़ी रचना के साथ फिर जिम्मेवारियों भी बड़ी है।
अच्छा !!!
19-07-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“ज़ीरो और हीरो बनो”
आज किसलिये बुलाया है? (बल भरने लिये), बल भरने के लिये बुलाया है तो किस बात की निर्बलता समझती हो? विशेष किस बात में बल भरना है? सर्विस में भी बल किससे भरेगा? वह तो अपने में कितना बल भरा है वह सिर्फ देखना है। आप सभी का नाम ही है शिव शक्ति। तो शक्तियों में शक्ति तो है ही वा शक्ति स्वरूप बन रही हो? बापदादा तो आये ही हैं देखने कि कौन सा जेवर बापदादा के सृष्टि के श्रृंगार करने लिये तैयार हुये हैं। अभी जेवर तो तैयार हो गये। लेकिन तैयार होने वाला क्या होता है? पालिश। अभी सिर्फ पालिश होनी है। मुख्य बात जिसकी पालिश होनी है वह यही है, सभी को ज्यादा से ज्यादा अव्यक्त स्थिति में रहने का विशेष समय देना है। अव्यक्त स्थिति की पालिश ही बाकी रही है। आपस में बातचीत करते समय आत्मा रूप में देखो। शरीर में होते हुए भी आत्मा को देखो। यह पहला पाठ है इसकी ही आवश्यकता है। जो भी सभी धारणायें सुनी है उन सभी को जीवन में लाने लिये यही पहला पाठ पक्का करना पड़ेगा। यह आत्मिक दृष्टि की अवस्था प्रैक्टिकल में कम रहती है। सर्विस की सफलता ज्यादा निकले, उसका भी मुख्य साधन यह है कि आत्म-स्थिति में रह सर्विस करनी है। पहला पाठ ही पालिश है। इसकी ही आवश्यकता है। कब नोट किया है सारे दिन में यह आत्मिक दृष्टि, स्मृति कितनी रहती है? इस स्थिति की परख अपनी सर्विस की रिजल्ट से भी देख सकते हो। यह अवस्था शमा है। शमाँ पर परवाने न चाहते हुए भी जाते हैं।
आप सभी टीचर तो हो ही। बाकी टीचर से क्या बनने लिये भट्टी में आये हो? आप लोग बहुत सोचते हो। परन्तु है बहुत सहज। अपने समान बनाने लिये बुलाया है। अपने समान अर्थात् जीरो बनाने। जीरो में बीज वा बिन्दी भी आ जाती है। और फिर साथ-साथ कोई ऐसा कार्य हो जाता है तो उनको भी जीरो बनाना है। तो खास जीरो याद करने लिये बुलाया है। टीचर का रूप तो बहुत बड़ा है लेकिन बहुत बड़ा फिर बहुत छोटा बनाने आया हूँ। सभी से छोटा रूप है बाप का। और आप सभी का भी। तो अब जीरो को याद रखेंगे तो हीरो बनेंगे। हीरो एक्टर भी होता है और बापदादा का प्रिय भी है। रत्न को भी हीरा कहा जाता है। और मुख्य एक्टर को भी हीरो कहा जाता है। तो अब समझा किसलिए बुलाया है? सिर्फ दो अक्षर याद करने लिए बुलाया है - जीरो और हीरो। यह दो बातें याद रखेंगे तो बाप के समान सर्व गुणों से सम्पन्न हो जायेंगे। विस्तार को समाया जाता है ना। 15 दिन इतनी स्टडी की है, बहुत कापियाँ भरी हैं। बापदादा फिर आपके विस्तार को बीज में सुना रहे हैं। और सभी भूल भी जाये। यह तो नहीं भूलेगा। यह याद रखो फिर देखना सर्विस में कितनी जल्दी चेंज आती है। आप सभी की इच्छा यही है कि हम भी बदले और समय भी बदले। अपने घर चले। जब घर चलने की इच्छा है तो फिर यह दो बात याद रखो। फिर कमियों के बजाय कमाल कर दिखाओ। कमियाँ खत्म हो जावेंगी और जहाँ भी देखेंगे, सुनेंगे तो कमाल ही कमाल देखेंगे तो अब इस भट्टी से क्या बनकर जायेंगे? जीरो। जीरो में कोई बात ही नहीं होती। कोई पिछले संस्कार नहीं। यहाँ छोड़ने भी आये हो। तो फिर अच्छी तरह से जो कुछ छोड़ना था। वह छोड़ चले हो वा थोड़ा साथ में भी ले जायेंगे? क्या छोड़ा है और कितने तक छोड़ा है। थोड़े समय के लिये छोड़ा है वा सदा के लिये छोड़ा है, यह भी देखना है। संगठन की शक्ति में छोड़ दिया है वा स्वयं की शक्ति से छोड़ा है? संगठन की शक्ति सहारा तो देती है लेकिन संगठन की शक्ति के साथ स्वयं की भी शक्ति चाहिए। जब भी जो छोड़ा है वह सदा काल के लिये।
बापदादा को आप सभी प्रिय तो हो ही। क्योंकि बाप भी तुम बच्चों की मदद से कार्य करा रहे हैं। तो कार्य में मददगार होने वाले प्रिय तो रहते ही हैं। लेकिन मददगार के साथ हिम्मवान कहाँ कम बनते हैं। यहाँ हिम्मत छोड़ देते हैं। अगर हिम्मत हो तो मदद जरूर मिलेगी। तो इसलिए मददगार के साथ कुछ हिम्मतवान भी बनो। छोटी-छोटी बातों में हिम्मतहीन नहीं बनना है। हिम्म- तवान बनने से फिर आप सभी की जो इच्छा है, वह पूर्ण होगी। अभी हिम्मत की आवश्यकता है। हिम्मत कैसे आयेगी? हर समय, हर कदम पर, हर संकल्प में बलिहार होने से। जो बलिहार होता है उसमें हिम्मत ज्यादा होती है तो जितना-जितना अपने को बलिहार बनायेंगे उतना ही गले के हार में नजदीक आयेंगे। अभी बलिहार होंगे फिर बनेंगे प्रभु के गले का हार। अगर बलिहार बनकर के ही कर्म करेंगे तो दूसरों को भी बलिहार बनायेंगे। जिसको वारिस कहा जाता है। अभी प्रजा बहुत बनती हैं। वारिस कम बनते है। जितना बहुत बनायेंगे उतना ही नजदीक आयेंगे। तो अब वारिस बनाने का प्लान सोचो।
अच्छा !!!
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15-09-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“याद के आधार पर यादगार”
आवाज से परे जाना है वा बाप को भी आवाज में लाना है? आप सब आवाज से परे जा रहे हो। और बापदादा को फिर आवाज में ला रहे हो। आवाज में आते भी अतीन्द्रिय सुख में रह सकते हो तो फिर आवाज से परे रहने की कोशिश क्यों? अगर आवाज से परे निराकार रूप में स्थित हो फिर साकार में आयेंगे तो फिर औरों को भी उस अवस्था में ला सकेंगे। एक सेकेण्ड में निराकार-एक सेकेण्ड में साकार। ऐसी ड्रिल सीखनी है। अभी-अभी निराकारी, अभी- अभी साकारी। जब ऐसी अवस्था हो जायेगी तब साकार रूप में हर एक को निराकार रूप का आपसे साक्षात्कार हो। अपने आप का साक्षात्कार किया है? ब्राह्मण रूप में तो हो ही हो। अगर अपना साक्षात्कार किया है तो क्या अपने नम्बर का साक्षात्कार किया है? और कोई भी आपका रूप है जिसका साक्षात्कार किया है? अपने असली रूप को भूल गए? वर्तमान समय आप किस रूप से युक्तियुक्त सर्विस कर सकते हो? जगतमाता।
आज तो विशेष माताओं का ही प्रोग्राम है ना। रहना माता रूप में ही है सिर्फ जगतमाता बनना है। माता बनने बिना पालना नहीं कर सकते आज माताओं को किसलिए बुलाया है? वर्से के अधिकारी बन चुकी हो कि बनना है? वारिस बन चुकी हो कि बनने आए हो? वारिस से वर्सा तो है ही कि वारिस बनी हो मगर वर्सा नहीं मिला है? वर्से के हकदार तो बन ही चुके हो। अब किस कार्य के लिए आई हो? बापदादा ने जरूर किसी विशेष कार्य के लिए बुलाया होगा? स्टडी तो अपने सेवाकेन्द्रों पर भी करते रहते हो। कोर्स भी पूरा कर चुके हो। मुख्य ज्ञान की पढ़ाई का भी पता पड़ गया है। बाकी क्या रह गया है? अब नष्टोमोहा बनना है। नष्टोमाहा तब बनेंगी जबकि सच्ची स्नेही होंगी। जैसे कोई भी चीज को आग में डालने के बाद उसका रूप-रंग सब बदली हो जाता है। तो जो भी थोड़े आसुरी गुण, लोक-मर्यादायें हैं, कर्मबन्धन की रस्सियां, ममता के धागे जो बंधें हुए हैं उन सबको जलाना है। इस स्नेह की अग्नि में पड़ने से यह सब छूट जायेगा। तो अपना रंग-रूप सब बदलना है। इस लगन की अग्नि में पड़कर परिवर्तन लाने के लिए तैयार हो? जो चीज जल जाती है वो फिर खत्म हो जाती है। देखने में नहीं आती। ऐसे अपने को परिवर्तन में लाने की हिम्मत है? आप सबकी यादगार अब तक भी कायम है। आपकी यादगार का आधार किस बात पर है? जितनी-जितनी याद है उतनी-उतनी सबकी यादगार बनी हुई है। अब तक भी कायम है। आपकी याद के आधार पर सबकी यादगार बनी हुई है। अगर याद कम है तो यादगार भी ऐसा ही होगा। अगर यादगार कायम रखने का प्रयत्न करना है तो पहले याद कायम रखो। फिर उस आधार पर यादगार बनना है। हर एक के विशेष गुण पर हर एक का ध्यान जाना चाहिए। एकएक का जो विशेष गुण है वो हर एक अगर अपने में धारण करे तो क्या बन जायेंगे? सर्वगुण सपन्न। जैसे आत्मा रूप को देखते हो ना। तो फिर जब कर्म में आते हो तो हर एक के विशेष गुण तरफ देखो। तो फिर और बातें भूल जायेंगी। गुणों को ही अपने में भरने का प्रयत्न करना है।
आज माताओं को चंद्रमा का टीका लगाया है। चंद्रमा के जो गुण हैं वो अपने में धारण तो करने ही हैं परन्तु चंद्रमा का सूर्य के साथ सम्बन्ध भी गहरा होता है। तो चंद्रमा जैसा सम्बन्ध और गुण धारण करने हैं। और चंद्रमा का कर्तव्य कौन-सा है? शीतलता के साथ-साथ रोशनी भी देता है। अच्छा अब विदाई।
18-09-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी और त्रिलोकीनाथ बनने की युक्तियाँ”
किसको देखते हो? आकार को देखते वा अव्यक्त को देखते हो? अगर अपनी वा औरों की आकृति को न देख अव्यक्त को देखेंगे तो आकर्षण मूर्त बनेंगे। अगर आकृति को देखते तो आकर्षण मूर्त नहीं बनते हो। आकर्षण मूर्त बनना है तो आकृति को मत देखो। आकृति के अन्दर जो आकर्षण रूप है उसको देखने से ही अपने से और औरों से आकर्षण होगा। तो अब के समय यही अव्यक्त सर्विस रही हुई है। व्यक्त में क्यों आ जाते हो? इसका कारण क्या है? अव्यक्त बनना अच्छा भी लगता फिर भी व्यक्त में क्यों आते हो? व्यक्त में आने से ही व्यर्थ संकल्प आते हैं और व्यर्थ कर्म होते हैं तो व्यक्त से अव्यक्त बनने में मुश्किल क्यों लगती है? व्यक्त में जल्दी आ जाते हैं अव्यक्त में मुश्किल से टिकते हैं। इसका कारण क्या है? भूल जाते हैं। भूलते भी क्यों है? देह अभिमान क्यों आ जाता है? मालूम भी है, जानते भी हो, अनुभव भी किया है, कि व्यक्त में और अव्यक्त में अन्तर क्या है? नुकसान और फायदा क्या है? यह भी सब मालूम है। जब तुम याद में बैठते हो तो देह-अभिमान से देही-अभिमानी में कैसे स्थित होते हो? क्या कहते हो? बात तो बड़ी सहज है। जो आप सबने बताया वो भी पुरुषार्थ का ही है। लेकिन जानते और मानते हुए भी देह अभिमान में आने का कारण यही है जो देह का आकर्षण रहता है। इस आकर्षण से दूर हटने के लिए कोशिश करनी है। जैसे कोई खींचने वाली चीज होती है तो उस खिंचाव से दूर रखने के लिए क्या किया जाता है? चुम्बक होता है तो ना चाहते हुए भी उस तरफ खिंच आते हैं। अगर आपको उस आकर्षण से किसी को दूर करना है तो क्या करेंगे? कोई चीज ना चाहते हुए भी उसको खैचती है और आपको उस चीज से दूर उसे करना है तो क्या करेंगे? या तो उनको दूर ले जायेंगे या तो बीच में ऐसी चीज रखेंगे जो वो आकर्षण न कर सके। यह दो तरह से होता है या तो दूर कर देना है या दोनों के बीच में ऐसी चीज डाल देंगे तो वो दूर हो जाते इसी प्रकार यह देह अभिमान या यह व्यक्त भाव जो है यह भी चुम्बक के माफिक ना चाहते हुए भी फिर उसमें आ जाते है। बीच में क्या रखेंगे? स्वयं को जानने के लिए क्या आवश्यकता है जिससे स्वयं को और सर्वशक्तिमान बाप को पूर्ण रीति जान सकते हो? एक ही शब्द है। स्वयं को और सर्वशक्तिमान बाप को पूर्ण रीति जानने के लिए संयम चाहिये। जब संयम को भूलते हो तो स्वयं को भी भूलते और सर्वशक्तिमान को भी भूलते हैं। अलबेलेपन का संस्कार भी क्यों आता है? कोई न कोई संयम को भूलते हो। तो संयम जो है वो स्वयं को और सर्वशक्तिमान बाप को समीप लाता है। अगर संयम में कमी है तो स्वयं और सर्वशक्तिमान से मिलन में कमी है। तो बीच की जो बात है वह संयम है। कोई ना कोई संयम जब छोड़ते हो तो यह याद भी छूटती है। अगर संयम ठीक है तो स्वयं की स्थिति ठीक है और स्वयं की स्थिति ठीक है तो सब बातें ठीक है। तो यह देह की जो आकर्षण है वो बार-बार अपनी तरफ आकर्षित करती है। अगर बीच में यह संयम (नियम) रख दो तो यह देह की आकर्षण आकर्षित नहीं करेगी। इसके लिये तीन बातें ध्यान में रखो। एक स्वयं की याद। एक संयम और समय। यह तीन बातें याद रखेंगे तो क्या बन जायेंगे? त्रिनेत्री त्रिकालदर्शी-त्रिलोकीनाथ। संगमयुग का जो आप सबका टाइटिल है वो सब प्राप्त हो जावेगा। स्वयं को जानने से सर्वशक्तिमान बीच में आ ही जाता है। तो इन तीनों बातों तरफ ध्यान दो। कोई भी चित्र को देखते हो (चित्र अर्थात् शरीर) तो चित्र को नहीं देखो। लेकिन चित्र के अन्दर जो चेतन है उसको देखो। और उस चित्र के जो चरित्र हैं उन चरित्रों को देखो। चेतन और चरित्र को देखेंगे तो चरित्र तरफ ध्यान जाने से तो चित्र अर्थात् देह के भान से दूर हो जायेंगे। एकएक में कोई ना कोई चरित्र जरूर है। क्योंकि ब्राह्मण कुल भूषण ही चरित्रवान है। सिर्फ एक बाप का ही चरित्र नहीं है। लेकिन बाप के साथ जो भी मददगार है उनकी भी हर एक चलन चरित्र है। तो चरित्र को देखो और चेतन वा विचित्र को। तो यह कहें विचित्र और चरित्र। अगर यह दो बातें देखो तो देह की आकर्षण जो ना चाहते हुये भी खींच लेती है वो दूर हो जायेगी। वर्तमान समय यही मुख्य पुरुषार्थ होना चाहिए। जबकि आप लोग कहते ही हो कि हम बदल चुके हैं। तो फिर यह सब बातें ही बदल जानी चाहिए फिर पुराने संस्कार और यह पुरानी बातें क्यों? अपने को बदलने लिए पहले यह जो भाव है, उस भाव को बदलने से सब बातें बदल जायेगी।
आसक्ति में आ जाते हैं ना। तो आसक्ति के बजाय अगर अपने को शक्ति समझो तो आसक्ति समाप्त हो जायेगी। शक्ति न समझने से अनेक प्रकार की आसक्तियां आती हैं।
कोई भी आसक्ति चाहे देह की, चाहे तो देह के पदार्थों की कोई भी आसक्ति उत्पन्न हो तो उस समय यही याद रखो कि मैं शक्ति हूँ। शक्ति में फिर आसक्ति कहाँ? आसक्ति के कारण उस स्थिति में आ नहीं सकते हैं। तो आसक्ति को खत्म कर दो। इसके लिए यही सोचो कि मैं शक्ति हूँ माताओं को विशेष कौनसा विघ्न आता है? (मोह) मोह किस कारण आता है? मोह मेरा से होता है। लेकिन आप सबका वायदा क्या है? शुरू-शुरू में आप सब-जब आये तो आपका वायदा क्या था? मैं तेरी तो सब कुछ तेरा। पहला वायदा ही यह है। मैं भी तेरी और मेरा सब कुछ भी तेरा। सो फिर भी मेरा कहाँ से आया? तेरे को मेरे से मिला देते हो। इससे क्या सिद्ध हुआ कि पहला वायदा ही भूल जाते हो। पहला-पहला वायदा ही सब यह कहते हैं :- जो कहोगे, वो करेंगे, जो खिलायेंगे, जहाँ बिठायेंगे। यह जो वायदा है, वह वायदा याद है? तो बाप तुमको अव्यक्त वतन में बिठाते हैं। तो आप फिर व्यक्त वतन में क्यों आ जाते हो? वायदा तो ठीक नहीं निभाया। वायदा है जहाँ बिठायेंगे वहाँ बैठेंगे। बाप ने तो कहा नहीं है कि व्यक्त वतन में बैठो। व्यक्त में होते अव्यक्त में रहो। पहला-पहला पाठ ही भूल जायेंगे तो फिर ट्रेनिंग क्या करेंगे। ट्रेनिंग में पहला पाठ तो पक्का करवाओ। यह याद रखो कि जो वायदा किया है उसको निभाकर दिखायेंगे। जो मातायें ट्रेनिंग में आई हुई हैं, आप सब सरेण्डर हो? जब सरेण्डर हो चुके हो तो फिर मोह कहाँ से आया। जब कोई जलकर खत्म हो जाता है तो फिर उसमें कुछ रहता है? कुछ भी नहीं। अगर कुछ है तो इसका मतलब कि तीर लगा है लेकिन पूरे जले नहीं है। मरे हैं, जले नहीं हैं। रावण को भी पहले मारते हैं फिर जलाते हैं। तो मरजीवा बने हो परन्तु जलकर एकदम खाक बन जाए, वो नहीं बने हैं। सरेण्डर का अर्थ तो बड़ा है। मेरा कुछ रहा ही नहीं। सरेण्डर हुआ तो तन-मन-धन सब कुछ अर्पण। जब मन अर्पण कर दिया तो उस मन में अपने अनुसार संकल्प उठा ही कैसे सकते हैं? तन से विकर्म कर ही कैसे सकते हैं? और धन को भी विकल्प अथवा व्यर्थ कार्यों में लगा ही कैसे सकते हो? इससे सिद्ध है कि देकर फिर वापिस ले लेते हैं। जबकि तन, मन, धन दे दिया है तो मन में क्या चलाना है वो भी श्रीमत मिलती है, तन से क्या करना है, वो भी मत मिलती है, धन से क्या करना है सो भी मालूम है। जिनको दिया उनकी मत पर ही तो चलना होगा। जिसने मन दे दिया उसकी अवस्था क्या होगी? मनमनाभव। उसका मन वहाँ ही लगा रहेगा। इस मंत्र को कभी भूलेंगे नहीं। जो मनमनाभव होगा उसमें मोह हो सकता है? तो मोहजीत बनने के लिए अपने वायदे याद करो। यहाँ ट्रेनिंग से जब निकलेंगे तो आप कौन सा ठप्पा लगवा कर निकलेंगे? (मोहजीत का) अगर मोहजीत का ठप्पा लग जायेगा तो सीधी पोस्ट ठिकाने पर पहुँचेगी। और सीधा ठप्पा नहीं होगा तो पोस्ट ठिकाने पर नहीं पहुँचेगी। इसलिए ही ठप्पा जरूर लगाना है। इन माताओं का ही फिर समर्पित समारोह करेंगे। उसमें बुलायेंगे भी उनको जिन्होंने ठप्पा लगाया होगा। मोहजीत वालों का ही सम्मेलन करेंगे। इसलिये जल्दी-जल्दी तैयार हो जाओ।
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03-10-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सम्पूर्ण - समर्पण की निशानियां
किसको देखते हो? कौन, किसको देख रहे हो? (दो तीन ने अपना-अपना विचार सुनाया) आज बापदादा अपने पूर्ण परवानों को देख रहे हैं। क्योंकि कहाँ तक परवाने बने हैं वो देखने आये हैं। वैसे तो परवाने शमा के पास जाते हैं लकिन यहाँ तो शमा भी परवानों से मिलती है। आपको मालूम है जो सम्पूर्ण परवाने होते हैं उनके लक्षण क्या हैं और परख क्या है? (हर एक ने सुनाया) आप सबने सुनाया वो यथार्थ है। मुख्य सार तो यही निकला कि जो परवाने होंगे वो एक तो शमा के स्नेही होंगे, समीप होंगे और सर्व सम्बन्ध, उस एक के साथ ही होंगे। तो सर्व सम्बन्ध, स्नेही, समीप और साहस। जो सम्पूर्ण परवाने होते हैं उनमें यह चारों ही बातें देखने में आती हैं। तो आप सबको यहाँ भट्टी में किसलिए बुलाया है? जो यह चार बातें सुनाई हैं वो चारों ही बातें अपने सम्पूर्ण परसेन्टेज में धारण करनी हैं। एक परसेन्ट भी कम न होना चाहिए। कई बच्चे कहते हम हैं तो सही लेकिन इतने परसेन्ट। तो जिनमें परसेन्ट की कमी हो गई तो उनको सम्पूर्ण परवाना नही कहेंगे। वो परवाना दूसरी क्वालिटी का कहा जायेगा, जो कि चक्र ही काटने वाले होते हैं। एक होते हैं शीघ्र एक ही बार शमा पर फिदा होने वाले, दूसरे होते हैं - सोच समझ कर कदम उठाने वाले। तो जो सोच समझ कर कदम उठाते रहेंगे उनको कहेंगे फेरी पहनने वाले। चक्र काटने वाले। तो दूसरी क्वालिटी वाले परवाने कई प्रकार के संकल्पों, विघ्नों और कर्मों में ही चक्र काटते रहते हैं। तो आज पाण्डव सेना को भट्टी में बुलाया है। कहीं पर भी कोई फैक्टरी होती है तो जो बढ़िया फैक्टरी होती है उसकी छाप लगती है। अगर उस फैक्टरी की छाप नहीं होती है तो वो चीज इतनी नहीं चलती है। इस रीति आप भी जो भट्टी में आये हो तो यहाँ भी छाप लगाने के लिए आये हो। ट्रेड मार्क होता है ना। आप फिर कौनसी छाप लगवाने लिए आये हो? सम्पूर्ण सरेन्डर या सम्पूर्ण समर्पण का छाप अगर नहीं लगा तो मालूम है कि क्या होगा? जैसे छापा न लगी चीज की वैल्यू कम होती जाती है। उसी रीति से आप आत्माओं की भी स्वर्ग में वैल्यू कम हो जायेगी। तो अपनी राजधानी में समीप आने लिए यह छापा लगाना ही पड़ेगा। माताओं को तो नष्टोमोहा का मन्त्र मिला। और पाण्डव सेना को सम्पूर्ण समर्पण का। पाण्डवों का ही गायन है कि गल कर खत्म हो गए। पहाड़ों पर नहीं लेकिन ऊंची स्थिति में गल कर अपने को निचाई से बिल्कुल ऊपर जो अव्यक्त स्थिति है, उसमें गल गये। अर्थात् उस अव्यक्त स्थिति में सम्पूर्णता को प्राप्त हुए। यह पाण्डवों का यादगार भी है। उस यादगार की याद दिलाने और प्रैक्टिकल में लाने लिए भट्टी मिली है।
सम्पूर्ण समर्पण किसको कहा जाता है? जो सम्पूर्ण समर्पण अर्थात् तन-मन-धन और सम्बन्ध, समय सबमें अर्पण। अगर मन को समर्पण कर दिया तो मन को बिना श्रीमत के यूज नहीं कर सकते। अब बताओ धन को श्रीमत से यूज करना तो सहज है तन को भी यूज करना सहज है। लेकिन मन सिवाय श्रीमत के एक भी संकल्प उत्पन्न नहीं करे - इस स्थिति को कहा जाता है समपर्ण। इसलिए ही मनमनाभव का मुख्य मन्त्र है। अगर मन सम्पूर्ण समर्पण है तो तन-मन-धन- समय सम्बन्ध शीघ्र ही उस तरफ लग जाते हैं। तो मुख्य बात ही है मन को समर्पण करना अर्थात् व्यर्थ संकल्प, विकल्पों को समर्पण करना। वो ही परख है सम्पूर्ण परवाने की। सम्पूर्ण समर्पण वालों को मन में सिवाय उनके (बापदादा के) गुण, कर्तव्य और सम्बन्ध के कुछ और सूझता ही नहीं। अब बताओ कि ऐसा छापा लगाया हुआ है? जैसे आजकल के जमाने में आप लोग सब दफ्तरों में काम करते हो तो कभी-कभी दफ्तर की जो चीजें होती हैं, वो अपने काम में लगा देते हो। इसी रीति जो आपने समर्पण कर दिया तो वह आपकी चीज नहीं रही। जिसको दिया उनकी हुई, तो उनकी चीज को आप अपने कार्य में यूज नहीं कर सकते हो। लेकिन संस्कार होने के कारण कभी-कभी श्रीमत के साथ मनमत, देह अभिमानपने की मत, शूद्रपने की मत कहीं यूज कर लेते हो। इसलिए ही कर्मातीत अवस्था वा अव्यक्त स्थिति सदा एकरस नहीं रहती है। क्योंकि मन भिन्न-भिन्न रस में है तो स्थिति में भिन्न-भिन्न है। एक ही रस में रहे तो एक ही स्थिति रहे। बापदादा बच्चों को हल्का बनाते हैं और बच्चे जानबूझकर अपने पर बोझ ले लेते हैं। क्योंकि ६३ जन्मों से विकर्मों का बोझ, लोक मर्यादा का बोझ उठाने के आदि बन गये हैं। इसलिए बोझ उतार कर भी फिर रख लेते हैं। जिनकी जो आदत होती है वो आदत से मजबूर हो जाते हैं ना। इसलिए अपनी आदतें होने कारण अपनी जिम्मेदारी फिर अपने पर ही रख देते हैं। एक-एक पाण्डव अगर सम्पूर्ण समर्पण बनकर ही निकले तो बताओ क्या होगा? जब पाण्डव तैयार हो जावेगी तो कौरव और यादव मैदान में आ जायेंगे और फिर क्या होगा? आपका राज्य आपको प्राप्त हो जायेगा। जब तक यह वायदा नहीं किया कि जो सोचेंगे, बोलेंगे, जो सुनेंगे, जो करेंगे सो श्रीमत के बिना कुछ नहीं करेंगे। तब तक इस भट्टी से लाभ नहीं ले सकते हैं। ऐसा ही उमंग-उत्साह लेकर आये हो ना। कुछ बनकर ही निकलेंगे, बदलकर ही निकलेंगे। यह सोचकर आये हो ना? घबराहट तो नहीं होती है? जितना-जितना गहराई में जायेंगे उतना ही घबराहट गायब हो जायेगी। जब तक किसी भी बात की गहराई में नहीं जाते हैं तो घबराहट आती है। जैसे सागर के ऊपर-ऊपर की लहरों में घबराहट होती है लेकिन सागर के तले में, गहराई में क्या होता है? बिल्कुल शांत और शांत के साथ प्राप्ति भी होती है। इसलिए जो भी कोई घबराहट की बात आये तो गहराई में चले जाना तो घबराहट गायब हो जायेगी। अब लक्ष्य और लक्षण कौन से धारण करने हैं? इसमें जो नम्बरवन होंगे उनका क्या करेंगे? भविष्य में तो राजधानी लेंगे ही लेकिन यहाँ भी सौगात मिलेगी। इसलिए हर एक यही प्रयत्न करे कि हम तो नम्बर वन में आयेंगे, दो नम्बर वाले को नहीं मिलेगा। जो विन करेंगे वो वन नम्बर पायेंगे। विन करने की कोशिश करो तो वन जायेंगे।
अच्छा-आपको बिन्दी लगानी है वा बिन्दी रूप ही हो? टीके कितने प्रकार के होते हैं? आज आपको डबल टीका लगाते हैं। संगम पर निरोगी बनने का और भविष्य में राज-भाग का। बिन्दी रूप की स्मृति रखने के लिये बिन्दी लगाते हो। बिन्दी लगाते-लगाते बिन्दी बन जायेंगे। कोई भी व्यर्थ संकल्प आये तो उनको बिन्दी लगा दो तो बिन्दी बन जायेंगे।
16-10-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“परखने की शक्ति को तीव्र बनाओ”
आज विशेष क्या देख रहे है? परिवर्तन कैसे देखते है? इस ग्रुप में प्रश्र का उत्तर देने में होशियार कौन है? देखने और परखने की शक्ति कहाँ तक आई है? अच्छा - योग की स्थिति में निरन्तर रहने वाला कौन? दिव्यगुणों की धारणा में दिव्यगुण मूर्त कौन नजर आता है? यह क्यों पूछते है? क्योंकि अगर परखने की प्रैक्टिस होगी तो जब दुनिया में कार्य अर्थ जाते हो और आसुरी सम्प्रदाय के साथ सम्बन्ध रखना पड़ता है तो परखने की प्रैक्टिस होने से बहुत बातों में विजयी बन सकते हो। अगर परखने की शक्ति नहीं तो विजयी नहीं बन सकते। यह तो थोड़ी-सी रेख-देख की कि अपने ही परिवार कि अन्दर कहाँ तक परख सकते हो। यूँ तो हरेक रत्न एक दो से श्रेष्ठ है। लेकिन फिर भी परखने की प्रैक्टिस जरूर चाहिए। यह परखने की प्रैक्टिस छोटी बात नहीं समझना। इस पर ही नम्बर ले सकते हो। कोई भी परिस्थिति को, कोई भी संकल्प वाली आत्माओं को, वर्तमान और भविष्य दोनों कालों को भी परखने की प्रैक्टिस चाहिए। विशेष करके जो पाण्डव सेना है, उन्हों को यह परखने की शक्ति बहुत आवश्यक है। क्योंकि आप गोपों को बहुत प्रकार की परिस्थितियाँ सामने आती है। उन्हों का सामना करने लिये यह बुद्धि बहुत आवश्यक है। परखने की पावर कैसे आयेगी - उसके लिए मुख्य साधन कौनसा है? परखने की शक्ति को तीव बनाने लिए मुख्य कौन सा साधन है? परखने का तरीका कौन सा होना चाहिए? तुम्हारे सामने कोई भी आये उनको परख सकते हो? (हरेक ने अपना-अपना विचार बताया) सभी का रहस्य तो एक ही है। अव्यक्त स्थिति वा याद वा आत्मिक स्थिति बात तो वही है। लेकिन आत्मिक स्थिति के साथ-साथ यथार्थ रूप से वही परख सकता है जिनकी बुद्धि में ज्यादा व्यर्थ संकल्प नहीं चलते होंगे। उनकी बुद्धि एक के ही याद में, एक के ही कार्य में और एकरस स्थिति में होगी। वह दूसरे को जल्दी परख सकेंगे। जिनकी बुद्धि में ज्यादा संकल्प उत्पन्न होंगे तो उनकी बुद्धि दूसरों को परखने के लिए भी अपने व्यर्थ संकल्प की मिक्सचरिटी होगी। इसलिए जो जैसा है वैसा परख नहीं सकेंगे। तो मूल रहस्य निकला बुद्धि की सफाई। जितना बुद्धि की सफाई होगी उतना ही योग युक्त अवस्था में रह सकेंगे। यह व्यर्थ संकल्प और विकल्प जो चलते है वह अव्यक्त स्थिति होने में विघ्न है। बार-बार इस शरीर के आकर्षण में आ जाते है उसका मूल कारण है कि बुद्धि की सफाई नहीं है। बुद्धि की सफाई अर्थात बुद्धि को जो महामन्त्र मिला हुआ है उसमें बुद्धि मगन रहे। एक की याद को छोड़ अनेक तरफ बुद्धि जाने के कारण शक्तिशाली नहीं रहते। वैसे भी जब बुद्धि बहुत कार्य तरफ लगी हुई होती है। तो अनुभव किया होगा बुद्धि में वीकनेस, थकावट महसूस होती है। और जो भी है यथार्थ रूप से निर्णय नहीं कर सकेंगे। इसी रीति व्यर्थ संकल्प, विकल्प जो चलते है, यह भी बुद्धि को थकावट में लाते है। थकी हुई कोई भी आत्मा न परख सकेगी न निर्णय कर सकेगी। कितना भी होशियार होगा तो थकावट में उनके परखने, निर्णय करने में फर्क पड़ जाता है। सारा दिन इन संकल्पों से बुद्धि थकी हुई होने कारण निर्णय करने की शक्ति में कमी आ जाती है। इसलिए विजयी नहीं बन सकते। हार खाने का मुख्य कारण यह है। बुद्धि वनी सफाई नहीं है। जैसे उन्हीं की हाथ की सफाई होती है ना। आप फिर बुद्धि की सफाई से क्या से क्या कर सकते हो। वह हाथ की सफाई से झट से बदल देते है। देरी नहीं लगती। इसलिए कहते है जादूगर। आप में भी बदलने का जादू आ जायेगा। अभी बदलने सीखे हो, लेकिन जादू के समान नहीं बदल सकते हो अर्थात् जल्दी नहीं बदल सकते हो। समय लगता है। जादू चलाने के लिये जितना समय जिसको मन्त्र याद रहता है, उतना उसका जादू सफल होता है। आपको भी अगर महामन्त्र याद होगा तो जादू के समान कार्य होगा। अब इसी में देरी है। तो अब इस भट्ठी से क्या बनकर निकलेंगे? (जादूगर) अगर इतने जादूगर भारत के कोने-कोने में, छा जायेंगे तो क्या हो जावेगा? एक मास के अदर कुछ और नजारा देखने में आयेगा? अब तो तैयारी करनी पड़ेगी ना। अगर इतने जादूगर बदलने का कार्य शुरू कर देंगे तो फिर क्या करना पड़ेगा? ऐसी कुछ नवीनता आप भी देखना चाहते हो और बाप-दादा भी चाहते है। ऐसा आवाज पैनल जाये कि यह कौन कहाँ से प्रगट हुए है। ऐसे महसूस हो कि एक-एक स्थान पर कोई अलौकिक आत्मा अवतरित होकर आई है। एक अवतार इतना कुछ कर सकता है तो यह कितने अवतार है। यहाँ से जब जाओ तो ऐसे ही समझकर जाना कि हम इस शरीर में अवतरित हुए है - ईश्वरीय सेवा के लिये। अगर यह स्मृति रखकर जायेंगे तो आपके हर चलन में अलौकिकता देखने में आयेगी। जो भी आपके दैवी परिवार वाले वा लौकिक परिवार वाले है वह महसूस करे कि यह कुछ अनोखे ही बनकर आये है, बदलकर आये है। जब आप की बदलने की महसूसता आयेगी तब आप दुनिया को बदल सकेंगे। अगर आप सभी के बदलने की भासना नहीं तो दुनिया को नहीं बदल सकेंगे। खुद बदल कर दुनिया को बदलना है। ऐसे ही समझकर चलना कि निमित्त मात्र इस शरीर वना लोन लेकर ईथरीय कार्य के लिए, थोड़े दिन के लिए अवतरित हुये है। कार्य समाप्त करके फिर चले जायेंगे। यह स्मृति, लक्ष्य रख करके, ऐसी स्थिति बनाकर फिर चलना। यह बगीचा है। बापदादा चैतन्य बगीचे में आते है। तो कुछ वाणी से खुशबू लेते है, कुछ नयनों से, कुछ मस्तक के मणी से। हरेक के मस्तिष्क के मणी की चमक बापदादा देखते है। ऐसे ही अगर आप सभी भी मस्तिष्क के मणी को ही देखते रहो तो फिर यह दृष्टि और वृत्ति शुद्ध सतोप्रधान बन जायेगी। दृष्टि जो चचल होती है उसका मूल कारण यह है। मस्तिष्क के मणी को न देख शारीरिक रूप को देखते हो। रूप को न देखो लेकिन मस्तिष्क के मणी को देखो। जब रूप को देखते हो तो ऐसे ही समझो कि सांप को देख रहे है। सांप के मस्तिष्क में मणी होती है ना। तो मणी को देखना है न कि सांप को। अगर शरीर भान में देखते हो तो मानो सांप को देखते हो। सांप को देखा और सांप ने काटा। सांप तो अपना कार्य करेगा। सांप में विष भी होता है। कोई-कोई विशेष सांप होते है। जिनमें मणी होती है। आप गोपों को सांप को कैसे मारना है। क्या करेंगे? आप सांप को देखते हुए भी सांप को न देखो। मणी को ही देखो। मणी को देखने से सांप का जो विष है वह हल्का हो जायेगा। अगर शरीर रूपी सांप को देखा तो फिर उनको बन जायेंगे। उन समान बन जायेंगे। लेकिन मणी को देखेंगे तो बापदादा के माला के मणी बन जायेंगे। या तो बनना है सांप के समान या तो बनना है माला की मणी। अगर मणी बनना है तो देखो भी मणी को। फिर जो यह कम्प्लेन है वह बदल कर कम्पलीट हो जायेगी। सिर्फ बुद्धि की परख से कहाँ कम्प्लेन कहाँ कम्पलीट। रात-दिन का फर्क है। लेकिन सिन्धी भाषा में लिखेंगे तो सिर्फ दो बिन्दियों का फर्क है। यहाँ भी ऐसे है। दो बिन्दी एक स्वयं की, एक बापदादा की। यह दो बिन्दी ही याद रहे तो कम्प्लेन की बजाय कम्पलीट हो जाये। इसलिए आज से यह प्रतिज्ञा अपने आप से करो। बापदादा के सामने तो बहुत प्रतिज्ञाएं की हैं लेकिन आज अपने आपसे प्रतिज्ञा करो कि अब से लेकर सिवाए मणी के और कुछ नहीं देखेंगे और खुद ही माला के मणी बन करके सारे सृष्टि के बीच चमकेंगे। जब खुद मणी बनेंगे तब चमकेंगे। अगर मणी नहीं बनेंगे तो चमक नहीं सकेंगे। जब प्रतिज्ञा करेंगे तब ही प्रत्यक्षता होगी। अपने आपसे पूर्ण रूप से प्रतिज्ञा नहीं कर पाते हो इसलिए प्रत्यक्षता भी पूर्ण रूप से नहीं हो पाती है। प्रत्यक्षता कम निकलने का कारण अपने आपसे प्रतिज्ञा की कमी है। अभी-अभी बोलते हो फिर अभी-अभी भूलते हो। लेकिन अब प्रतिज्ञा के साथ-साथ यह भी निश्चय करो कि प्रत्यक्षता भी लायेंगे तब आपकी प्रतिज्ञा प्रत्यक्षता कर दिखायेगी। पाण्डव सेना है ज्ञानी तू आत्मा और शक्ति सेना है स्नेही तू आत्मा। जो स्नेही है वह योगी है। अभी तो एक-एक पाण्डव के मस्तक में उमंग-उत्साह झलक रहा है। यह उमंग और उत्साह एकरस सदा रहे। मेहनत जो ली है उसका फल दिखाना है। अगर मेहनत ली हुई यहाँ चुक्तू नहीं करेंगे तो फिर सतयुग में वह मेहनत का फल देना पड़ेगा इसलिए जो मेहनत ली है उसे भरकर देना।
हरेक सेवाकेन्द्र से यह समाचार आना चाहिए यह कुमार तो अवतरित होकर के इस पृथ्वी पर पधारे है। ऐसा समाचार जब आये तब समझो कि फल निकल रहा है। अभी स्थिति की आवश्यकता है। जैसे बापदादा लोन लेकर आते है ना। अभी तो दोनों ही लोन लेते है। थोड़े समय के लिये आते है किसलिए? मिलने के लिये। वैसे ही आप सभी भी समझो कि हम लोन लेकर सर्विस के निमित्त आये हैं - थोड़े समय के लिये। जब ऐसी स्थिति होगी तब बाप का प्रभाव दुनिया के सामने आयेगा। दोनों ही हिसाब ठीक किया है। या लेने का किया है, देने का नहीं? 6 मास तक एकरस रहेंगे ना कि 15 दिन के बाद लिखेंगे चाहते तो है लेकिन क्या करे, यह हो गया ऐसी कोई भी कम्पलेन नहीं आये। फिर तो दीदी का काम हल्का हो जायेगा। आप खुद भारी होंगे तो सारा कार्य भारी हो जायेगा। बापदादा की आशा कहे वा शुद्ध संकल्प कहे यही रहता है और रहेगा ही की एक-एक नम्बरवन हो। लेकिन सारे कल्प के अन्दर जो अब की स्थिति बनायेंगे वह तो अब के हिसाब से नम्बरवन है ना। जो वास्तविक सम्पूर्ण स्टेज है। इसके लिये कह रहे है। सभी यही लक्ष्य रखे कि हम नम्बरवन जायेंगे। यह नहीं सोचना कि सभी कैसे नम्बरवन जोयेंगे। इसमें महादानी नहीं बनना है। दो बातें मुख्य याद रखना है कि एक तो मणी को देखना, देह रूपी सांप को न देखना। और दूसरी बात अपने को अवतरित समझो। इस शरीर में अवतरित होकर कार्य करना है। और एक स्लोगन सदा याद रखना कि जो बापदादा कहेंगे, जो करायेंगे, जैसे चलायेंगे, वैसे ही करेंगे, चलेंगे, बोलेगे, देखेंगे। यह है पाण्डव सेना का मुख्य स्लोगन। जो कहेंगे वे सोचेंगे और कुछ सोचना नहीं है। इन आँखों से और कुछ देखना नहीं है। आखें भी दे दी ना। पूरे परवाने हो ना। परवाने को शमा बिगर और कुछ देखने में आता है क्या? आपकी आखें और क्यों देखती? जब और कुछ देखते हैं तो धोखा देती है। अपने को धोखा न दो। इसके लिए परवानों को सिवाए शमा के और किसी को नहीं देखना है। सम्पूर्ण अर्थात् पूरा परवाना हैं। यह है छाप। रिजल्ट तो अच्छी है लेकिन उसको अविनाशी रखना है। जब जैसे चाहे वैसी स्थिति बना सके। यह मन को ड्रिल करानी है। यह जरूर प्रैक्टिस करो। एक सेकेण्ड में आवाज में, एक सेकेण्ड में फिर आवाज से परे। एक सेकेण्ड में सर्विस के संकल्प में आये और एक सेकेण्ड में संकल्प से परे स्वरूप में स्थित हो जाये। इस ड्रिल की बहुत आवश्यकता है। ऐसे नहीं कि शारीरिक भान से निकल ही न सके। एक सेकेण्ड में कार्य प्रति शारीरिक भान में आये फिर एक सेकेण्ड में अशरीरी हो जाये, जिसकी यह ड्रिल पक्की होगी वह सभी परिस्थितियों का सामना कर सकते है। जैसे शारीरिक ड्रिल सुबह को कराई जाती है वैसे यह अव्यक्त ड्रिल भी अमृतवेले विशेष रूप से करना है। करना तो सारा दिन है लेकिन विशेष प्रैक्टिस करने का समय अमृतवेले है। जब देखो बुद्धि बहुत बिजी है तो उसी समय यह प्रैक्टिस करो। परिस्थिति में होते हुए भी हम अपनी बुद्धि को न्यारा कर सकते है। लेकिन न्यारे तब हो सकेंगे जब जो भी कार्य करते हो वह न्यारी अवस्था में होकर करेंगे। अगर उस कार्य में अटैचमेंट होगी तो फिर एक सेकेण्ड में डिटैच नहीं होंगे। इसलिए यह प्रैक्टिस करो। कैसी भी परिस्थिति हो। क्योंकि फाइनल पेपर अनेक प्रकार के भयानक और न चाहते हुए भी अपने तरफ आकर्षित करने वाली परिस्थितियों के बीच होंगे। उनकी भेट में जो आजकल की परिस्थितियाँ है वह कुछ नहीं है। जो अन्तिम परिस्थिति आने वाली है, उन परिस्थितियों के बीच पेपर होना है। इसकी तैयारी पहले से करनी है। इसलिए जब अपने को देखो कि बहुत बिजी हूँ, बुद्धि बहुत स्कूल कार्य में बिजी है, चारों ओर सरकमस्टान्सेज अपने तरफ खैंचने वाली है तो ऐसे समय पर यह अभ्यास करो। तब मालूम पड़ेगा कहाँ तक हम ड्रिल कर सकते है। यह भी बात बहुत आवश्यक है। इसी ड्रिल में रहते रहेंगे तो सफलता को पायेंगे। एक-एक सबजेक्ट की नम्बर होती है। मुख्य तो यही है। इसमें अगर अच्छे हैं तो नम्बर आगे ले सकते हैं। अगर इस सबजेक्ट में नम्बर कम है तो फाइनल नम्बर आगे नहीं आ सकते। इसलिए सुनाया था कि ज्ञानी तू आत्मा के साथ में स्नेही भी बनना है। जो स्नेही होता है वह स्नेह पाता है। जिससे ज्यादा स्नेह होता है। तो कहते है यह तो सुध-बुध ही भूल जाते है। सुध-बुध का अर्थ ही है अपने स्वरुप की जो स्मृति रहती है वह भी भूल जाते है। बुद्धि की लगन भी उसके सिवाए कहाँ नहीं हो। ऐसे जो रहने वाले होते उनको कहा जाता है स्नेही।
इस ग्रुप का विशेष गुण यही है कि सभी बातों को सीखने और धारण करने और आगे के लिए भी अपने को उसमें चलाने के लिये चात्रक है। चात्रक बने हो लेकिन साथ में चरित्रवान भी बनना है। चात्रक है, यह इस ग्रुप की विशेषता है। लेकिन चात्रक का कार्य होता है उसके प्यासी रहना। यह चित्र चरित्र में देखे तब फिर चात्रकों के साथ में पात्र भी कहेंगे। अभी चात्रक तो है। फिर रिजल्ट आने बाद दो टाइटिल मिलेंगे, अभी चात्रक हैं। फिर विजय माला के नजदीक आने के पात्र भी होंगे। जो स्लोगन सुनाया और जो भट्ठी की छाप सुनाई उनको कायम रखेंगे तो दोनों ही गुण आ जायेंगे।
अच्छा !!
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09-11-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“भविष्य को जानने की युक्तियाँ”
“दीपावली के शुभ दिवस पर – प्राणप्रिय अव्यक्त बापदादा के मधुर महावाक्य”
बापदादा एक-एक दीपक को एक काल (समय) की दृष्टि से देख रहे है या तीनों की? बाप तो त्रिकालदर्शी है वा दादा भी त्रिकालदर्शी है? आप भी त्रिकालदर्शी हो या बन रहे हो? अगर त्रिकालदर्शी हो तो अपने भविष्य को देखते वा जानते हो? जानते हो मैं क्या बनूँगा? पाण्डव सेना में अपना भविष्य जानते हो या स्पष्ट है कि क्या बनोगे। और कौनसी राजधानी में? लक्ष्मी-नारायण भी किस नम्बर में? (हरेक ने अपना विचार बताया) जैसे आप आगे बढ़ते जायेंगे वैसे अपना भविष्य नाम-रूप-देश-काल यह चारों ही स्पष्ट होते जायेंगे कि किस देश में राज्य करना है किस नाम से, किस रूप से और किस समय, पहले राजधानी में भी क्या बनेंगे। दूसरी राजधानी में क्या बनेंगे! यह पूरी जन्मपत्री एक-एक को अपने अन्दर स्पष्ट होगी। बापदादा जब भी किसी को देखते है तो तीनों को देखते है। पहले क्या था अब क्या है फिर भविष्य में क्या बनने वाले है। तो एक-एक दीप में यह तीनों काल देखते है। आप दो काल तो स्पष्ट जानते हो। पहले क्या थे और अब क्या है लेकिन भविष्य में क्या होना है, उसको जितना-जितना योग- युक्त होंगे उतना भविष्य भी स्पष्ट जान जायेंगे। जैसे वर्तमान स्पष्ट है। वर्तमान में कभी भी संकल्प नहीं उठता है कि है या नहीं है। ना मालूम क्या है यह कभी संकल्प नहीं उठेगा। इसी रीति से भविष्य भी स्पष्ट होगा। ऐसा स्पष्ट नशा हर एक की बुद्धि में नम्बरवार आता जायेगा। जैसे साकार रूप में माँ-बाप दोनों को अपना भविष्य स्पष्ट था। नाम भी, रूप भी स्पष्ट, देश भी स्पष्ट और काल भी स्पष्ट था। इतना स्पष्ट है कि किस सम्बन्ध में आयेंगे? वा सम्बन्ध भी स्पष्ट किस रूप में सामने आयेगा। अभी दिल में थोड़ा बहुत किस-किस को आ सकता है। लेकिन कुछ समय बाद ऐसे ही निश्चय बुद्धि होकर कहेंगे कि यह होना ही है। अभी अगर आप कहेंगे भी तो दूसरे निश्चय करे या न करे। लेकिन थोड़े समय में आपकी चलन, आपकी तदबीर जो है वह आपके भविष्य तस्वीर को प्रसिद्ध करेगी। अब तदबीर और भविष्य में कुछ फर्क है। लेकिन जैसे- जैसे समय और आपका पुरुषार्थ समान होता जायेगा तो फिर कोई को संकल्प नहीं उठेगा।
आप सभी ने दीपमाला मनाई। दीपमाला पर क्या करते है? एक दीप से अनेक दीप जगाते है तो अनेकों का एक के साथ लगन लगता है, यही दीपमाला है। अगर एक-एक दीपक की एक दीपक के साथ लगन है तो यही दीपमाला है। दीपक में क्या है? अग्नि। तो लगन होगी तो अस्ति भी होगी। लगन नहीं तो अग्नि भी नहीं। यही देखना है कि हम दीपक लगन लगाकर अग्नि बने है? दीपक कितने प्रकार के होते है? जो दुनिया में भी प्रसिद्ध है? (हरेक ने अपना- अपना विचार सुनाया) एक है अंधियारे को मिटाकर रोशनी करने वाला मिट्टी का स्थूल दीपक और दूसरा है आत्मा का दीपक, तीसरा है कुल का दीपक और चौथा कौन-सा है? आशाओं का दीपक कहते हैं ना। बाप को बच्चों में आशा रहती है। तो चौथा है आशाओं का दीपक। यह चार प्रकार के दीपक गाये जाते हिं। अब इन चार दीपकों से हरेक ने कितने दीपक जगाये हैं? बापदादा की आशायें जो बच्चों में रहती हैं - वह दीपक जगाया है? मिट्टी के दीपक तो कई जन्म जगाये हिं। आत्मा का दीपक जगा है? यह चारों प्रकार के दीपक जब जग जाते हैं तब समझो दीपमाला मनाई। ऐसा कोई कर्म न हो जो कुल का दीपक बुझ जाये। ऐसी कोई चलन न हो जो बापदादा बच्चों में आशाओं का दीपक जगाते वह बुझ जाये। एकरस और अटल-अडोल यह सभी दीपक जग रहे हनी? जिसका दीपक खुद जगा हुआ होगा वह औरों का दीपक जगाने बिगर रह नहीं सकता। बापदादा की बच्चों में मुख्य आशायें कौन सी रहती हैं? बापदादा की हर एक बच्चे में यही आशा रहती हैं कि एक-एक बच्चा पहले नम्बर में जाये अर्थात् हरेक विजयी रत्न बने। विजयी रत्न की निशानियाँ क्या होगी? जो आप सभी ने सुनाया वह तो जो सुना है वही बोला। इसलिए ठीक ही है। जो विजयी होगा उनके लक्षण तो आप सभी ने सुनाये लेकिन साथ-साथ विजयी उनको कहा जाता है - जो खुद तो विजय प्राप्त किया हुआ हो लेकिन औरों को भी अपने से आगे विजयी बनाये। जैसे बापदादा बच्चों को अपने से भी आगे रखते थे ना! वैसे ही जो विजयी रत्न होंगे उनकी विजय की निशानी यह है कि वह अपने संग का रंग सभी को लगायेंगे। जो भी सामने आये वह विजयी बनकर ही निकले। ऐसे विजयी रत्न विजय माला के किस नम्बर में आते हैं? खुद तो विजयी बने हो लेकिन और भी आपके संग के रंग से विजयी बन जाये। यही सर्विस रही हुई है। ऐसे नहीं कि कोटों में कोई ही विजयी बनेंगे। लेकिन जो जैसा होता है वैसा ही बनाता है। ऐसे विजयी रत्न जो अनेकों को विजयी बना सके वही माला के मुख्य मणके हैं। तो विजयी की निशानी है आप समान विजयी बनाना। अभी यह सर्विस रही हुई है। अनेकों को विजयी बनाना है सिर्फ खुद को नहीं बनाना है। दीपमाला में पूरी दीपमाला जगी हुई होती है। जब दीपमाला कहा जाता है तो अनेक जगे हुए दीपकों की माला हरेक ने गले में डाली है? ऐसे जगे हुए दीपकों की माला हरेक रत्न और गले में जब डालेंगे तब विजय का नगाड़ा बजेगा। जैसे दिव्य गुणों की माला अपने में डाली है वैसे अनेक जगे हुए दीपकों की माला अपने गले में डालना है। जितनी यहाँ दीपकों की माला अपने गले में डालोगे उतनी वहाँ प्रजा बनेगी। कोई-कोई माला बहुत लम्बी-चौडी होती है। कोई सिर्फ गले में पहनने तक होती है। तो माला कौन सी पहननी है? बहुत बड़ी। ऐसी माला से अपने आपको श्रृंगार करना है। कितने दीपकों की माला अब तक डाली है? गिनती कर सकते हो वा अनगिनत है? दीपक भी अच्छे वह लगते हैं जो तेज जगे हुए होते हैं। टिम-टिम करने वाले अच्छे नहीं लगते। अच्छा।
मधुबन के फूलों में विशेषतायें क्या होनी चाहिए? नाम ही है मधुबन। तो पहली विशेषता है मधुरता। मधुरता ऐसी चीज़ है जो कोई को भी हर्षित कर सकते हैं। मधुरता को धारण करने वाला यहाँ भी महान् बनता है, और वहाँ भी मर्तबा पाता है। मधुरता वालों को सभी महान रूप से देखते हैं। तो यह मधुरता का विशेष गुण होना चाहिए। मधुरता से ही मधुसूदन का नाम बाला करेंगे। यह मधुबन नाम है। मधु अर्थात् मधुरता और बन में क्या विशेषता होती है? बन में वैराग्य वृत्ति वाले जाते है। तो बेहद की वैराग्य बुद्धि भी चाहिए। फिर इससे सारी बातें आ जायेगी। और आप सभी को कॉपी करने के लिए यहाँ आयेंगे। सभी साचेंगे यह कैसे ऐसे बने हैं। सभी के मुख से निकलेगा कि मधुबन तो मधुबन ही है। तो यह दो विशेषतायें धारण करनी हैं - मधुरता और बेहद की वैराग्य वृत्ति। दूसरे शब्दों में कहते हैं स्नेह और शक्ति। आप सभी का सभी से जास्ती स्नेह है ना! बापदादा से। और बापदादा का मधुबन वालो से विशेष स्नेह रहता है। क्योंकि भल कैसे भी हैं लेकिन सर्वस्व त्यागी हैं। इसलिए आकर्षित करते हैं। लेकिन सर्वस्व त्यागी के साथ अब स्नेह और शक्ति भी भरनी है। समझा – किस विशेषता को भरना है।
कुमारियों को कमाल कर दिखानी है। कुमारियों का हर कर्तव्य कमाल योग्य होना चाहिए। संकल्प और वाणी तथा कर्म कमाल का होना चाहिए। कुमारियाँ पवित्र होने के कारण अपनी धारणा को तेज बना सकती है। ऐसे कमाल का कर्तव्य कर दिखाना है, जो हर एक के मुख से यही निकले कि इन्हों का कर्तव्य कमाल का है। जैसे बापदादा के हर बोल सुनते हैं तो मुख से निकलता है ना कि आज की मुरली तो कमाल की है। तो कुमारियों के हर कर्म ऐसे कमाल के होने चाहिए। बापदादा को फालो करना है। ऐसे नहीं कहना कि कोशिश करेंगे। जब तक कोशिश करेंगे तब तक कशिश नहीं होगी। अगर कशिश धारण करनी है तो कोशिश शब्द को खत्म कर दो। अभी कशिश रूप बनना है। फालो फादर करना है। बापदादा कभी कहते थे कि कोशिश करेंगे। फिर आप क्यों कहती हो कि कोशिश करेंगी। कुमारियाँ कमाल करेंगी तो साथी साथ भी देगा। नहीं तो साथी साक्षी हो जायेगा। इसलिए साथी को साथ रखना है। नहीं तो साक्षी बन जायेंगे। साक्षी अच्छा लगता है या साथी? जो मेहनत करते है उसका फल भी यहाँ ही मिलता है। यह स्नेह और भविष्य पद मिलता है। सभी का स्नेही बनने के लिए मेहनत करनी है। जो जितनी मेहनत करते है वह उतने ही स्नेही बनते है। समय पर स्नेही की ही याद आती है। कोई बात में मेहनत की याद आती है। बाबा भी क्यों याद आते है? मेहनत की है तब स्नेह है। मेहनत से स्नेही बनना है। जितना जास्ती मेहनत उतना सर्व के स्नेही बनेंगे। मेहनत का फल ही स्नेह है। जो मेहनत करते है उनको हरेक स्नेही की नजर से देखेंगे। जो मेहनत नहीं करेंगे उनको स्नेह की नजर से नहीं देखेंगे। स्टूडेन्ट को टीचर के गुण जरूर धारण करने है। स्नेह ही सम्पूर्ण बनाता है। स्नेह के साथ फिर शक्ति भी चाहिए। दोनों का जब मिलन हो जाता है तो स्नेह और शक्ति वाली अवस्था अति न्यारी और अति प्यारी होती है। जिसके लिए स्नेह है उसके समान बनना है। यही स्नेह का सबूत है। इसमें अपने को चेक करना है-कहाँ तक हम समानता में समीप आये है? जितना-जितना समानता में समीप होंगे उतना ही समझो कर्मातीत अवस्था के समीप पहुचेंगे। यही समानता का मीटर है। अपनी कर्मातीत अवस्था परखना है। सिर्फ स्नेह रखने से भी सम्पूर्ण नहीं बनेंगे। स्नेह के साथ-साथ शक्ति भी होगी तो खुद सम्पूर्ण बन औरों को भी सम्पूर्ण बनायेंगे। क्योंकि शक्ति से वह संस्कार भर जाते है। तो अब स्नेह के साथ शक्ति भी भरनी है।
सभी के दिलों पर विजय किन गुणों से प्राप्त कर सकते हो? सभी को सन्तुष्ट करना। बाप में यह विशेष गुण था। वही फालो करना है। सभी मधुबन की लिस्ट में हो या आलराउन्डर की लिस्ट में हो? एक है हद की लिस्ट, दूसरी है बेहद की लिस्ट। आलराउन्डर और एवररेडी। इसी लिस्ट में मालूम है क्या करना होता है? एक सेकेण्ड में तैयार। सकल्पों को भी एक सेकेण्ड में बन्द करना है। मिलिट्री वालों का हर समय बिस्तरा तैयार रहता है। यह सकल्पों का बिस्तरा भी बन्द करना है। बिस्तरा भी एवररेडी रहना चाहिए। एवररेडी बनने वालों का सकल्पों का बिस्तरा तैयार रहना चाहिए। कोई भी परिस्थिति हो उसका सामना करने के लिए पेटी बिस्तरा तैयार हो। अच्छा।
रूहानी बच्चों! तुम आत्माओं को वाणी से परे अपने घर जाने के लिए पुरुषार्थ करना है। इसलिए इस पुरानी दुनिया में रहते देह और देह के सम्बन्धों से उपरामचित होना है। पतित दुनिया में रहते हुए बाप पवित्र बनने की शक्ति देते है। पुरुषार्थ करके तुमको सदा पवित्र बनना है।
बच्चे! सदैव गुणग्राहक बनना है। स्तुति-निन्दा, लाभ-हानि, जय-पराजय सभी में सन्तुष्ट होकर चलना है और रहमदिल बनना है।
अच्छा !!!
13-11-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बापदादा की उम्मीदें”
अशरीरी होकर फिर शरीर में आने का अभ्यास पक्का होता जाता है। जैसे बापदादा अशरीरी से शरीर में आते है वैसे ही तुम सभी बच्चों को भी अशरीरी होकर के शरीर में आना है। अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर फिर व्यक्त में आना है। ऐसा अभ्यास दिन-प्रतिदिन बढ़ाते चलते हो? बापदादा जब आते है तो किससे मिलने आते है? (आत्माओं से) आत्माएं कौन सी? जो सारे विश्व में श्रेष्ठ आत्माएं है। उन श्रेष्ठ आत्माओं से बापदादा का मिलन होता है। इतना नशा रहता है – हम ही सारे विश्व में श्रेष्ठ आत्मायें है। श्रेष्ठ आत्माओं को ही सर्वशक्तिमान के मिलन का सौभाग्य प्राप्त होता है। तो बापदादा भृकुटी के बीच में चमकते हुए सितारे को ही देखते हैं। तुम सितारों को किस-किस नाम से बुलाया जाता है? एक तो लक्की सितारे भी हो और नयनों के सितारे भी और कौनसे सितारे हो? जो कार्य अब बच्चों का रहा हुआ है उस नाम के सितारे को भूल गये हो। जो मेहनत का कार्य है वह भूल गये हो। याद करो अपने कर्तव्य को। बापदादा के उम्मीदों के सितारे। बापदादा के जो गाये हुए हैं वही कार्य अब रहा हुआ है? बापदादा जो उम्मीदें बच्चों से रखते है वह कार्य पूरा किया हुआ है? बापदादा एक-एक सितारे में यही उम्मीद रखते हैं कि एक-एक अनेकों को परिचय देकर लायक बनाये। एक से ही अनेक बनने हैं। यह चेक करो कि हम ऐसे बने हैं। अनेकों को बनाया है? उसमें भी क्वान्टिटी तो बन रहे है। क्वालिटी बनाना है। क्वान्टिटी बनाना सहज है लेकिन क्वालिटी वाले बनाना - यह उम्मीद बापदादा सितारों में रखते हैं। अभी यह कार्य रहा हुआ है। क्वालिटी बनाना है। क्वान्टिटी बनाना यह तो चल रहा है। लेकिन अभी ऐसी क्वालिटी वाली आत्मायें बनाने की सर्विस रही हुई है। क्वालिटी वाली एक आत्मा क्वान्टिटी को आपेही लायेगी। एक क्वालिटी वाला अनेकों को ला सकते है। क्वालिटी, क्वान्टिटी को ला सकती है। अभी यही कार्य जो रहा हुआ है उसको पूरा करना हे। अपनी सर्विस की क्वालिटी से आप खुद सन्तुष्ट रहते हो? क्वान्टिटी को देख खुश तो होते हो लेकिन क्वालिटी को देख सर्विस से सन्तुष्ट होना है। क्वालिटी कैसे लायेंगे? जितनी-जितनी जिसमें डिवाइन क्वालिटी होगी उतना ही क्वालिटी वालों को लायेगी। कई बच्चों को सभी प्रकार की मेहनत बहुत करनी पड़ती है। अपने पुरुषार्थ में भी तो सर्विस में भी। कोई को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है कोई को कम। इस कारण क्या है? कभी उसी को ही मेहनत लगती है कभी फिर उन्हीं को ही सहज लगता है। यह क्यों? धारणा की कमी के कारण मेहनत लगती है? कई कर्तव्यों में तो लोग कह देते हैं कि इनके भाग्य में ही नहीं है। यहाँ तो ऐसे नहीं कहेंगे। किस विशेष कमी के कारण मेहनत लगती है? श्रीमत पर चलना है। फिर भी क्यों नहीं चल पाते? कोई भी कार्य में चाहे पुरुषार्थ, चाहे सर्विस में मेहनत लगने का कारण यह है कि बातें तो सभी बुद्धि में हैं लेकिन इन बातों की महीनता में नहीं जाते। महीन बुद्धि को कभी मेहनत नहीं लगती। मोटी बुद्धि कारण बहुत मेहनत लगती है। श्रीमत पर चलने के लिए भी महीन बुद्धि चाहिए। महीनता में जाने का अभ्यास करना है। दूसरे शब्दों में यह कहेंगे कि जो सुना है वह करना है अर्थात् उसकी महीनता में जाना है। जैसे दही को बिलोरकर महीन करते हैं तब उसमें मक्खन निकलता है। तो यह भी महीनता में जाने की बात है। महीनता की कमी के कारण मेहनत होती है। महीनता में जाने की बजाए उस बात को मोटे रूप में देखते हैं। सर्विस के समय भी महीन बुद्धि हो, ज्ञान की महीनता में जाकर उसको सुनायें और उसज्ञा न की महीनता में ले जाये तो उनको भी मेहनत कम लगे। और अपने को भी कम लगे। इस महीनता की ही कमी है। अब यही पुरुषार्थ करना है।
शारीरिक शक्ति भी कब आती है? जब भोजन महीन रूप से खाओ, तो उस भोजन की शक्ति बनती है। भोजन का महीन रूप क्या बनता है? खून। जब खून बन जाता है तब शक्ति आ जाती है। तो अब सिर्फ बाहर के, ऊपर के रूप को न देखते हुए अन्दर जाने की कोशिश करो।
जितना हर बात में अन्दर जायेंगे, तब रत्न देखने में आयेंगे। और हर एक बात की वैल्यूका पता पड़ेगा। जितना ज्ञान की वैल्यू, सर्विस की वैल्यू का मालूम होगा उतना आप वैल्यूबल रत्न बनेंगे। ज्ञान रत्नों की वैल्यू कम करते हो तो खुद भी वैल्यूबल नहीं बन सकते। एक-एक रत्न की वैल्यू को परखने की कोशिश करो। आप बापदादा के वैल्यूबल रत्न हो ना! वैल्यूबल रत्न को क्या किया जाता हे? (छिपाकर रखना होता है) बापदादा के जो वैल्यूबल रत्न हैं उन्हो को बापदादा छिपाकर रखते हैं। माया से छिपाते हैं। माया से छिपाकर फिर कहाँ रखते हैं? जितना-जितना जो अमूल्य रत्न होंगे उतना-उतना बापदादा के दिल तख्त पर निवास करेंगे। जब दिल तख्तनशीन बनेंगे तब राज्य के तख्तनशीन बनेंगे। तो संगमयुग का कौन सा तख्त है? तख्त है वा बेगर हो? संगमयुग पर कौनसा तख्त मिलता है। बापदादा के दिल का तख्त। यह सारे जहान के तख्तों से श्रेष्ठ है। कितना भी बड़ा तख्त सतयुग में मिले लेकिन इस तख्त के आगे वह क्या है? इस तख्त पर रहने से माया कुछ नहीं कर सकती। इस पर उतरना चढ़ना नहीं पड़ेगा। इस पर रहने से माया के सर्व बन्धनों से मुक्त रहेंगे।
अच्छा !!!
17-11-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“फर्श से अर्श पर जाने की युक्तियाँ”
यहाँ भट्ठी में किस लिए आये हो? देह में रहते विदेही हो रहने के अभ्यास के लिये। जब से यहाँ पाँव रखते हो तब से ही यह स्थिति होनी चाहिए। जो लक्ष्य रखा जाता है उसको पूर्ण करने के लिए अभ्यास और अटेन्शन चाहिए। बापदादा हरेक को नई बात के लिये ही बुलाते हैं। अधर कुमारों को विशेष इसलिए बुलाया है - पहले तो अपना जो गृहस्थ व्यवहार बनाया है उसमें जो उल्टी सीढ़ी चढ़ी है, उस उल्टी सीढ़ी से नीचे उतरने के लिए बुलाया है। और उल्टी सीढ़ी से उतार कर फिर किसमें चढ़ाना है? अर्श से फर्श पर, फिर फर्श से अर्श पर। उल्टी सीढ़ी का कुछ न कुछ जो ज्ञान रहता है, उस ज्ञान से अज्ञानी बनाने के लिये और जो सत्य ज्ञान है उनकी पहचान देकर शान-स्वरूप बनाने के लिए बुलाया है। पहले उतारना है फिर चखाना है। जब तक पूरे उतरे नहीं है तो चढ़ भी नहीं सकते। सभी बातों में अपने को उतारने के लिये तैयार हो? कितनी बड़ी सीढ़ी से उतरना है? उल्टी सीढ़ी कितनी लम्बी है? अभी तक जो पुरुषार्थ किया है, उसमें समझते हो कि पूरे ही सीढ़ी उतरे है कि कुछ अभी तक उतर रहे हो? पूरी जब उतर जायेंगे तो फिर चढ़ने में देरी नहीं लगेगी लेकिन उतरते-उतरते कहाँ न कहाँ ठहर जाते हो। तो अब समझा किस लक्ष्य से बुलाया है? 63 जन्मों में जो कुछ उल्टी सीढ़ी चढ़े हो वह पूरी ही उतरनी पड़े। फिर चढ़ना भी है। उतरना सहज है वा चढ़ना सहज है? उतरना सहज है वा उतरना भी मुश्किल है? अभी आप जो पुरुषार्थ कर रहे हो वह उतर कर चढ़ने का कर रहे हो? कि सिर्फ चढ़ने का कर रहे हो? कुछ मिटा रहे हो कुछ बना रहे हो। दोनों काम चलता है ना। आपको मालूम है लास्ट पौढ़ी (सीढ़ी) कौनसी उतरनी है? इस देह के भान को छोड़ देना है। जैसे कोई शरीर के वस्त्र उतारते हो तो कितना सहज उतारते हो। वैसे ही यह शरीर रूपी वस्त्र भी सहज उतार सको और सहज ही समय पर धारण कर सको, किसको यह अभ्यास पूर्ण रीति से सीखना है। लेकिन कोई-कोई का यह देह अभिमान क्यों नहीं टूटता है? यह देह का चोला क्यों सहज नहीं उतरता है? जिसका वस्त्र तंग, टाइट होता है तो उतार नहीं सकते हैं। यह भी ऐसे ही है। कोई न कोई संस्कारों में अगर यह देह का वस्त्र चिपका हुआ है अर्थात् तंग, टाइट है, तब उतरता नहीं है। नहीं तो उतारना, चढ़ाना वा यह देह रूपी वस्त्र छोड़ना और धारण करना बहुत सहज है। जैसे कि स्थूल वस्त्र उतारना और पहनना सहज होता है। तो यही देखना है कि यह देह रूपी वस्त्र किस संस्कार से लटका हुआ है। जब सभी संस्कारों से न्यारा हो जायेंगे तो फिर अवस्था भी न्यारी हो जावेगी। इसलिए बापदादा भी कई बार समझाते हैं कि सभी बातों में इज़ी रहो। जब खुद सभी में इज़ी रहेंगे तो सभी कार्य भी इज़ी होंगे। अपने को टाइट करने से कार्य में भी टाइटनेस आ जाती है। वैसे तो जो इतने समय से पुरुषार्थ में चलने वाले हैं उन्हों को अब बहुत ही कर्तव्य में न्यारापन आना ही चाहिए। अभी इस भट्ठी में जो भी टाइटनेस है वह भी, और जो कुछ उल्टी सीढ़ी की पौढ़ीयाँ रही हुई हैं, वह उतारना भी और फिर लिफ्ट में चढ़ना भी। लेकिन लिफ्ट में बैठने के लिये क्या करना पड़ेगा? लिफ्ट में कौन बैठ सकेंगे?
बाप के लिये सारी दुनिया में लायक बच्चे ही श्रेष्ठ सौगात है। तो लिफ्ट में चढ़ने के लिये बाप की गिफ्ट बनना और फिर जो कुछ है वह भी गिफ्ट में देना पड़ेगा। गिफ्ट देनी भी पड़ेगी और बाप की गिफ्ट बनना भी पड़ेगा तब लिफ्ट में बैठ सकेंगे। समझा? अभी देखना है दोनों काम किये हैं गिफ्ट भी दी है और गिफ्ट बने भी हैं? गिफ्ट को बहुत सम्भाला जाता है और गिफ्ट को शोकेस में सजाकर रखते हैं। जैसी-जैसी गिफ्ट वैसी-वैसी शोकेस में आगे-आगे रखते हैं। आप सभी भी अपने आप को ऐसी गिफ्ट बनाओ जो लिफ्ट भी मिल जाये और इस सृष्टि के शोकेस में सभी से आगे आ जाओ। तो शोकेस में सभी से आगे रहने के लिये अधरकुमारों को दो विशेष बातों का ध्यान में रखना पड़ेगा। शोकेस में चीज़ रखी जाती है, उसमें क्या विशेषता होती है? (अट्रैक्टिव) एक तो अपने को अट्रैक्टिव बनाना पड़ेगा और दूसरा एक्टिव। यह दोनों विशेषताएं खास अधरकुमारों को अपने में भरनी हैं। यह दोनों गुण आ जायेंगे तो फिर और कुछ रहेगा नहीं। कहाँ-कहाँ एक्टिव बनने में कमी देखने में आती है। तो इस भट्ठी से विशेष कौनसी छाप लगाकर जायेंगे? यही दो शब्द सुनाया- अट्रैक्टिव और एक्टिव। अगर यह छाप लगाकर जायेंगे तो आपकी एक्टिविटी भी बदली होगी। जितनी-जितनी यह छाप वा ठप्पा पक्का लगाकर जायेंगे उतनी एक्टिविटी भी पक्की और बदली हुई देखने में आयेगी। अगर ठप्पा कुछ ढीला लगाकर जायेंगे तो फिर एक्टिविटी में चेंज नहीं देखने में आयेगी। यह तो सुना था ना-भट्ठी में आना अर्थात् अपना रूप रंग दोनों बदलना है।
भट्ठी में जो चीज़ आती है, उनकी जो बुराई होती है वह गल जाती है। जो असली रूप है, असली जो कर्तव्य है वह यहाँ से लेकर के जाना। वह कौनसा रूप है? क्या बदलेंगे? अभी रंग बदलते रहते हैं फिर एक ही रंग पक्का चढ़ जायेगा जिसके ऊपर और कोई रंग चढ़ नहीं सकता और जिस रंग को कोई मिटा नहीं सके और न मिट सके, न और कोई रंग चढ़ सके। सभी बातों में एक्टिव होना है। जैसा समय, जैसी सर्विस उसमें एवररेडी। कोई भी कार्य आता है, तो एक्टिव जो होता है, उस कार्य को शीघ्र ही समझ कर और सफलता को प्राप्त कर लेता है। जो एक्टिव नहीं होते तो पहले कार्य को सोचते रहते हैं। सोचते-सोचते समय भी गँवायेंगे, सफलता भी नहीं होगी। एक्टिव अर्थात् एवररेडी। और वह हर कार्य को परख भी लेगा। उसमें जुट भी जायेगा। और सफलता भी पा लेगा। तीनों बातें उसमें होगी। जिसमें भारीपन होता है उनको एक्टिव नहीं कहा जाता। पुरुषार्थ में भारी, अपने संस्कारों में भारी, उनको एक्टिव नहीं कहा जायेगा। एक्टिव जो होगा वह एवररेडी और इज़ी होगा। खुद इज़ी बनने से सब कार्य भी इज़ी, पुरुषार्थ भी इज़ी हो जाता है। खुद इज़ी नहीं बनते तो पुरुषार्थ और सर्विस दोनों इज़ी नहीं होती। मुश्किलातों का सामना करना पड़ता है। सर्विस मुश्किल नहीं लेकिन अपने संस्कार, अपनी कमजोरियाँ मुश्किल के रूप में देखने में आती हैं। पुरुषार्थ भी मुश्किल नहीं। अपनी कमजोरियाँ मुश्किल बना देती है। नहीं तो कोई को सहज, कोई को मुश्किल क्यों भासता। अगर मुश्किल ही है तो सभी को सभी बातें मुश्किल हो। लेकिन वही बात कोई को मुश्किल कोई को सहज क्यों? अपनी ही कमजोरियाँ मुश्किलात के रूप में आती है। इसलिये यह दो बातें धारण करनी हैं।
अट्रैक्टिव भी तब बन सकेंगे जब पहले अपने में विशेषताएं होगी। आकर्षित बनने लिये हर्षित भी रहना पड़ेगा। हर्षित का अर्थ ही है अतीन्द्रिय सुख में झूमना। ज्ञान को सुमिरण करके हर्षित होना। अव्यक्त स्थिति का अनुभव करते अतीन्द्रिय सुख में अना। इसको कहा जाता है हर्षित। हर्षित भी मन से और तन से दोनों से होना है। ऐसा जो हर्षित होता है वही आकर्षित होता है। प्रकृति और माया के अधीन न होकर दोनों को अधीन करना चाहिए। अधीन हो जाने के कारण अपना अधिकार खो लेते है। तो अधीन नहीं होना है, अधीन करना है तब अपना अधिकार प्राप्त करेंगे और जितना अधिकार प्राप्त करेंगे उतना प्रकृति और लोगों द्वारा सत्कार होगा तो सत्कार कराने लिये क्या करना पड़ेगा? अधीनपन छोड़कर अपना अधिकार रखो। अधिकार रखने से अधिकारी बनेंगे। लेकिन अधिकार छोड़ कर के अधीन बन जाते हो। छोटी-छोटी बातों के अधीन बन जाते हो। अपनी ही रचना के अधीन बन जाते हैं। लौकिक बच्चे तो भल हैं लेकिन अपनी ही रचना अर्थात् संकल्पों के अधीन हो जाते है। जैसे लौकिक रचना से अधीन बनते हो वैसे ही अब भी अपनी रचना संकल्पों के भी अधीन बन जाते हो। अपनी रचना कर्मेन्द्रियों के भी अधीन बन जाते हो। अधीन बनने से ही अपना जन्म सिद्ध अधिकार खो लेते हो ना। तो बच्चे बने और अधिकार हुआ। सर्वदा सुख, शान्ति और पवित्रता का जन्म सिद्ध अधिकार कहते हो ना। अपने आप से पूछो कि बच्चा बना और पवित्रता, सुख, शान्ति का अधिकार प्राप्त किया। अगर अधिकार छूट जाता है तो कोई बात के अधीन बन जाते हो। तो अब अधीनता को छोडो, अपने जन्म सिद्ध अधिकार को प्राप्त करो। यह जो कहते हो कब प्रभाव निकलेगा? यह प्रभाव भी क्यों नहीं निकलता कारण क्या? क्योंकि अब तक कई बातों में खुद ही प्रभावित होते रहते हो। तो जो खुद प्रभावित होता रहता है उनका प्रभाव नहीं नकलता। प्रभाव चाहते हो तो इन सभी बातों में प्रभावित नहीं होना। फिर देखो कितना जल्दी प्रभाव निकलता है। अपनी एक्टिविटी से अन्दाजा निकाल सकते हो। ऐसा सौभाग्य सारे कल्प में एक ही बार मिलता है। सतयुग में भी लौकिक बाप के साथ रहेंगे। पारलौकिक बाप के साथ नहीं। 84 जन्मों में कितना श्रृंगार किया होगा। भिन्न- भिन्न प्रकार के बहुत श्रृंगार किये? बापदादा का स्नेह यही है कि बच्चों को श्रृंगारर कर शोकेस में सृष्टि के सामने लाये। जब सभी सम्पूर्ण बनकर शोकेस अर्थात् विश्व के सामने आयेंगे तो कितने सजे हुए होंगे। सतयुग का श्रृंगार नहीं। गुणों के गहने धारण करने है।
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06-12-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“सरल स्वभाव से बुद्धि को विशाल और दूरांदेशी बनाओ”
आज की सभा में कौनसी विशेष खुशबू भी है और विशेष आकर्षण भी है? स्नेह तो सभी का है ही। आप को किसलिए बुलाया है? ऐसे समझे कि यह जो भी सभी आये हैं वह वापस जाने के लिए तैयार होकर आये हैं। एवररेडी जो होते हैं वह सदैव तैयार ही होते हैं। बुलावा हुआ और एक सेकेण्ड में अपना रहा हुआ सभी कुछ समेट भी सकते और जम्प भी दे सकते। प्रैक्टिकल में देखा भी ना कि ड्रामा के बुलावे पर कितना टाइम लगा? एक तरफ समेटना दूसरे तरफ हाई जम्प देना। यह दोनों सीन देखी - यह ड्रामा में किसलिए हुआ? सिखलाने के लिए। तो ऐसे एवररेडी बनना पड़ेगा। अभी एवररेडी की लाइन चालू हो गई है। इस लाईन के अन्दर किसका भी नम्बर आ सकता है। जो सभी के संकल्प में है वह कभी नहीं होना है। होगा फिर भी अनायास ही। यह ब्राह्मण कुल की रीति-रस्म चालू हो चुकी है। यह रीति-रस्म भी ड्रामा में क्यों बनी हुई है, उसका भी बहुत गुप्त रहस्य है। तो ऐसा पुरुषार्थ पहले से ही कर लो जो फौरन समेट भी सको और जम्प भी के सको। समेटने की शक्ति किसमें हो सकती है? जो सरल स्वभाव वाले होंगे उसमें समेटने की शक्ति सहज आ सकती है। जो सरल स्वभाव वाला होगा वह सभी का सहयोगी भी होगा। जो सभी का स्नेही होता है उनको सभी द्वारा सहयोग प्राप्त होता है। इसलिए सभी बातों का सामना करना वा समेंना सहज ही कर सकता है। और जितना सरल स्वभाव वाले होंगे उतना माया कम सामना करेगी। वह सभी को प्रिय लगता है। सरल स्वभाव वाले का व्यर्थ संकल्प कभी नहीं चलता। समय व्यर्थ नहीं जाता। व्यर्थ संकल्प न चलने के कारण उनकी बुद्धि विशाल और दूरांदेशी रहती है। इसलिए उनके आगे कोई भी समस्या सामना नहीं कर सकती। जितनी सरलता होगी उतनी स्वच्छता भी होगी। स्वच्छता सभी को अपने तरफ आकर्षित करती है। स्वच्छता अर्थात् सच्चाई और सफाई। सच्चाई और सफाई तब होगी जब अपने स्वभाव को सरल बनायेंगे। सरल स्वभाव वाला बहुरूपी भी बन सकता है। कोमल चीज़ को जैसे भी रूप में लाओ आ सकती है। तो अब गोल्ड बने हो लेकिन गोल्ड को अब अग्नि में गलाओ तो मोल्ड भी हो सके। इस कमी के कारण सर्विस की सफलता में कमी पड़ती है। अपने को कैसे मोल्ड करे इसके लिए भट्ठी में आये हो। एक है मोड़ने की शक्ति और दूसरी है ब्रेक लगाने की शक्ति। मोड़ना भी है तो कितने समय में? भल मोड़ना आता भी है लेकिन कहाँ-कहाँ समय बहुत लग जाता है। समय न लगे वह संकल्प करना है। संकल्प किया और सिद्ध हुआ। भट्ठी से ऐसा बनकर के निकलना है जो हर संकल्प हर शब्द सिद्ध हो। वह लोग रिद्धि-सिद्धि प्राप्त करते हैं लकिन यहाँ योग की रिद्धि-सिद्धि है। याद की रिद्धि-सिद्धि क्या होती है, वह सीखना है। जो सिद्धि को प्राप्त होते है उनके संकल्प, शब्द और हर कर्म सिद्ध होता है। एक संकल्प भी व्यर्थ नहीं उठेगा। संकल्प वह उठेंगे जो सिद्ध होंगे। सर्विस-एबुल उसको कहा जाता है जिसका एक भी संकल्प बिना सिद्धि के न जाये। अथवा ऐसा कोई संकल्प न उठना चाहिए जो सिद्ध होने वाला न हो। आप के एक-एक संकल्प की वैल्यू है। लेकिन जब अपनी वैल्यू को खुद रखेंगे तब अनेक आत्मायें भी आप रत्नों की वैल्यू को परखेगी। इस भट्ठी से हरेक का चेहरा चैतन्य म्यूज़ियम बनकर निकले। और म्यूज़ियम तो बहुत बनाये लेकिन अब एक-एक को अपने चेहरे को चैतन्य म्यूजियम बनाना है। इस चैतन्य चेहरे के म्यूज़ियम में कितने चित्र है? इस चेहरे के म्यूज़ियम में कौन-कौन से चित्र फिट करेंगे? म्यूज़ियम में पहले चित्रों की फिटिंग करते हैं, बाद में डेकोरेशन होता है फिर उद्घाटन कराना होता है फिर ओपीनियन लेना होता है। तो आप के इस चैतन्य म्यूज़ियम में तीन मुख्य चित्र हैं। भृकुटी, नयन और मुख। इन द्वारा ही आपकी स्मृति, वृत्ति दृष्टि और वाणी का मालूम पड़ता है। जैसे त्रिमूर्ति, लक्ष्मी नारायण और सीढ़ी यह तीन मुख्य चित्र हैं ना। इसमें सारा ज्ञान आ जाता है। वैसे ही इस चेहरे के अन्दर यह चित्र अनादि फिट हैं। इनकी ऐसी डेकोरेशन हो जो दूर से यह चित्र अपने तरफ आकर्षण करे। आकर्षण होने के बिना रह नहीं सकेंगे। आप लोग म्यूज़ियम बनाते हो तो कोशिश करते हो ना कि चित्र ऐसे डेकोरेट हो जो दूर से आकर्षण करे। किसको बुलाना भी न पड़े। वैसे ही आप हरेक को अपना म्यूज़ियम ऐसा तैयार करना है। जो कुछ सुना है उसको गहराई से सोचकर के एक-एक रंग में समा देना है। जिन्होंने जितना गहराई से सुना है उतना अपने चलन में प्रत्यक्ष रूप में लाया है? उन संस्कारों को प्रत्यक्ष करने के लिए एक-एक बात की गहराई में जाओ और अपने एक-एक रग में वह संस्कार समाओ। कोई भी चीज़ को किसमें समाना होता है तो क्या करना होता है? एक तो गहराई में जाना होता है और अन्दर दबाना होता है। कूटना पड़ता है। कूटना अर्थात् हरेक बात को महीन बनाना। इस भट्ठी से संस्कारों को प्रत्यक्ष रूप में लाने की प्रतिज्ञा कर के निकलना है। जितना बाप को प्रत्यक्ष करेंगे उतना खुद को प्रत्यक्ष करेंगे। बाप को प्रत्यक्ष करने से आप की प्रत्यक्षता बाप के साथ ही है। ऐसा बनना और फिर बनाना है। समझा।
इस संगठन में ऐसी शक्ति है जो चाहे वह कर सकते हैं। सिर्फ संकल्प करे तो सृष्टि बदल सकती है। ऐसी शक्तिशाली आत्मायें हैं। लेकिन अब संकल्प कौनसा पावरफुल करना है? उसको फिर से रिफ्रेश करना है।
इस मधुबन के लिए ही गायन है कि कोई ऐसा-वैसा पाँव नहीं रख सकता। मधुबन है सौभाग्य की लकीर। उसके अन्दर और कोई पाँव नहीं रख सकता। आप सभी को बापदादा समझाते हैं कि यह स्नेह की लकीर है जिस स्नेह के घेराव के अन्दर बापदादा निवास करते हैं। इसके अन्दर कोई आ नहीं सकता। चाहे भल अपना शीश भी उतार कर रखे। साकार रूप में स्नेह मिलना कोई छोटी बात नहीं है। उसके लिए तो आगे चलकर जब रोना देखेंगे तब आप लोगों को उसकी वैल्यू का मालूम होगा। रो-रोकर आप के चरणों में गिरेंगे। स्नेह की एक बूँद की प्यासी हो चरणों में गिरेंगे। आप लोगों ने स्नेह के सागर को अपने में समाया है। वह एक बूँद के भी प्यासे रहेंगे। ऐसा सौभाग्य किसका हो सकता है? सर्व सम्बन्धों का सुख, रसना जो आप आत्माओं में भरी हुई है वह और कोई में नहीं हो सकती। तो ड्रामा में अपने इतने ऊँच भाग्य को सदैव सामने रखना। सामने रखने से रिटर्न देना आप ही याद आयेगा।
अच्छा !!!
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