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दुःख भरे दिन बीते रे भैया... |
10.04.1991 कि दु:ख लो। झोली भरो दु:ख से। तो न दु:ख दो, न दु:ख लो। तभी पुण्य आत्मा बनेंगे, तपस्वी बनेंगे।
तपस्वी अर्थात् परिवर्तन तो उनके दुख को भी आप सुख के रूप में स्वीकार करो। परिवर्तन करो तब कहेंगे तपस्वी।
ग्लानि को प्रशंसा समझो। तब कहेंगे पुण्य आत्मा। जगत अम्बा माँ ने सदैव सभी बच्चों को यही पाठ पक्का कराया कि गाली देने वाले या दु:ख देने वाली आत्मा को भी अपने रहमदिल स्वरूप से, रहम की दृष्टि से देखो। ग्लानि की दृष्टि से नहीं।
वह गाली देवे, आप फूल चढ़ाओ। तब कहेंगे पुण्य आत्मा। ग्लानि वाले को दिल से गले लगाओ। बाहर से गले नहीं लगाना। लेकिन मन से।
तो पुण्य के खाते जमा होने में विघ्न रूप यही बात बनती है। मुझे दुख लेना भी नहीं है। देना तो है ही नहीं, लेकिन लेना भी नहीं है।
जब अच्छी चीज नहीं है तो फिर किचड़ा लेकर जमा क्यों करते हो? जहाँ दु:ख लिया, किचड़ा जमा हुआ, तो किचड़े से क्या निकलेंगे? पाप के अंश रूपी जर्म्स।
अभी मोटे पाप तो नहीं करते हो ना। अभी पाप का अंश रह गया है। लेकिन अंश भी नहीं होना चाहिए।..." |
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