आदत
18.02.2023

सारे दिन में किसको दु:ख तो नहीं दिया?

किससे मतभेद में तो नहीं आये?

किससे ईविल तो नहीं बोला, जिससे कोई को दु:ख हुआ हो?

ईविल तो कभी नहीं सुनना चाहिए, ऐसा कुछ देखा, सुना तो बाप को बतलाना चाहिए।

बाप ही बच्चों को सब समझाते हैं।

नहीं तो आदत पक्की हो जाए।

कोई में कोई भी गन्दी आदत है तो छोड़ देना चाहिए, नहीं तो पद भ्रष्ट हो पड़ेंगे।

बादशाही के आगे प्रजा के नौकर चाकर गरीब ही कहेंगे ना।

यह मजदूर लोग क्या हैं?

वहाँ भी मकान बनाने वाले तो होंगे ना।

तो बाप समझाते हैं कभी लूनपानी नहीं होना चाहिए।

क्रोध करना बहुत बुरा है।

जन्म-जन्मान्तर के सुख को लकीर लग जाती है।

अपने ऊपर रहम करते रहो।
बहुत लिखते भी हैं कि बाबा हमारा क्रोध छूट गया है।

बीड़ी पीना आदि गंदी आदतें छूट गई हैं।

तो गोया अपने पर रहम किया ना।

 

13.03.1969

"...कभी-कभी सितारे जगह भी बदली करते हैं।

कभी टूट भी पड़ते हैं।

यहाँ भी ऐसे जगह भी बदली करते हैं।

कभी टूट भी पड़ते हैं।

कभी देखो तो बहुत ऊपर, कभी देखो तो बीच में, कभी देखो तो उससे भी नीचे।

जगह भी अभी बदली नहीं करनी चाहिए।

अगर बदली करो तो आगे भल बढ़ो।

नीचे नहीं उतरो।

अविनाशी सम्पूर्ण स्थिति में सदैव चढ़ते रहो।

ऐसा सितारा बनना है।

टूटने की तो यहाँ बात ही नहीं।

सभी अच्छे पुरुषार्थी बैठे हुए हैं।

बाकी जगह बदली की आदत को मिटाना है।..."

03.10.1969
"...बापदादा बच्चों को हल्का बनाते हैं और बच्चे जानबूझकर अपने पर बोझ ले लेते हैं। क्योंकि ६३ जन्मों से विकर्मों का बोझ, लोक मर्यादा का बोझ उठाने के आदि बन गये हैं। इसलिए बोझ उतार कर भी फिर रख लेते हैं। जिनकी जो आदत होती है वो आदत से मजबूर हो जाते हैं ना। इसलिए अपनी आदतें होने कारण अपनी जिम्मेदारी फिर अपने पर ही रख देते हैं। ..."

24.01.1970
"... व्यक्त से अव्यक्त, अव्यक्त से व्यक्त में आना यह सीढ़ी उतरना और चढ़ना जैसे आदत पद गयी है | अभी-अभी वहां, अभी अभी यहाँ | जिसकी ऐसी स्थिति हो जाती है, अभ्यास हो जाता है उसको यह व्यक्त देश भी जैसे अव्यक्त भासता है | स्मृति और दृष्टि बदल जाती है |..."

25.01.1970
"...कोई भी पुराना संस्कार, पुराणी आदतें न रहे | आपके परिवर्तन से अनेक लोग संतुष्ट होंगे | सदैव यही कोशिश करनी है कि हमारी चलन द्वारा कोई को भी दुःख न हो | मेरी चलन, संकल्प, वाणी, हर कर्म सुखदायी हो | यह है ब्राह्मण कुल की रीति |..."

18.06.1970
"... जैसे वह लोग कब कोई चीज़ की फ़ास्ट रखते हैं, वैसे आप लोग भी हर रोज़ कोई न कोई कमी की बात नोट करो। वह लोग भी जो चीज़ नुकसानकारक है उसके लिए फ़ास्ट रखते हैं। तो पुरुषार्थ में जो भी नुकसानकारक बातें हैं उनकी फ़ास्ट रखो फिर उसको चेक भी करो। कई व्रत रखते हैं, उपवास रखते हैं। लेकिन कर नहीं पाते तो बीच में खा भी लेते हैं। यहाँ भी ऐसे करते हैं। जैसे भक्ति मार्ग की आदत पड़ी हुई है। सुबह को प्रतिज्ञा करते हैं कि यह नहीं करेंगे फिर दिन आरम्भ हुआ तो वह प्रतिज्ञा ख़त्म। यहाँ भी ऐसे सुबह को प्रतिज्ञा करते हैं फिर कह देते समस्या ऐसी आ गई है। समस्या समाप्त होगी तो फिर करूँगा। अब वह संस्कार ख़त्म करो।..."

26.06.1970
"...जिन्हों को सैर करने की आदत होती है, वह सदैव सैर करते हैं । यहाँ भी ऐसे है । जितना स्वयं सैर करेंगे उतना औरों को भी बुद्धियोग से सैर कराएँगे । आप लोगों से साक्षात्कार होना है ।..."

01.02.1971
"...जैसे कइयों की आदत होती है -- बार-बार मस्तक को हाथ लगाकर तिलक मिटा देते हैं। अभी-अभी तिलक देंगे, अभी-अभी मिटा देंगे। ऐसे ही यह भी बात है। कोई को तिलक देना भूल जाता है, कोई देते हैं फिर मिटा देते हैं। तो लगाना और मिटाना -- दोनों ही काम चलते हैं। तो अमृतवेले का यह स्मृति का दिया हुआ तिलक सदैव कायम रखते रहो तो सुहाग, श्रृंगार और योगीपन की निशानी सदैव आपके मस्तक से दिखाई देगी।..."

11.03.1971
"...जैसे लौकिक जीवन में न चाहते हुए भी आदत अपनी तरफ खींच लेती है, वैसे ही अव्यक्त स्थिति में स्थित होने की आदत बन जाने के बाद यह आदत स्वत: ही अपनी तरफ खींचेगी। इतना पुरूषार्थ करते हुए कई ऐसी आत्मायें हैं जो अब भी यही कहती हैं कि मेरी आदत है। कमजोरी क्यों है, क्रोध क्यों किया, कोमल क्यों बने? कहेंगे - मेरी आदत है। ऐसे जवाब अभी भी देते हैं। तो ऐसे ही यह स्थिति वा इस अभ्यास की भी आदत बन जाये; तो फिर न चाहते हुए भी यह अव्यक्त स्थिति की आदत अपनी तरफ आकर्षित करेगी। यह आदत आपको अदालत में जाने से बचायेगी। समझा? जब बुरी-बुरी आदतें अपना सकते हो तो क्या यह आदत नहीं डाल सकते हो? दो-चार बारी भी कोई बात प्रैक्टिकल में लाई जाती है तो प्रैक्टिकल में लाने से प्रैक्टिस हो जाती है। यहाँ इस भट्ठी में अथवा मधुबन में इस अभ्यास को प्रैक्टिकल में लाते हो ना। जब यहाँ प्रैक्टिकल में लाते हो और प्रैक्टिस हो जाती है तो वह प्रैक्टिस की हुई चीज क्या बन जानी चाहिए? नेचूरल और नेचर बन जानी चाहिए। समझा? जैसे कहते हैं ना - यह मेरी नेचर है। तो यह अभ्यास प्रैक्टिस से नेचूरल और नेचर बन जाना चाहिए। यह स्थिति जब नेचर बन जायेगी फिर क्या होगा? नेचूरल केलेमिटीज़ हो जायेगी। आपकी नेचर न बनने के कारण यह नेचूरल केलेमिटीज़ रूकी हुई हैं। क्योंकि अगर सामना करने वाले अपने स्व-स्थिति से उन परिस्थितियों को पार नहीं कर सकेंगे तो फिर वह परिस्थितियां आयेंगी कैसे। सामना करने वाले अभी तैयार नहीं हैं, इसलिए यह पर्दा खुलने में देरी पड़ रही है। अभी तक इन पुरानी आदतों से, पुराने संस्कारों से, पुरानी बातों से, पुरानी दुनियॉं से, पुरानी देह के सम्बन्धियों से वैराग्य नहीं हुआ है। कहाँ भी जाना होता है तो जिन चीजों को छोड़ना होता है उनसे पीठ करनी होती है। तो अभी पीठ करना नहीं आता है। एक तो पीठ नहीं करते हो, दूसरा जो साधन मिलता है उसकी पीठ नहीं करते हो। सीता और रावण का खिलौना देखा है ना। रावण के तरफ सीता क्या करती है? पीठ करती है ना। अगर पीठ कर दिया तो सहज ही उनके आकर्षण से बच जायेंगे। लेकिन पीठ नहीं करते हो। जैसे श्मशान में जब नज़दीक पहुंचते हैं तो पैर इस तरफ और मुँह उस तरफ करते हैं ना। तो यह भी पीठ करना नहीं आता है। फिर मुँह उस तरफ कर लेते हैं, इसलिए आकर्षण में कहाँ फँस जाते हैं। तो दोनों ही प्रकार की पीठ करने नहीं आती है। माया बहुत आकर्षण करने के रूप रचती है। इसलिए न चाहते हुए भी पीठ करने के बजाय आकर्षण में आ जाते हैं। उसी आकर्षण में पुरूषार्थ को भूल, आगे बढ़ने को भूल रूक भी जाते हैं; तो क्या होगा? मंजिल पर पहुँचने में देरी हो जायेगी।..."

20.05.1971
"...जब तक अपनी चेकिंग का नेचरल अभ्यास हो जाये तब तक बार-बार चेकिंग करनी पड़ती है। धीरे-धीरे फिर ऐसे बन जायेंगे जो बार-बार देखने की भी दरकार नहीं पड़ेगी। सदैव सजे-सजाये ही रहेंगे। जब तक यह सदैव सजे-सजाये रहने की आदत पड़ जाये तब तक बार-बार अपने को देखना और बनाना पड़ता है।..."