Abhyaas_Practice

1969

 

अभ्यास - प्रैक्टिस


13.03.1969
"...आधा घण्टा एकान्त में सैर करावे।

जैसे शुरू में तुम अलग-अलग जाकर बैठते थे, सागर के किनारे, कोई कहाँ, कोई कहाँ जाकर बैठते थे।

ऐसी प्रैक्टिस कराओ।

छतें तो यहाँ बहुत बड़ी-बड़ी हैं।

फिर शाम के समय भी 7 से 7:30 तक यह समय विशेष अच्छा होता है।

जैसे अमृतवेले का सतोगुणी टाइम होता है वैसे यह शाम का टाइम भी सतोगुणी है।

सैर पर भी इसी टाइम निकलते हैं।

उसी समय संगठन में योग कराओ और बीच-बीच में अव्यक्त रूप से बोलते रहो, कोई का बुद्धियोग यहाँ वहाँ होगा तो फिर अटेन्शन खैचेगा।

योग की सबजेक्ट में बहुत कमी है।..."

 

 

 

 

 

17.04.1969
"...दूसरों के अवगुणों को न देखना, यह भी त्याग है।

त्याग का अभ्यास होगा तो यह भी त्याग कर सकेंगे। ..."

 

 

 

 

08.05.1969
"...आपके सामने काई नया आये उनकी हिस्ट्री आदि आप ने सुनी नहीं है, उनको कैसे परख सकेंगे? (वायब्रेशन आयेगा)

कौन-सा वायब्रेशन आवेगा जिससे परख होगी?

अभी यह प्रैक्टिस करनी है।

क्योंकि वर्तमान समय बहुत प्रजा बढ़ती रहेगी।

तो प्रजा और नजदीक वाले को परखने के लिए बहुत प्रैक्टिस चाहिए।

परखने की मुख्य बात यह है कि उनके नयनों से ऐसा महसूस होगा जैसे कोई निशाने तरफ किसका खास अटेन्शन होता है तो उनके नयन कैसे होते हैं?

तीर लगाने वाले वा निशाना लगाने वाले जो मिलेट्री

के होते हैं, वो पूरा निशाना रखते हैं।

उनके नयन, उनकी वृत्ति उस समय एक ही तरफ होगी।

तो जो ऐसा निश्चय बुद्धि पक्का होगा उनके चेहरे से ऐसे महसूस होगा जैसेकि कोई निशान-बाज है।...यह प्रैक्टिस अभी करो।

फिर जज करो हमारी परख ठीक है वा नहीं।

फिर प्रैक्टिस करते-करते परख यथार्थ हो जावेगी।

दृष्टि में सृष्टि कहा जाता है ना।

तो आप उनकी दृष्टि से पूरी सृष्टि को जान सकते हो। ..."

 

 

 

 

 

18.05.1969
"...कोई भी व्यक्ति सामने आए तो आप लोगों को तो एक सेकेण्ड में उनके तीनों कालों को परख लेना चाहिए।

एक तो पास्ट में उनकी लाइफ क्या थी और वर्तमान समय उनकी वृत्ति, दृष्टि और भविष्य में कहाँ तक यह अपनी प्रालब्ध बना सकते हैं।

यह जानने की प्रैक्टिस चाहिए।

यह परखने की जो नालेज है वह बहुत कम है।

यह कमी अभी भरनी चाहिए।

वर्तमान समय जो आने वाला है उसमें अगर यह गुण नहीं होगा, कमी होगी तो धोखे में आ जायेंगे।

कई ऐसी आत्माएं आप के सामने आयेंगी जो अन्दर एक और बाहर से दूसरी होगी।

परीक्षा के लिए आयेंगी।

क्योंकि कई समझते हैं कि यह सिर्फ रटे हुए हैं।

तो कई रंग रूप से आर्टिफीसियल रूप में भी परखने लिए आयेंगे, भिन्न-भिन्न रूप से।

इसलिये यह ध्यान रखना है कि यह किसलिये आया है?

उनकी वृत्ति क्या है?

और अशुद्ध आत्माओं की भी बड़ी सम्भाल करनी है।

ऐसे-ऐसे केस भी बहुत होंगे दिन प्रतिदिन पाप आत्मायें तो बहुत होते हैं।

आपदायें, अकाले मृत्यु, पाप कर्म बढ़ते जाते हैं तो उन्हों की वासनायें जो रह जाती हैं वह फिर अशुद्ध आत्माओं के रूप में भटकती हैं।

इसलिये यह भी बहुत बड़ी सम्भाल रखनी है।

कोई में अशुद्ध आत्मा की प्रवेशता होती है तो उनको भगाने लिए एक तो धूप जलाते हैं और आग में चीज को तपाकर लगाते हैं और लाल मिर्ची भी खिलाते हैं।

तो आप सभी को फिर योग की अग्नि से काम लेना है।

हर कर्मेन्द्रियों को योगाग्नि में तपाना है तो फिर कोई वार नहीं कर सकेंगे। ..."

 

 

 

 


17.07.1969
"...धीरे-धीरे ऐसी स्थिति सभी की हो जायेगी।

जो किसके अन्दर में जो बात होगी वह पहले से ही आप को मालूम पड़ेगा।

इसलिए प्रैक्टिस करा रहे हैं।

जितना-जितना अव्यक्त स्थिति में स्थित होंगे, कोई मुख से बोले न बोले लेकिन उनके अन्दर का भाव पहले से ही जान लेंगे।

ऐसा समय आयेगा।

इसलिए यह प्रैविटस कराते हैं।

तो पहली बात पूछ रहे थे कि एक अक्षर कौन सा याद रखें?

अपने को मेहमान समझना।

अगर मेहमन समझेंगे तो फिर जो अन्तिम सम्पूर्ण स्थिति का वर्णन है वह इस मेहमान बनने से होगा।

अपने को मेहमान समझेंगे तो फिर व्यक्त में होते हुए भी अव्यक्त में रहेंगे।..."

 

 

 

 

23.07.1969
"...जितना आप त्याग करेंगे उतना और ही आपको स्वमान मिलेगा।

जितना अपना स्वमान खुद रखवाने की कोशिश करेंगे उतना ही स्वमान गंवाने का कारण बन जायेंगे।

इसलिए बालक और मालिकपने की सीढ़ी को जल्दी-जल्दी उतरो और चढ़ो इस अभ्यास को बढ़ाना है।..."

 

 


"...ब्रेक देने और मोड़ने की शक्ति होगी तो बुद्धि की शक्ति व्यर्थ नहीं गंवायेंगे।

इनर्जी वेस्ट ना होकर जमा होती जायेगी।

जितनी जमा होगी उतना ही परखने की, निर्णय करने की शक्ति बढ़ेगी।

यह भी अभ्यास भट्टी में करना चाहिए।..."

 

 

 

 


"...बिन्दु रूप में स्थित रहने की कमी का कारण यही हैं कि पहला पाठ ही कच्चा हैं।

कर्म करते हुए अपने को अशरीरी आत्मा महसूस करें।

यह सारे दिन में बहुत प्रैक्टिस चाहिए।

प्रैक्टिकल में न्यारा होकर कर्तव्य में आना।

यह जितना-जितना अनुभव करेंगे उतना ही बिन्दु रूप में स्थित होते जावेंगे।..."

 

 

 

 

 

"...आत्म अभिमानी अर्थात् बाप की याद।

आत्मिक स्वरूप में बाबा की याद नहीं रहे यह तो हो नहीं सकता है।

जैसे बापदादा दोनों अलग-अलग नहीं हैं वैसे आत्मिक निश्चय बुद्धि से बाप की याद भी अलग नहीं हो सकती है।

क्या एक सेकेण्ड में अपने को बिन्दु रूप में स्थित नहीं कर सकते हो?

अगर अभी सबको कहें कि यह ड्रिल करो तो कर सकते हो?

बिन्दु रूप में स्थित होने से एक तो न्यारेपन का अनुभव होगा।

और जो आत्मा का वास्तविक गुण है उसका भी अनुभव होगा।

यह भी प्रैक्टिस करो क्योंकि अब समय कम है। कार्य ज्यादा करना है। ..."

 

 

 


"...आगे चल करके तो समय ऐसा आने वाला है।

जो कि आप सभी की जीवन तो बहुत बिजी हो जायेगी।

और समय कम देखने में आयेगा।

यह दिन और रात दो घण्टे के समान महसूस करोगे।

अब से ही यह प्रैक्टिस करो कि कम समय में काम बहुत करो।

समय को सफल करना भी बहुत बड़ी शक्ति है।

जैसे अपनी इनर्जी वेस्ट करना ठीक नहीं है।

वैसे ही समय को भी वेस्ट करना ठीक नहीं है।..."

 

 

 

 

"...बिन्दु रूप में स्थित रहने की कमी का कारण यही हैं कि पहला पाठ ही कच्चा हैं।

कर्म करते हुए अपने को अशरीरी आत्मा महसूस करें।

यह सारे दिन में बहुत प्रैक्टिस चाहिए।

प्रैक्टिकल में न्यारा होकर कर्तव्य में आना।

यह जितना-जितना अनुभव करेंगे उतना ही बिन्दु रूप में स्थित होते जावेंगे।

परन्तु यह अटेन्शन कम रहता है| आप कहेंगे समय नहीं मिलता है लेकिन समय तो निकाल सकते हो।

अगर लक्ष्य है तो जैसे कोई विशेष काम पर जाता है तो उसके लिए आप खास ख्याल रखकर भी समय निकालते हो ना।

यही काम का थोड़ा समय जो रहा हुआ है उसमें यह विशेष काम है।

विशेष काम समझकर बीच-बीच में समय निकालो तो निकल सकता है।

परन्तु अभ्यास नहीं है इसलिए सोचते ही सोचते समय हाथों से चला जा रहा है।

आप ध्यान रखो तो जैसी-जैसी परिस्थिति उसी प्रमाण अपनी प्रैक्टिस बढ़ा सकते हो।

इस अभ्यास में तो सभी बच्चे हैं।

वास्तव में बिन्दु रूप में स्थित होना कोई मुश्किल बात नहीं है।

जितना-जितना न्यारा बनेंगे तो बिन्दु रूप तो है ही न्यारा।

निराकार भी है।

तो न्यारा भी है आप भी निराकारी और न्यारी स्थिति होंगे तो बिन्दु रूप का अनुभव करेंगे।

चलते-फिरते अव्यक्त स्थिति का अनुभव कर सकते हो।

प्रैक्टिस ऐसी सहज हो जायेगी कि जो जब भी चाहो तभी अव्यक्ति स्थिति में ठहर जाओगे।

एक सेकेण्ड के अनुभव से कितनी शक्ति अपने में भर सकते हो।..."

 

 

 

 

 

24.07.1969

"...तो आज तुम बच्चों को बिन्दु रूप में स्थित होने की प्रैक्टिस करायें?

मैं आत्मा हूँ, इसमें तो भूलने की ही आवश्यकता नहीं रहती है।

जैसे मुझ बाप को भूलने की जरूरत पड़ती है?

हाँ परिचय देने के लिये तो जरुर बोलना पड़ता है कि मेरा नाम रूप, गुण, कर्तव्य क्या है।

और मैं फिर कब आता हूँ?

किस तन में आता हूँ?

तुम बच्चों को ही अपना परिचय देता हूँ।

तो क्या बाप अपने परिचय को भूल जाते हैं?

बच्चे उस स्थिति में एक सेकेण्ड भी नहीं रह सकते हैं?

तो क्या अपने नाम रूप देश को भी भूल जाते हैं?

यह पहली-पहली बात है जो कि तुम सभी को बताते हो कि मैं आत्मा हूँ ना कि शरीर।

जब आत्मा होकर बिठाते हो तभी उनको फिर शरीर भी भूलता है।

अगर आत्मा होकर नहीं बिठाते हो तो क्या फिर देह सहित देह के सभी सम्बन्ध भूल जाते।

जब उनको भुलाते हो तो क्या अपने शरीर से न्यारा होकर, जो न्यारा बाप है, उनकी याद में नहीं बैठ सकते हो?"

 

 

 

 


"...अब सब बच्चे अपने को आत्मा समझ कर बैठो, सामने किसको देखें?

आत्माओं के बाप को।

इस स्थिति में रहने से व्यक्त से न्यारे होकर अव्यक्त स्थिति में रह सकेंगे।

मैं आत्मा बिन्दु रूप हूँ, क्या यह याद नहीं आता है?

बिन्दी रूप होकर बैठना नहीं आता?

ऐसे ही अभ्यास को बढ़ाते जाओगे तो एक सेकेण्ड तो क्या कितने ही घंटों इसी अवस्था में स्थित होकर इस अवस्था का रस ले सकते हो।

इसी अवस्था में स्थित रहने से फिर बोलने की जरूरत ही नहीं रहेगी।

बिन्दु होकर बैठना कोई जड़ अवस्था नहीं है।

जैसे बीज में सारा पेड़ समाया हुआ है वैसे ही मुझ आत्मा में बाप की याद समाई हुई है?

ऐसे होकर बैठने से सब रसनायें आयेंगी।

और साथ ही यह भी नशा होगा कि हम किसके सामने बैठे हैं!

बाप हमको भी अपने साथ कहाँ ले जा रहे हैं!

बाप तुम बच्चों को अकेला नहीं छोड़ता है।

जो बाप का और तुम बच्चों का घर है, वहाँ पर साथ में ही लेकर जायेंगे। सब इकट्ठा चलने ही है।

आत्मा समझकर फिर शरीर में आकर कर्म भी करना है।

परन्तु कर्म करते हुये भी न्यारा और प्यारा होकर रहना है।

बाप भी तुम बच्चों को देखते हैं।

देखते हुए भी तो बाप न्यारा और प्यारा है ना।..."

 

 

 

 


28.09.1969
"...शक्तिरूप तभी बन सकेंगे जब कि अव्यक्त स्थिति होगी।

अव्यक्त स्थिति में रहकर भल व्यक्त में आते भी हैं तो सिर्फ सर्विस अर्थ।

सर्विस समाप्त हुई तो फिर अव्यक्त स्थिति में रहना ऐसा अभ्यास रखना है।..."

 

 

 

 

 

16.10.1969
"...अगर परखने की प्रैक्टिस होगी तो जब दुनिया में कार्य अर्थ जाते हो और आसुरी सम्प्रदाय के साथ सम्बन्ध रखना पड़ता है तो परखने की प्रैक्टिस होने से बहुत बातों में

विजयी बन सकते हो। अगर परखने की शक्ति नहीं तो विजयी नहीं बन सकते। यह तो थोड़ी-सी रेख-देख की कि अपने ही परिवार कि अन्दर कहाँ तक परख सकते हो। यूँ

तो हरेक रत्न एक दो से श्रेष्ठ है। लेकिन फिर भी परखने की प्रैक्टिस जरूर चाहिए। यह परखने की प्रैक्टिस छोटी बात नहीं समझना। इस पर ही नम्बर ले सकते हो। कोई

भी परिस्थिति को, कोई भी संकल्प वाली आत्माओं को, वर्तमान और भविष्य दोनों कालों को भी परखने की प्रैक्टिस चाहिए।..."

"...जब जैसे चाहे वैसी स्थिति बना सके। यह मन को ड्रिल करानी है। यह जरूर प्रैक्टिस करो। एक सेकेण्ड में आवाज में, एक सेकेण्ड में फिर आवाज से परे। एक सेकेण्ड में

सर्विस के संकल्प में आये और एक सेकेण्ड में संकल्प से परे स्वरूप में स्थित हो जाये। इस ड्रिल की बहुत आवश्यकता है।... "

 

 

 

 

 

"...जैसे शारीरिक ड्रिल सुबह को कराई जाती है वैसे यह अव्यक्त ड्रिल भी अमृतवेले विशेष रूप से करना है। करना तो सारा दिन है लेकिन विशेष प्रैक्टिस करने का समय

अमृतवेले है। जब देखो बुद्धि बहुत बिजी है तो उसी समय यह प्रैक्टिस करो। परिस्थिति में होते हुए भी हम अपनी बुद्धि को न्यारा कर सकते है। लेकिन न्यारे तब हो सकेंगे

जब जो भी कार्य करते हो वह न्यारी अवस्था में होकर करेंगे। अगर उस कार्य में अटैचमेंट होगी तो फिर एक सेकेण्ड में डिटैच नहीं होंगे। इसलिए यह प्रैक्टिस करो। कैसी

भी परिस्थिति हो। क्योंकि फाइनल पेपर अनेक प्रकार के भयानक और न चाहते हुए भी अपने तरफ आकर्षित करने वाली परिस्थितियों के बीच होंगे। उनकी भेट में जो

आजकल की परिस्थितियाँ है वह कुछ नहीं है। जो अन्तिम परिस्थिति आने वाली है, उन परिस्थितियों के बीच पेपर होना है। इसकी तैयारी पहले से करनी है। इसलिए जब

अपने को देखो कि बहुत बिजी हूँ, बुद्धि बहुत स्कूल कार्य में बिजी है, चारों ओर सरकमस्टान्सेज अपने तरफ खैंचने वाली है तो ऐसे समय पर यह अभ्यास करो। तब मालूम

पड़ेगा कहाँ तक हम ड्रिल कर सकते है। यह भी बात बहुत आवश्यक है। इसी ड्रिल में रहते रहेंगे तो सफलता को पायेंगे। एक-एक सबजेक्ट की नम्बर होती है। मुख्य तो यही

है। इसमें अगर अच्छे हैं तो नम्बर आगे ले सकते हैं। अगर इस सबजेक्ट में नम्बर कम है तो फाइनल नम्बर आगे नहीं आ सकते।..."

 

 

 

 


20.10.1969
"...जैसे स्कूल शरीर के हाथ-पाँव झट डायरेक्शन प्रमाण-ड्रिल में चलाते रहते है, वैसे एक सेकेण्ड में साकारी से निराकारी बनने की प्रैक्टिस है? साकारी से निराकारी बनने में

कितना समय लगता है? जबकि अपना ही असली स्वरूप है फिर भी सेकेण्ड में क्यों नहीं स्थित हो सकते?..."

 

 

 

 

 

25.10.1969
"...एक के सिवाय दूसरा न कोई - ऐसी स्थिति वाला जो होगा वह एकान्त प्रिय हो सकता है। नहीं तो एकान्त में बैठने का प्रयत्न करते हुए भी अनेक तरफ बुद्धि भटकेगी।

एकान्त का आनद अनुभव कर नहीं सकेंगे। सर्व सम्बन्ध, सर्व रसनाएँ एक से लेने वाला ही एकान्तप्रिय हो सकता है। जब एक द्वारा सर्व रसनाएँ प्राप्त हो सकती हाँ। तो

अनेक तरफ जाने की आवश्यकता ही क्या? लेकिन जो एक द्वारा सर्व रसनाओं को लेने के अभ्यासी नहीं होते वह अनेक तरफ रस लेने की कोशिश करते। तो फिर एक भी

प्राप्ति नहीं होती। और एक बाप के साथ लगाने से अनेक प्राप्तियाँ होती है।..."

 

 

 

 


13.11.1969
"...अशरीरी होकर फिर शरीर में आने का अभ्यास पक्का होता जाता है। जैसे बापदादा अशरीरी से शरीर में आते है वैसे ही तुम सभी बच्चों को भी अशरीरी होकर के शरीर

में आना है। अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर फिर व्यक्त में आना है। ऐसा अभ्यास दिन-प्रतिदिन बढ़ाते चलते हो? बापदादा जब आते है तो किससे मिलने आते है?

(आत्माओं से) आत्माएं कौन सी? जो सारे विश्व में श्रेष्ठ आत्माएं है। उन श्रेष्ठ आत्माओं से बापदादा का मिलन होता है। इतना नशा रहता है – हम ही सारे विश्व में श्रेष्ठ

आत्मायें है। श्रेष्ठ आत्माओं को ही सर्वशक्तिमान के मिलन का सौभाग्य प्राप्त होता है। तो बापदादा भृकुटी के बीच में चमकते हुए सितारे को ही देखते हैं। तुम सितारों को

किस-किस नाम से बुलाया जाता है? एक तो लक्की सितारे भी हो और नयनों के सितारे भी और कौनसे सितारे हो? जो कार्य अब बच्चों का रहा हुआ है उस नाम के सितारे

को भूल गये हो। जो मेहनत का कार्य है वह भूल गये हो। याद करो अपने कर्तव्य को। बापदादा के उम्मीदों के सितारे। बापदादा के जो गाये हुए हैं वही कार्य अब रहा हुआ

है? बापदादा जो उम्मीदें बच्चों से रखते है वह कार्य पूरा किया हुआ है? बापदादा एक-एक सितारे में यही उम्मीद रखते हैं कि एक-एक अनेकों को परिचय देकर लायक

बनाये।..."

 

 

 


"...महीन बुद्धि को कभी मेहनत नहीं लगती। मोटी बुद्धि कारण बहुत मेहनत लगती है। श्रीमत पर चलने के लिए भी महीन बुद्धि चाहिए। महीनता में जाने का अभ्यास करना

है। दूसरे शब्दों में यह कहेंगे कि जो सुना है वह करना है अर्थात् उसकी महीनता में जाना है। जैसे दही को बिलोरकर महीन करते हैं तब उसमें मक्खन निकलता है। तो यह

भी महीनता में जाने की बात है। महीनता की कमी के कारण मेहनत होती है। महीनता में जाने की बजाए उस बात को मोटे रूप में देखते हैं। सर्विस के समय भी महीन

बुद्धि हो, ज्ञान की महीनता में जाकर उसको सुनायें और उसज्ञा न की महीनता में ले जाये तो उनको भी मेहनत कम लगे। और अपने को भी कम लगे। इस महीनता की ही

कमी है। अब यही पुरुषार्थ करना है।..."

 

 

 

 

 

 

17.11.1969
"...यहाँ भट्ठी में किस लिए आये हो? देह में रहते विदेही हो रहने के अभ्यास के लिये। जब से यहाँ पाँव रखते हो तब से ही यह स्थिति होनी चाहिए। जो लक्ष्य रखा जाता है

उसको पूर्ण करने के लिए अभ्यास और अटेन्शन चाहिए।..."

"...इस देह के भान को छोड़ देना है। जैसे कोई शरीर के वस्त्र उतारते हो तो कितना सहज उतारते हो। वैसे ही यह शरीर रूपी वस्त्र भी सहज उतार सको और सहज ही

समय पर धारण कर सको, किसको यह अभ्यास पूर्ण रीति से सीखना है। लेकिन कोई-कोई का यह देह अभिमान क्यों नहीं टूटता है? यह देह का चोला क्यों सहज नहीं

उतरता है? जिसका वस्त्र तंग, टाइट होता है तो उतार नहीं सकते हैं। यह भी ऐसे ही है। कोई न कोई संस्कारों में अगर यह देह का वस्त्र चिपका हुआ है अर्थात् तंग, टाइट

है, तब उतरता नहीं है। नहीं तो उतारना, चढ़ाना वा यह देह रूपी वस्त्र छोड़ना और धारण करना बहुत सहज है। जैसे कि स्थूल वस्त्र उतारना और पहनना सहज होता है। तो

यही देखना है कि यह देह रूपी वस्त्र किस संस्कार से लटका हुआ है। जब सभी संस्कारों से न्यारा हो जायेंगे तो फिर अवस्था भी न्यारी हो जावेगी।..."

 

 

 


28.11.1969
"...रूहानी दृष्टि अर्थात् अपने को और दूसरों को भी रूह देखना चाहिए। जिस्म तरफ देखते हुए भी नहीं देखना है, ऐसी प्रैक्टिस होनी चाहिए। जैसे कोई बहुत गूढ़ विचार में

रहते है, कुछ भी करते है, चलते, खाते-पीते है लेकिन उनको मालूम नहीं पड़ता है कि कहाँ तक आ पहुँचा हूँ, क्या खाया है। इसी रीति से जिस्म को देखते हुए भी नहीं

देखेंगे और अपने उस रूह को देखने में ही बिजी होंगे तो फिर ऐसी अवस्था हो जायेगी जो कोई भी आपसे पूछेंगे यह कैसी थी तो आपको मालूम नहीं पड़ेगा। ऐसी अवस्था

होगी। लेकिन वह तब होगी जब जिस्मानी चीज़ को देखते हुए उस जिस्मानी लौकिक चीज़ को अलौकिक रूप में परिवर्तन करेंगे। अपने में परिवर्तन करने के लिए जो लौकिक

चीज़ें देखते हो या लौकिक सम्बन्धियों को देखते हो उन सभी को परिवर्तन करना पड़ेगा। लौकिक में अलौकिकता की स्मृति रखेंगे। भल लौकिक सम्बन्धियों को देखते हो

लेकिन यह समझो कि अब हमारी यह भी ब्रह्मा बाप के बच्चे पिछली बिरादरी है। ब्रह्मा वंश तो है ना। क्योंकि ब्रह्मा दी क्रियेटर है, तो भक्त, ज्ञानी व अज्ञानी हैं लेकिन

बिरादरी तो वह भी हैं ना। तो लौकिक सम्बन्धी भी ब्रह्मावंशी हैं लेकिन वह नजदीक सम्बन्ध के हैं, वह दूर के हैं। इसी रीति कोई भी लौकिक चीज़ देखते हो, दफ्तर में

काम करते हो, बिजनेस करते हो, खाना खाते हो, देखते हो, बोलते हो लेकिन एक-एक लौकिक बात में अलौकिकता हो। इसी शरीर के कार्य के लिए चल रहे हो तो साथ-साथ

समझो इन शारीरिक पाँव द्वारा लौकिक कार्य तरफ जा रहा हूँ लेकिन बुद्धि द्वारा अपने अलौकिक देश, कल्याण के कार्य के लिए जा रहा हूँ। पाँव यहाँ चल रहे हैं लेकिन

बुद्धि याद की यात्रा में। शरीर को भोजन दे रहे हैं लेकिन आत्मा को फिर याद का भोजन देते जाओ। यह याद भी आत्मा का भोजन है। जिस समय शरीर को भोजन देते हो

ऐसे ही शरीर के साथ में आत्मा को भी शक्ति का, याद का बल देना है।..."

 

 

20.12.1969
"...बहुत समय से न्यारापन नहीं होगा तो यही शरीर का प्यार पश्चाताप में लायेगा इसलिए इनसे भी प्यारा नहीं बनना है। इससे जितना न्यारा होंगे उतना ही विश्व का

प्यारा बनेंगे। इसलिए अब यही पुरुषार्थ करना है, ऐसे नहीं समझना है कि कोई व्याधि आदि का रूप देखने में आयेगा तब जायेंगे उस समय अपने को ठीक कर देंगे। ऐसी

कोई बात नहीं है पीछे ऐसे-ऐसे अनोखे मृत्यु बच्चों के होने हैं जो सन शोज फादर करेंगे। सभी का एक जैसा नहीं होगा। कई ऐसे बच्चे भी हैं जिन्हों का ड्रामा के अन्दर इस

मृत्यु के अनोखे पार्ट का गायन सन शोज फादर करेगा। यह भी वही कर सकेंगे जिसमें एक विशेष गुण होगा। यह पार्ट भी बहुत थोड़ों का है। अन्त तक भी बाप की

प्रत्यक्षता करते जायेंगे। यह भी बहुत बड़ी सब्जेक्ट है। अन्त घड़ी भी बाप का शो होता रहेगा। ऐसी आत्मायें जरूर कोई पावरफुल होगी जिनका बहुत समय से अशरीरी रहने

का अभ्यास होगा। वह एक सेकेण्ड में अशरीरी हो जायेंगे। मानो अभी आप याद में बैठते हो कैसे भी विघ्नों की अवस्था में बैठते हो, कैसी भी परिस्थितियाँ सामने होते हुए

भी बैठते हो लेकिन एक सेकेण्ड में सोचा और अशरीरी हो जाये। वैसे तो एक सेकेण्ड में अशरीरी होना बहुत सहज है लेकिन जिस समय कोई बात सामने हो, कोई सर्विस के

बहुत झंझट सामने हो परन्तु प्रैक्टिस ऐसी होनी चाहिए जो एक सेकेण्ड, सेकेण्ड भी बहुत है, सोचना और करना साथ-साथ चले। सोचने के बाद पुरुषार्थ न करना पड़े। ...ऐसे

जो अभ्यासी होंगे वही सर्विस करने का पान का बीड़ा उठा सकेंगे।..."