एक मंजिल राही दो फिर प्यार न कैसे हो...


दादी आलराउडर जी

सर्व भौतिक सुख-सुविधाओं को त्याग कर,

अनेक लौकिक बंधनों को पार कर

यज्ञ में समर्पित हुई।

 

जब हैदराबाद (सिन्ध) में

बाल भवन बना तो

आपने अपनी

9 वर्षीय लौकिक बच्ची शोभा

(दादी हृदयमोहिनी) को

बाल भवन के छात्रावास में

दाखिल करवा

बाबा-मम्मा की पालना में

रखने का बहुत साहसी कदम उठाया।

 

यज्ञ में आवश्यक चीजों की खरीदारी

के लिए भी बाबा ने

आपको ही नियुक्त किया।

 

आप हर क्षेत्र में बहुत अनुभवी थी

इसलिए बाबा ने ही आपको

आलराउण्डर नाम दिया।

 

हर एक को लाल कहकर

पुकारती और दिल्ली, पाण्डव भवन में रहकर जोन इंचार्ज के रूप में

अपनी सेवायें देते

24 नवंबर,1993 में

आप अव्यक्त वतनवासी बनी।

 

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