05.03.1970 "...भगवान् बच्चों को कहते हैं वन्दे मातरम् कितना फर्क हो गया। इतना नशा रहता है? जिस बाप की अनेक भक्त वन्दना करते हैं, वह स्वयं आकर कहते हैं वन्दे मातरम् इस खुमारी की निशानी क्या होगी? उनके नयन, उनके मुखड़े, उनकी चलन, बोल आदि से ख़ुशी झलकती रहेगी। जिस ख़ुशी को देख कईयों के दुःख मिट जायेंगे।..."
21.05.1970 "...प्रैक्टिकल में भगवान् के जितना साकार सम्बन्ध में नजदीक आएंगे उतना पुरुषार्थ में भी नजदीक आयेंगे। अपने पुरुषार्थ और औरों के पुरुषार्थ को देख क्या सोचते हो? बीज तो अविनाशी है। अविनाशी बीज को संग का जल देना है। तो फिर फल निकल आयेगा। तो अब फल स्वरुप दिखाना है। वृक्ष से मेहनत फल के लिए करते हैं ना। तो जो ज्ञान की परवरिश ली है उनकी रिजल्ट फलस्वरुप बनना है। ..."
31.12.1970 "...सदा यह परिवर्तन संकल्प चाहिए कि मैं साधारण स्टूडेन्ट नहीं, साधारण पढ़ाई नहीं लेकिन डायरेक्ट बाप रोज दूरदेश से हमको पढ़ाने आते हैं। भगवान के वर्शन्स हमारी पढ़ाई है। श्री-श्री की श्रीमत हमारी पढ़ाई है। जिस पढ़ाई का हर बोल पद्मों की कमाई जमा कराने वाला है।
अगर एक बोल भी धारण नहीं किया तो बोल मिस नहीं किया लेकिन पद्मों की कमाई अनेक जन्मों की श्रेष्ठ प्रालब्ध वा श्रेष्ठ पद की प्राप्ति में कमी की।
ऐसा परिवर्तन संकल्प ‘भगवान् बोल रहे हैं’, हम सुन रहे हैं। मेरे लिये बाप टीचर बनकर आये हैं। मैं स्पेशल लाडला स्टूडेन्ट हूँ – इसलिए मेरे लिए आये हैं। कहाँ से आये हैं, कौन आये हैं, और क्या पढ़ा रहे हैं? यही परिवर्तन श्रेष्ठ संकल्प रोज़ क्लास के समय धारण कर पढ़ाई करो। ..."
08.06.1971 "...सर्वशक्तिवान साथी बन गये और सर्व शक्तियाँ साथी बन गयीं, तो फिर विजय ही विजय है।
भक्ति-मार्ग में भी कोई कार्य करते हैं तो समझते है ना मालूम पूरा हो या न हो। इसलिए भगवान् के ऊपर छोड़ देते हैं कि - ‘‘हे भगवान्! आपका कार्य आप ही जानो।’’ तो यह जो भक्ति-मार्ग में संस्कार भरे वह अब प्रैक्टिकल किया है। भक्ति-मार्ग में कहने मात्र था। यहाँ ज्ञान मार्ग में किया है। ज्ञान-मार्ग में करने की शक्ति, भक्ति-मार्ग में कहने की शक्ति। रात दिन का फर्क है। ..."
18.10.1971 "...बापदादा विशेष दिनों पर विशेष रूप से बच्चों की और भक्तों की तीनों ही रूप से सेवा करते हैं। विशेष आत्माओं को खास अपने यादगार के दिन साक्षात्कारमूर्त बन, साक्षात् बापदादा समान आत्माओं के प्रति अपनी कल्याण की भावना से, अपने रूहानी स्नेह के स्वरूप से, अपने सूक्ष्म शक्तियों द्वारा आत्माओं में बल भरना चाहिए।
जैसे अव्यक्त रूप में बापदादा चारों ओर बच्चों की सेवा करते हैं। वह समझते हैं कि बापदादा ने मेरे से मुलाकात की, मेरी याद का रेस्पान्स दिया वा मेरी याद का प्रत्यक्ष फल मैंने अनुभव किया अथवा भक्त भी अनुभव करते हैं कि हमारे प्यार वा भावना का फल भगवान् ने पूरा किया, यह अनुभव प्रैक्टिकल रूप में होता रहता है।..."
15.03.1972 "...संगमयुग में त्याग का भाग्य बड़े ते बड़ा यही मिलता है कि स्वयं भाग्य बनाने वाला अपना बन जाता है।
यह सबसे बड़ा भाग्य हुआ ना! यह सिर्फ संगमयुग पर ही प्राप्त होता है जो स्वयं भगवान अपना बन जाता है। अगर त्याग नहीं तो बाप भी अपना नहीं।
देह का भान है तो क्या बाप याद है? बाप के समीप सम्बन्ध का अनुभव होता है जब देहभान का त्याग करते हो तो।
देहभान का त्याग करने से ही देही-अभिमानी बनने से पहली प्राप्ति क्या होती है?
यही ना कि निरन्तर बाप की स्मृति में रहते हो अर्थात् हर सेकेण्ड के त्याग से हर सेकेण्ड के लिए बाप के सर्व सम्बन्ध का, सर्व शक्तियों का अपने साथ अनुभव करते हो।
तो यह सबसे बड़ा भाग्य नहीं? यह भविष्य में नहीं मिलेगा। इसलिए कहा जाता है - यह सहज ज्ञान और सहज राजयोग भविष्य फल नहीं लेकिन प्रत्यक्षफल देने वाला है।
भविष्य तो वर्तमान के साथ-साथ बांधा हुआ ही है लेकिन सर्वश्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प के अन्दर और कहां नहीं प्राप्त करते हो।
इस समय ही त्याग और तपस्या से बाप का हर सेकेण्ड का अनुभव करते हो अर्थात् बाप को सर्व सम्बन्धों से अपना बना लेते हो।..."
31.05.1972 "...कोई के ऊपर किसका हाथ होता है तो वह निर्भय और शक्ति-रूप हो कोई भी मुश्किल कार्य करने को तैयार हो जाता है।
इसी रीति जब श्रीमत रूपी हाथ अपने ऊपर सदा अनुभव करेंगे, तो कोई भी मुश्किल परिस्थिति वा माया के विघ्न से घबरायेंगे नहीं।
हाथ की मदद से, हिम्मत से सामना करना सहज अनुभव करेंगे।
इसके लिए चित्रों में भक्त और भगवान् का रूप क्या दिखाते हैं?
शक्तियों का चित्र भी देखेंगे तो वरदान का हाथ भक्तों के ऊपर दिखाते हैं। मस्तक के ऊपर हाथ दिखाते हैं।
इसका अर्थ भी यही है कि मस्तक अर्थात् बुद्धि में सदैव श्रीमत रूपी हाथ अगर है तो हाथ और साथ होने कारण सदा विजयी हैं।
ऐसा सदैव साथ और हाथ का अनुभव करते हो? कितनी भी कमजोर आत्मा हो लेकिन साथ अगर सर्वशक्तिवान है तो कमजोर आत्मा में भी स्वत: ही बल भर जाता है।
कितना भी भयानक स्थान है लेकिन साथी शूरवीर है तो कैसा भी कमजोर शूरवीर हो जाएगा। ..."
02.08.1972 "...जब उन्हों के भाषण में इतनी पावर होती है; तो क्या आप लोगों के भाषण में वह पावर नहीं हो सकती है?
अशरीरी बनाना चाहो तो वह अनुभव करा सकते हैं? वह लहर छा जावे। सारी सभा के बीज बाप के स्नेह की लहर छा जावे। उसको कहा जाता है प्रैक्टिकल अनुभव कराना। अब ऐसे भाषण होने चाहिए, तब कुछ चेंज होगी।
वह समझें कि इन्हों के भाषण तो दुनिया से न्यारे हैं। वह भले भाषण में सभा को हंसा लेते, रूला लेते, लेकिन अशरीरीपन का अनुभव नहीं करा सकते, बाप से स्नेह नहीं पैदा करा सकते।
कृष्ण से स्नेह करा सकते, लेकिन बाप से नहीं करा सकते।
उन्हों को पता नहीं है। तो निराली बात होनी चाहिए। समझो, गीता के भगवान् पर प्वाइंट्स देते हो, लेकिन जब तक उनको बाप क्या चीज़ है, हम आत्मा हैं वह परमात्मा है - जब तक यह अनुभव ना कराओ तब तक यह बात भी सिद्ध कैसे होगी? ऐसा कोई भाषण करने वाला हो जो उन्हों को अनुभव करावे - आत्मा और परमात्मा में रात- दिन का फर्क है। जब अन्तर महसूस करेंगे तो गीता का भगवान् सिद्ध हो जावेगा। सिर्फ प्वाइंट्स से उन्हों की बुद्धि में नहीं बैठेगा, और ही लहरें उत्पन्न होंगी। लेकिन अनुभव कराते जाओ तो अनुभव के आगे कोई बात जीत नहीं सकता। भाषण में अब यह तरीका चेंज करें। ..."
22.11.1972 "...जैसे भक्त लोग कितना भी पुरूषार्थ करते हैं भगवान की याद में बैठने का, बैठ सकते हैं? कितना भी अपने को मारते हैं, कष्ट करते हैं, भिन्न रीति से समय देते हैं, सम्पत्ति लगाते हैं, फिर भी हो सकता है? यहां भी अगर दुर्गति मार्ग की रीति-रस्म है तो याद की यात्रा की स्पीड़ बढ़ नहीं सकती, अटूट याद हो नहीं सकती।
घंटिया बजाना आदि छूट गया कि स्थूल रूप में छोड़ सूक्ष्म रूप ले लिया? भक्तों को तो खूब चैलेंज करते हो कि टाइम वेस्ट, मनी वेस्ट करते हो। अपने को चेक करो - कहां तक ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बने हो? ‘ज्ञानी तू आत्मा’ का अर्थ ही है हर संस्कार, हर बोल ज्ञान सहित हो। कर्म भी ज्ञान-स्वरूप हो। इसको ‘ज्ञानी तू आत्मा’ कहा जाता है। आत्मा में जैसे-जैसे संस्कार हैं वह आटोमेटिकली वर्क करते हैं। ‘ज्ञानी तू आत्मा’ के नेचरल कर्म, बोल ज्ञान-स्वरूप होंगे। तो अपने को देखो - ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बने हैं?
भक्ति अर्थात् दुर्गति में जाने का ज़रा भी नाम-निशान न होना चाहिए।
जैसे आप लोग कहते हो - जहां ज्ञान है वहां भक्ति नहीं, जहां भक्ति है वहां ज्ञान नहीं। रात और दिन की मिसाल देकर बताती हो ना।
तो भक्तिपन के संस्कार स्थूल व सूक्ष्म रूप में भी न हों। ज्ञान के संस्कार भी बहुत समय से चाहिए ना। बहुत समय से अभी संस्कार न भरेंगे तो बहुत समय राज्य भी नहीं करेंगे।
अन्त समय भरने का पुरूषार्थ करेंगे तो राज्य-भाग्य भी अंत में पावेंगे। अभी से करेंगे तो राज्य-भाग्य भी आदि से पावेंगे। हिसाब-किताब पूरा है। जितना और उतना। ..." |
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