23.01.1970

दुःख के समय साथी ...

"...वह देहधारी युगल तो सुख के साथी होते हैं लेकिन यह तो दुःख के समय साथी बनता है। ऐसे युगल को तो एक सेकंड भी अलग नहीं करना चाहिए। साथ रखना अर्थात् शक्ति रूप बनना। ..."

 

 

25.01.1970

"...सदैव यही कोशिश करनी है कि हमारी चलन द्वारा कोई को भी दुःख न हो। मेरी चलन, संकल्प, वाणी, हर कर्म सुखदायी हो। यह है ब्राह्मण कुल की रीति। ..."

 

 

26.01.1970

"...कल्प पहले का अपना अधिकार लेने लिए फिर से पहुच गए हो, ऐसा समझते हो? वह स्मृति आती है कि हम ही कल्प पहले थे। अभी भी फिर से हम ही निमित्त बनेंगे। जिसको यह नशा रहता है उनके चेहरे में ख़ुशी और ज्योति रूप देखने में आता है। उनके चेहरे में अलौकिक अव्यक्ति चमक रहती है। उनके नयनों से, मुख से सदैव ख़ुशी ही ख़ुशी देखेंगे। देखनेवाला भी अपना दुःख भूल जाये। जब कोई दुखी आत्मा होती है तो अपने को ख़ुशी में लाने लिए ख़ुशी के साधन बनाती है ना। तो दर्पण में चेहरा देखने में आये। तुम्हारे चेहरे से सर्विस हो। न बोलते हुए आपका मुख सर्विस करे।..."

 

 

05.03.1970

"...एक दो से सुनते ही लोग दौड़ेंगे। जैसे-जैसे समय आगे बढेगा वैसे दुःख अशांति भी बढ़ने के कारण हरेक आत्मा सुख चैन की प्यासी होगी। और उसी प्यास में तरसती हुई आत्मायें इस पाण्डव भवन के अन्दर आने से ही एक सेकंड में सुख चैन का अनुभव करेंगी तब प्रभाव निकलेगा। ..."

 

 

05.03.1970

"...जिस बाप की अनेक भक्त वन्दना करते हैं, वह स्वयं आकर कहते हैं वन्दे मातरम् इस खुमारी की निशानी क्या होगी? उनके नयन, उनके मुखड़े, उनकी चलन, बोल आदि से ख़ुशी झलकती रहेगी। जिस ख़ुशी को देख कईयों के दुःख मिट जायेंगे। ऐसी मातायें जिनको बापदादा स्वयं वन्दना करते हैं, उनकी निशानी है ख़ुशी। चेहरा ही अनेक आत्माओं को हर्षायेगा। ..."

 

 

15.04.1971

"...जैसे कोई भी दुःख में तड़पते हुए को इन्जेक्शन द्वारा बेहोश कर देते हैं, उनके दु:ख की चंचलता खत्म हो जाती है। ऐसे ही मन्सा द्वारा महादानी बनने वाला अपनी दृष्टि, वृत्ति और स्मृति की शक्ति से ऐसे ही उनको शान्ति का अनुभवी बना सकते हैं लेकिन टेम्प्रेरी टाइम के लिए। क्योंकि उनका अपना पुरूषार्थ नहीं होता है। ..."

 

 

04.03.1972

"...सदैव यही स्मृति रखो कि हम दुःख-हर्ता सुख-कर्ता के बच्चे हैं। किसके भी दुःख को हल्का करने वाले स्वयं कब भी, एक सेकेण्ड वे लिए भी, संकल्प वा स्वप्न में भी दुःख की लहर में नहीं आ सकते हैं। अगर संकल्प में भी दुःख की लहर आती है तो सुख के सागर बाप की सन्तान कैसे कहला सकते हैं? क्या बाप की महिमा में यह कब वर्णन करते हो कि सुख का सागर हो लेकिन कब-कब दु:ख की लहर भी आ जाती है? तो बाप समान बनना है ना। दु:ख की लहर आती है अर्थात् कहां न कहां माया ने धोखा दिया। तो ऐसी प्रतिज्ञा करनी है। शक्ति रूप नहीं हो क्या? शक्ति कैसे मिलेगी? अगर सदा बुद्धि का सम्बन्ध एक ही बाप से लगा हुआ है तो सम्बन्ध से सर्व शक्तियों का वर्सा अधिकार के रूप में अवश्य प्राप्त होता है, लेकिन अधिकारी समझकर हर कर्म करते रहें तो कहने वा संकल्प में मांगने की इच्छा नहीं रहेगी। ..."

 

 

 

27.04.1972

"...मुख से ज्ञान सुनाना इतना प्रभाव नहीं डाल सकता है। सदैव चियरफुल (Cheerful)चेहरा रहे, दुःख की लहर संकल्प में भी न आये-उसको कहा जाता है चियरफुल। तो अपने चियरफुल चेहरे से ही सर्विस कर सकते हो। जैसे चुम्बक के तरफ ऑटोमेटिकली आकर्षित होकर लोहा जायेगा, इसी प्रकार सदा चियरफुल स्वयं ही चुम्बक का स्वरूप बन जाता है। उनको देखते ही सभी समीप आयेंगे। समझेंगे आज की दुनिया में जबकि चारों ओर दु:ख और अशान्ति के बादल छाये हुए हैं, ऐसे वायुमण्डल में यह सदा चियरफुल रहते हैं। यह क्यों और कैसे रहते हैं, वह देखने की उत्कण्ठा होगी।..."

 

 

 

12.06.1977

"...सदा विजयी के स्वप्न भी सुखदायी होते है, दुःख के नहीं। जब स्वप्न भी सुखदाई होंगे तो जरूर साकार में सुख स्वरूप होंगे। जब आप अपने गुणों की महिमा करते हो तो कहते हो, सुख स्वरूप..... या दु:ख भी कहते हो? आत्मा का अनादि स्वरूप सुख है तो दु:ख कहाँ से आया? जब अनादि स्वरूप से नीचे आते हो तो दु:ख होता। तो ऐसे अनुभव करते ही दु:ख से किनारा हो गया है? दूसरों के दु:ख की बातें सुनते दु:ख की लहर न आए। क्योंकि मालूम है, दु:खों की दुनिया है, आपके लिए दु:ख की दुनिया समाप्त हो गयी। आपके लिए तो कल्याणकारी चढ़ती कला का युग है। तो संकल्प में भी दु:ख की दुनिया को छोड़। चले लंगर उठ गया है ना? अगर दु:ख देने वाले सम्बन्धी या दु:ख की परिस्थिति अपनी तरफ खेंचती हैं तो समझो कुछ रस्सियां सूक्ष्म में रह गयी हैं। सूक्ष्म रस्सियाँ सब समाप्त हैं या कुछ रही हैं? उसकी परख अथवा निशानी है - ‘खिंचावट।’ अगर बन्धी हुई रस्सियाँ हैं तो आगे बढ़ नहीं सकेंगे। अगर अभी तक दु:ख का, दु:ख की दुनिया का किनारा छोड़ा नहीं तो संगमयुगी हुए नहीं ना? फिर तो कलियुग, संगम के बीच के हो गए। न यहाँ के न वहाँ के ऐसे की अवस्था अब क्या होगी? कब कहां, कब कहां। बुद्धि का एक ठिकाना अनुभव नहीं करेंगे। भटकना अच्छा लगता है क्या? जब अच्छा नहीं लगता तो खत्म करो। सदा अपने सुख स्वरूप में स्थित रहो। बोलो तो भी सुख के बोल, सोचो तो भी सुख की बातें, देखो तो भी सुख स्वरूप आत्मा को देखो। शरीर को देखेंगे तो शरीर तो है ही अन्तिम विकारी तत्वों का बना हुआ। इसीलिए सुख स्वरूप आत्मा को देखो। ऐसा अभ्यास चाहिए जैसे सतयुगी देवताओं को ‘दु:ख’ शब्द का पता भी नहीं होगा। अगर उनसे पूछो तो कहेंगे दु:ख कुछ होता भी है क्या। तो वह संस्कार यहाँ ही भरने हैं। ऐसे संस्कार बनाओ जो दु:ख शब्द का ज्ञान भी न हो। प्राप्ति के आधार पर मेहनत कुछ भी नहीं है। सदा के संस्कार बन जाए, उसके लिए अगर एक जन्म के कुछ वर्ष मेहनत भी करनी पड़े तो क्या बड़ी बात है? पाँच हजार वर्ष के संस्कार बनाने के लिए थोड़े समय की मेहनत है। ..."

 

 

19.11.1979

"...कोई भी प्रकार का जब दुख आता है तो नास्तिक के मुख से भी - ‘हे भगवान’ निकलता है। तो दुःख भी याद दिलाने का साधन हुआ ना। संगम पर कोई कष्ट हो नहीं सकता। इस समय आप बच्चे बाप के सर्व खज़ानों के अधिकारी हो। बाप का खज़ाना क्या है? सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम - यही तो खज़ाना है ना! तो अधिकारी और खुश ना रहे, यह हो कैसे सकता है। अमृतवेले सदा स्मृति का तिलक लगाओ कि हम अधिकारी हैं। अगर तिलक लगा होगा तो सदा हर्षित रहेंगे। तिलक को मिटने नहीं देना। माया कितना भी मिटाने की कोशिश करे लेकिन मिटाना नहीं तो सदा ‘अविनाशी भव’ का वरदान मिलता रहेगा।..."

 

 

 

21.02.1983

"...साइलेन्स की शक्ति का विशेष यंत्र है - ‘‘शुभ संकल्प’’, इस संकल्प के यंत्र द्वारा जो चाहो वह सिद्धि स्वरूप में देख सकते हो। पहले स्व के प्रति प्रयोग करके देखो। तन की व्याधि के ऊपर प्रयोग करके देखो तो शान्ति की शक्ति द्वारा कर्म बन्धन का रूप, मीठे सम्बन्ध के रूप में बदल जायेगा। बन्धन सदा कड़वा लगता है, सम्बन्ध मीठा लगता है। यह कर्मभोग - कर्म का कड़ा बन्धन साइलेन्स की शक्ति से पानी की लकीर मिसल अनुभव होगा। भोगने वाला नहीं, भोगना भोग रही हूँ - यह नहीं लेकिन साक्षी दृष्टा हो इस हिसाब किताब का दृश्य भी देखते रहेंगे। इसलिए तन के साथ-साथ मन की कमज़ोरी, डबल बीमारी होने के कारण जो कड़े भोग के रूप में दिखाई देता है वह अति न्यारा और बाप का प्यारा होने के कारण डबल शक्ति अनुभव होने से कर्मभोग के हिसाब की शक्ति के ऊपर वह डबल शक्ति विजय प्राप्त कर लेगी। बीमारी चाहे कितनी भी बड़ी हो लेकिन दुःख वा दर्द का अनुभव नहीं करेंगे। जिसको दूसरी भाषा में आप कहते होकि ‘सूली से कांटे के समान’ अनुभव होगा। ऐसे टाइम में प्रयोग करके देखो। कई बच्चे करते भी हैं। इसी प्रकार से तन पर, मन पर, संस्कार पर अनुभव करते जाओ और आगे बढ़ते जाओ। यह रिसर्च करो। ..."

 

 

 

19.04.1983

"...सदा श्रेष्ठ प्राप्ति और सेवा की भावना वाली श्रेष्ठ आत्माओं को प्रत्यक्षफल प्राप्त हुआ है। सभी प्रत्यक्षफल के अनुभवी आत्मायें हो? प्रत्यक्षफल खाकर देखा है? और फल तो सतयुग में भी मिलेंगे और अब कलियुग के भी बहुत फल खाये। लेकिन संगमयुग का ‘प्रभुफल’, प्रत्यक्ष फल अगर अब नहीं खाया तो सारे कल्प में नहीं खा सकते। बापदादा सभी बच्चों से पूछते हैं - प्रभु फल, अविनाशी फल, सर्व शक्तियाँ, सर्वगुण, सर्व सम्बन्ध के स्नेह के रस वाला फल खाया है? सभी ने खाया है या कोई रह गया है? यह ईश्वरीय जादू का फल है। जिस फल खाने से लोहे से पारस से भी ज्यादा हीरा बन जाते हो। इस फल से जो संकल्प करो वह प्राप्त कर सकते हो। अविनाशी फल, अविनाशी प्राप्ति। ऐसे प्रत्यक्ष फल खाने वाले सदा ही माया के रोग से तन्दुरूस्त रहते है। दुःख, अशान्ति से, सर्व विघ्नों से सदा दूर रहने का अमर फल मिल गया है! बाप का बनना और ऐसे श्रेष्ठ फल प्राप्त होना।..."

 

 

 

07.05.1983

"...ब्राह्मणों का संसार - बेगमपुर है। संगमयुगी ब्राह्मण संसार के अधिकारी आत्मायें अर्थात् बेगमपुर के बादशाह। संकल्प में भी गम अर्थात् दुख की लहर न हो - ऐसे बने हो? बेगमपुर के बादशाह सदा सुख की शैय्या पर सुखमय संसार में स्वयं को अनुभव करते हो? ब्राह्मणों के संसार वा ब्राह्मण जीवन में दुख का नाम निशान नहीं क्योंकि ब्राह्मणों के खज़ाने में अप्राप्त कोई वस्तु नहीं। अप्राप्ति दुःख का कारण है। प्राप्ति सुख का साधन है। तो सर्व प्राप्ति स्वरूप अर्थात् सुख स्वरूप! ऐसे सदा सुख स्वरूप बने हो? सुख के साधन-सम्बन्ध और सम्पत्ति यही विशेष हैं। सोचो - अविनाशी सुख का सम्बन्ध प्राप्त है ना! सम्बन्ध में भी कोई एक सम्बन्ध की भी कमी होती है तो दुख की लहर आती है। ब्राह्मण संसार में सर्व सम्बन्ध बाप के साथ अविनाशी हैं। कोई एक सम्बन्ध की भी कमी है क्या? सर्व सम्बन्ध अविनाशी हैं तो दुख की लहर कैसे होगी? सम्पत्ति में भी सर्व खज़ाने वा सर्व सम्पत्ति का श्रेष्ठ खज़ाना ‘ज्ञान धन’ है, जिससे सर्व धन की प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है। जब सम्पत्ति, सम्बन्ध सब प्राप्त हैं तो बेगमपुर अर्थात् बेगम संसार है। सदा सुख के संसार के बालक सो मालिक अर्थात् बादशाह हो। बादशाह बने हो कि अभी बन रहे हो? बापदादा बच्चों के दुख की लहर की बातें सुनकर वा देखकर क्या सोचते हैं? सुख के सागर के बच्चे, बेगमपुर के बादशाह फिर दुख की लहर कहाँ से आई! अवश्य सुख के संसार की बाउन्ड्री से बाहर चले जाते हैं। कोई न कोई आर्टीफिशल आकर्षण वा नकली रूप के पीछे आकर्षित हो जाते हैं। जैसे कल्प पहले के यादगार कथाओं में दिखाते हैं - सीता आकर्षित हो गई और मर्यादा की लकीर अर्थात् सुख के संसार की बाउन्ड्री पार कर ली, तो कहाँ पहुँच गई? शोक वाटिका में। जब बाउन्ड्री के अन्दर हैं तो जंगल में भी मंगल है। त्याग में भी भाग्य है। बिन कोड़ी होते बादशाह हैं। बेगरी जीवन में भी प्रिन्स की जीवन है। ऐसा अनुभव है ना! संसार से परे मधुबन में आते हो तो क्या अनुभव करते हो? है छोटे से स्थान पर कोने में लेकिन पहुँचते ही कहते हो कि सतयुगी स्वर्ग से भी श्रेष्ठ संसार में पहुँच गये हैं। तो जंगल में मंगल अनुभव करते हो ना। सूखे पहाड़ों को हीरे जैसा श्रेष्ठ सुख का संसार अनुभव करते हो। संसार ही बदल गया, ऐसा अनुभव करते हो ना। ऐसे ही ब्राह्मण आत्मायें जहाँ भी हों दुख के वायुमण्डल के बीच भी कमल समान। दु:ख से न्यारे, बेगमपुर के बादशाह हो। तन के बीमारी के दु:ख की लहर वा मन में व्यर्थ हलचल के दु:ख की लहर वा विनाशी धन के अप्राप्ति की वा कमी के दुख की लहर, स्वयं के कमज़ोर संस्कार वा स्वभाव वा अन्य के कमज़ोर स्वभाव और संस्कार के दु:ख की लहर, वायुमण्डल वा वायब्रेशन्स के आधार पर दुख की लहर, सम्बन्ध सम्पर्क के आधार पर दुःख की लहर, अपनी तरफ खींच लेती है! न्यारे हो ना! संसार बदल गया तो संस्कार भी बदल गये। स्वभाव बदल गया इसलिए सुखमय संसार के बन गये। ..."

 

 

 

17.05.1983

"...सदा खुश रहते हो या कभी थोड़ा दु:ख भी होता है? जब कोई चीज़ नहीं मिलती होगी तब दुःख होता होगा या मम्मी-डैडी कुछ कहते होंगे तो दु:ख होता होगा। ऐसा कुछ करो ही नहीं जो मम्मी डैडी कहें। ऐसा चलो जैसा फरिश्ते चल रहे हैं। फरिश्तों का आवाज़ नहीं होता। मनुष्य जो होते हैं वह आवाज़ करते हैं। आप ब्राह्मण सो फरिश्ते आवाज़ नहीं करो। ऐसा चलो जो किसी को पता ही न चलें। खाओ पिओ, चलो फरिश्ता बन करके। बापदादा सभी बच्चों को बहुत बहुत बधाई दे रहे हैं। बहुत अच्छे बच्चे हैं और सदा अच्छे ही बनकर रहना। ..."

 

 

 

01.12.1983

"...कितनी भी परिस्थितियाँ आवें, दु:ख की लहर भी उत्पत्ति दिलाने वाली लहर हो लेकिन दुःख शब्द की अविद्या वाले हों। दुख की परिस्थिति को अपने सुख के सागर से प्राप्त हुए अधिकार द्वारा दुख की परिस्थितियों में भी, ‘वाह मीठा ड्रामा, वाह हरेक पार्टधारी का पार्ट- इस नालेज की रोशनी द्वारा, अधिकार की खुशी द्वारा दुख को सुख में परिवर्तन कर देता। अधिकार से दुख के अंधकार को परिवर्तन कर, मास्टर सुखदाता बन स्वयं तो सुख के झूले में झूलते ही हैं लेकिन औरों को भी सुख के वायब्रेशन देने के निमित्त बनते हैं। ऐसे सुख के अधिकार की लकीर स्पष्ट और गहरी हैं, जिसको कोई मिटा न सके। मिटाने वाले बदल जाएँ लेकिन वह नहीं। मास्टर सुख दाता से सुख की अंचली ले लें। ऐसे लकीर वाले भी देखे। इसको कहा जाता है - नम्बर वन तकदीरवान! ..."

 

 

 

19.04.1984

"...जो भयभीत आत्मायें हैं उन्हों को भी शक्तिशली बनाने वाले, दुःख के समय पर सुख देने वाली आत्मायें हो। सुखदाता के बच्चे हो। जैसे अन्धियारे में चिराग होता है तो रोशनी हो जाती है। ऐसे दुःख के वातावरण में सुख देने वाली आप श्रेष्ठ आत्मायें हों। तो सदा यह सुख देने की श्रेष्ठ भावना रहती है। सदा सुख देना है, शान्ति देनी है। शान्तिदाता के बच्चे शान्ति देवा हो। तो शान्ति देवा कौन है? अकेला बाप नहीं, आप सब भी हो। तो शान्ति देने वाले शान्ति देवा - शान्ति देने का कार्य कर रहे हो ना! लोग पूछते हैं - आप लोग क्या सेवा करते हो? तो आप सभी को यही कहो कि इस समय जिस विशेष बात की आवश्यकता है वह कार्य हम कर रहे हैं। अच्छा, कपड़ा भी देंगे, अनाज़ भी दे देंगे, लेकिन सबसे आवश्यक चीज़ हैं - ‘शान्ति’। तो जो सबके लिए आवश्यक चीज़ है वह हम दे रहे हैं। इससे बड़ी सेवा और क्या है! मन शान्त है तो धन भी काम में आता है। मन शान्त नहीं तो धन की शक्ति भी परेशान करती है। अभी ऐसे शान्ति की शक्तिशाली लहर फैलाओ जो सभी अनुभव करें कि सारे देश के अन्दर यह शान्ति का स्थान है। एक-दो से सुने और अनुभव करने के लिए आवें कि दो घड़ी भी जाने से यहाँ बहुत शान्ति मिलती है। ऐसा आवाज़ फैले। जैसे उन्हों का आवाज़ फैल गया है कि अशान्ति का स्थान यह गुरूद्वारा ही बन चुका है। ऐसे शान्ति का कोना कौन-सा है, यही सेवा स्थान है, यह आवाज़ फैलना चाहिए। कितनी भी अशान्त आत्मा हो! जैसे रोगी हास्पिटल में पहुँच जाता है ऐसे यह समझें कि अशान्ति के समय इस शान्ति के स्थान पर ही जाना चाहिए। ऐसी लहर फैलाओ। ..."

 

 

 

10.12.1984

"...वर्तमान समय की हलचल की दुनिया अर्थात् दुःख के वातावरण वाली दुनिया में बापदादा अपने अचल अडोल बच्चों को देख रहे हैं। हलचल में रहते न्यारे और बाप के प्यारे कमल पुष्पों को देख रहे हैं। भय के वातावरण में रहते निर्भय, शक्ति स्वरूप बच्चों को देख रहे हैं। इस विश्व के परिवर्तक बेफिकर बादशाहों को देख रहे हैं। ऐसे बेफिकर बादशाह हो जो चारों ओर के फिकरात के वायुमण्डल का प्रभाव अंश मात्र भी नहीं पड़ सकता है। वर्तमान समय विश्व में मैजारिटी आत्माओं में भय और चिन्ता यह दोनों ही विशेष सभी में प्रवेश हैं। लेकिन जितने ही वह फिकर में हैं, चिंता में हैं उतने ही आप शुभ चिन्तक हो। चिन्ता बदल शुभ चिन्तक के भावना स्वरूप बन गये हो। भयभीत के बजाए सुख के गीत गा रहे हो। इतना परिवर्तन अनुभव करते हो ना! सदा शुभ चिन्तक बन शुभ भावना, शुभ कामना की मानसिक सेवा से भी सभी को सुख-शान्ति की अंचली देने वाले हो ना! अकाले मृत्यु वाली आत्माओं को, अकाल मूर्त बन शान्ति और शक्ति का सहयोग देने वाले हो ना! क्योंकि वर्तमान समय सीजन ही अकाले मृत्यु की है। जैसे वायु का, समुद्र का तूफान अचानक लगता है, ऐसे यह अकाल मृत्यु का भी तूफान अचानक और तेजी से एक साथ अनेकों को ले जाता है। यह अकाले मृत्यु का तूफान अभी तो शुरू हुआ है। ..."

 

 

 

10.12.1984

"...अभी लास्ट समय है और पापों का हिसाब ज्यादा है। इसलिए अब जल्दी-जल्दी जन्म और जल्दी-जल्दी मृत्यु - इस सजा द्वारा अनेक आत्माओं का पुराना खाता खत्म हो रहा है। तो वर्तमान समय मृत्यु भी दर्दनाक और जन्म भी मैजारिटी का बहुत दुःख से हो रहा है। न सहज मृत्यु न सहज जन्म है। तो दर्दनाक मृत्यु और दुःखमय जन्म यह जल्दी हिसाब-किताब चुक्तू करने का साधन है। जैसे इस पुरानी दुनिया में चीटियाँ, चीटें, मच्छर आदि को मारने के लिए साधन अपनाये हुए हैं। उन साधनों द्वारा एक ही साथ चीटियाँ वा मच्छर वा अनेक प्रकार के कीटाणु इकट्ठे हो विनाश हो जाते हैं ना। ऐसे आज के समय मानव भी मच्छरों, चीटियों सदृश्य अकाले मृत्यु के वश हो रहे हैं। मानव और चींटियों में अन्तर ही नहीं रहा है। यह सब हिसाबकिताब और सदा के लिए समाप्त होने के कारण इकट्ठा अकाले मृत्यु का तूफान समय प्रति समय आ रहा है। वैसे धर्मराजपुरी में भी सजाओं का पार्ट अन्त में नूँधा हुआ है। लेकिन वह सजायें सिर्फ आत्मा अपने आप भोगती और हिसाब-किताब चुक्तू करती है। लेकिन कर्मों के हिसाब अनेक प्रकार में भी विशेष तीन प्रकार के हैं - एक हैं आत्मा को अपने आप भोगने वाले हिसाब। जैसे - बीमारियाँ। अपने आप ही आत्मा तन के रोग द्वारा हिसाब चुक्तू करती है। ऐसे और भी दिमाग कमज़ोर होना वा किसी भी प्रकार की भूत प्रवेशता। ऐसे ऐसे प्रकार की सजाओं द्वारा आत्मा स्वयं हिसाब-किताब भोगती है। दूसरा हिसाब है - सम्बन्ध सम्पर्क द्वारा दुःख की प्राप्ति। यह तो समझ सकते हो ना कि कैसे है! और तीसरा है - प्राकृतिक आपदाओं द्वारा हिसाब-किताब चुक्तू होना। तीनों प्रकार के आधार से हिसाब-किताब चुक्तू हो रहे हैं। तो धर्मराजपुरी में सम्बन्ध और सम्पर्क द्वारा हिसाब वा प्राकृतिक आपदाओं द्वारा हिसाब-किताब चुक्तू नहीं होगा। वह यहाँ साकार सृष्टि में होगा। सारे पुराने खाते सभी के खत्म होने ही हैं। इसलिए यह हिसाब-किताब चुक्तू की मशीनरी अब तीव्रगति से चलनी ही है। विश्व में यह सब होना ही है। समझा! यह है कर्मों की गति का हिसाब-किताब। ..."

 

 

 

10.12.1984

"...दुःखमय दुनिया में तो दुःख की घटनाओं के पहाड़ फटने ही हैं। ऐसे समय पर सेफ्टी का साधन है ही - ‘बाप की छत्रछाया’। ..."

 

 

 

12.12.1984

"...सभी कभी न कभी किसी न किसी दिल के दर्द में दुखी हैं। ऐसे दिल के दर्द को हरण करने वाले दुःख हर्ता सुख दाता बाप के सुख स्वरूप आप बच्चे हो। और सभी के दिल के दर्द की पुकार हाय-हाय का आवाज़ निकलता है। और आप दिल-खुश बच्चों की दिल से सदा वाह-वाह का आवाज़ निकलता है। जैसे स्थूल शरीर के दर्द भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं ऐसे आज की मनुष्य आत्माओं के दिल के दर्द भी अनेक प्रकार के हैं। कभी तन के कर्म भोग का दर्द, कभी सम्बन्ध सम्पर्क से दुखी होने का दर्द, कभी धन ज्यादा आया वा कम हो गया दोनों की चिंता का दर्द, और कभी प्राकृतिक आपदाओं से प्राप्त हुए दुःख का दर्द। कभी अल्पकाल की इच्छाओं की अप्राप्ति के दुःख दर्द, ऐसे एक दर्द से अनेक दर्द पैदा होते रहते हैं। विश्व ही दुःख दर्द की पुकार करने वाला बन गया है। ऐसे समय पर आप सुखदाई सुख स्वरूप बच्चों का फर्ज़ क्या है? जन्म-जन्म के दुःख दर्द के कर्ज़ से सभी को छुड़ाओ। यह पुराना कर्ज़ दुःख दर्द का मर्ज बन गया है। ऐसे समय पर आप सभी का फर्ज़ है दाता बन जिस आत्मा को जिस प्रकार के कर्ज़ का मर्ज लगा हुआ है उनको उस प्राप्ति से भरपूर करो। जैसे तन के कर्मभोग की दुःख दर्द वाली आत्मा को कर्मयोगी बन कर्मयोग से कर्म भोग समाप्त करे, ऐसे कर्मयोगी बनने की शक्ति की प्राप्ति महादान के रूप में दो। वरदान के रूप में दो, स्वयं तो कर्ज़दार हैं अर्थात् शक्तिहीन ही हैं, खाली हैं। ऐसे को अपने कर्मयोग की शक्ति का हिस्सा दो। कुछ न कुछ अपने खाते से अनेक खाते में जमा करो तब वह कर्ज़ के मर्ज से मुक्त हो सकते हैं। इतना समय जो डायरेक्ट बाप के वारिस बन सर्व शक्तियों का वर्सा जमा किया है उस जमा किये हुए खाते से फराखदिली से दान करो, तब दिल के दर्द की समाप्ति कर सकेंगे।..."

 

 

 

12.12.1984

"...अभी दुःख की दुनिया छोड़ दी। उससे निकल गये। अभी संगमयुगी सुखों की दुनिया में हो। अलौकिक प्रवृत्ति वाले हो, लौकिक प्रवृत्ति वाले नहीं। आपस में भी अलौकिक वृत्ति, अलौकिक दृष्टि रहे।..."

 

 

24.12.1984

"...यही याद रखो - कि हम सर्व भण्डारों के मालिक हैं, भरपूर भण्डारे हैं। जिसको दुनिया ढूँढ रही है उसके बच्चे बने हैं। दुःख की दुनिया से किनारा कर लिया। सुख के संसार में पहुँच गये। तो सदा सुख के सागर में लहराते, सबको सुख के खज़ाने से भरपूर करो। ..."

 

 

 

31.12.1984

"...वो लोग हैपी न्यू ईयर कहते, आप ‘एवर हैपी न्यू ईयर’ कहते। आज खुशी और कल दुख की घटना दुखी नहीं बनाती। कैसी भी दुःख की घटना हो लेकिन ऐसे समय पर भी सुख, शान्ति स्वरूप स्थिति द्वारा सर्व को सुख-शान्ति की किरणें देने वाले मास्टर सुख के सागर बन दाता का पार्ट बजाते हो। इसलिए घटना के प्रभाव से परे हो जाते हो। और एवर हैपी का सदा अनुभव करते हो। ..."

 

 

 

1985

21.01.1985

"...जैसे सतयुग में कभी भी कोई एक्सीडेंट हो नहीं सकते। क्योंकि आपके श्रेष्ठ कर्मों की श्रेष्ठ प्रालब्ध है। ऐसे कोई कर्म होते नहीं जो कर्म के भोग के हिसाब से यह दुःख भोगना पड़े। ऐसे संगमयुगी गाडली गिफ्ट दिव्य बुद्धि सदा सर्व प्रकार के दुःख और धोखे से मुक्त हैं। दिव्य बुद्धि वाले कभी धोखे में आ नहीं सकते। दुःख की अनुभूति कर नहीं सकते। सदा सेफ हैं। आपदाओं से मुक्त हैं। ..."

 

 

 

18.02.1985

"...आज यह प्राब्लम आ गई, कल दूसरी आ गई, यह दुःखधाम की बातें दुःखधाम में तो आयेंगी ही लेकिन हम संगमयुगी ब्राह्मण हैं तो दुःख नीचे रह जायेगा। दुःखधाम से किनारा कर लिया तो दुःख दिखाई देते भी आपको स्पर्श नहीं करेगा। कलियुग को छोड़ दिया, किनारा छोड़ चुके, अब संगमयुग पर पहुँचे तो संगम सदा ऊँचा दिखाते हैं। संगमयुगी आत्मायें भी सदा ऊँची, नीचे वाली नहीं। जब बाप उड़ाने के लिए आये हैं तो उड़ती कला से नीचे आयें ही क्यों! नीचे आना माना फँसना। अब पंख मिले हैं तो उड़ते रहो, नीचे आओ ही नहीं।..."

 

 

 

24.02.1985

"...लौकिक में प्राप्ति स्वरूप जीवन में विशेष चार बातों की प्राप्ति आवश्यक है।

(1) सुखमय सम्बन्ध।

(2) स्वभाव और संस्कार सदा शीतल और स्नेही हो।

(3) सच्ची कमाई की श्रेष्ठ सम्पत्ति हो।

(4) श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ सम्पर्क हो।

अगर यह चारों ही बातें प्राप्त हैं तो लौकिक जीवन में भी सफलता और खुशी है। लेकिन लौकिक जीवन की प्राप्तियाँ अल्पकाल की प्राप्तियाँ हैं। आज सुखमय सम्बन्ध है कल वही सम्बन्ध दुःखमय बन जाता है। आज सफलता है कल नहीं है। इसके अन्तर में आप प्राप्ति स्वरूप श्रेष्ठ आत्माओं को इस अलौकिक श्रेष्ठ जीवन में चारों ही बातें सदा प्राप्त हैं। क्योंकि डायरेक्ट सुखदाता सर्व प्राप्तियों के दाता के साथ अविनाशी सम्बन्ध है। जो अविनाशी सम्बन्ध कभी भी दुख वा धोखा देने वाला नहीं है। विनाशी सम्बन्धों में वर्तमान समय दुख है वा धोखा है। अविनाशी सम्बन्ध में सच्चा स्नेह है। सुख है। तो सदा स्नेह और सुख के सर्व सम्बन्ध बाप से प्राप्त हैं। एक भी सम्बन्ध की कमी नहीं हैं। जो सम्बन्ध चाहो उसी सम्बन्ध से प्राप्ति का अनुभव कर लो। जिस आत्मा को जो सम्बन्ध प्यारा है उसी सम्बन्ध से भगवान प्रीत की रीति निभा रहे हैं। भगवान को सर्व सम्बन्धी बना लिया। ऐसा श्रेष्ठ सम्बन्ध सारे कल्प में प्राप्त नहीं हो सकता। तो सम्बन्ध भी प्राप्त है। साथसाथ इस अलौकिक दिव्य-जन्म में सदा श्रेष्ठ स्वभाव, ईश्वरीय संस्कार होने कारण स्वभाव संस्कार कभी दुःख नहीं देते। जो बापदादा के संस्कार वह बच्चों के संस्कार। जो बापदादा का स्वभाव वह बच्चों का स्वभाव। स्व-भाव अर्थात् सदा हर एक के प्रति स्व अर्थात् आत्म-भाव। ‘स्व’ श्रेष्ठ को भी कहा जाता है। स्व का भाव वा श्रेष्ठ भाव यही स्वभाव हो। ..."

 

 

 

06.03.1985

"... सदा अपने भाग्य को देख हर्षित रहो। कितना बड़ा भाग्य मिला है, घर बैठे भगवान मिल जाए इससे बड़ा भाग्य और क्या होगा! इसी भाग्य को स्मृति में रख हर्षित रहो। तो दुःख और अशान्ति सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे। सुख स्वरूप, शान्त स्वरूप बन जायेंगे। जिसका भाग्य स्वयं भगवान बनाये वह कितने श्रेष्ठ हुए। तो सदा अपने में नया उमंग, नया उत्साह अनुभव करते आगे बढ़ते चलो। क्योंकि संगमयुग पर हर दिन का नया उमंग, नया उत्साह है। ..."

 

 

 

09.03.1985

"...जैसे विनाश की लहर है वैसे सतयुगी सृष्टि के स्थापना की खुशखबरी की लहर चारों ओर फैलाओ। सभी के दिल में यह उम्मीद का सितारा चमकाओ। क्या होगा, क्या होगा के बजाए समझें कि ‘अब यह होगा’। ऐसी लहर फैलाओ। गोल्डन जुबली गोल्डन एज के आने की खुशखबरी का साधन है। जैसे आप बच्चों को दुखधाम देखते हुए भी सुखधाम सदा स्वत: ही स्मृति में रहता है और सुखधाम की स्मृति दुखधाम भुला देती है। और सुखधाम वा शन्तिधाम जाने की तैयारियों में खोये हुए रहते हो। जाना है और सुखधाम में आना है। जाना है और आना है - यह स्मृति समर्थ भी बना रही है और खुशी-खुशी से सेवा के निमित्त भी बना रही है। अभी लोग ऐसे दुःख की खबरें बहुत सुन चुके हैं। अब इस खुशखबरी द्वारा दुःखधाम से सुखधाम जाने के लिए खुशी-खुशी से तैयार करो उन्हों में भी यह लहर फैल जाए कि हमें भी जाना है। नाउम्मीद वालों को उम्मीद दिलाओ। दिलशिकस्त आत्माओं को खुशखबरी सुनाओ।..."

 

 

 

18.03.1985

"...मर्यादा की लकीर के अन्दर रहने वाले बाप के आज्ञाकारी बच्चे माया को दूर से ही पहचान लेते हैं। पहचानने में देरी करते हैं, वा गलती करते हैं तब माया से घबरा जाते हैं। जैसे यादगार में कहानी सुनी है - सीता ने धोखा क्यों खाया? क्योंकि पहचाना नहीं। माया के स्वरूप को न पहचानने कारण धोखा खाया। अगर पहचान लें कि यह ब्राह्मण नहीं, भिखारी नहीं, रावण है तो शोक वाटिका का इतना अनुभव नहीं करना पड़ता। लेकिन पहचान देरी से आई तब धोखा खाया और धोखे के कारण दुःख उठाना पड़ा। योगी से वियोगी बन गई। सदा साथ रहने से दूर हो गई। प्राप्ति स्वरूप आत्मा से पुकारने वाली आत्मा बन गई। कारण? पहचान कम। माया के रूप को पहचानने की शक्ति कम होने कारण माया को भगाने के बजाए स्वयं घबरा जाते हैं। पहचान कम क्यों होती है, समय पर पहचान नहीं आती, पीछे क्यों आती। इसका कारण? क्योंकि सदा बाप की श्रेष्ठ मत पर नहीं चलते। कोई समय याद करते हैं, कोई समय नहीं। कोई समय उमंग-उत्साह में रहते, कोई समय नहीं रहते। जो सदा की आज्ञा को उल्लंघन करते अर्थात् आज्ञा की लकीर के अन्दर नहीं रहने के कारण माया समय पर धोखा दे देती हैं। माया में परखने की शक्ति बहुत है। माया देखती है कि इस समय यह कमज़ोर है। तो इस प्रकार की कमज़ोरी द्वारा इसको अपना बना सकते हैं। माया के आने का रास्ता है ही - कमज़ोरी। जरा-सा भी रास्ता मिला तो झट पहुँच जाती है। जैसे आजकल डाकू क्या करते हैं! दरवाजा भले बन्द हो लेकिन वेन्टीलेटर से भी आ जाते हैं। जरा-सा संकल्प मात्र भी कमज़ोर होना अर्थात् माया को रास्ता देना है। इसलिए मायाजीत बनने का बहुत सहज साधन है - ‘सदा बाप के साथ रहो।’ साथ रहना अर्थात् स्वत: ही मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहना।..."

 

 

 

21.03.1985

"...यहाँ शान्त स्वरूप आत्मायें हैं। बिगड़ी को बनाने वाली हैं। सबके दुःख दूर करने वाले हैं। वह दुःख देने वाले हैं और आप दुःख दूर करने वाले हो। दुःखहर्ता सुखकर्ता । जैसे बाप वैसे बच्चे। सदा हर संकल्प हर आत्मा के प्रति वा स्व के प्रति सुखदाई संकल्प है। क्योंकि दुःख की दुनिया से निकल गये। अभी दुःख की दुनिया में नहीं हो। दुःखधाम से संगमयुग में पहुँच गये हो। पुरूषोत्तम युग में बैठे हो। वह कलियुगी यूथ हैं। आप संगमयुगी यूथ हो। इसलिए अभी यह सदा अपने में नॉलेज को शक्ति के रूप में धारण करो भी और कराओ भी। जितना स्वयं फोर्स का कोर्स किया हुआ होगा उतना दूसरों को यह फोर्स का कोर्स करायेंगे। ..."

 

 

 

1986

15.01.1986

"...जब आप बदलते हो तो दुनिया भी बदल जाती है। और ऐसी बदलती है जिसमें दुःख और अशान्ति का नामो-निशान नहीं। तो सदा खुशी में नाचते रहो। सदा अपने श्रेष्ठ कर्मों का खाता जमा करते चलो। सभी को खुशी का खज़ाना बाँटो। आज के संसार में खुशी नहीं है। सब खुशी के भिखारी हैं, उन्हें खुशी से भरपूर बनाओ। सदा इसी सेवा से आगे बढ़ते रहो। जो आत्मायें दिलशिकस्त बन गई हैं उन्हों में उमंग उत्साह लाते रहो। ..."

 

 

 

 

16.02.1986

"...बाप को याद करते हैं - वर्से के लिए। अगर वर्से की प्राप्ति न हो तो बाप को भी याद क्यों करे! तो बाप और वर्सा यही याद - सदा ही भरपूर बनाती है। खज़ानों से भरपूर और दुख दर्द से दूर। दोनों ही फायदा हैं। दुःख से दूर हो जाते और खज़ानों से भरपूर हो जाते। ऐसी प्राप्ति सदाकाल की, बाप के बिना और कोई करा नहीं सकता। यही स्मृति सदा सन्तुष्ट, सम्पन्न बनायेगी। ..."

 

 

 

 

18.02.1986

"...मन में यही उमंग है कि जल्दी से जल्दी परिवर्तन का कार्य सम्पन्न हो। सभी ज्ञान गंगायें ज्ञान सागर बाप समान विश्वकल्याणी, वरदानी और महादानी रहमदिल आत्मायें हैं। इसलिए आत्माओं की दुःख, अशान्ति की आवाज अनुभव कर आत्माओं के दुःख अशान्ति को परिवर्तन करने की सेवा तीव्रगति से करने का उमंग बढ़ता रहता है। दुःखी आत्माओं के दिल की पुकार सुनकर रहम आता है ना। स्नेह से उठता है कि सभी सुखी बन जाएँ। सुख की किरणें, शांति की किरणें, शक्ति की किरणें विश्व को देने के निमित्त बने हुए हो। ..."

 

 

 

 

10.03.1986

"...साथी सबको पसन्द है ना! या और कोई चाहिए! और कोई कम्पेनियन की जरूरत तो नहीं है ना! कभी थोड़ा दिल बहलाने के लिए कोई और चाहिए? धोखे देने वाले सम्बन्ध से छूट गये। उसमें धोखा भी है और दुःख भी है। अभी ऐसे सम्बन्ध में आ गये जहाँ न धोखा है, न दुःख है। बच गये। सदा के लिए बच गये। ..."

 

 

 

 

22.03.1986

"...जहाँ चिंता है वहाँ चैन नहीं हो सकता। जहाँ भय है वहाँ शान्ति नहीं हो सकती। तो सुख के साथ यह दुःख-अशान्ति के कारण है ही है। और आप सबको दुख का कारण और निवारण मिल गया। अभी आप समस्याओं को समाधान करने वाले समाधान स्वरूप बन गये हो ना। समस्याएँ आप लोगों से खेलने के लिए खिलौने बन कर आती है। खेल करने के लिए आती हैं, न कि डराने के लिए। घबराने वाले तो नहीं हो ना? जहाँ सर्व शक्तियों का खज़ाना जन्म-सिद्ध अधिकार हो गया तो बाकी कमी क्या रही, भरपूर हो ना! मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे समस्या कोई नहीं। हाथी के पांव के नीचे अगर चींटी आ जाए तो दिखाई देगी? तो यह समस्याएँ भी आप महारथियों के आगे चींटी समान है। खेल समझने से खुशी रहती। कितनी भी बड़ी बात भी छोटी हो जाती।..."

 

 

 

07.04.1986

"...अभी महातपस्वी आत्मायें बनो। अपने संगठित स्वरूप की तपस्या की रूहानी ज्वाला से सर्व आत्माओं को दुःख-अशान्ति से मुक्त करने का महान कार्य करने का समय है। जैसे एक तरफ खूने-नाहक खेल की लहर बढ़ती जा रही है, सर्व आत्मायें अपने को बेसहारे अनुभव कर रहीं हैं, ऐसे समय पर सभी सहारे की अनुभूति कराने के निमित्त आप महातपस्वी आत्मायें हो। चारों ओर इस तपस्वी स्वरूप द्वारा आत्माओं को रूहानी चैन अनुभव कराना है। सारे विश्व की आत्मायें प्रकृति से, वायुमण्डल से, मनुष्य आत्माओं से, अपने मन के कमज़ोरियों से, तन से, बेचैन हैं। ऐसी आत्माओं को सुख-चैन की स्थिति का एक सेकण्ड भी अनुभव करायेंगे तो आपका दिल से बार-बार शुक्रिया मानेंगे। वर्तमान समय संगठित रूप के ज्वाला स्वरूप की आवश्यकता है।..."

 

 

 

1987

31.12.1987

"...बधाई देना - यह खुशी की लेन-देन करना है। कभी भी किसी को बधाई देते तो वह खुशी की बधाई है। दुःख के समय बधाई नहीं कहेंगे। तो हर एक आत्मा को देख खुश होना वा खुशी देना - यही दिल की मुबारक वा बधाई है। दूसरी आत्मा भले आप से कैसा भी व्यवहार करे लेकिन आप बापदादा की हर समय बधाई लेने वाली श्रेष्ठ आत्मायें सदा हरेक को खुशी दो। वह काँटा दे, आप बदले में रूहानी गुलाब दो। वह दु:ख दे, आप सुखदाता के बच्चे सुख दो। जैसे से वैसे नहीं बन जाओ, अज्ञानी से अज्ञानी नहीं बन सकते। संस्कारों के वा स्वभाव के वशीभूत आत्मा से आप भी ‘वशीभूत' नहीं बन सकते।..."

 

 

 

 

1988

26.01.1988

"...लौकिक सम्बन्ध से अल्पकल का सुख मिलता है, सदा का नहीं। तो सदा सुखी बन गये। दुःखियों की दुनिया से सुख के संसार में आ गये - ऐसा अनुभव करते हो? पहले रावण के बच्चे थे तो दुःखदाई थे, अभी सुखदाता के बच्चे सुखस्वरूप हो गये। फस्ट नम्बर यह अलौकिक ब्राह्मणों का परिवार है, देवतायें भी सेकण्ड नम्बर हो गये। तो यह अलौकिक जीवन प्यारी लगती है ना।..."

 

 

 

 

1989

11.11.1989

"...कई बार बच्चे कहते हैं - मैंने आज किसको दुःख नहीं दिया। लेकिन सुख भी दिया? दु:ख नहीं दिया-इससे वर्तमान अच्छा बनाया। लेकिन सुख देने से जमा होता है। वह किया वा सिर्फ वर्तमान में ही खुश हो गये? सुखदाता के बच्चे सुख का खाता जमा करते। सिर्फ यह नहीं चेक करो कि दुःख नहीं दिया लेकिन सुख कितना दिया। जो भी सम्पर्क में आये मास्टर सुखदाता द्वारा हर कदम में सुख की अनुभूति करे। इसको कहा जाता है - ‘दिव्यता वा अलौकिकता'। ..."

 

 

 

11.11.1989

"...जब साइंस की शक्ति अल्पकाल के लिए प्राप्ति करा रही है, तो साइलेन्स की शक्ति कितनी प्राप्ति करायेगी। तो बाप के दिव्य दृष्टि द्वारा स्वयं में शक्ति जमा करो। तो फिर जमा किया हुआ समय पर दे सकेंगे। अपने लिए ही जमा किया और कार्य में लगा दिया अर्थात् कमाया और खाया। जो कमाते हैं और खा करके खत्म कर देते हैं उनका कभी जमा नहीं होता। और जिसका जमा का खाता नहीं होता उसको समय पर धोखा मिलता है। धोखा मिलेगा तो दुःख की प्राप्ति होगी। ऐसे ही साइलेन्स की शक्ति जमा नहीं होगी, दृष्टि के महत्त्व का अनुभव नहीं होगा तो लास्ट समय श्रेष्ठ पद प्राप्त करने में धोखा खा लेंगे। फिर दुःख होगा, पश्चाताप होगा। इसलिए अभी से बाप की दृष्टि द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों को अनुभव करते जमा करते रहो। तो जमा करना आता है? जमा होने की निशानी क्या होगी? नशा होगा। जैसे साहूकार लोगों के चलने, बैठने, उठने में नशा दिखाई देता है और जितना नशा होता उतनी खुशी होती है। तो यह है रूहानी नशा। इस नशे में रहने से खुशी स्वत: होगी। खुशी ही जन्म-सिद्ध अधिकार है। सदा खुशी की झलक से औरों को भी रूहानी झलक दिखाने वाले बनो। इसी वरदान को सदा स्मृति में रखना। कुछ भी हो जाए - खुशी के वरदान को खोना नहीं। समस्या आयेगी और जायेगी लेकिन खुशी नहीं जाये। ..."

 

 

 

 

19.11.1989

"...आप बच्चों को ऐसी दुःखी आत्माओं को यह खुशखबरी सुनानी चाहिए कि हम आपको 21 जन्मों के लिए अकाले मृत्यु से बचा सकते हैं। आजकल अकाले मृत्यु का ही डर है। डर से खा भी रहे हैं, चल भी रहे हैं, सो भी रहे हैं। ऐसी आत्माओं को खुशी की बात सुनाकर भय से छुड़ाओ। मानो यह शरीर चला भी जाता है, तो भी भय से नहीं मरेंगे क्योंकि यह खुशी होगी कि हम अकाले मृत्यु से बचाने वाले हैं, कुछ साथ में ले जा रहे हैं, खाली नहीं जा रहे हैं। तो यह सेवा करते हो या डरते हो कि हमें गोली न लग जाए? सभी बहादुर हो ना! अपने शान्ति और सुख के वायब्रेशन से लोगों को सुख-चैन की अनुभूति कराओ। कैसा भी आतंकवादी हो - वह भी प्रेम और शान्ति की शक्ति के आगे परिवर्तन हो जायेगा। आप लोगों के पास ऐसा कोई आता है तो क्या करते हो? प्यार से परिवर्तन करते हो ना? अपना भाई बना देते हो ना!..."

 

 

 

 

23.11.1989

"...बाप की दिव्य दृष्टि द्वारा स्वयं में शक्ति जमा करो। तब समय पर दे सकेंगे। अपने लिए ही जमा किया और कार्य में लगा दिया अर्थात् कमाया और खाया। जो कमाते हैं और खा के खत्म कर देते हैं उनका कभी जमा का खाता नहीं रहता और जिसके पास जमा का खाता नहीं होता है उसको समय पर धोखा मिलता है। धोखा मिलेगा तो दुःख की प्राप्ति होगी। अगर साइलेन्स की शक्ति जमा नहीं होगी, दृष्टि के महत्त्व का अनुभव नहीं होगा तो लास्ट समय श्रेष्ठ पद प्राप्त करने में धोखा खा लेंगे फिर दुःख होगा। पश्चाताप् होगा ना। इसलिए अभी से बाप की दृष्टि द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों को अनुभव करते जमा करते रहो।..."

 

 

 

1990

02.01.1990

"...सदा अपने भाग्य को देख हर्षित होते हो! सदा 'वाह-वाह' के गीत गाते हो? 'हाय-हाय' के गीत समाप्त हो गये या कभी दु:ख ही लहर आ जाती है? दुःख के संसार से न्यारे हो गये और बाप के प्यारे हो गये, इसलिए दुःख की लहर स्पर्श नहीं कर सकती। चाहे सेवा अर्थ रहते भी हो लेकिन कमल समान रहते हो। कमल पुष्प कीचड़ से निकल नहीं जाता, कीचड़ में ही होता है, पानी में ही होता है लेकिन न्यारा होता है । तो ऐसे न्यारे बने हो? न्यारे बनने की निशानी है - जितना न्यारे उतना बाप के प्यारे बनेंगे, स्वतः ही बाप का प्यार अनुभव होगा और वह परमात्म-प्यार छत्रछाया बन जायेंगी। जिसके उपर छत्रछाया होती है वह कितना सेफ रहता है! जिसके ऊपर परमात्म-छत्रछाया है उसको कोई क्या कर सकते हैं! इसलिए फखुर में रहो कि हम परमात्म-छत्रछाया में रहने वाले है।..."

 

 

 

06.01.1990

"...सभी खुशी में नाचते-गाते हो या कभी रोते भी हो? मन का रोना भी रोना है। घर वाले दुःख देते है, इसलिए रोना आता है! वह देते है, आप लेने क्यों हो? अगर कोई चीज़ देता है, और कोई लेता नहीं तो वह किसके पास रहेगी ' उनका काम है देना, आप लो ही नहीं। ६३ जन्म तो रोया अभी दिल पूरी नहीं हुई है' जिस चीज़ से दिल भर जाती है वह कभी नहीं किया जाता। परमात्मा के बच्चे कभी रो नहीं सकते। रोना बंद। टंकी सुखा के जाना। न आँखों का रोना, न मन का रोना। जहाँ खुशी होगी वहां रोना नहीं होगा। खुशी वा प्यार के ऑसू को रोना नहीं कहा जाता। तो योग की धूप में टंकी को सुखा के जाना। विघ्न को विघ्न न समझ खेल समझेंगे तो पास हो जायेंगे। ..."

 

 

 

 

01.03.1990

"...सदा अपने दिल में बाप के गुणों के गीत गाते रहते हो ना! सभी को यह गीत गाना आता है? ब्राह्मण बने और यह गीत ऑटोमैटिक बजता रहता है, यह कितना मीठा गीत है! खुशी का गीत है, दुःख या वियोग का गीत नहीं है । योगयुक्त होने का यह गीत है। योगी आत्मा ही वह गीत गा सकती है, दुखी आत्मा नहीं गा सकती । गीत है ही क्या - 'वाह बाबा वाह और वाह मैं श्रेष्ठ आत्मा वाह, वाह ड्रामा वाह। ' तो 'वाह-वाह' का गीत है, 'हाय-हाय' का नहीं। पहले थे 'हाय-हाय' के गीत, अभी है 'वाह-वाह' के गीत। कुछ भी हो जाए लेकिन आपके दिल से वाह' निकलेगा 'हाय' नहीं। दुनिया जिस बात को 'हाय-हाय' कहनी, आपके लिए वही बात 'वाह-वाह ' है । तो सभी यह गीत गाने हो ना! यह दिल के गीत है, मुख के नहीं। कोई भी बात होती है तो यह ज्ञान है कि नथिग न्यू, हर सीन अनेक बार रिपीट की है। नथिग न्यू की स्मृति से कभी भी हलचल में नहीं आ सकते, सदा ही अचल अटल रहेंगे । ..."

 

 

 

2004

30.11.2004

"...बापदादा चारों ओर के साकार सम्मूख बैठे हुए बच्चों को और अपने-अपने स्थान पर, देश में बाप से मिलन मनाने वाले चारों ओर के बच्चों को बहुत-बहुत सेवा की, स्नेह की और पुरूषार्थ की मुबारक तो दे रहे हैं लेकिन पुकषार्थ में तीव्र पुरुषार्थी बन अब आत्माओं को दुःख अशान्ति से छुडाने का और तीव्र पुरुषार्थ करो। दुःख, अशान्ति, भ्रष्टाचार अति में जा रहा है, अभी अति का अन्त कर सभी को मुक्तिधाम का वर्सा बाप से दिलाओ। ऐसे सदा दृढ संकल्प वाले बच्चों को याद प्यार और नमस्ते। ..."

 

 

 

 

15.12.2004

"...सबसे सहज है पुरुषार्थ में “दुआयें दो और दुआयें लो”। सुख दो और सुख लो, न दुःख दो न दुख लो। ऐसे नहीं कि दुःख दिया नहीं लेकिन ले लो तो भी दुखी तो होंगे ना! तो दुआयें दो, सुख दो और सुख लो। दुआयें देना आता है? आता है? लेना भी आता है? जिसको दुआयें लेना और देना आता है वह हाथ उठाओ। अच्छा - सभी को आता है? अच्छा - डबल फॉरेनर्स को भी आता है? मुबारक है । देने आता है लेने आता है तो मुबारक है। सभी को मुबारक है, अगर लेने भी आता और देने भी आता फिर और चाहिए क्या। दुआयें लेते जाओ दुआयें देते जाओ, सम्पन्न हो जायेंगे। कोई बददुआ देवे तो क्या करेंगे? लेंगे? बददुआ आपको देता है तो आप क्या करेंगे? लेंगे? अगर बद-दुआ मानो ले लिया तो आपके अन्दर स्वच्छता रही? बद-दुआ तो खराब चीज है ना! आपने ले ली, अपने अन्दर स्वीकार कर ली तो आपका अन्दर स्वच्छ तो नहीं रहा ना! अगर जरा भी डिफेक्ट रहा तो परफेक्ट नहीं बन सकते। अगर खराब चीज़ कोई देवे तो क्या आप ले लेंगे? कोई बहुत सुन्दर फल हो लेकिन आपको खराब हुआ दे देवे, फल तो बढिया है फिर ले लेंगे? नहीं लेंगे ना कि कहेंगे अच्छा तो है, चलो दिया है तो ले ले। कभी भी कोई बद-दुआ दे तो आप मन में अन्दर धारण नहीं करो। समझ में आता है यह बद-दुआ है लेकिन बद-दुआ अन्दर धारण नहीं करो, नहीं तो डिफेक्ट हो जायेगा। तो अभी यह वर्ष, अभी थोड़े दिन पड़े हैं पुराने वर्ष में लेकिन अपने दिल में दृढ़ संकल्प करो, अभी भी किसकी बद-दुआ मन में हो तो निकाल दो और कल से दुआ देंगे, दुआ लेंगे। ..."

 

 

 

 

15.12.2004

"...अगर मानो कभी बद-दुआ का प्रभाव पड भी जावे ना तो 10 गुणा दुआयें ज्यादा दे करके उसको खत्म कर देना। एक बद-दुआ के प्रभाव को 10 गुणा दुआयें देके हल्का कर देना फिर हिम्मत आ जायेगी। नुकसान तो अपने को होता है ना, दूसरा तो बद-दुआ देके चला गया लेकिन जिसने बद-टुआ समा ली, दुःखी कौन होता है? लेने वाला या देने वाला? देने वाला भी होता है लेकिन लेने वाला ज्यादा होता है। देने वाला तो अलबेला होता है। आज बापदादा अपने दिल की विशेष आशा सुना रहे हैं। बापदादा की सभी बच्चों के प्रति, एक-एक बच्चे के प्रति चाहे देश, चाहे विदेश में हैं, चाहे सहयोगी हैं क्योकि सहयोगियों को भी परिचय तो मिला है ना। तो जब परिचय मिला है तो परिचय से प्राप्ति तो करनी चाहिए ना। तो बापदादा की यही आशा है कि हर बच्चा दुआयें देता रहे। दुआओं का खज़ाना जितना जमा कर सको उतना करते जाओ क्योंकि इस समय जितनी दुआयें इकट्ठी करेंगे, जमा करेंगे उतना ही जब आप पूज्य बनेंगे तो आत्माओं को दुआयें दे सकेंगे। सिर्फ अभी दुआयें आपको नहीं देनी है, द्वापर से लेके भक्तों को भी दुआयें देनी है। तो इतना दुआओं का स्टॉक जमा करना है। ..."

 

 

 

 

31.12.2004

"...विश्व की आत्मायें बड़ी शक्तिहीन, दुःखी, अशान्त चिल्ला रही है। बाप के आगे, आप पूज्य आत्माओं के आगे पुकार रही है - कुछ घडियों के लिए भी सुख दे दो, शान्ति दे दो। खुशी दे दो, हिम्मत दे दो। बाप तो बच्चों के दुःख, परेशानी को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते। क्या आप सभी पूज्य आत्माओं को रहम नहीं आता ! माँग रहे हैं - दो, दो, दो। तो दाता के बच्चे कुछ अंचली तो दे दो। बाप भी आप बच्चों को साथी बना के, मास्टर दाता बनाके, अपने राइट हैण्ड बनाके यही इशारा देते हैं - इतनी विश्व की आत्मायें सभी को मुक्ति दिलानी है। मुक्तिधाम में जाना है। तो हे दाता के बच्चे अपने श्रेष्ठ संकल्प द्वारा, मंसा शक्तिद्वारा, चाहे वाणी द्वारा, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा, चाहे शुभभावना-शुभकामना द्वारा, चाहे वायब्रेशन वायुमण्डल द्वारा किसी भी युक्ति से मुक्ति दिलाओ। चिल्ला रहे हैं मुक्ति दो, बापदादा अपने राइट हैण्डस को कहते हैं रहम करो।..."

 

 

 

2005

18.01.2005

"...अब स्टेज पर अपना सम्पन्न स्वरूप प्रत्यक्ष करो। आपकी सम्पन्नता से दुःख और अशान्ति की समाप्ति होनी है। अभी अपने भाई-बहिनों को ज्यादा दुःख देखने नहीं दो। इस दुःख, अशान्ति से मुक्ति दिलाओ। बहुत भयभीत हैं। क्या करें, क्या होगा., इस अंधकार में भटक रहे हैं। अब आत्माओं को रोशनी का रास्ता दिखाओ। उमंग आता है? रहम आता है? अभी बेहद को देखो। बेहद में दृष्टि डालो।..."

 

 

 

 

18.01.2005

"... चारों ओर के स्नेही, लवलीन आत्माओं को, सदा रहमदिल बन हर आत्मा को दुःख अशान्ति से मुक्त करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा अपन मन, बुद्धि, संस्कार को कंट्रोलिंग पावर द्वारा कंट्रोल में रखने बाले महावीर आत्माओं को, सदा संगमयुग के जीवनमुक्त स्थिति को अनुभव करने वाले बाप समान आत्माओं को बापदादा का पदमगुणा यादप्यार और नमस्ते। ..."

 

 

 

 

20.02.2005

"...बापदादा को बच्चों को देखकर प्यार आता कि 63 जन्म बहुत मेहनत की है, दुःख- अशान्ति से दूर होने की। तो बाप यही चाहते हैं कि हर बच्चा अभी स्वराज्य अधिकारी बने। मन-बुद्धि-संस्कार का मालिक बने, राजा बने। जब चाहे, जहाँ चाहे, जैसे चाहे वैसे मन-बुद्धि-संस्कार को परिवर्तन कर सके। ..."

 

 

 

 

20.02.2005

"...आप सहजयोगी बन औरों को भी सहज योग का मैसेन्जर बन मैसेज दे सकते हो। मैसेज देना अर्थात् गॉडली मैसेन्जर बनना। आत्माओं को दुःख, अशान्ति से छुडाना। फिर भी आपके ही भाई-बहनें हैं ना। तो अपने भाई वा बहनों को गॉडली मैंसेज देना अर्थात् मुक्त करना। इसकी दुआयें बहुत मिलती है। किसी भी आत्मा को दुख, अशान्ति से छुडाने की दुआयें बहुत मिलती है और दुआयें मिलने से अतीन्द्रिय सुख आन्तरिक खुशी की फीलिंग बहुत आती है।..."

 

 

 

 

20.02.2005

"...आप भी होली हैपी हंस व्यर्थ को समाप्त करने वाले और समर्थ बन समर्थ बनाने वाले हो। सभी एवरहैपी? एवर-एवर हैपी। अभी कभी दुःख को आने नहीं देना। दुःख को डायवोर्स दे दिया, तभी तो दूसरों का दुःख निवारण करेंगे ना! तो सुखी रहना है और सुख देना है। यह काम करेंगे ना! यहाँ से जो सुख मिला है वह जमा रखना। कभी भी कुछ भी हो ना - बाबा, मीठा पाया, दुख दे दो, अपने पास नहीं रखना। खराब चीज़ रखी जाती है क्या? तो दुःख खराब है ना! तो दुःख निकाल दो, सुखी रहो। तो यह है सुखी ग्रूप और सुखदाई ग्रूप। चलते-फिरते सुख देते रहो। कितना आपको दुआयें मिलेंगी।..."

 

 

 

 

04.09.2005

"...अगर आपको कोई दुख दे तो भी आप दुख लेना नहीं। वह दे लेकिन आप नही लेना। क्योंकि देनेवाले ने दे दिया, लेकिन लेनेवाले तो आप हो ना। देनेवाला, लेनेवाला नहीं है। अगर वह बुरी चीज़ देता है, दुख देता है, अशान्ति देता है, तो बुरी चीज़ है ना। आपको दुख पसन्द है? नहीं पसन्द है ना। तो बुरी चीज़ हो गई ना। तो बुरी चीज़ ली जाती है क्या? कोई आपको बुरी चीज़ देवे तो आप ले लेंगे? लेंगे? नही लेंगे। तो लेते क्यों हो? ले तो लेते हो ना। अगर दुख ले लेते हो तो दुःखी कौन होता है? आप होते हो या वह होता है? लेने वाला ज्यादा दु:खी होता है। अगर अभी से दु:ख लेंगे नहीं तो आधा दु:ख तो आपका दूर हो गया। लेंगे ही नहीं ना। और आप दु:ख के बजाए उसको सुख देंगे तो दुआयें मिलेगी ना। तो सुखी भी रहेंगे और दुआओं का खज़ाना भी भरपूर होता जायेगा। हर आत्मा से, कैसी भी हो आप दुआयें लो।..."

 

 

 

 

04.09.2005

"...न दुःख देना, न दु:ख लेना। पसन्द है? पसन्द है तो अभी लेना नहीं। गलती नही करना। जब बाप दु:ख नहीं देता तो फालो फादर तो करना है ना? कर रहे हैं। कभी-कभी थोड़ा डाँट देते हो। डाँटना नहीं। रहम करो। रहम के साथ शिक्षा दो। बार-बार किसको डाँटने से और ही आत्मा जो है ना, वह दुश्मन बन जाती है। घृणा आ जाती है। परमात्म बच्चे हो ना। तो जैसे बाप पतित को भी पावन बनाने वाला है, तो आप दुःखी को सुख नही दे सकते हो? अभी जाकर ट्रायल करना, ट्रायल करेंगे ना। तो पहले चैरिटी बिगन्स एट होम। परिवार में अगर कोई दु:ख देवे, तो भी दु:ख लेना नहीं। दुआयें देना, रहमदिल बनना।..."

 

 

 

 

2007

03.03.2007

"...यहाँ भी देखो आत्मा लाइट है और लाइट हाउस होके लाइट देनी है। तो डबल लाइट का ज्ञान लेने वाले भाग्यवान आत्मा हो। वह भी लाइट जरूरी है, यह भी लाइट जरूरी है। अभी निमित्त बनके दुःखी आत्माओं को सुखी करो।..."

 

 

 

 

2012

31.12.2012

"...आप लोग अगर पुरुषार्थ में आगे जायेंगे तो उसका वायब्रेशन दुनिया के दु:खी लोगों तक पहुँचेगा। आजकल तो कितना दुःख बढ़ रहा है! कारण ही ऐसे बनते हैं जो दु:ख ही दुःख फैल जाता है। ..."

 

 

 

2013

18.01.2013

"...अब जो बापदादा और आपकी भी चाहना यही है कि सब सम्पन्न और सम्पूर्ण बन जायेँ। इस कदम को और तीव्र करो। आपको भी पसन्द है ना! दुःख अशान्ति अपने भाई बहनों की सुनते अच्छी नहीं लगती है ना! अब आपस में मिलके और बातों में समय न देके यह प्लैन बनाओ। चारों ओर सम्पन्न सम्पूर्ण बनने का उमंग-उत्साह हो। ब्रह्मा बाप यही चाहते हैं मेरा एक-एक बच्चा मेरे समान सम्पन्न बन जाये। यह ब्रह्मा बाप की आशा पूर्ण तो करेंगे ना! तो आज ब्रह्मा बाप चारों ओर के बच्चों पर स्नेह और शक्तियों की लहर वा शुभ संकल्प की लहर फैला रहे थे। बाप भी ब्रह्मा बाप से बच्चों का प्यार देख करके आज फूल फैलाने का दिन है ना, तो बाप भी शुभ आशाओं के फूल “कहा और किया” इस उम्मीदों के नहीं लेकिन तीव्र पुरुषार्थ के फूल आप चारों ओर के बच्चों पर डाल रहे थे।..."

 

 

 

 

09.03.2013

"...आज अमृतवेले सभी बच्चों को एक डायमण्ड शब्द सुनाया कि डायमण्ड शब्द है "मेरा बाबा"। यह डायमण्ड शब्द सभी ने नोट किया। कुछ भी हो जाए मेरा बाबा, मीठा बाबा, प्यारा बाबा याद आया तो सब दुःख, सुख में बदल जायेंगे। आज के दिन हर एक बच्चे को बाप के समान फरिश्ते रूप में रहने का श्रेष्ठ संकल्प करना ही है। ..."

 

 

 

 

2014

31.01.2014

Give message to All

"...बापदादा अभी इस समय यही चाहते हैं कि और भी आत्माओं को यह अनुभव कराओ “मेरा बाबा” और वर्से का अधिकारी बनाओ। आज संसार में दुःख अशान्ति या अल्पकाल का सुख फैला हुआ है। उन आत्माओं को सदा के सुख शान्ति का थोड़ा सा भी अनुभव जरूर कराओ क्योंकि इस समय ही अनुभव करा सकते हो। इस समय को वरदान है आत्माओं को परमात्मा से मिलाने का। सारे कल्प में आत्मा परमात्मा का मिलन, परिचय, सम्बन्ध, वर्सा इस समय ही प्राप्त होता है। तो अब हर एक बच्चे को, जो अधिकारी हैं उन्हों को सदा उन आत्माओं के ऊपर तरस आना चाहिए कि कोई भी आत्मायें चाहे देश, चाहे विदेशी वंचित रह नहीं जाये। आपका विशेष कार्य यही है कि किसी भी प्रकार से कोई एरिया ऐसी नहीं रह जाये जो उल्हना दे हमें परिचय ही नहीं मिला। सर्विस तो चारों ओर कर रहे हो लेकिन कोई भी आसपास की एरिया रह नहीं जाये, उल्हना नहीं मिले, हमारा बाबा आया और हमको पता नहीं पड़ा। यह जिम्मेवारी आप निमित्त बने हुए बच्चों की है। जहाँ तक हो सकता वहाँ सन्देश जरूर दे दो। नोट करो। कौन सी एरिया रही हुई है! जो उल्हना रह नहीं जाये कि हमें तो पता नहीं पड़ा। पता देना आपका कर्तव्य है, जाने नहीं जाने, वह जानें। तो हर एक अपनी एरिया के आसपास चेक करो कोई भी एरिया सन्देश के बिना रह नहीं जाए। भाग्य हर एक का खुद है लेकिन सन्देश देना आप भाग्यवान आत्माओं का कर्तव्य है। हर एक को अपनी एरिया या आसपास की एरिया को चेक करना चाहिए कि हमारी एरिया का वह उल्हना रह नहीं जाये कि हमें तो पता ही नहीं पड़ा। चाहे छोटा गांव है, चाहे बड़ा गांव है, शहर है, सन्देश देना आप भाग्यवान आत्माओं का काम है, यह चेक करो हमारे आसपास की एरिया में सन्देश पहुँचा है? किसी भी एरिया का उल्हना नहीं रह जाए क्योंकि मैजारिटी मुख्य शहरों में पहुँच तो गये हो लेकिन फिर भी चेक कर लो कोई भी एरिया रह नहीं जाये जो आपको उल्हना देवे हमारा बाप आया और हमें पता नहीं दिया। चेक तो करते हो, बापदादा देखते हैं फिर भी अपनी-अपनी एरिया जहाँ तक पहुँच सकते हो और कोई नहीं पहुंचा है वहाँ सन्देश देना आपका कर्तव्य है। चाहे छोटी एरिया है लेकिन आपके एरिया के नजदीक है तो आप नोट करो, छोटी-छोटी एरिया वाले भी आपको उल्हना दे सकते हैं, हमारा बाप आया हमको मालूम पड़ा, हमारा बाप है क्योंकि सबका बाप है ना, तो आपने क्यों नहीं बताया! इसलिए चेक करो अपनी एरिया के चारों ओर सन्देश पहुंचा है? फिर आपकी जिम्मेवारी पूरी हुई। ऐसे नहीं हो कि छोटी एरिया है, लेकिन उस एरिया के हैं तो बच्चे ना! किसी को भी भेज के कम से कम पता तो पड़े कि हम सबका बाप आया है। चाहे किसी भी प्रोग्राम से अपनी एरिया को सारा पूरा करो, अगर छोटी एरिया तो कोई छोटे को भेजो लेकिन वंचित नहीं रह जाए क्योंकि समय अचानक आना है, बताके नहीं आयेगा। अपना चारों ओर सन्देश देने का कर्तव्य अवश्य देखो। मानो आपकी एरिया में कोई सेवा नहीं है, एरिया में तो जो साथी एरिया वाले हैं उनको बताके उन्हों को निमित्त बनाओ, कोई आत्मा रह नहीं जाये। सन्देश मिलना चाहिए, बाकी उन्हों का भाग्य। तो हर एक अपनी एरिया को चेक करना, चाहे छोटी ही गली है, साधारण लोग हैं, लेकिन बच्चा तो है ना, बाप आया है यह पता तो होना चाहिए। चाहे किसी भी रीति से करो, उल्हना नहीं रह जाए कि हमें तो पता ही नहीं पड़ा। यह आप लोगों का फर्ज है क्योंकि कोई भी हालत अचानक किसी समय भी आ सकती है। अपना फर्ज पूरा करो। ..."

 

 

 

 

30.11.2014

"...हर एक बच्चा स्नेह और उमंग से मिलन मना रहे हैं। यह स्नेह सब दुःखों को भूल बाप के स्नेह और सम्बन्ध में वाह बाप और बच्चों का मिलन वाह! बाप बच्चों को देख खुश हो रहे हैं और बच्चे बाप को देख खुश हो रहे हैं। एक-एक बच्चा मुस्करा रहे हैं और बाप भी चाहे नजदीक, चाहे दूर वाले बच्चे को भी देख हर्षित हो रहे हैं। यह बाप और बच्चों का मिलन अलौकिक मिलन है। बाप एक-एक बच्चे को देख खुश हो रहे हैं और बच्चे भी साकार रूप में बाप को देख खुश हो रहे हैं। यह अलौकिक मिलन कितना न्यारा और प्यारा है।..."

 

 

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