12.07.1972 इसलिए अब इस स्मृति से भी परे। अधर कुमार नहीं, लेकिन ब्रह्मा कुमार हूँ। अब मरजीवा बन गये तो मरजीवा जीवन में अधर-कुमार का सम्बन्ध है क्या? मरजीवा जीवन में प्रवृति वा गृहस्थी है क्या? मरजीवा जीवन में बाप-दादा ने किसको गृहस्थी बना कर नहीं दी है। एक बाप और सभी बच्चे हैं ना, इसमें गृहस्थीपन कहां से आया? तो अपने को ब्रह्मा-कुमार समझ कर चलना है। अगर अधर-कुमार की स्मृति भी रहती है तो जैसी स्मृति वैसी ही स्थिति भी रहती है। इस कारण अभी इस स्मृति को भी खत्म करो कि हम अधर-कुमार हैं। नहीं। ब्रह्मा-कुमार हूँ। जो बाप-दादा ने ड्यूटी दी है उस ड्यूटी पर श्रीमत के आधार पर जा रहा हूँ। मेरी प्रवृति है या मेरी युगल है - यह स्मृति भी रॉंग है। युगल को युगल की वृति से देखना वा घर को अपनी प्रवृति की स्मृति से देखना, इसको मरजीवा कहेंगे? जैसे देखो, हर चीज़ को सम्भालने के लिए ट्रस्टी मुकर्र किये जाते हैं। यह भी ऐसे समझकर चलो -- यह जो हद की रचना बाप-दादा ने ट्रस्टी बनाकर सम्भालने के लिए दी है, वह मेरी रचना नहीं लेकिन बाप-दादा द्वारा ट्रस्टी बन इसको सम्भालने के लिए निमित्त बना हुआ हूँ। ट्रस्टीपन में मेरापन नहीं होता। ट्रस्टी निमित्त होता है। प्रवृति-मार्ग की वृति भी बिल्कुल ना हो। यह ईश्वरीय आत्मायें हैं, ना कि मेरे बच्चे हैं। भले छोटे-छोटे बच्चे हों, तो भी क्या बाप-दादा ने छोटे बच्चों की पालना नहीं की क्या? जैसे बाप-दादा ने छोटे बच्चों की पालना करते हुए ईश्वरीय कार्य के निमित्त बना दिया, वैसे ही छोटे-छोटे बच्चे वा बड़े, जिन्हों के प्रति भी बाप द्वारा निमित बने हो, उन आत्माओं प्रति भी यह वृति रहनी चाहिए कि इन आत्माओं को ईश्वरीय सेवा के योग्य बना कर इसमें लगा देना है। घर में रहते ऐसी स्मृति रहती है? ..."
"...इतना परिवर्तन करने की शक्ति अपने में भरी है वा वहां जाकर फिर प्रवृति वाले बन जायेंगे? अभी प्रवृति नहीं समझना लेकिन इस गृहस्थीपन की वृति से पर वृति अर्थात् दूर। गृहस्थी की वृति से परे - ऐसी अवस्था बना कर जाने से ही अज्ञानी आत्मायें भी आपकी चलन से, आपके बोल से, नैनों से जो न्यारी और प्यारी स्थिति गाई जाती है, उसका अनुभव कर सकेंगे। अब तक दुनिया के बीच रहते हुए दुनिया वालों को न्यारी और प्यारी स्थिति का अनुभव नहीं करा पाते हो क्योंकि अपनी वृति इतनी न्यारी नहीं बनी है। न्यारी न बनने के कारण इतने प्यारे भी नहीं बने हो। प्यारी चीज़ सभी को स्वत: ही आकर्षण करती है। तो दुनिया के बीच रहते हुए ऐसी न्यारी स्थिति बनायेंगे तो प्यारी स्थिति भी स्वत: बन जायेगी। ऐसी प्यारी स्थिति अनेक आत्माओं को आपकी तरफ स्वत: ही आकर्षण करेगी। ..." 28.04.1974 कीचड़ में रहते कमल अथवा कलियुगी सम्पर्क में रहते ब्राह्मण इस चैलेन्ज को प्रैक्टिकल रूप में लाने के निमित्त हैं..." "...जैसे दुनिया के लोगों ने गृहस्थ और आश्रम को अलग कर दिया है और आप लोग दोनों को मिला कर एक करते हो, वैसे स्थूल और सूक्ष्म साधनों को अलग करते हो, इसलिये प्रत्यक्ष फल नहीं मिलता। दोनों ही साथ-साथ होने से प्रत्यक्ष फल देखेंगे। वाणी के साथ-साथ मनसा चाहिए और कर्म के साथ-साथ भी मनसा चाहिए क्योंकि अभी लास्ट टाइम है ना? लास्ट टाइम में जो भी श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्र होते हैं, वे सब यूज़ किये जाते हैं। अगर यह सब पीछे करेंगे तो टाइम बीत जायेगा।..." 08.07.1974 क्या हमारी बीमारी मिटेगी? क्या सर्विस में सफलता होगी? क्या मेरा फलाना सम्बन्धी ज्ञान में चलेगा? क्या हमारे गाँव व शहर में सर्विस वृद्धि को पावेगी? क्या व्यवहार में सफलता होगी? यह व्यवहार करूँ या यह व्यवहार छोडूं? बिजनेस करूँ या नौकरी करूँ? क्या मैं महारथी बन सकती हूँ? क्या आप समझते हो, कि मैं बनूँगी? ऐसे-ऐसे गृहस्थ-व्यवहार की छोटी-छोटी बातें, कि क्या मेरी सास का क्रोध कम होगा? मैं बांधेली या बाँधेला हूं, क्या मेरा बन्धन टूटेगा? क्या मैं स्वतन्त्र बनूंगी व बनूंगा अथवा कई यह भी विशेष बातें पूछते हैं कि क्या मैं टोटल सरेण्डर हूंगा? क्या मेरी यह इच्छा पूरी होगी? ऐसे यह भी क्यू होती है।..." 21.05.1977 पांव में घुंघरू डालकर नाचते हुए दिखाते हैं। जो सदा खुशी में रहते उनके लिए कहते - खुशी में नाच रहा है। नाचते हैं तो पांव ऊपर रखते हैं। ऐसे ही जो खुशी में नाचने वाले होंगे उनकी बुद्धि ऊपर रहेगी। देह की दुनिया व देहधारियों में नहीं, लेकिन आत्माओं की दुनिया में, आत्मिक स्थिति में होंगे। ऐसे खुशी में नाचते रहो। सदा खुशी किसको रहेगी? जो अपने को गोपिका समझेंगे। गोपिका का अर्थ है - जिसकी लगन सदा गोपी वल्लभ के साथ हो। अपने को गृहस्थी माता नहीं लेकिन ‘गोपिका’ समझो, गृहस्थी शब्द ही अच्छा नहीं लगता। गोपिकाओं का नाम लेते ही सब खुश हो जाते हैं। जब नाम लेने से दूसरे खुश हो जाते तो स्वयं गोपिकाएं कितना खुश होंगी!..." 29.05.1977 अभी-अभी देंगे, अभी-अभी फिर वापिस ले लेंगे। अभी-अभी मुख से कहेंगे-मेरा कुछ नहीं, लेकिन मन्सा में अधिकार रखा हुआ है। अधिकार अर्थात् लगाव। कभी कर्म से देकर वाणी से वापिस ले लेते। चतुराई यह करते हैं कि नए के साथ पुराना भी अपने पास रखना चाहते हैं। कहलाते हैं ट्रस्टी, लेकिन प्रेक्टीकल (Practical;व्यवहार) हैं गृहस्थी। तो व्यर्थ संकल्प मिटाने का आधार है, गृहस्थीपन छोड़ना। चाहे कुमारी है वा कुमार है लेकिन, मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार, मेरी बुद्धि यह विस्तार गृहस्थीपन है। जो समर्पण हो गए तो जो बाप का स्वभाव, वह आपका स्वभाव। जो बाप का संस्कार, वह आपके संस्कार। जैसे बाप की दिव्य बुद्धि, वैसे आपकी। तो दिव्य बुद्धि में स्मृति न रहे, यह नहीं हो सकता। एक घंटे की अवस्था भी चेक करो तो सदैव संकल्पों का आधार कोई न कोई मेरापन ही होगा। मेरेपन की निशानी सुनाई लगाव। लगाव की भी स्टेजस (Stages;अवस्थाएं) हैं। एक है सूक्ष्म लगाव, जिसको सूक्ष्म आत्मिक स्थिति में स्थित होकर ही जान सकते हैं। दूसरे हैं स्थूल रूप के लगाव, जिसको सहज जान सकते हो। सूक्ष्म लगाव का भी विस्तार बहुत है। बिना लगाव के, बुद्धि की आकर्षण वहाँ तक जा नहीं सकती। वा बुद्धि का झुकाव वहाँ जा नहीं सकता। तो लगाव की चैकिंग हुई झुकाव। चाहे संकल्प में हो, वाणी में हो, कर्म में हो, सम्बन्ध में हो, सम्पर्क में हो, न चाहते हुए भी समय उस तरफ लगेगा जरूर। इस कारण व्यर्थ संकल्प का मूल कारण है - लगाव। इसको चैक करो। जिन बातों को आप नहीं चाहते हो, वह भी व्यर्थ संकल्पों के रूप में डिस्टर्ब (Disturb;दखल) करती हैं। इसका भी कारण, पुराने स्वभाव और संस्कारों में मेरेपन की कमी है। जब तक मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार है, तो वह खीचेंगे। जैसे मेरी रचना, रचता को खेंचती है, वैसे मेरा स्वभाव संस्कार रूपी रचना आत्मा रचता को अपनी तरफ खींचेंगे। मेरा नहीं, यह शूद्रपन का संस्कार है, शूद्रपन के संस्कार को मेरा कहना, यह महापाप है, चोरी भी है और ठगी भी है। शूद्रों की चीज़ अगर ब्राह्मण चोरी करते, अर्थात् मेरा कहते, तो यह महापाप हुआ। और बाबा! यह सब कुछ आपका है, ऐसे कहकर फिर मेरा कहना, यह ठगी है। और इसी प्रकार के पाप होने से, पापों का बोझ बढ़ते जाने से, बुद्धि ऊँची स्टेज पर टिक नहीं सकती। इस कारण व्यर्थ संकल्पों के नीचे की स्टेज पर बार-बार आना पड़ता है। और फिर चिल्लाते हैं कि क्या करें? व्यर्थ संकल्पों का दूसरा कारण है सारे दिन की दिनचर्या में मन्सा, वाचा, कर्मणा जो बाप द्वारा मर्यादाओं सम्पन्न श्रीमत है, उसका किसी न किसी रूप से उल्लंघन करते हो। आज्ञाकारी से अवज्ञाकारी बन जाते हो। मर्यादाओं की लकीर से मन्सा द्वारा भी अगर बाहर निकलते, तो व्यर्थ संकल्प रूपी रावण, वार कर सकता है। तो यह भी चैकिंग करो, संकल्प द्वारा, वाणी, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क द्वारा ब्राह्मणों की नीति और रीति को उल्लंघन तो नहीं करते हैं? अवश्य कोई नीति व रीति मिस (Miss;गुम) है तब बुद्धि में व्यर्थ संकल्प मिक्स (Mix;मिश्रित) होते हैं। समझा दूसरा कारण? इसलिए चैकिंग अच्छी तरह होनी चाहिए। तब व्यर्थ संकल्पों की निवृत्ति हो सकती है। सारा दिन बाप द्वारा जो शुद्ध प्रवृत्ति मिली हुई है, बुद्धि की प्रवृत्ति है शुद्ध संकल्प करना, वाणी की प्रवृत्ति है जो बाप द्वारा सुना वह सुनाना, कर्म की प्रवृत्ति है कर्मयोगी बन हर कर्म करना, कमल समान न्यारा और प्यारा बन रहना, हर कर्म द्वारा बाप के श्रेष्ठ कार्यों को प्रत्यक्ष करना तथा हर कर्म चरित्र रूप से करना। चतुराई नहीं लेकिन चरित्र, वह भी दिव्य चरित्र। सम्पर्क में प्रवृत्ति है निमित्त स्वयं सम्पर्क में आते सदा सर्व का जो बाप है, उससे सम्पर्क कराना। तो ऐसी पवित्र प्रवृत्ति में बिजी रहने से व्यर्थ संकल्पों से निवृत्ति होगी। वह लोग कहते हैं प्रवृत्ति से निवृत्ति। बाप कहते हैं ‘पवित्र प्रवृत्ति से ही निवृत्ति हो।’ गृहस्थी अलग है - उनको गृहस्थी नहीं कहेंगे। पवित्र प्रवृत्ति को ट्रस्टी कहेंगे न कि गृहस्थी। तो समझा निवृत्ति का आधार पवित्र प्रवृत्ति है। अच्छा। सदा मर्यादा पुरूषोत्तम, सर्व खजानों को सफल करने वाले, सफलतामूर्त्त, व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने वाले, ऐसे बाप के आज्ञाकारी, सदा श्रीमत पर चलने वाले बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
शक्तियाँ अपना जलवा दिखाएंगी, पाण्डव साथ देंगे। शक्तियों को आगे रखना अर्थात् स्वयं आगे होना। उन्हों को आगे रखने से आपका नाम बाला हो जाएगा। जो त्याग करता उसका भाग्य ऑटोमेटिकली जमा हो जाता है। शक्तियाँ शस्त्रधारी हो? शस्त्रं से थक तो नहीं जाती? शस्त्रधारी शक्तियों का ही पूजन होता है। तो आप सभी पूज्य हो? पूज्य अर्थात् शस्त्रधारी। अगर किसी भी समय शस्त्र छोड़ देती तो उस समय पूज्य नहीं। शक्ति रूप नहीं तो कमज़ोर हो। कमज़ोर की पूजा नहीं होती। पूज्य अर्थात् सदा पूज्य - ऐसे नहीं, कभी पूज्य कभी कमज़ोर। तो शस्त्र सदा कायम रहते हैं? जब अपने को गृहस्थी समझते तब गृहस्थी का जाल होता। गृहस्थी बनना अर्थात् जाल में फँसना। ट्रस्टी अर्थात् मुक्त। सदा यही स्मृति रखो कि हम पूज्य हैं।..." 16.06.1977 16.01.1979 आज बापदादा विशेष रूप से बच्चों के भिन्न-भिन्न प्रकार के हंसी के रूप देख रहे थे - ब्राह्मण जन्म होते ही बापदादा संगमयुगी विश्व सेवा की जिम्मेदारी का ताजधारी बनाता। लेकिन आज रमणीक खेल देखा - कोई-कोई तो ताज और तिलकधारी भी थे लेकिन कोई-कोई ताजधारी के बदले किए हुए पिछले वा अबके भी छोटे सो बड़े पाप वा चलते-चलते की हुई अवज्ञाओं की गठरी सिर पर थी। कोई ताजधारी तो कोई सिर पर गठरी लिए हुए थे। उसमें भी नम्बरवार छोटी बड़ी गठरी थी और कोई के सिर पर डबल लाइट के बजाए, अपने ब्राह्मण जीवन के सदा ट्रस्टी स्वरूप के बजाय गृहस्थीपन के भिन्न-भिन्न प्रकार के बोझ की टोकरी भी सिर पर थी। जिसको देख बापदादा को रहम भी आ रहा था - और क्या देखा! कई बच्चे अनेक प्रकार के सहज साधन बाप द्वारा प्राप्त होते हुए भी निरंतर बुद्धि का कनेक्शन जुटा हुआ न होने के कारण सहज को मुश्किल बनाने के कारण, अनेक प्रकार के मुश्किल साधन अपनाने में थके हुए रूप में दिखाई दे रहे थे। सहज मार्ग के बजाए पुरूषार्थ के साधन, हठ के प्रमाण यूज़ कर रहे थे। ..." 30.01.1979 गृहस्थी समझने से मेहनत भी ज्यादा और सफलता भी कम। तो सदा डबल लाइट के स्वरूप की स्मृति की समर्थी में रहो तो कोई भी पहाड़ जैसा कार्य भी राई नहीं लेकिन रूई जैसा हो जायेगा। राई फिर भी सख्त होती है, रूई उससे भी हल्की, तो रूई के समान अर्थात् असम्भव भी सम्भव हो जायेगा।..." 14.11.1979 सेवाधारी को सेवा ही याद रहती, बाकी सब काम निमित्त मात्र हैं। असली कार्य है विश्व-परिवर्तन का। विश्व परिवर्तन वही कर सकते हैं जो पहले स्वयं का परिर्वतन करते हैं।..." 30.11.1979 गृहस्थी समझेंगे तो माया आयेगी। ट्रस्टी समझेंगे तो माया भाग जायेगी। मेरेपन से माया का जन्म होता है। जब मेरापन नहीं तो माया का जन्म ही नहीं। जैसे गन्दगी में कीडे पैदा होते हैं वैसे ही जब मेरापन आता है तो माया का जन्म होता है। तो मायाजीत बनने का सहज तरीका - सदा ट्रस्टी समझो। ..." "...जिन्हें लोगों ने ना-उम्मीद करके छोड़ दिया, बाप ने उन्हें उम्मीदवार बना दिया। पहले शक्ति पीछे शिव। अपने को भी पीछे किया। तो ऐसे शिव बाप को कभी भी भूलना नहीं। सदा अपना कम्बाइन्ड रूप ही देखो और कम्बाइन्ड रूप में चलो। माताओं को देख कर बहुत खुशी होती है। मातायें गिरीं तो चरणों तक, चढ़ती हैं तो एकदम सिर का ताज। बहुत गिरा हुआ बहुत ऊंचा चढ़ जाए तो खुशी होगी ना। माताओं के लिए तो है ही एक खुशी का झूला। सदा उसी झूले में झूलते रहो। माताओं को बाप द्वारा विशेष आगे जाने की लिफ्ट मिली है। थोड़ा-सा पुरुषार्थी अपना और हज़ार गुणा मदद बाप की। एक कदम आपका और हज़ार कदम बाप के। माताओं को सदा विशेष खुशी होनी चाहिए कि क्या से क्या बन गई। ना-उम्मीद से सर्व उम्मीदों वाली जीवन बन गई, पास्ट की जीवन में क्या थे अब क्या बन गये। दुनिया भटक रही है और आप ठिकाने पर, तो खुशी होनी चाहिए ना? शक्तियाँ अपने शक्ति रूप में आ गई तो सभी को वायब्रेशन्स फैलता रहेगा। गृहस्थी में रहते ट्रस्टी होकर रहेंगी तो न्यारी रहेंगी। अपना और अन्य का जीवन सफल बनाने के निमित्त बनेंगे। सदा इसी नशे में रहो हम कल्प पहले वाली गोपियाँ हैं। बाप मिला गोया सब-कुछ मिला। कोई अप्राप्त वस्तु है ही नहीं। बाप के साथ सदा खुशी में नाचती रहो, दु:ख का नाम-निशान भी खत्म। शक्तियों का मुख्य गुण है निर्भय। माया से भी डरने वाली नहीं। ऐसी निर्भय हो? माया चाहे शेर के रूप में आये अर्थात् विकराल रूप में आये लेकिन शक्तियाँ उस शेर पर भी सवारी करने वाली, इतनी निर्भय। जो निर्भय स्टेज पर रहते उनका साक्षात्कार शक्ति रूप का होता। सदा शस्त्रधारी। दुनिया आपको इसी रूप में नमस्कार करने आयेगी। मातायें सिर्फ बाप के साथ सर्व सम्बन्ध निभाती रहें तो नम्बरवन ले सकती हैं। मातायें अगर नष्टोमोहा में पास हो गई तो बहुत आगे नम्बर ले सकती हैं। माताओं के लिए यही सबजेक्ट ज़रूरी है। बाप-दादा माताओं को एक्स्ट्रा, लिफ्ट देते हैं, क्योंकि जानते हैं बहुत भटकी हैं, बहुत दु:ख देखे हैं अभी बाप माताओं के पांव दबाते हैं अर्थात् सहयोग देते हैं। बाप को बहुत तरस पड़ता है। सारी जीवन गँवाई, अभी थोड़े समय में पास हो जाओ।..." 19.12.1979 सारे दिन में अनेक बच्चों के अनेक पोज़ देखते हैं। ऑटोमेटिक कैमरा है। साइन्स वालों ने सब वतन से ही तो कापी की है। कभी वतन में आकर देखना क्या-क्या चीजें वहाँ है। जो चाहिए, वह हाजिर मिलेगी। आप सब कहेंगे कि मँगाओ। बाप पूछते हैं वतन को देखना चाहते हो या रहना चाहते हो। (ट्रायल करेंगे) शक है क्या जो ट्रायल करेंगे? आप सबको बुलाने के लिए ही ब्रह्मा बाप रूके हुए हैं। तो क्यों नहीं सम्पन्न बन जाते हो। बहुत सहज ही सम्पन्न बन सकते हो, लेकिन द्वापर से मिक्स करने के संस्कार बहुत रहे हैं। पहले पूजा में मिक्स किया, देवताओं को बन्दर का मुँह लगा दिया। शास्त्रों में मिक्स किया जो बाप की जीवन-कहानी में बच्चे की जीवन-कहानी मिक्स की। ऐसे ही गृहस्थी में पवित्र प्रवृत्ति के बजाए अपवित्रता मिक्स कर दी। अभी भी श्रीमत में मन मत मिक्स कर देते हो। इसलिए मिक्स होने के कारण, जैसे रीयल सोना हल्का होता है और जब उसमें मिक्स करते हैं तो भारी हो जाता है ऐसे ही श्रीमत अर्थात् श्रेष्ठ मत बनाती हैं। मनमत मिक्स होने से भारी हो जाते हो। इसलिए चलने में मेहनत लगती है। अत: श्रीमत में मिक्स नहीं करो। ..." 09.01.1980 जिस लोक को छोड़ चुके उस लोक की लाज रखते हैं और जिस संगमयुग वा संगम लोक के बन चुके, उस लोक की लाज रखना भूल जाते हैं। जो लोक भस्म होने वाला है उस लोक की लाज सदा स्मृति में रखते और जो लोक अविनाशी है और इसी लोक से भविष्य लोक बनना है उस लोक की स्मृति दिलाते भी कभी-कभी स्मृति स्वरूप बनते हैं। गृहस्थ व्यवहार और ईश्वरीय व्यवहार दोनों में समानता रखना अर्थात् सदा दोनों में हल्के और सफल होना। गृहस्थ व्यवहार नहीं, ट्रस्ट व्यवहार वास्तव में गृहस्थ व्यवहार शब्द चेन्ज करो। गृहस्थ शब्द बोलते ही गृहस्थी बन जाते हो। इसलिए गृहस्थी नहीं हो, ट्रस्टी हो। गृहस्थ व्यवहार नहीं, ट्रस्ट व्यवहार है। गृहस्थी बनते हैं तो क्या करते हैं? गृहस्थियों का कौन-सा खेल है? गृहस्थी बनते हो तो बहाने बाजी बहुत करते हो। ऐसे और वैसे की भाषा बहुत बोलते हो। ऐसे हैं ना, वैसे हैं ना। बात को भी बढ़ाने लग जाते हैं। यह तो आप जानते हो करना ही पड़ेगा, यह तो ऐसे ही है, वैसे ही है - यह पाठ बाप को भी पढ़ाने लग जाते हो। ट्रस्टी बन जाओ तो बहाने बाजी खत्म हो चढ़ती कला की बाजी शुरू हो जायेगी। तो आज से अपने को गृहस्थ व्यवहार वाले नहीं समझना। ट्रस्ट व्यवहार है। जिम्मेवार और है, निमित्त आप हो। जब ऐसे संकल्प में परिवर्तन करेंगे तो बोल और कर्म में परिवर्तन हो ही जाएगा। ..." 18.01.1980 जैसे एयरकन्डीशन होता है तो वातावरण को क्रियेट करते हैं, ठण्डी में अगर गर्म स्थान मिल जाता है तो जाने से ही आराम महसूस करते हैं, इसी रीति से रूहानियत के आधार पर सेवाकेन्द्र का ऐसा वायुमण्डल हो जो अनुभव करें कि यह स्थान सहज ही उन्नति प्राप्त करने का है। इसलिए सेवाकेन्द्र पर आते हैं तो आते ही बाहर का और सेवाकेन्द्र का अन्तर महसूस हो, जिससे स्वत: आकर्षित हों।..."
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