18.01.1969
"...जो बाप की आश बच्चों में थी वह साकार रूप में बाप को नहीं दिखलाई, जो अब अव्यक्त रूप में दिखलानी है।
बाबा ने कहा यह उल्हना भी मीठी रूहरूहान है।
यह भी एक खेलपाल बच्चों का है।
साकार रूप में जो बापदादा ने श्रृंगार कराया वह अब अव्यक्त वतन में बापदादा देखेंगे।..."
"...बाबा ने कहा इन कार्डस को ऐसे सजाओं जिससे कोई सीनरी बन जाए क्योंकि हर कार्ड पर सीनरी की डिजाइन थी - किसमें चित्र किसमें शरीर।
हम मिलाने लगी तो कभी उल्टा कभी सुल्टा हो जाता था।
और बापदादा बहुत हँस रहे थे।
उसमें बहुत ही सुन्दर सतयुग की सीनरियॉ थी।
एक कृष्ण बाल रूप में झूले में झूल रहा था, साथ में कान्ता (दासी) झुला रही थी।
दूसरे में सखे-सखियों का खेल था।
मतलब तो सतयुग की दिनचर्या थी।
फिर बाबा ने विदाई देते समय कहा, बच्ची सबको सन्देश देना - कि शक्ति स्वरूप भव और प्रेम स्वरूप भव। ..."
"... सभी पूछते हैं कि पिछाड़ी के समय आप ने कुछ बोला नहीं।
बाहर की सीन तो हम सभी ने सुनी है लेकिन अन्दर क्या था वह अनुभव भी सुनना चाहते हैं।
बाबा बोले, हाँ बच्ची, क्यों नहीं।
अपना अनुभव सुनायेंगे।
अच्छा लो सुनो - बच्ची खेल तो सिर्फ 10-15 मिनट का ही था।
उस थोड़े से समय में ही अनेक खेल चले।
उसमें भिन्न-भिन्न अनुभव हुए।
पहला अनुभव तो यह था कि पहले जोर से युद्ध चल रही थी। किसकी?
योगबल और कर्मभोग की।
कर्मभोग भी फुल फोर्स में अपने तरफ खींच रहा था और योगबल भी फुल फोर्स में ही था।
ऐसे अनुभव हो रहा था कि जो भी शरीर के हिसाब-किताब रहे हुऐ थे वह फट से योग अग्नि में भस्म हो रहे थे।
और मैं साक्षी हो देख रहा हूँ, जैसे अखाड़े में बैठ मल्लयुद्ध देखते हैं।
मतलब तो दोनों का फोर्स पूरा ही था।
उसके बाद बाबा बोले कि कुछ समय बाद कर्मभोग (दर्द) तो बिल्कुल निर्बल हो गया।
बिल्कुल दर्द गुम हो गया।
ऐसे ही अनुभव हो रहा था कि आखरीन में योगबल ने कर्मभोग पर जीत पा ली।
उस समय तीन बातें साथ-साथ चल रही थी वह कौन सी?
एक तरफ तो बाबा से बातें कर रहा था कि बाबा आप हमें अपने पास बुला रहे हो।
दूसरे तरफ यूँ तो कोई खास बच्चों की स्मृति नहीं, लेकिन सभी बच्चों के स्नेह की याद शुद्ध मोह के रूप
में थी बाकी शुद्ध मोह की रग वा यह संकल्प कि छुट्टी नहीं ली वा और कोई भी संकल्प नहीं था।
तीसरी तरफ यह भी अनुभव हो रहा था कि कैसे शरीर से आत्मा निकल रही है।
कर्मातीत न्यारी अवस्था जो बाबा ने पहले मुरली भी चलाई कि कैसे भाँ भाँ होकर सन्नाटा हो जाता है।
वैसे ही बिल्कुल डेड साइलेन्स का अनुभव हो रहा था और देख रहा था कि कैसे एक-एक अंग से आत्मा अपनी शक्ति छोड़ती जा रही है।
तो कर्मातीत अवस्था की मृत्यु क्या चीज है वह अनुभव हो रहा था।
यह है मेरा अनुभव।..."
"...बाबा ने समझाया कि यह है ड्रामा का बन्धन।
ब्रह्मा भी ड्रामा के सर्कल से निकल नहीं सकते।
ड्रामा के बन्धन से कोई भी निकल नहीं सकते।
उस जीरो प्याइन्ट तक पहुँच गये लेकिन फिर भी
ड्रामा का मीठा बन्धन है।
जिस मीठे बन्धन को खेल के रूप में दिखाया।
फिर मिश्री बादामी खिलाई।
छुट्टी दी, बोला, जाओ बच्ची टाइम हो गया है। ..."
21.01.1969
"...ड्रामा में पहले भी देखा कि जो भी गये छुट्टी लेकर नहीं गये।
इसलिए यह समझो कि ब्राह्मण कुल की ड्रामा में यह रसम है।
जो ड्रामा में नूंधी हुई है वह रसम चली।
यूँ तो समझते हैं कि आप सभी का बहुत प्यार साकार के साथ था।
था नहीं है भी।
प्यार नहीं होता तो इस सभा में कैसे होते।
साकार में फॉलो करने के लिए इनका ही तन था तो प्यार क्यों नहीं होगा।
स्नेह था और है भी।
यह बाप बच्चों की निशानी है।
इससे साकार भी वतन में मुस्करा रहे हैं।
बच्चों का स्नेह है तो क्यों मेरा नहीं।
लेकिन वह जानते हैं कि ड्रामा में जो भी पार्ट होता है वह कल्याणकारी है। वह विचलित नहीं होते।
वह तो सम्पूर्ण अचल, अडोल, स्थिर था और है भी।
लेकिन आप बच्चों से हजार गुणा स्नेह उनमें जास्ती है।
अब स्नेह का सबूत देना है।
यह भी एक छिपने का खेल है।
तो विचार सागर मंथन करो, हलचल का मंथन न करो।
जो शक्ति ली है उनको प्रत्यक्ष में लाओ।
भारत माता शक्ति अवतार अन्त का यही नारा है।
सन शोज फादर। ड्रामा की नूंध करायेगी।
साकार बाबा ने कहा मैं बच्चों से मिलन मनाने आऊंगा।
अगर आज आ जाता तो बच्चे आंसू बहा देते। ..."
22.01.1969
"...बापदादा ने कहा कि यह खेल बाप ने प्रैक्टिकल में रचा है।
जिन बच्चों की जीवन रूपी नईया बाप के साथ में होगी वह हिलेगी नहीं।
अभी तुम परीक्षाओं रूपी सागर के बीच में चल रहे हो।
तो जिनका कनेक्शन अर्थात् जिनका हाथ बापदादा के हाथ में होगा उनकी यह जीवन रूपी नैया न हिलेगी न डूबेगी।
तुम बच्चे इसको ड्रामा का खेल समझकर चलेंगे तो डगमग नहीं होंगे।
और जिसका बुद्धि रूपी हाथ साथ ढीला होगा वह डोलते रहेंगे।
इसलिए बच्चों को बुद्धि रूपी हाथ मजबूत रखने का खास ध्यान रखना है।..."
02.02.1969
"...कईयों के मन में यह भी है ना कि ना मालूम जन्म होगा वा क्या होगा?
जन्म होगा?
जैसे आप की मम्मा का जन्म हुआ वैसे होगा?
आप बच्चों का विवेक क्या कहता है?
ड्रामा की भावी को देख सकते हो?
थोड़ा-थोड़ा देख सकते हो?
जब आप लोग सबको कहते हो कि हम त्रिकालदर्शी बाप के बच्चे हैं तो आने वाले काल को नहीं जानते हो?
आपके मन के विवेक अनुसार क्या होना चाहिए?
अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर हाँ वा नाँ कहो?
तो जवाब निकल आयेगा।
(इस रीति से
बापदादा ने दो चार से पूछा) बहुत करके सभी का यही विचार था कि नहीं होगा।
आज ही उत्तर चाहते हो या बाद में!
हलचल तो नहीं चम रही है।
यह भी एक खेल रचा जाता है।
छोटे-छोटे बच्चे तालाब में पत्थर मारकर उनकी लहरों से खेलते हैं।
तो यह भी एक खेल है।
बाप तुम सभी के विचार सागर में प्रश्रों के पत्थर फेंक कर तुम्हारे बुद्धि रूपी सागर में लहर उत्पन्न कर रहे हैं।
उन्ही लहरों का खेल बापदादा देख रहे हैं।
अभी आप सबके साथ ही अव्यक्त रूप से स्थापना के कार्य में लगे रहेंगे।
जब तक स्थापना का पार्ट है तब तक अव्यक्त रूप से आप सभी के साथ ही हैं।
समझ गये? ..."
"...जो सुनाया कि स्नेह को ड्रामा साइलेन्स में ले आता है।
और यही साइलेन्स, शक्ति को लायेगी।
फिर वहाँ साकार में मिलन होगा।
अभी अव्यक्त रूप में मिलते हैं।
फिर साकार रूप में सतयुग में मिलेंगे।
वह सीन तो याद आती है ना।
खेलेंगे, पाठशाला में आयेंगे, मिलेंगे।
आप नूरे रत्न सतयुग की सीनरी वतन में देखते रहते हो।
जो बाप देखते हैं वह बच्चे भी देखते रहते हैं और देखते जायेंगे।..."
15.02.1969
"...जब तक विनाश नहीं तब तक बाप साथ है।
वतन में बाप गया है कोई कार्य के लिए।
समय अनुसार वह सब कुछ होता रहेगा।
इसमें न कोई विदाई है, न जुदाई, जुदाई लगती है?
तुमने विदाई दी थी?
अगर विदाई दी होगी तो जुदाई भी होगी।
विदाई नहीं दी होगी तो जुदाई भी नहीं होगी।
यह ड्रामा के अन्दर पार्ट चलता रहता है।
बाप का खेल चल रहा है।
खेल में खेल चलता रहेगा।
आगे तो बहुत ही खेल देखने हैं।
इतनी हिम्मत है?
जब हिम्मत रखेंगे तब बहुत देखेंगे।
आगे बहुत कुछ देखना है।
परन्तु कदम को सम्भाल-सम्भाल कर चलाना है।
अगर सम्भल कर नहीं चलेंगे तो कहाँ खड्डा भी आ जायेगा।
एक्सीडेंट भी हो पड़ेंगे।
बच्चों से मिलने के लिए थोड़े समय के लिए आया हूँ।
बहुत कार्य करना है।
वतन से बहुत कुछ करना पड़ता है। ..."
04.03.1969
"... वतन में आज होली कैसे खेली मालूम है?
सिर्फ बच्चों के साथ ही थे।
आप भी होली मना रहे
हो ना!
वहाँ सन्देशी आई तो एक खेल किया।
कौन सा खेल किया होगा? (आप ले चलो तो देखे)
बुद्धि का विमान तो है।
बुद्धि का विमान तो दिव्य दृष्टि से भी अच्छा है।
यहाँ तो वह हो ही नहीं सकता।
वह चीज ही नहीं।
आज सुहेजों का दिन था ना!
तो जब सन्देशियॉ वतन में आई तो साकार को छिपा दिया।
एक बहुत सुन्दर फूलों की पहाड़ी बनाई थी उनके अन्दर साकार को छिपाया हुआ था।
दूर से देखने में तो पहाड़ी ही नजर आती थी।
तो जब सदेशी आई तो साकार को देखा नहीं।
बहुत ढूढा देखने में ही नहीं आया।
फिर अचानक ही जैसे छिपने का खेल करते हैं ना!
ऐसा खेल देखा।
फूलों के बीच साकार बैठा हुआ नजर आया।
वह सीन बड़ी अच्छी थी। ..."
17.04.1969
"...एक-एक श्वांस, एक-एक सैकेण्ड, सफल होना चाहिए।
अभी ऐसा समय है - अगर कुछ भी
अलबेलापन रहा तो जैसे कई बच्चों ने साकार मधुर मिलन का सौभाग्य गंवा दिया, वैसे ही यह पुरुषार्थ के सौभाग्य का समय भी हाथ से चला जायेगा।
इसलिए पहले से ही सुना रहे हैं।
पुरुषार्थ से स्नेह रख पुरुषार्थ को आगे बढ़ाओ।
ऊपर से सारा खेल देखते रहते हैं।
तुम भी आकर देखो तो बड़ा मजा आयेगा।
बहुत रमणीक खेल बच्चों का देखते हैं।
आप भी देख सकते हो।
अगर अपनी ऊँच अवस्था में स्थित होकर देखो तो अपने सहित औरों का भी खेल देखने में आयेगा।
बापदादा तो देखते रहते हैं।
हंसी का खेल है।
बड़े-बड़े महारथी शेर से नहीं डरते, मगर चींटी से डर जाते हैं।
शेर से बड़ा सहज मुकाबला कर लेते, लेकिन चींटी को कुचलने का तरीका नहीं जानते।
यह है महारथियों का खेल।
घोड़े सवार पता है क्या करते हैं?
(गैलप करते हैं) घोड़ेसवारों का भी खेल देखते हैं।
महारथियों का तो सुनाया?
घोड़ेसवार जो हैं - उन्हों की हिम्मत उत्साह बहुत है, पुरुषार्थ में कदम भी बढ़ाते हैं। लेकिन गैलप करते-करते (फिसल जाते हैं) फिसलते भी नहीं, गिरते भी नहीं, थकते भी नहीं।
अथक भी हैं, चलते भी बहुत अच्छे हैं लेकिन जो मार्ग की सीन सीनरियॉ हैं उनमें आकर्षित हो जाते हैं।
अपने पुरुषार्थ को चलाते भी रहते हैं लेकिन देखने के संस्कार जाती है।
यह क्या कर रहे हैं, यह कैसे करते हैं, तो हम भी करें।
रीस करते हैं।
तो घोड़े सवारों में देखने का आकर्षण ज्यादा है।
प्यादों की एक हंसी की बात है।
खेल सुना रहे हैं ना।
वो क्या करते हैं?
होती है बहुत छोटी सी बात लेकिन उसको इतना बड़ा पहाड़ बना देते।
पहाड़ को राई नहीं।
राई को पहाड़ बनाकर उसमें खुद ही परेशान हो जाते हैं।
है कुछ भी नहीं, उनको सब कुछ बना देते।
ऊँचा-ऊँचा देख हिम्मतहीन हो जाते हैं।
फिर भी वर्तमान समय जो भी तीनों ही हैं उनमें से आधा क्वालिटी ऐसी है जो अपने को कुछ बदल रहे हैं।
इसलिए फिर भी बापदादा हर्षित होते हैं, उन्हों की हिम्मत हुल्लास, कदम आगे बढ़ता हुआ देख। ..."
07.05.1969
"...सतयुग में खिलौने कैसे होते हैं?
वहाँ रत्नों से खेलेंगे। आप लोगों ने सतयुगी सुखों की लिस्ट
और कलियुगी दु :खो की लिस्ट तो लगाई है।
लेकिन काम के सुखों की लिस्ट बनायेंगे तो इससे भी
दुगुने हो जायेंगे।
वही सतयुगी संस्कार अभी भरने हैं।
जैसे छोटे बच्चे होते हैं सारा दिन खेल में ही मस्त होते हैं, कोई भी बात का फिक्र नहीं होता है इसी रीति हर वक्त सुखों की लिस्ट, रत्नों की
लिस्ट बुद्धि में दौड़ाते रहो अथवा इन सुखों रूपी रत्नों से खेलते रहो तो कभी भी ड्रामा के खेल में हार न हो।
अभी तो कहाँ-कहाँ हार भी हो जाती है।..."
09.06.1969
"...जितना-जितना आगे बढ़ेंगे तो न चाहते हुए भी सतयुगी नजारे स्वयं ही सामने आयेंगे।
लाने की भी जरूरत नहीं।
जितना-जितना नजदीक होते जायेंगे, उतना-उतना नजारे भी नजदीक होते जायेंगे।
सतयुग में चलना है और खेल-पाल करना है।
यह तो निश्चित है ही आज जो भी सभी बैठे हैं उनमें से कौन समझता है कि हम श्रीकृष्ण के साथ पहले जन्म में आयेंगे?
उनके फैमिली में आयेंगे वा सखी सखा बनेंगे वा तो स्कूल के साथी बनेंगे?
जो समझते हैं तीनों में से कोई न कोई जरूर बनेंगे ऐसे निश्चय बुद्धि कौन है?
(सभी ने हाथ उठाया) नजदीक आने वालों की संगमयुग में निशानी क्या होगी?
यहाँ कौन अपने को नजदीक समझते हैं?
यज्ञ सर्विस वा जो बापदादा का कार्य है उसमें जो नजदीक होगा वही वहाँ खेल-पाल आदि में नजदीक होंगे।
यज्ञ की जिम्मेवारी वा बापदादा के कार्य की जिम्मेवारी के नजदीक जितना-जितना होंगे उतना वहाँ भी नजदीक होंगे।
नजदीक होने की परख कैसे होगी?
हरेक को अपने आप से पूछना चाहिए-जितनी बुद्धि, जितना तन-मन-धन और जितना समय लौकिक जिम्मेवारियों में देते हो उतना ही इस तरफ देते हो?
इस तरफ ज्यादा देना चाहिए।
अगर ज्यादा नहीं तो उसका वजन एक जैसा है?
अगर दोनों तरफ का एक जितना है तो भी नजदीक गिना जायेगा।
इस हिसाब से अपने को परखना है। "
1970
24.01.1970
"...वतन में शुरू-शुरू में पक्षियों का खेल दिखलाते थे, पक्षियों को उड़ाते थे।
वैसे यह आत्मा भी पक्षी है जब चाहे तब उड़ सकती है।
वह तब हो सकता है जब अभ्यास हो।
जब खुद उड़ता पक्षी बनें तब औरों को भी एक सेकंड में उड़ा सकते हैं।
अभी तो समय लगता है।
अपरोक्ष रीति से वतन का अनुभव बताया।
अपरोक्ष रूप से कितना समय वतन में साथ रहते हो?
जैसे इस वक्त जिसके साथ स्नेह होता है, वह कहाँ विदेश में भी है तो उनका मन ज्यादा उस तरफ़ रहता है।
जिस देश में वह होता है उस देश का वासी अपने को समझते हैं।
वैसे ही तुमको अब सूक्ष्मवतनवासी बनना है।
सूक्ष्मवतन को स्थूलवतन में इमर्ज करते हो वा खुद को सूक्ष्मवतन में साथ समझते हो?
क्या अनुभव है?
सूक्ष्मवतनवासी बाप को यहाँ इमर्ज करते हो वा अपने को भी सूक्ष्मवतनवासी बनाकर साथ रहते हो?
बापदादा तो यही समझते हैं कि स्थूल वतन में रहते भी सूक्ष्मवतनवासी बन जाते, यहाँ जो भी बुलाते हो यह भी सूक्ष्मवतन के वातावरण में ही सूक्ष्म से सर्विस ले सकते हो।
अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर मदद ले सकते हो।
व्यक्त रूप में अव्यक्त मदद मिल सकती है।
अभी ज्यादा समय अपने को फ़रिश्ते ही समझो।
फरिश्तों की दुनिया में रहने से बहुत ही हल्कापन अनुभव होगा जैसे कि सूक्ष्मवतन को ही स्थूलवतन में बसा दिया है। ..."
05.03.1970
"...भक्त लोग तो खेल करते हैं लेकिन ज्ञान सहित खेल करना वह तो बच्चे ही जानते हैं।
इसलिए आज के शिवरात्री का यादगार फिर भक्ति में रस्म माफिक चलता है।
पहले आरम्भ बच्चे ही करते हैं ज्ञान सहित।
और फिर भक्त कॉपी करते हैं अन्धश्रद्धा से।
ज़रूर कभी किया है तब यादगार बना है। ..."
23.03.1970
"...एक ही समय पर सर्व प्राप्तियां बापदादा कराते हैं।
जो एक जन्म की दें अनेक जन्म चलती है।
वैसे बच्चों को फिर अनेक जन्मों के हिसाब-किताब एक जन्म में चुक्तु करने हैं।
यह एक जन्म का अनेक जन्म चलता है।
वह अनेक जन्मों का एक जन्म में ख़त्म होता है तो अनेक जनों का हिसाब-किताब एक जन्म में ख़त्म करने के कारण कभी-कभी वह फ़ोर्स से रूप ले आता है।
बापदादा यह युद्ध देखते रहते हैं आप भी देखती हो अपनी वा दूसरों की?
जब साक्षी हो देखने लग पड़ते तो यह व्याधि बदलकर खेल रूप में हो जाती है।
बापदादा साक्षी हो देखते भी हैं और उनका साहस देखकर हर्षित भी होते हैं।
और साथ-साथ सहयोगी भी बनते हैं। ..."
26.03.1970
"...जब ऐसे शब्द सुनते हैं कि सोचेंगे, देखेंगे, विचार तो ऐसा है।
तो हँसते हैं अब तक यह क्यों?
अब यह बातें ऐसी लगती है जैसे बुज़ुर्ग होने की बाद कोई गुड्डियों का खेल करे तो क्या लगता है?
तो बापदादा भी मुस्कुराते हैं – बुज़ुर्ग होते भी कभी-कभी बचपन का खेल करने में लग जाते हैं।
गुड्डियों का खेल क्या होता है, मालूम है?
साड़ी जीवन उनकी बना देते हैं, छोटे से बड़ा करते, फिर स्वयंवर करते।
वैसे बच्चे भी कई बातों की, संकल्पों की रचना करते हैं फिर उसकी पालना करते हैं फिर उनको बड़ा करते हैं फिर उनसे खुद ही तंग होते हैं।
तो यह गुड्डियों का खेल नहीं हुआ?
खुद ही अपने से आश्चर्य भी खाते हैं।
अब ऐसी रचना नहीं रचनी है।
बापदादा व्यर्थ रचना नहीं रचते हैं।
और बच्चे भी व्यर्थ रचना रचकर फिर उनसे हटने और मिटने का पुरुषार्थ करते हैं।
इसलिए ऐसी रचना नहीं रचनी है।
एक सेकंड में सुलटी रचना भी क्विक रचते हैं और उलटी रचना भी इतनी तेज़ी से होती है।
एक सेकंड में कितने संकल्प चलते हैं।
रचना रचकर उसमे समय देकर फिर उनको ख़त्म करने लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता है?
अब इस रचना को ब्रेक लगाना है। ..."
18.06.1970
"...बाप में तो निश्चय है लेकिन अपने में भी निश्चयबुद्धि होकर कार्य करो तो फिर विजय ही
विजय है।
विजय के आगे समस्या कोई चीज़ नहीं है।
फिर वह समस्या नहीं फील होगी लेकिन खेल फील होगा।
खेल ख़ुशी से किया जाता है।
कोई कार्य सहज होता है तो आप लोग कहते हो ना यह तो बाएँ हाथ का खेल है अर्थात् सहज है।
तो यह भी बुद्धि का खेल हो जायेगा।
खेल में घबराएंगे नहीं।
बड़े से बड़े हो तो बड़े से बड़ी स्थिति भी बनाओ।
कई बड़े आदमी ऐसे होते हैं जो अपने बड़ेपन में ठहरना नहीं आता है।
आप लोग ऐसे नहीं बनना।
जितने बड़े हो उतना ही बड़ी स्थिति भी दिखलाओ।
बड़ा कार्य करके दिखाओ।
कम से कम आठ घंटे का लक्ष्य रखना है।
अव्यक्त स्थिति के लिए कह रहे हैं।
अव्यक्त स्थिति आठ घंटा बनाना बड़ी बात नहीं।
अव्यक्त की स्मृति अर्थात् अव्यक्त स्थिति। ..."
1971
13.03.1971
"...जो बन्धनमुक्त होगा वह सदैव योगयुक्त होगा।
बन्धनमुक्त की निशानी है योगयुक्त।
और, जो योगी होगा, ऐसे योगी का मुख्य गुण कौनसा दिखाई देगा?
जान-बूझकर के बुद्धि का खेल कराते हैं।
तो ऐसे योगी का मुख्य गुण वा लक्षण क्या होगा?
जितना योगी उतना सर्व का सहयोगी और सर्व के सहयोग का अधिकारी स्वत: ही बन जाता है।
योगी अर्थात् सहयोगी।
जो जितना योगी होगा उतना उसको सहयोग अवश्य ही प्राप्त होता है।
अगर सर्व से सहयोग प्राप्त करना चाहते हो तो योगी बनो।
योगी को सहयोग क्यों प्राप्त होता है?
क्योंकि बीज से योग लगाते हो।
बीज से कनेक्शन अथवा स्नेह होने के कारण स्नेह का रिटर्न सहयोग प्राप्त हो जाता है।
तो बीज से योग लगाने वाला, बीज को स्नेह का पानी देने वाला सर्व आत्माओं द्वारा सहयोग रूपी फल प्राप्त कर लेता है।
जैसे साधारण वृक्ष से फल की प्राप्ति के लिए क्या किया जाता है?
वैसे ही जो योगी है उसको एक- एक से योग लगाने की आवश्यकता नहीं होती, एक-एक से सहयोग प्राप्त करने की आशा नहीं रहती।
लेकिन एक बीज से योग अर्थात् कनेक्शन होने के कारण सर्व आत्मायें अर्थात् पूरे वृक्ष के साथ कनेक्शन हो ही जाता है।
तो कनेक्शन का अटेन्शन रखो। ..."
06.05.1971
"...सदैव बड़े से बड़े बाप की बड़ाई करते रहो, इसमें सारी पढ़ाई भी आ जाती है।
तो यह बाप की बड़ाई करने से क्या होगा?
लड़ाई बन्द।
माया से लड़-लड़ कर थक गये हो ना।
जब बाप की बड़ाई करेंगे तो लड़ाई से थकेंगे नहीं, लेकिन बाप के गुण गाते खुशी में रहने से लड़ाई भी एक खेल मिसल दिखाई पड़ेगी।
खेल में हर्ष होता है ना।
तो जो लड़ाई को खेल समझते, ऐसी स्थिति में रहने वालों की निशानी क्या होगी? हर्ष।
सदा हर्षित रहने वाले को माया कभी भी किसी भी रूप से आकर्षित नहीं कर सकती।
तो माया की आकर्षण से बचने के लिए एक तो सदैव अपनी शान में
रहो, दूसरा माया को खेल समझ सदैव खेल में हर्षित रहो। ..."
24.05.1971
"...आप लोगों ने असलियत को भुला दिया है, उसमें स्थित कराने की ही शिक्षा मिली है।
तो असली रूप में ठहरना मुश्किल होता है वा नकली रूप में ठहरना मुश्किल होता है?
होली के अथवा दशहरे के दिनों में छोटे बच्चे आर्टाफिशियल नकाब पहनते हैं, उन्हों को कहो कि यह नकली नकाब उतार असली रूप में हो जाओ तो क्या मुश्किल होगा?
कितना समय लगेगा?
आप लोगों ने भी यह खेल किया है ना।
क्या-क्या नकाब धारण किये?
कब बन्दर का, कब असुर का, कब रावण का।
कितने नकली नकाब धारण किये हैं?
अब बाप क्या कहते हैं?
वह नकली नकाब उतार दो।
इसमें क्या मुश्किल है?
तो सदैव यह नशा रखो कि असली स्वरूप, असली धर्म, असली कर्म हमारा कौनसा है?
असली नॉलेज के हम मास्टर नॉलेजफुल हैं यह नशा कम है?
यह नशा सदैव रहे तो क्या बन जायेंगे?
जो बन जायेंगे उसका यादगार देखा है?
दिलवाला मन्दिर है तपस्वी कुमार और तपस्वी कुमारियों का यादगार।
और सदैव नशे में स्थित रहने का यादगार कौन-सा है?
अचलघर।
सदैव उस नशे में रहने से अचल, अडोल बन जायेंगे।
फिर माया संकल्प रूप में भी हिला नहीं सकती।
ऐसे अचल बन जायेंगे।
यादगार है ना कि रावण सम्प्रदाय ने पांव हिलाने की कोशिश की लेकिन ज़रा भी हिला न सके।
ऐसा नशा रहता है कि यह हमारा यादगार है?
या समझते हो कि यह बड़े-बड़े महारथियों का यादगार है?
यह मेरा यादगार है - ऐसा निश्चयबुद्धि बनने से विजय अवश्य प्राप्त हो
जाती है।
यह कभी भी नहीं सोचो कि यह कोई और महारथियों का है, हम तो पुरुषार्थी हैं।..."
22.06.1971
"...संकल्प में भी अपवित्रता वा अशुद्धता न हो - इसको कहते हैं सम्पूर्ण पवित्र।
ऐसे फरमानबरदान बने हो ना।
सारी शक्ति-सेना पवित्र और योगी है कि अभी बनना है?
निरन्तर योगी भी हैं।
निरन्तर अर्थात् संकल्प में भी अशुद्धता नहीं है।
संकल्प में भी अगर पुराने अशुद्ध संस्कारों का टच होता है तो भी सम्पूर्ण प्योरिटी तो नहीं कहेंगे ना।
जैसे स्थूल भोजन भले कोई स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन हाथ भी लगाते हैं तो भी अपने को सच्चे वैष्णव नहीं समझते हैं।
अगर बुद्धि द्वारा भी अशुद्ध संकल्प वा पुराने संस्कार संकल्प रूप में टच होते हैं तो भी सम्पूर्ण वैष्णव कहेंगे?
कहा जाता है - अगर कोई देखता भी है अकर्त्तव्य कार्य, तो देखने का असर हो जाता है, उसका भी हिसाब बन जाता है।
इस हिसाब से सोचो तो पुराने संस्कार व अशुद्ध संकल्प बुद्धि में भी टच होते हैं, तो भी सम्पूर्ण वैष्णव वा सम्पूर्ण प्योरिटी नहीं कहेंगे।
पुरूषार्थ का लक्ष्य कहाँ तक रखा है?
अब सोचो - जबकि इतनी स्टेज तक जाना है तो यह छोटी-छोटी बातें अब इस समय तक शोभती हैं?
अभी तक बचपन के खेल खेलते रहते हो वा कभी दिल होती है बचपन के खेल खेलने की?
वहाँ ही रचना की, वहाँ ही पालना की और वहाँ ही विनाश किया - यह कौनसा खेल कहा जाता है?
वह तो भक्ति-मार्ग के अंधश्रद्धा का खेल हुआ। ..."
04.07.1971
"...जैसे भक्ति-मार्ग में शब्द उच्चारण करते थे ‘करन-करावनहार।’ लेकिन वह दूसरे अर्थ से कहते थे।
लेकिन इस समय जो भी कर्म करते हो उसमें करन- करावनहार तो है ना। कराने वाला बाप है, करने वाला निमित्त है।
अगर यह स्मृति में रख कर्म करते हैं तो सहज स्मृति नहीं हुई?
निरन्तर योगी नहीं हुए?
फिर कभी हंसी में नीचे आयेंगे भी तो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे हू-ब-हू स्टेज पर कोई ऐक्टर होते हैं तो समझते हैं कि लोक-कल्याण अर्थ हंसी का पार्ट बजाया।
फिर अपनी स्टेज पर तो बिल्कुल ऐसे अनुभव होगा जैसे अभी-अभी यह पार्ट बजाया, अब दूसरा पार्ट बजाता हूँ।
खेल महसूस होगा।
साक्षी हो जैसे पार्ट बजा रहे हैं।
तो सहज योगी हुए ना।
याद को भी सहज करो।
जब यह याद का कोर्स सहज हो जायेगा तब कोई को कोर्स देने में याद का फोर्स भी भर सकेंगे।
सिर्फ कोर्स देने से प्रजा बनती है लेकिन फोर्स के साथ कोर्स में समीप सम्बन्ध में आते हैं।..."
28.07.1971
"...जिस समय भोजन स्वीकार करते हो, तो क्या आत्मा को खिलाते हैं वा शारीरिक भान में करते हैं?
सीढ़ी उतरते और चढ़ते हो?
सीढ़ी का खेल अच्छा लगता है?
उतरना और चढ़ना किसको अच्छा लगता है?
छोटे-छोटे बच्चे कहां भी सीढ़ी देखेंगे तो उतरेंगे-चढ़ेंगे ज़रूर।
तो क्या अन्त तक बचपन ही रहेगा क्या?
वानप्रस्थी नहीं बनेंगे?
जैसे शरीर की भी जब वानप्रस्थ अवस्था होती है तो धीर-धीरे बचपन के संस्कार मिटते जाते हैं ना।
तो यह उतरना-चढ़ना बचपन का खेल कब तक होगा?
साक्षात्कारमूर्त तब बनेंगे जब आकार में होते निराकार अवस्था में होंगे।..."
"...बाप एकरस है, तो बाप के समान बनना है।
कुछ भी हो जाये, तो भी उसको खेल समझकर समाप्त करना।
खेल समझने से खुशी होती है।
अभी का तिलक जन्म-जन्मान्तर का तिलकधारी वा ताजधारी बनाता है।
तो सदैव एकरस रहना है।
फालो फादर करना है।..."
27.09.1971
"...आप मास्टर रचयिता हो ना।
वह सभी रचना हैं ना।
रचना को मास्टर रचयिता कैसे देखेंगे?
जब मास्टर रचता के रूप में स्थित होकर देखेंगे तो फिर यह सभी कौनसा खेल दिखाई देगा?
कौनसा दृश्य देखेंगे?
जब बारिस पड़ती है तो बारिस के बाद कौनसा दृश्य देखते हैं?
मेंढ़क थोड़े से पानी में महसूस ऐसे करते हैं जैसे सागर में हैं।
ट्रां-ट्रां......... करते नाचते रहते हैं।
लेकिन है वह अल्पकाल सुख का पानी।
तो यह मेंढ़कों की ट्रां-ट्रां करने और नाचने-कूदने का दृश्य दिखाई देगा, ऐसे महसूस करेंगे कि यह अभी- अभी अल्पकाल के सुख में फूलते हुए गये कि गये।
तो मास्टर रचयिता की स्टेज पर ठहरने से ऐसा दृश्य दिखाई देगा।
कोई सार नहीं दिखाई देगा।
बिगर अर्थ बोल दिखाई देंगे।
तो सत्यता को प्रसिद्ध करने की हिम्मत और उल्लास आता है?
सत्य को प्रसिद्ध करने का उमंग आता है कि अभी समय पड़ा है?
क्या अभी सत्य को प्रसिद्ध करने में समय पड़ा है?
फलक भी हो और झलक भी हो।
ऐसी फ़लक हो जो महसूस करें कि सत्य के सामने हम सभी के अल्पकाल के यह आडम्बर चल नहीं सकेंगे।
जैसे स्टेज पर ड्रामा दिखाते हैं ना - कैसे विकार विदाई ले हाथ जोड़ते, सिर झुकाते हुए जाते हैं!
यह ड्रामा प्रैक्टिकल विश्व की स्टेज पर दिखाना है।
अब यह ड्रामा की स्टेज पर करने वाला ड्रामा बेहद के स्टेज पर लाओ।
इसको कहा जाता है सर्विस।
ऐसे सर्विसएबल विजयी माला के विशेष मणके बनते हैं।
तो ऐसे सर्विसएबल बनना पड़े। ..."
03.10.1971
"...जब मास्टर विश्व-निर्माता अपने को समझेंगे तो यह माया के छोटे-छोटे विघ्न बच्चों के खेल समान लगेंगे।
जैसे छोटा बच्चा अगर बचपन के अनजानपन में नाक-कान भी पकड़ ले तो जोश आयेगा?
क्योंकि समझते हैं - बच्चे निर्दोष, अनजान हैं।
उनका कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता।
ऐसे ही माया भी अगर किसी आत्मा द्वारा समस्या वा विघ्न वा परीक्षा-पेपर बनकर आती है, तो उन आत्माओं को निर्दोष समझना चाहिए।
माया ही आत्मा द्वारा अपना खेल दिखा रही है।
तो निर्दोष के ऊपर क्या होता है?
तरस, रहम आता है ना।
इस रीति से कोई भी आत्मा निमित्त बन जाती है, लेकिन है निर्दोष आत्मा।
अगर उस दृष्टि से हर आत्मा को देखो तो फिर पुरूषार्थ की स्पीड कब ढीली हो सकती है?
हर सेकेण्ड में चढ़ती कला का अनुभव करेंगे।
सिर्फ चढ़ती कला में जाने के लिए यह समझने की कला आनी चाहिए।..."
"...जब वह लोग चन्द्रमा से यहाँ, यहाँ से वहाँ का खैंच सकते हैं; तो आप साकार लोक में रहते निराकारी दुनिया का, आकारी दुनिया का वा इस सारी सृष्टि के पास्ट वा भविष्य का चित्र नहीं खैंच सकते हो?
कैमरा को पावरफुल बनाओ जो उसमें जो बात, जो दृश्य जैसा है वैसा दिखाई दे, भिन्न-भिन्न रूप में दिखाई नहीं दे।
जो है जैसा है, वैसे स्पष्ट दिखाई दे।
इसको कहते हैं पावरफुल।
फिर बताओ कोई भी समस्या, समस्या का रूप होगा या खेल अनुभव होगा?
तो अब की स्टेज के अनुसार ऐसी स्टेज बनाओ, तब कहेंगे तीव्र पुरुषार्थी। ..."
24.10.1971
"...जैसे अन्य आत्माओं को कहते हो कि अब भक्ति में समय बरबाद करना गोया गुड्डियों के खेल में समय बरबाद करना है, क्योंकि अब भक्तिकाल समाप्त हो रहा है।
ऐसे कहते हो ना।
तो फिर आप इन हद की बातों रूपी गुड्डियों के खेल में समय क्यों बरबाद करते हो?
यह भी तो गुड्डियों का ही खेल है ना, जिससे कोई प्राप्ति नहीं, वेस्ट ऑफ टाइम और वेस्ट ऑफ इनर्जा है।
तो बाप भी कहते हैं - अभी इस गुड्डियों के खेल का समय समाप्त हो रहा है।
जैसे आजकल के समय कोई नया फैशन निकले और फैशन के समय कोई पुराना फैशन ही करता चले तो उसको क्या कहेंगे?
तो इन छोटी-छोटी बातों में समय गंवाना - यह पहले का पुराना फैशन है।
अभी वह नहीं करना है।..."
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