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Ref: 18.04.1982

"... कई बच्चे बड़े होशियार हैं।

अपने पुराने लोक की

लाज भी रखने चाहते और

ब्राह्मण लोक में भी

श्रेष्ठ बनना चाहते हैं।

 

 

बापदादा कहते

लौकिक कुल की लोकलाज

भल निभाओ

उसकी मना नहीं है लेकिन

धर्म कर्म को छोड़

करके लोकलाज रखना,

यह रांग है।

 

 

और फिर होशियारी

क्या करते हैं?

समझते हैं किसको क्या पता?

बाप तो कहते ही हैं

- कि मैं जानी जाननहार नहीं हूँ।

निमित्त आत्माओं को भी क्या पता?

ऐसे तो चलता है।

 

 

और चल करके

मधुबन में पहुँच भी जाते हैं।

सेवाकेन्द्रों पर भी

अपने आपको छिपाकर

सेवा में नामीग्रामी भी बन जाते हैं।

 

 

जरा सा सहयोग देकर

सहयोग के आधार पर

बहुत अच्छे

सेवाधारी का टाइटल

भी खरीद कर लेते हैं।

 

 

लेकिन जन्म-जन्म का

श्रेष्ठ टाइटल

सर्वगुण सम्पन्न,

16 कला सम्पन्न,

सम्पूर्ण निर्विकारी...

यह अविनाशी टाइटल गंवा देते हैं।

 

 

तो यह सहयोग दिया नहीं

लेकिन ‘‘अन्दर एक, बाहर दूसरा''

इस धोखे द्वारा

बोझ उठाया।

 

 

सहयोगी आत्मा के बजाए

बोझ उठाने वाले बन गये।

कितना भी होशियारी से

स्वयं को चलाओ लेकिन

यह होशियारी का चलाना,

चलाना नहीं लेकिन चिल्लाना है।

 

 

ऐसे नहीं समझना

यह सेवाकेन्द्र कोई

निमित्त आत्माओं के स्थान हैं।

आत्माओं को तो चला लेते

लेकिन परमात्मा के आगे

एक का लाख गुणा हिसाब

हर आत्मा के कर्म के

खाते में जमा हो ही जाता है।

उस खाते को चला नहीं सकते।

 

 

इसलिए बापदादा को

ऐसे होशियार बच्चों पर

भी तरस पड़ता है।

 

 

फिर भी एक बार बाप कहा

तो बाप भी बच्चों के

कल्याण के लिए

सदा शिक्षा देते ही रहेंगे।

 

 

तो ऐसे होशियार मत बनना।

सदा ब्राह्मण लोक की लाज रखना।

बापदादा तो

कर्म और फल

दोनों से न्यारे हैं।

 

 

इस समय ब्रह्मा बाप भी

इसी स्थिति पर हैं।

फिर तो हिसाब किताब में

आना ही है

लेकिन

इस समय बाप समान हैं।

इसलिए

जो जैसा करेंगे

अपने लिए ही करते हो। ..."

 

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