1970/26.03.1970

"महारथी  – पन के गुण और कर्त्तव्य"

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"...जो साक्षी बनते हैं उनका ही दृष्टांत देने में आता है। तो साक्षी दृष्टा का साबुत और द्रष्टान्त के रूप में सामने रखना है। एक तो अपनी बुद्धि से उपराम। संस्कारों से भी उपराम। मेरे संस्कार हैं । इस मेरेपन से भी उपराम। संस्कारों से भी उपराम। मेरे संस्कार हैं इस मेरेपन से भी उपराम। मैं यह समझती हूँ, इस मैं-पन से भी उपराम। मैं तो यह समझती हूँ। नहीं। लेकिन समझो बापदादा की यही श्रीमत है। जब ज्ञान की बुद्धि के बाद मैं-पन आता है तो वह मैं-पन भी नुकसान करता है। एक तो मैं शरीर हूँ यह छोड़ना है, दूसरा मैं समझती हूँ, मैं ज्ञानी आत्मा हूँ, मैं बुद्धिमान हूँ, यह मैं-पन भी मिटाना है। जहाँ मैं शब्द आता है वहां बापदादा याद आये। जहाँ मेरी समझ आती है वहां श्रीमत याद आये। एक तो मैं-पन मिटाना है दूसरा मेरा-पन। वह भी गिरता है। यह मैं और मेरा तुम और तेरा यह चार शब्द हैं इनको मिटाना है। इन चार शब्दों ने ही सम्पूर्णता से दूर किया है। इन चार शब्दों को सम्पूर्ण मिटाना है। साकार के अन्तिम बोल चेक किये, हर बात में क्या सुना? बाबा-बाबा। सर्विस में सफलता न होने की करेक्शन भी कौन सी बात में थी? समझाते थे हर बात में बाबा-बाबा कहकर बोलो तो किसको भी तीर लग जायेगा। जब बाबा याद आता तो मैं-मेरा,तू-तेरा ख़त्म हो जाता है। फिर क्या अवस्था हो जाएगी? सभी बातें प्लेन हो जायेंगी फिर प्लेन याद में ठहर सकेंगे।"

 

"...सारा दिन की स्थिति प्लेन न होने कारण प्लेन याद ठहरती नहीं। कहाँ न कहाँ मैं-पन, मेरापन, तू, तेरा आ जाता है। शुरू में सुनाया था न कि सोने की ज़ंजीर भी कम नहीं नही। वह ज़ंजीर अपने तरफ खींचती हैं। हरेक अपने को चेक करे। बिलकुल उपराम-बुद्धि, बिलकुल-प्लेन। अगर रास्ता क्लियर होता है तो पहुँचने में कितना टाइम लगता है? उसी रास्ते में रुकावट है तो पहुँचने में भी टाइम लग जाता। रूकावट है तब प्लेन याद में भी रुकावट है।"

1970/02.04.1970

सम्पूर्ण स्टेज की निशानियाँ” 

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"...मैं यह हूँमैं सर्विसएबुल हूँ। मैं महारथी हूँमैं यह करती हूँयह किया... इन सबका मैं-पन निकालकर बाबा बाबा शब्द आएगा तब ललकार होगी। परमात्म में ही परम बल होता है। आत्माओं में यथाशक्ति होती है। तो बाबा कहने से परम बल आएगा। मैं कहने से यथाशक्ति बल आता है। इसलिए रिजल्ट भी यथाशक्ति होती है।"

1978/01.04.1978

"निरन्तर योगी ही निरन्तर साथी है"

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"...अभी कभी-कभी बाप और आपको कहीं मिक्स कर देते हो। बाप के गुण गाते-गाते अपने आपके भी गुण गाने शुरू कर देते हो। भाषा बड़ी मीठी बोलते हो लेकिन मैं-पन का भाव होने के कारण आत्माओं की भावना समाप्त हो जाती है। यही सबसे बड़े से बड़ा अति सूक्ष्म त्याग है। इसी त्याग के आधार पर नम्बरवन आत्मा ने नम्बरवन भाग्य बनाया और अष्ट रत्न नम्बर का आधार भी यही त्याग है। हर सेकेण्डहर संकल्प में बाबा-बाबा याद रहे मैं-पन समाप्त हो जाए-जब मैं नहीं तो मेरा भी नहीं। मेरा स्वभावमेरे संस्कार हैंमेरी नेचर हैमेरा काम या ड्यूटीमेरा नाममेरी शानमैं-पन में यह मेरा-मेरा भी समाप्त हो जाता है। मैं-पन और मेरा-पन समाप्त हुआ यही समानता और सम्पूर्णता है। स्वप्न में भी मैं-पन न होइसको कहा जाता हैअश्वमेध यज्ञ में मैंपन के अश्व को स्वाहा करना। यही अन्तिम आहुति है। और इसी के आधार पर ही अन्तिम विजय के नगाड़े बजेंगे।"

 

 

 

...on this topic study completed upto Dec1978 - BK Naresh, Madhuban (Gyan Sarovar)