1978/03.12.1978 पाप और पुण्य की गुह्य गति पाप और पुण्य की गति को समझाने वाले, महाकाल शिवबाबा बोले: - "समय प्रमाण अब व्यर्थ की बातों को छोड़ समर्थी स्वरूप बनो। ऐसे विश्व सेवाधारी बनो। इतना बड़ा कार्य जिसके लिए निमित्त बने हुए हो उसको स्मृति में रखो। इतने श्रेष्ठ कार्य के आगे स्वयं के पुरूषार्थ में हलचल वा स्वयं की कमज़ोरियाँ क्या अनुभव होती हैं? अपनी कमज़ोरियाँ, इतने विशाल कार्य के आगे क्या अनुभव करते हो, अच्छी लगती हैं वा स्वयं से ही शर्म आता है? चैलेन्ज और प्रैक्टिकल समान होना चाहिए। नहीं तो चैलेन्ज और प्रैक्टिकल में महान अन्तर होने से सेवाधारी के बजाए क्या टाइटल मिल जावेगा? ऐसे करने वाली आत्मायें अनेक आत्माओं को वन्चित करने के निमित्त बन जातीं, पुण्य आत्मा के बजाए बोझ वाली आत्माएँ बन जाती हैं इस पाप और पुण्य की गहन गति को जानो। पाप की गति श्रेष्ठ भाग्य से वन्चित कर देती। संकल्प द्वारा भी पाप होता है। संकल्प के पाप का भी प्रत्यक्षफल प्राप्त होता है। संकल्प में स्वयं की कमज़ोरी, किसी भी विकार की पाप के खाते में जमा होती ही है। लेकिन अन्य आत्माओं के प्रति संकल्प में भी किसी विकार के वशीभूत वृत्ति है तो यह भी महापाप है किसी अन्य आत्माओं के प्रति व्यर्थ बोल भी पाप के खाते में जमा होता है। ऐसे ही कर्म अर्थात् सम्बन्ध और सम्पर्क द्वारा किसी के प्रति शुभ भावना के बजाए और कोई भी भावना है तो यह भी पाप का खाता जमा होता है क्योंकि यह भी दु:ख देना है। शुभ भावना पुण्य का खाता बढ़ाती है। व्यर्थ भावना वा घृणा की भावना वा ईष्या की भावना पाप का खाता बढ़ाती है इसलिए बाप के बच्चे बने, वर्से के अधिकारी बने अर्थात् पुण्य आत्मा बने यह निश्चय, यह नशा तो बहुत अच्छा। लेकिन नशा और ईर्ष्या मिक्स नहीं करना। बाप के बनने के बाद प्राप्ति अनगिनत है लेकिन पुण्य आत्मा के साथ पाप का बोझ भी सौ गुना के हिसाब से है। इसलिए इतने अलबेले भी मत बनना। बाप को जाना और वर्से को जाना, ब्रह्माकुमार कहलाया - इसलिए अब तो पुण्य ही पुण्य है, पाप तो खत्म हो गया वा सम्पूर्ण बन गये ऐसी बात न सोचना - ब्रह्माकुमार जीवन के नियमों को भी ध्यान में रखो। मर्यादायें सदा सामने रखो। पुण्य और पाप दोनों का ज्ञान बुद्धि में रखो। चैक करो पुण्य आत्मा कहलाते हुए मन्सा-वाचा- कर्मणा कोई पाप तो नहीं किया, कौन सा खाता जमा हुआ ? किसी भी प्रकार की चलन द्वारा बाप वा नॉलेज का नाम बदनाम तो नहीं किया? बाप के पास तो हरेक का खाता स्पष्ट है लेकिन स्वयं के आगे भी स्पष्ट करो। अपने आपको चलाओ मत अर्थात् धोखा मत दो यह तो होता ही है, वह तो सब में हैं! भले सब में हो लेकिन मैं सेफ हूँ ? ऐसी शुभ कामना रखो - तब विश्व सेवाधारी बन सकेंगे। संगठित रूप में एकमत, एकरस स्थिति का अनुभव करा सकेंगे। अब तक भी पाप का खाता जमा होगा तो चुक्तू कब करेंगे? अन्य आत्माओं को पुण्य आत्मा बनाने के निमित्त कैसे बनेंगे? इसलिए अलबेलेपन में भी पाप का खाता बनाना बन्द करो। सदा पुण्य आत्मा भव का वरदान लो। अज्ञानी लोग यह सलोगन कहते - बुरा न सुनो, न देखो, न सोचो - अब बाप कहते व्यर्थ भी न सुनो, न सुनाओ और न सोचो। सदा शुभ भावना से सोचो, शुभ बोल बोलो, व्यर्थ को भी शुभ-भाव से सुनो - जैसे साइन्स के साधन बुरी चीज़ को परिवर्तन कर अच्छा बना देते, रूप परिवर्तन कर देते तो आप सदा शुभचिंतक, सर्व आत्माओं के बोल के भाव को परिवर्तन नहीं कर सकते ? सदा भाव और भावना श्रेष्ठ रखो तो सदा पुण्य आत्मा बन जायेंगे। स्वंय का परिवर्तन करो न कि अन्य के परिवर्तन का सोचो। स्वंय का परिवर्तन ही अन्य का परिवर्तन है। इसमें पहले मैं, ऐसा सोचो - इस मरजीवा बनने में ही मज़ा है। इसी को ही महाबली कहा जाता है। घबराओ नहीं। खुशी से मरो- यह मरना तो जीना ही है, यही सच्चा जीयदान है।" |