पवित्र मन रखो, पवित्र तन रखो... | |||||
Avyakt Baapdada - 06.01.1990 तन की स्वच्छता अर्थात् सदा इस तन को आत्मा का मंदिर समझ उस स्मृति से स्वच्छ रखना।
जितनी मूर्ति श्रेष्ठ होती है उतना ही मंदिर भी श्रेष्ठ होता है ।
तो आप श्रेष्ठ मूर्तियाँ हो या साधारण हो? ब्राह्मण आत्माएं सारे कल्प में नम्बरवन श्रेष्ठ आत्मायें! ब्राह्मणों के आगे देवतायें भी सोने तुल्य है और ब्राह्मण हीरे तुल्य है!
तो आप सभी हीरे की मूर्तियाँ हो। कितनी ऊँची हो गई! इतना अपना स्वमान जान इस शरीर रूपी मंदिर को स्वच्छ रखो।
सदा हो लेकिन स्वच्छ हो। इस विधि से तन की पवित्रता सदा रूहानी खुशबू का अनुभव करायेगी।
ऐसी स्वच्छता, पवित्रता कहाँ तक धारण हुई? देहभान में स्वच्छता नहीं होती लेकिन आत्मा का मंदिर समझने से स्वच्छ रखते हो।
और यह मंदिर भी बाप ने आपको संभालने और चलाने के लिए दिया है ।
इस मंदिर का ट्रस्टी बनाया है । आपने तो तन-मन-धन सब दे दिया ना!
अभी आपका तो नहीं है। मेरा कहेंगे या तेरा कहेंगे? तो ट्रस्टीपन स्वत: ही नष्टोमोहा अर्थात् स्वच्छता और पवित्रता को अपने में लाता है।
मोह से स्वच्छता नहीं, लेकिन बाप ने सेवा दी है -ऐसे समझ तन को स्वच्छ, पवित्र रखते हो ना वा जैसे आता है वैसे चलाते रहते हो?
स्वच्छता भी रूहानियत की निशानी है।
ऐसे ही मन की स्वच्छता या पवित्रता इसकी भी परसेंटेज देखो। सारे दिन में किसी भी प्रकार का अशुद्ध संकल्प मन में चला तो इसको सम्पूर्ण स्वच्छता नहीं कहेंगे । मन के प्रति बापदादा का डायरेक्शन है मन को मेरे में लगाओ वा विश्व-सेवा में लगाओ।
'मनमनाभव' इस मंत्र की सदा स्मृति रहे। इसको कहते है मन की स्वच्छता वा पवित्रता ।
और किसी तरफ भी मन भटकता है तो भटकना अर्थात् अस्वच्छता।
इस विधि से चेक करो कि कितनी परसेन्ट में स्वच्छता धारण हुई? विस्तार तो जानते हो ना!
तीसरी बात दिल की स्वच्छता। इसको भी जानते हो कि सच्चाई ही सफाई है। अपने स्व-उन्नति अर्थ जो भी पुरुषार्थ है जैसा भी पुरुषार्थ है, वह सच्चाई से बाप के आगे रखना।
तो एक - स्वयं के पुरुषार्थ की स्वच्छता।
दूसरा- सेवा करते सच्ची दिल से कहाँ तक सेवा कर रहे है, इसकी स्वच्छता।
अगर कोई भी स्वार्थ से सेवा करते हो तो उसको सच्ची सेवा नहीं कहेंगे।
तो सेवा में भी सच्चाई-सफाई कितनी है ' कोई-कोई सोचते कि सेवा तो करनी ही पड़ेगी।
जैसे लौकिक गवर्नमेंट की ड्यूटी है, चाहे सच्ची दिल से करो, चाहे मजबूरी से करो, चाहे अलबेले बनके करो, करनी ही पड़ती है ना।
कैसे भी 8 घण्टे पास करने ही है। ऐसे इस आलमाइटी गवर्मेन्ट द्वारा ड्यूटी मिली हुई है ऐसे समझ के सेवा करना, इसको सच्ची सेवा नहीं कहा जाता।
ड्यूटी सिर्फ नहीं है लेकिन ब्राह्मण-आत्माओं का निजी संस्कार ही 'सेवा' है ।
तो संस्कार स्वतः ही सच्ची सेवा के बिना रहने नहीं देते।
तो ऐसे चेक करो कि सच्ची दिल से अर्थात् ब्राह्मण-जीवन के स्वत: संस्कार से कितनी परसेन्ट की सेवा की
इतने मेले कर लिये, इतने कोर्स करा लिये लेकिन स्वच्छता और पवित्रता की परसेंटेज कितनी रही?
ड्यूटी नहीं है लेकिन निजी संस्कार है, स्व-धर्म है. स्व-कर्म है।
चौथी बात सम्बन्ध में स्वच्छता। इसका सार रूप में विशेष यह चेक करो कि संतुष्टता रूपी स्वच्छता कितने परसेंट में है?
सारे दिन में भिन्न-भिन्न वैरायटी आत्माओं से सम्बन्ध होता है। तीन प्रकार के सम्बन्ध में आते हो।
एक ब्राह्मण परिवार के, दूसरा आये हुये जिज्ञासू आत्माओं के, तीसरा लौकिक परिवार के।
तीनों ही सम्बन्ध में सारे दिन में स्वयं की संतुष्टता और सम्बन्ध में आने वाली दूसरी आत्माओं की संतुष्टता की परसेंटेज कितनी रही?
संतुष्टता की निशानी - स्वयं भी मन से हल्के और खुश रहेंगे और दूसरे भी खुश होंगे।
असंतुष्टता की निशानी स्वयं भी मन से भारी होंगे।
अगर सच्चे पुरुषार्थी है तो बार-बार न चाहते भी ये संकल्प आता रहेगा कि ऐसे नहीं बोलते, ऐसे नहीं करते तो अच्छा।
यह बोलते थे, यह करते थे - यह आता रहेगा। अलबेले पुरुषार्थी को यह भी नहीं आयेगा।
तो यह बोझ खुश रहने नहीं देगा, हल्का रहने नहीं देगा।
सम्बन्ध की स्वच्छता अर्थात् संतुष्टता। यही सम्बन्ध की सच्चाई और सफाई है । |
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