09.11.1969
"...बन में वैराग्य वृत्ति वाले जाते है।
तो बेहद की वैराग्य बुद्धि भी चाहिए।
फिर इससे सारी बातें आ जायेगी।
और आप सभी को कॉपी करने के लिए यहाँ आयेंगे।
सभी साचेंगे यह कैसे ऐसे बने हैं।
सभी के मुख से निकलेगा कि मधुबन तो मधुबन ही है।
तो यह दो विशेषतायें धारण करनी हैं - मधुरता और बेहद की वैराग्य वृत्ति।
दूसरे शब्दों में कहते हैं स्नेह और शक्ति।..."
25.01.1970
"...शुरू में आये उन्हों को वैराग्य दिलाया जाता था | आजकाल की परिस्थितियाँ ही वैराग्य दिलाती है |
- आप लोग की धरनी बनने में देरी नहीं है |
- सिर्फ़ ज्ञान के निश्चय का पक्का बीज डालेंगे और फल तैयार हो जायेगा |..."
26.01.1970
"... जितना स्नेही होंगे उतना बेहद का वैराग्य होगा |
यह है मधुबन का अर्थ |
- अति स्नेही और इतना ही बेहद की वैराग्य वृत्ति |
- ...एक स्नेह से दूसरा बेहद की वैराग्य वृत्ति से कोई भी परिस्थितियों को सहज ही सामना करेंगे | ..."
26.01.1970
"... अब समय बहुत थोडा रह गया है |
समय भी बेहद की वैराग्य वृत्ति को उत्पन्न करता है |
- लेकिन समय के पहले जो अपनी मेहनत से करेंगे तो उनका फल ज्यादा मिलेगा |
- जो खुद नहीं कर सकेंगे उन्हों के लिए समय हेल्प करेगा |
- लेकिन वह समय की बलिहारी होगी |
25.06.1970
"...प्रवृत्ति में रहते वैराग्य वृत्ति में रहना है, यह भूल जाता है ।
आधी बात याद रहती है, आधी बात छोड़ देते हैं ।
बहुत सूक्ष्म संकल्पों के रूप में पहले सुस्ती प्रवेश करती है ।
इसके बाद फिर बड़ा रूप लेती है ।..."
02.07.1970
"...अभी यही तीव्र पुरुषार्थ करना है।
इस पुरानी दुनिया से बहुत सहज बेहद का वैराग लाने का साधन क्या है? (कोई-कोई ने बताया)
- जिन्हों ने जो बात सुनाई वह सहज समझ सुनाई ना।
- अगर सहज ही है तो बेहद के वैरागी तो सहज बन गए।
- अगर अपने से ही न लगाया तो दूसरों से कैसे लगायेंगे।
- बेहद का वैराग्य कहते हैं।
- जो वैरागी होते हैं वह कहाँ निवास करते हैं?
- बहुत सरल युक्ति बताते हैं कि बेहद का वैरागी बनना है तो सदैव अपने को मधुबन निवासी समझो।
- लेकिन मधुबन को खाली नहीं देखना।
- मधुबन है ही मधुसूदन के साथ।
- तो मधुबन याद आने से बापदादा, दैवी परिवार, त्याग-तपस्या और सेवा भी याद आ जाते हैं।
- मधुबन तपस्या भूमि भी है।
- मधुबन एक सेकंड में सभी से त्याग कराता है।
- यहाँ बेहद के वैरागी बन गए हो ना।
- तो मधुबन है ही त्यागी वैरागी बनाने वाला।
- जब बेहद के वैरागी बनेंगे तब बेहद की सर्विस कर सकेंगे।
- कहाँ भी लगाव न हो।
- अपने आप से भी लगाव नहीं लगाना है तो औरों की तो बात ही छोड़ो।..."
27.07.1970
"...मधुबन में रहते मधुरता और बेहद की वैराग्यवृत्ति को धारण करना है ।
यह है मधुबन का मुख्य लक्षण ।
इसको ही मधुबन कहा जाता है ।
- बाहर रहते भी अगर यह लक्ष्य है तो गोया मधुबन निवासी हैं ।..."
11.03.1971
"...अभी तक इन पुरानी आदतों से, पुराने संस्कारों से, पुरानी बातों से, पुरानी दुनियॉं से, पुरानी देह के सम्बन्धियों से वैराग्य नहीं हुआ है।
कहाँ भी जाना होता है तो जिन चीजों को छोड़ना होता है उनसे पीठ करनी होती है।
- तो अभी पीठ करना नहीं आता है।
- एक तो पीठ नहीं करते हो, दूसरा जो साधन मिलता है उसकी पीठ नहीं करते हो।
- सीता और रावण का खिलौना देखा है ना।
- रावण के तरफ सीता क्या करती है?
- पीठ करती है ना।
- अगर पीठ कर दिया तो सहज ही उनके आकर्षण से बच जायेंगे।
- लेकिन पीठ नहीं करते हो।
- जैसे श्मशान में जब नज़दीक पहुंचते हैं तो पैर इस तरफ और मुँह उस तरफ करते हैं ना।
- तो यह भी पीठ करना नहीं आता है।
- फिर मुँह उस तरफ कर लेते हैं, इसलिए आकर्षण में कहाँ फँस जाते हैं।
- तो दोनों ही प्रकार की पीठ करने नहीं आती है।
- माया बहुत आकर्षण करने के रूप रचती है।
- इसलिए न चाहते हुए भी पीठ करने के बजाय आकर्षण में आ जाते हैं।
- उसी आकर्षण में पुरूषार्थ को भूल, आगे बढ़ने को भूल रूक भी जाते हैं; तो क्या होगा?
- मंजिल पर पहुँचने में देरी हो जायेगी।..."
28.07.1971
"...मधुबन-निवासी अर्थात् मधुरता और बेहद के वैरागी।
जो बेहद के वैरागी होंगे वह रूह को ही देखेंगे।
- तो चलन में मधुरता और मन्सा में बेहद की वैराग्य वृत्ति हो।
- दोनों स्मृति रहें तो ‘पास विद् ऑनर्स’ नहीं होंगे?
- यह दोनों क्वालीफिकेशन अपने में धारण करके निकलना।..."
15.09.1971
"...निरहंकारी बनते ज़रूर हो लेकिन निराकार होकर निरहंकारी नहीं बनते हो।
युक्तियों से अपने को अल्प समय के लिए निरहंकारी बनाते हो, लेकिन निरन्तर निराकारी स्थिति में स्थित होकर साकार में आकर यह कार्य कर रहा हूँ - यह स्मृति वा अभ्यास नेचरल वा नेचर न बनने के कारण निरन्तर निरहंकारी स्थिति में स्थित नहीं हो पाते हैं।
- जैसे कोई कहाँ से आता है, कोई कहाँ से आता है, उसको सदा यह स्मृति रहती है कि मैं यहाँ से आया हूँ।
- ऐसे यह स्मृति सदैव रहे कि मैं निराकार से साकार में आकर यह कार्य कर रही हूँ।
- बीच-बीच में हर कर्म करते हुए इस स्थिति का अभ्यास करते रहो।
- तो निराकार हो साकार में आने से निरहंकारी और निर्विकारी ज़रूर बन जायेंगे।
- यह अभ्यास अल्पकाल के लिए करते भी हो, लेकिन अब इसी को सदाकाल में ट्रॉन्सफर करो।
- यूं वैरागी भी बने हो, वैराग्य वृत्ति है, लेकिन सदाकाल के लिए और बेहद के वैरागी बनो।
- नहीं तो कोई हद की वस्तु वैराग्य वृत्ति से हटाने के लिए निमित्त बन जाती है। ..."
09.10.1971
"... बेहद के वैरागी हो तो बेहद वैराग्य की रेखायें सूरत से दिखाई देनी चाहिए।
- आलमाइटी अथॉरिटी द्वारा निमित्त बने हुए हो तो अथॉरिटी का रूप दिखाई देना चाहिए।..."
16.07.1972
"...जैसे आत्मा-ज्ञानी महात्माएं आदि भी द्वापर आदि में अपने सतोप्रधान स्थिति वाले थे तो उन्हों में भी रूहानी आकर्षण तो था ना, जो अपने तरफ आकर्षित करके औरों को भी इस दुनिया से अल्पकाल के लिये वैराग्य तो दिला देते थे ना।
जब उलटे ज्ञान वालों में भी इतनी अट्रैक्शन थी, तो जो यथार्थ और श्रेष्ठ ज्ञान-स्वरूप हैं उन्हों में भी रूहानी आकर्षण वा अट्रैक्शन रहेगी।
शारीरिक ब्यूटी नजदीक वा सामने आने से आकर्षण करेगी।
रूहानी आकर्षण दूर बैठे भी किसी आत्मा को अपने तरफ आकर्षित करती।
इतनी अट्रैक्शन अर्थात् रूहानियत अपने आप में अनुभव करते हो?
ऐसे ही फिर एक्युरेट भी हो।
- एक्युरेट किसमें?
- जो मन्सा अर्थात् संकल्प के लिये भी श्रीमत मिली हुई है - वाणी के लिये भी जो श्रीमत मिली हुई है और कर्म के लिये भी जो श्रीमत मिली हुई है इन सभी बातों में एक्युरेट।
- मन्सा भी अनएक्युरेट न हो।
- जो नियम हैं, मर्यादा हैं, जो डायरेक्शन हैं उन सभी में एक्युरेट और एक्टिव। ..."
19.07.1972
"...जो फ्यूचर में महाविनाश होने वाला है और नई दुनिया आने वाली है, वह भी आपके फीचर्स से दिखाई दे।
- देखेंगे तो फिर वैराग्य आटोमेटिकली आ जावेगा।
- एक तरफ वैराग्य, दूसरे तरफ अपना भविष्य बनाने का उमंग आवेगा।
- जैसे कहते हो - एक आंख में मुक्ति, एक में जीवनमुक्ति।
- तो विनाश मुक्ति का गेट और स्थापना जीवनमुक्ति का गेट है; तो दोनों आंखों से यह दिखाई दें।
- यह पुरानी दुनिया जाने वाली है -- आपके नैन और मस्तक यह बोलें। ..."
02.08.1972
"...इस पुरानी दुनिया से बेहद का वैराग दिलाना चाहते हो तो भाषण में जो प्वाईंटस देते हो वह देते हुये वैराग्य-वृति के अनुभव में ले आओ।
- वह फील करें कि सचमुच यह सृष्टि जाने वाली है, इससे तो दिल लगाना व्यर्थ है।
- तो ज़रूर प्रैक्टिकल करेंगे।
- उन पंडितों आदि के बोलने में भी पावर होती है।
- एक सेकेण्ड में खुशी दिला देते, एक सेकेण्ड में रूला देते।
- तब कहते हैं इनका भाषण इफेक्ट करने वाला है।
- सारी सभा को हंसाते भी हैं, सभी को श्मशानी वैराग्य में लाते भी हैं ना।..."
19.09.1972
"...मधुबन-निवासियों की यह विशेषता है ना-मधुरमूर्त और बेहद के वैराग्यमूर्त।
- एक तरफ मधुरता, दूसरे तरफ इतना ही फिर बेहद की वैराग्यवृति।
- वैराग्यवृति से सिर्फ गम्भीरमूर्त रहेंगे?
- नहीं, वास्तविक गम्भीरता रमणीकता में समाई हुई है।
- वह तो अज्ञानी लोगों का गम्भीर रूप होगा तो बिल्कुल ही गम्भीर, रमणीकता का नाम-निशान नहीं होगा।
- लेकिन यथार्थ गम्भीरता का गुण रमणीकता के गुण सम्पन्न है।
- जैसे लोगों को भी समझाते हो कि हम आत्मा शान्तस्वरूप हैं लेकिन सिर्फ शान्तस्वरूप नहीं है लेकिन उस शान्तस्वरूप में आनन्द, प्रेम, ज्ञान सभी समाया हुआ है।
- तो ऐसे बेहद के वैराग्यमूर्त वाले और साथ-साथ मधुरता भी, यही विशेषता मधुबन निवासियों की है।
- तो जो बेहद के वैराग्यवृति में रहने वाले हैं वह कब घबराते हैं क्या?
- डगमग हो सकते हैं?
- हिल सकते हैं?
- कितना भी जोर से हिलावें लेकिन बेहद के वैरागवृति वाले ‘नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप’ होते हैं।
- तो नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप हो?
- कि थोड़ा-बहुत देख कर कुछ अंश मात्र भी स्नेह कहो वा मोह कहो, लेकिन स्नेह का स्वरूप क्या होता है, इसको तो जानते हो ना?..."
23.11.1972
"...कोई भी दुर्गति की रीति-रस्म चाहे स्थूल, चाहे सूक्ष्म है, उनसे वैराग्य आना चाहिए।
- जैसे भक्ति के स्थूल साधनों से वैराग्य आ गया नॉलेज के आधार पर, वैसे इन भक्ति-मार्ग के रस्म से भी ऐसे वैराग्य आना चाहिए।
- इस वैराग के बाद ही याद की स्पीड बढ़ सकेगी।
- नहीं तो कितना भी पुरूषार्थ करो।
- जैसे भक्त लोग कितना भी पुरूषार्थ करते हैं भगवान की याद में बैठने का, बैठ सकते हैं?
- कितना भी अपने को मारते हैं, कष्ट करते हैं, भिन्न रीति से समय देते हैं, सम्पत्ति लगाते हैं, फिर भी हो सकता है?
- यहां भी अगर दुर्गति मार्ग की रीति-रस्म है तो याद की यात्रा की स्पीड़ बढ़ नहीं सकती, अटूट याद हो नहीं सकती।
- घंटिया बजाना आदि छूट गया कि स्थूल रूप में छोड़ सूक्ष्म रूप ले लिया?
- भक्तों को तो खूब चैलेंज करते हो कि टाइम वेस्ट, मनी वेस्ट करते हो।
- अपने को चेक करो - कहां तक ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बने हो?
- ‘ज्ञानी तू आत्मा’ का अर्थ ही है हर संस्कार, हर बोल ज्ञान सहित हो। ..."
|