कर्मातीत अवस्था - Year 1969
1.00 | through trans-messanger
शब्द 'कर्मातीत' का विश्लेषण एवं संदर्भ:
आपके द्वारा दिए गए पाठ में 'कर्मातीत' शब्द एक महत्वपूर्ण संदर्भ में आया है। इसका तात्पर्य है, ऐसी अवस्था जिसमें आत्मा कर्म करती है लेकिन कर्मों का बंधन नहीं होता। इस संदर्भ में बाबा ने बच्चों को यह सन्देश दिया कि उन्हें ऐसा पुरुषार्थ करना है जिससे वे कर्मातीत अवस्था को सहज ही प्राप्त कर सकें।
पाठ में कर्मातीत शब्द का उल्लेख निम्न पंक्ति में है:
"कर्मातीत अवस्था सहज ही बन जायेगी या कोई कर्मबन्धन उस समय अटक डालेगा?"
यहाँ बाबा यह समझा रहे हैं कि आत्मा को ऐसी स्थिति में पहुँचना चाहिए जहाँ कर्म तो हों, लेकिन उनका बन्धन न हो।
तारीख: यह पाठ आपने 18 जनवरी 1969 को प्रस्तुत किया।
इस पाठ का मुख्य संदेश यही है कि बच्चों को अपने पुराने संस्कारों से मुक्त होकर ऐसी स्थिति प्राप्त करनी है जहाँ वे कर्म करते हुए भी उनसे बंधित न हों। बाबा ने इसे बीजरूप अवस्था से भी जोड़ा है।
पाठ में यह शब्द निम्न पंक्ति में आया है:
"...इसलिए एकरस कर्मातीत स्थिति का जो नग है, वह कम है।"
यहाँ बाबा यह समझा रहे हैं कि बच्चों के जीवन में कर्मातीत अवस्था की जो एकरसता (सतत अवस्था) होनी चाहिए, वह कई बच्चों में कम है। इस एकरस कर्मातीत स्थिति को प्राप्त करने के लिए बाबा विशेष रूप से बच्चों को सजाने (अवगुणों को हटाकर गुणों से भरने) का कार्य कर रहे हैं।
यह पाठ आपने 18 जनवरी 1969 को प्रस्तुत किया।
इस पाठ में बाबा बच्चों को अव्यक्त स्थिति में स्थित रहते हुए व्यक्त भाव में कर्म करने का पुरुषार्थ करने का संदेश दे रहे हैं, ताकि वे कर्मातीत अवस्था को सहजता से प्राप्त कर सकें। बाबा के अनुसार, यह अवस्था ही उन्हें भविष्य के लिए तैयार करेगी।
3.00 | 18.01.1969
आपके द्वारा दिए गए पाठ में 'कर्मातीत' शब्द का दो बार उल्लेख हुआ है, और इसका उपयोग एक महत्वपूर्ण अनुभव को व्यक्त करने के लिए किया गया है।
प्रथम संदर्भ:
"...कर्मातीत न्यारी अवस्था जो बाबा ने पहले मुरली भी चलाई कि कैसे भाँ भाँ होकर सन्नाटा हो जाता है। वैसे ही बिल्कुल डेड साइलेन्स का अनुभव हो रहा था और देख रहा था कि कैसे एक-एक अंग से आत्मा अपनी शक्ति छोड़ती जा रही है।"
यहाँ कर्मातीत न्यारी अवस्था का अनुभव बताया गया है, जिसमें आत्मा शरीर से अलग होकर अपनी शक्ति छोड़ रही है। यह वह स्थिति है जिसमें आत्मा पूरी तरह से शरीर और कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाती है।
द्वितीय संदर्भ:
"...तो कर्मातीत अवस्था की मृत्यु क्या चीज है वह अनुभव हो रहा था। यह है मेरा अनुभव।"
इस पंक्ति में कर्मातीत अवस्था की मृत्यु का अनुभव साझा किया गया है, जिसमें आत्मा अपनी देह से पूर्णतः न्यारी होकर परम शांति की स्थिति में पहुँच जाती है। बाबा ने इस अनुभव को एक उदाहरण के रूप में समझाया कि कर्मातीत अवस्था कैसी होती है और इसे किस प्रकार महसूस किया जा सकता है।
यह पाठ आपने 18 जनवरी 1969 को प्रस्तुत किया।
इस पाठ में बाबा ने बच्चों को यह समझाया कि कर्मातीत अवस्था वह स्थिति है, जिसमें आत्मा सभी प्रकार के कर्म बंधनों से मुक्त होकर सन्नाटा और शांति की स्थिति में पहुँच जाती है। यह अवस्था मृत्यु के समय भी आत्मा को सहज रूप से प्राप्त होनी चाहिए, ताकि कोई कर्म या बंधन उसे खींच न सके।
4.00 | 18.01.1969
"...अब आप भी इतना ही शीघ्र कर्मातीत स्थिति में स्थित रहने का पुरुषार्थ करो। जैसे यहाँ हर समय बापदादा के साथ व्यतीत करते थे वैसे ही हर कर्म में, हर समय अपने को साथ ही रखा करो।"
यहाँ बाबा ने बच्चों को यह संदेश दिया है कि उन्हें शीघ्र कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। यह स्थिति वह है जिसमें आत्मा हर कर्म करती है, लेकिन कर्मों से बंधित नहीं होती। बाबा ने यह भी समझाया कि जैसे वे हर समय बापदादा के साथ रहते थे, वैसे ही बच्चों को भी हर समय अपने को बापदादा के साथ अनुभव करते हुए कर्म करना चाहिए।
यह पाठ आपने 18 जनवरी 1969 को प्रस्तुत किया।
इस पाठ में बाबा ने कर्मातीत स्थिति को प्राप्त करने के लिए निरंतर पुरुषार्थ करने का संदेश दिया है। साथ ही, उन्होंने इस स्थिति को प्राप्त करने का तरीका भी समझाया कि हर कर्म में बापदादा के साथ रहने का अनुभव करते हुए सरलता और समर्पण के साथ कार्य करें, जिससे कर्म बंधन से मुक्त हुआ जा सके।
5.00 | 18 जनवरी 1969
बाबा ने इसे अन्तिम कर्मातीत अवस्था के संदर्भ में उपयोग किया है, जो आत्मा की ऐसी स्थिति है जिसमें वह सभी कर्मों से पूरी तरह मुक्त हो जाती है।
"...अगर सभी साथ होते तो जो अन्तिम कर्मातीत अवस्था का अनुभव था वह ड्रामा प्रमाण और होता।"
इस पंक्ति में बाबा ने स्पष्ट किया कि अन्तिम कर्मातीत अवस्था का अनुभव होना ड्रामा के अनुसार था, और यदि सभी बच्चे उस समय उनके साथ होते, तो यह अनुभव अधिक स्पष्ट रूप में प्रमाणित होता। यह अवस्था वह है जिसमें आत्मा सभी बंधनों और कर्मों से मुक्त होकर पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अनुभव करती है।
यह पाठ आपने 18 जनवरी 1969 को प्रस्तुत किया।
इस पाठ में बाबा ने बच्चों को यह समझाया कि कर्मातीत अवस्था को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए, क्योंकि यही वह अंतिम स्थिति है जिसमें आत्मा सभी प्रकार के अहंकार, माया और कर्म बंधनों से मुक्त हो जाती है। बाबा ने यह भी संकेत दिया कि यह अवस्था ड्रामा के अनुसार ही हर आत्मा को प्राप्त होगी, और इसके लिए बच्चों को निरहंकारी और निमित्त भावना से कर्म करते रहना चाहिए।
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6.00 | 20 मार्च 1969
"...साकार तन जो था वह सम्पूर्ण कर्मातीत स्थिति नहीं थी। उसकी भेंट में बताओ। उन जैसा तो बनना ही है।"
यहाँ बाबा ने स्पष्ट किया है कि साकार में देखे गए ब्रह्मा बाबा की स्थिति पूर्ण रूप से कर्मातीत नहीं थी, लेकिन बच्चों को अब उस अंतिम अवस्था के समान बनने का पुरुषार्थ करना है। इस वाक्य में बाबा ने यह भी संकेत दिया कि बच्चों को हर गुण और हर कर्म को ब्रह्मा बाबा की स्थिति से तुलना करके देखना चाहिए ताकि वे भी कर्मातीत स्थिति को प्राप्त कर सकें।
यह पाठ 20 मार्च 1969 का है।
इस पाठ में बाबा ने बच्चों को यह सिखाया कि उन्हें कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए हर गुण और हर कर्म को ब्रह्मा बाबा की अंतिम स्थिति के साथ तुलना करके देखना चाहिए। बाबा ने यह भी बताया कि साकार में दिखाया गया उदाहरण बच्चों के लिए एक आदर्श है, जिसे अपनाकर वे स्वयं भी पूर्ण और कर्मातीत बन सकते हैं। समय कम है, इसलिए शीघ्र पुरुषार्थ करने का निर्देश दिया गया है।
7.00 | 26 June 1969
"...जैसे अशरीरी, कर्मातीत बन कर के क्या किया? एक सेकेण्ड में पंछी बन उड़ गया। साकार शरीर से एक सेकेण्ड में उड़े ना।"
इस पंक्ति में बाबा ने साकार शरीर को त्यागने और कर्मातीत अवस्था में जाने के अनुभव को समझाया है। यहाँ कर्मातीत का तात्पर्य उस स्थिति से है जिसमें आत्मा सभी कर्मों से मुक्त होकर एक सेकेण्ड में शरीर को छोड़कर अशरीरी अवस्था में स्थित हो जाती है। यह बच्चों को यह याद दिलाने के लिए कहा गया कि अब उनका लक्ष्य भी ऐसी ही कर्मातीत अवस्था को प्राप्त करना होना चाहिए।
यह पाठ आपने 26 June 1969 को प्रस्तुत किया, और इसमें उल्लेखित मुरली की तिथि नहीं दी गई है।
इस पाठ में बाबा ने बच्चों को कर्मातीत अवस्था का महत्व समझाते हुए यह सिखाया कि उन्हें भी साकार तन के कर्म और स्थितियों के आधार पर अपनी स्थिति को परखना चाहिए। साथ ही, यह भी बताया कि पढ़ाई अब समाप्त हो चुकी है और जो शेष कार्य है वह बच्चों को साथ ले जाने का है, जिसे प्राप्त करने के लिए अशरीरी और कर्मातीत बनना अनिवार्य है।
8.00 | 28 September 1969
"...कथनी करनी और रहनी तीनों ही एक हो तब कर्मातीत अवस्था में जल्दी से जल्दी पहुँच सकेंगे।"
इस पंक्ति में बाबा ने स्पष्ट किया है कि कर्मातीत अवस्था में पहुँचने के लिए आवश्यक है कि आत्मा की कथनी (जो कहती है), करनी (जो करती है) और रहनी (जो जीवन में अपनाती है) एकरूप हो। जब कथनी, करनी और रहनी में कोई अंतर नहीं रहेगा, तब आत्मा कर्मातीत स्थिति को सहजता से प्राप्त कर सकेगी।
यह पाठ आपने 28 September 1969 को प्रस्तुत किया।
इस पाठ में बाबा ने मुख्य रूप से यह सिखाया कि कर्मातीत अवस्था तक पहुँचने के लिए आत्मा को अपनी हर सोच, हर कर्म और हर आचरण में एक समानता लानी होगी। यह अवस्था केवल कथनी से नहीं, बल्कि करनी और रहनी को भी एक जैसा बनाने से प्राप्त होगी। बाबा ने इस शिक्षा को बच्चों के लिए उनके कोर्स का मुख्य सार बताया।
9.00 | 03 October 1969
"...इसलिए ही कर्मातीत अवस्था वा अव्यक्त स्थिति सदा एकरस नहीं रहती है। क्योंकि मन भिन्न-भिन्न रस में है तो स्थिति में भिन्न-भिन्न है। एक ही रस में रहे तो एक ही स्थिति रहे।"
इस पंक्ति में बाबा ने बताया है कि कर्मातीत अवस्था और अव्यक्त स्थिति तभी एकरस रह सकती है जब आत्मा का मन केवल एक ही रस में, अर्थात् बापदादा की स्मृति और श्रीमत में स्थित हो। यदि मन भिन्न-भिन्न रस (संकल्प-विकल्प, व्यर्थ विचार) में चला जाता है, तो स्थिति भी बदल जाती है और कर्मातीत अवस्था स्थिर नहीं रहती।
यह पाठ आपने 03 October 1969 को प्रस्तुत किया।
इस पाठ में बाबा ने स्पष्ट किया कि कर्मातीत अवस्था को स्थिर रखने के लिए मन का सम्पूर्ण समर्पण आवश्यक है। जब मन में केवल बापदादा की स्मृति, उनके गुण और श्रीमत रहती है, तब ही आत्मा एकरस स्थिति में रहकर अव्यक्त और कर्मातीत अवस्था में स्थित हो सकती है। बाबा ने बच्चों को यह भी याद दिलाया कि उन्हें श्रीमत के बिना किसी भी प्रकार का संकल्प, विचार, या कर्म नहीं करना चाहिए, क्योंकि यही सम्पूर्ण समर्पण और कर्मातीत स्थिति की पहचान है।
10.00 | स्थितप्रज्ञ" का उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता में ...
"स्थितप्रज्ञ" का उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में हुआ है। स्थितप्रज्ञ वह व्यक्ति होता है जो आत्मबोध के स्थिर ज्ञान में स्थित हो गया हो और जिसके मन में स्थिरता तथा शांति बनी रहती है, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों। गीता में इसे एक आदर्श योगी, ज्ञानी, और निष्काम कर्मयोगी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
श्रीभगवानुवाच:
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥
अर्थ:
श्रीकृष्ण कहते हैं— जब कोई व्यक्ति मन में उत्पन्न होने वाली समस्त इच्छाओं का त्याग कर देता है और आत्मा में ही संतुष्ट हो जाता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
गीता में स्थितप्रज्ञ का आदर्श यह दर्शाता है कि एक व्यक्ति कैसे आत्म-ज्ञान और योग के माध्यम से मन की चंचलता से मुक्त होकर पूर्ण शांति और संतोष प्राप्त कर सकता है। यह निष्काम कर्मयोग और भक्ति योग का आधार भी है।
यदि आप इन श्लोकों की विस्तृत व्याख्या चाहते हैं, तो मैं वह भी प्रस्तुत कर सकता हूँ।