कर्मातीत (Karmateet) का अर्थ है वह अवस्था जिसमें व्यक्ति सभी प्रकार के कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाता है। इसे आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह एक ऐसी स्थिति है जब आत्मा पूरी तरह से पवित्र और निर्विकार हो जाती है, और किसी भी कर्म के परिणामों से अप्रभावित रहती है।
शब्दार्थ:

आध्यात्मिक संदर्भ में:
कर्मातीत अवस्था को प्राप्त करना आत्मा का अंतिम लक्ष्य माना जाता है। श्री कृष्ण ने गीता में इसे 'स्थिरप्रज्ञ' की अवस्था कहा है, जहाँ आत्मा हर स्थिति में शांत, स्थिर और निर्लेप रहती है। यह अवस्था तभी संभव होती है जब व्यक्ति ज्ञानी, निरहंकारी और संतुष्ट हो जाता है।
उदाहरण:

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year-1969

"कर्मातीत" स्थिति का विश्लेषण (तिथि अनुसार संदर्भ सहित)

18-01-1969:
इस दिव्य संदेश में "कर्मातीत" अवस्था के लिए बाबा द्वारा बच्चों को सटीक दिशा-निर्देश दिए गए हैं। विशेष रूप से, "अन्त में तुम्हारा यह व्यक्त शरीर भी बिल्कुल स्थिर हो जायेगा... कोई भी हलचल न मन में, न तन में रहेगी।" इस संदर्भ में बाबा ने यह भी कहा कि जब अन्त समय आएगा, तो पुराना हिसाब-किताब चुक्तू होकर शरीर का आकर्षण समाप्त हो जाएगा। इस अवस्था को ही "देही अभिमानी" कहा गया है।
संदर्भ: "अभी तो पुराना हिसाब-किताब होने के कारण शरीर अपनी तरफ खींचता है, लेकिन अन्त में बिल्कुल स्थिर, शान्त हो जायेगा।"


विशेष दृश्यकर्मातीत अवस्था का अनुभव:
बाबा ने बच्चों को एक दृश्य दिखाया, जिसमें सभी शक्तियाँ और पाण्डव दल आग के गोले समान तेजस्वी रूप में स्थित थे। यह अवस्था स्पष्ट करती है कि अन्त समय में "कर्मातीत" स्थिति में पहुँचने के लिए बच्चों को आत्मा की शक्तियों को जागृत करना आवश्यक है।
संदर्भ: "सारी शक्तियाँ आग के गोले समान तेजस्वी रूप में स्थित थीं।"


दिव्य सन्देश में "कर्मभोग" और "योगबल" की चर्चा:
बाबा ने अपने अन्तिम समय के अनुभव को साझा करते हुए बताया कि उस क्षण "कर्मभोग और योगबल" के बीच युद्ध चल रहा था। योगबल ने पूर्ण विजय प्राप्त कर ली, जिससे स्पष्ट हुआ कि "कर्मातीत" स्थिति में पहुँचने का माध्यम केवल योगबल ही है।
संदर्भ: "कुछ समय बाद कर्मभोग (दर्द) तो बिल्कुल निर्बल हो गया... योगबल ने कर्मभोग पर जीत पा ली।"


"कर्मातीत" मृत्यु का अनुभव:
बाबा ने अपने अनुभव में बच्चों को बताया कि अन्तिम समय में कैसे शरीर से आत्मा निकलकर कर्मातीत अवस्था में स्थित हो जाती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जब आत्मा शरीर छोड़ती है, तो वह स्थिति पूर्ण शान्ति और स्थिरता की होती है।
संदर्भ: "कर्मातीत न्यारी अवस्था... जैसे भाँ भाँ होकर सन्नाटा हो जाता है। वैसे ही बिल्कुल डेड साइलेन्स का अनुभव हो रहा था।"


"कर्मातीत" बनने का पुरुषार्थ:
बाबा ने बच्चों को यह संदेश दिया कि "देही अभिमानी" बनने का निरंतर पुरुषार्थ करो। उन्होंने कहा कि जितना ध्यान सेवा पर है, उतना ही ध्यान इस मुख्य बात पर भी रहे कि अन्त में सभी को "कर्मातीत" अवस्था में पहुँचना है।
संदर्भ: "अभी देही अभिमानी बनने का पुरुषार्थ करो... कर्मातीत अवस्था सहज ही बन जायेगी या कोई कर्मबन्धन उस समय अटक डालेगा?"


निष्कर्ष:

इस दिव्य संदेश में बाबा ने "कर्मातीत" अवस्था की संपूर्ण प्रक्रिया को विस्तार से समझाया। "कर्मातीत" बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है योगबल, जो अन्तिम समय में आत्मा को शरीर और कर्मभोग से ऊपर उठाकर देही-अभिमानी स्थिति में स्थित करता है। बाबा का यह संदेश बच्चों को स्वयं की चेकिंग करने और पूर्ण पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करता है ताकि वे अन्त समय में सहज रूप से "कर्मातीत" बन सकें।


यहाँ दी गई अव्यक्त बापदादा मुरली दिनांक 21-01-69 से "कर्मातीत" की स्थिति से संबंधित संदर्भों का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ:
"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ
"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ है वह अवस्था जिसमें आत्मा कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाती है। यह स्थिति एक ऐसे आत्मिक स्वरूप को दर्शाती है, जो किसी भी प्रकार की कर्म-संस्कारों की उलझन में नहीं आता।
मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति का संदर्भ

अंतिम अवस्था में याद की यात्रा पर बल:
पाठ में कहा गया है:
"अब तो निरन्तर याद की यात्रा और जो शिक्षा मिली है उसे प्रैक्टिकल लाइफ में धारण करने का सबूत देना है।"

  1. यह वाक्य दर्शाता है कि कर्मातीत बनने का अंतिम साधन निरंतर याद की यात्रा और ज्ञान की धारण है।
  2. डगमग होने का दान:
    "डगमगहोने का दान देना है। "
    यह वाक्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि कर्मातीत स्थिति वही आत्मा प्राप्त कर सकती है, जो हर परिस्थिति में स्थिर, अडोल और अचल रह सके। यह अवस्था केवल तब आती है जब आत्मा किसी भी परिस्थिति में अपने निश्चय को नहीं छोड़ती।

विश्लेषण का निष्कर्ष:
पाठ में बार-बार "अटल", "अडोल", "निश्चय बुद्धि" और "डगमग न होने" की स्थिति का उल्लेख किया गया है। यह सभी गुण कर्मातीत स्थिति की ओर संकेत करते हैं। ब्रह्मा बाबा ने अपने अनुभव से यह सिद्ध किया कि अव्यक्त अवस्था में रहते हुए भी, निरंतर देही-अभिमानी स्थिति में स्थित होकर ही कर्मातीत बना जा सकता है।
संदर्भ तिथि:
यह पूरा सन्देश 21-01-1969 का है, जब अव्यक्त बापदादा ने बच्चों को पहली बार ब्रह्मा बाबा के साकार छोड़ने के बाद सन्देश दिया। इसी दिन बच्चों को "अटल" और "अखण्ड" की सौगात भी दी गई, जो कर्मातीत स्थिति की ओर संकेत करती है।


क्या आप इस पाठ के आधार पर कुछ और गहराई से विश्लेषण चाहते हैं?
यहाँ दी गई अव्यक्त बापदादा मुरली दिनांक 22-01-69, 23-01-69, एवं 25-01-69 से "कर्मातीत" स्थिति के संदर्भ में विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:
"कर्मातीत" स्थिति का तात्पर्य वह अवस्था है जिसमें आत्मा कर्मों के बंधनों से मुक्त होकर संपूर्ण निर्विकारी, अडोल एवं अव्यक्त बन जाती है। यह स्थिति प्राप्त करने के लिए निरंतर याद की यात्रा, श्रीमत पर चलना, और श्वांसों-श्वांस बाबा की स्मृति में रहना आवश्यक बताया गया है।


22-01-69 का संदर्भ:

  1. परीक्षाओं रूपी सागर में अडोलता:
    पाठ में कहा गया है:
    "अभी तुम परीक्षाओं रूपी सागर के बीच में चल रहेहो। तो जिनका कनेक्शन अर्थात् जिनका हाथ बापदादा केहाथ में होगा उनकी यह जीवन रूपी नैया हिलेगी डूबेगी।"
    यहाँ स्पष्ट किया गया है कि कर्मातीत बनने के लिए हर परिस्थिति में स्थिर और अडोल रहना आवश्यक है। परीक्षाएँ अर्थात् कठिन परिस्थितियाँ आत्मा को कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने में सहायक बनती हैं।
  2. डगमग होने का पाठ:
    "तुम बच्चे इसको ड्रामा का खेल समझकर चलेंगे तोडगमग नहीं होंगे।"
    यहाँ यह सीख दी गई है कि जब आत्मा कर्मातीत अवस्था में होती है, तब वह हर परिस्थिति को ड्रामा का एक हिस्सा मानकर उसमें स्थिर रहती है और डगमग नहीं होती।

23-01-69 का संदर्भ:

  1. अव्यक्त स्थिति में स्थित रहना:
    पाठ में बार-बार अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने पर बल दिया गया है।
    "जितना अव्यक्त स्थिति में स्थित होंगे उतना उसअव्यक्त स्थिति से कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म ऐसा होगा जैसे श्रीमत राय दे रही है। "
    यह दर्शाता है कि कर्मातीत स्थिति का आधार अव्यक्त स्थिति में निरंतर स्थित रहना है, जिससे हर कर्म श्रीमत के अनुसार होता है।
  2. ड्रामा की पटरी पर स्थिरता:
    "मन की स्थिति ड्रामा की पटरी पर ऐसे ही चलनीचाहिए, जैसे सेकेण्ड बाई सेकेण्ड ड्रामा चल रहा है।"
    यहाँ कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मन की स्थिरता एवं सहनशीलता को महत्वपूर्ण बताया गया है। मन का डगमग होना ही कर्मातीत स्थिति से दूर रहने का संकेत है।
  3. स्नेह के साथ कर्मातीत बनने का पुरुषार्थ:
    "जिसका बाप के साथ स्नेह है वही अन्त तक स्थापनाके कार्य में मददगार रहेंगे। "
    कर्मातीत बनने के लिए बाप के साथ अटूट स्नेह होना अनिवार्य बताया गया है। यह स्नेह आत्मा को हर परिस्थिति में दृढ़ एवं अडोल रखता है।

25-01-69 का संदर्भ:

  1. समर्पण एवं श्वांसों-श्वांस स्मृति:
    "समर्पण उसको कहा जाता है जो श्वांसों -श्वांस स्मृति में रहे। एक भी श्वांस विस्मृति का हो। "
    यह स्पष्ट किया गया है कि कर्मातीत स्थिति वही आत्मा प्राप्त कर सकती है जो हर श्वांस में बाबा की स्मृति में स्थित रहे। यह अवस्था आत्मा को निर्विकारी एवं अडोल बनाती है।
  2. निर्विकारी अवस्था:
    "जब सम्पूर्ण बन जायेंगे तो साथ जायेंगे। "
    कर्मातीत स्थिति में जाने के लिए निर्विकारी बनना आवश्यक है। यह निर्विकारी अवस्था समर्पण एवं हर परिस्थिति में सहनशीलता से प्राप्त होती है।
  3. मनमनाभव की स्थिति:
    "मनमनाभव का अर्थ यह है कि मन की स्थिति ड्रामाकी पटरी पर बिल्कुल सीधी चले। जरा भी हिले नहीं। "
    कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मन की स्थिति को अडोल रखना अनिवार्य बताया गया है। यदि मन में हलचल होगी तो कर्मातीत स्थिति में स्थित नहीं हो सकते।

"कर्मातीत" बनने के लिए आवश्यक शिक्षाएँ:

  1. अव्यक्त स्थिति में निरंतर स्थित रहना।
  2. ड्रामा के हर दृश्य को खेल समझकर उसमें अडोल रहना।
  3. श्वांसों-श्वांस बाबा की स्मृति में रहकर निर्विकारी बनना।
  4. हर कर्म श्रीमत के आधार से करना।
  5. स्नेह एवं समर्पण की अवस्था को दृढ़ बनाना।
  6. मन एवं वाणी को ड्रामा की पटरी पर चलाना।
  7. हर परिस्थिति में सहनशीलता एवं स्थिरता का गुण बनाए रखना।

निष्कर्ष:
22-01-69, 23-01-69 एवं 25-01-69 की अव्यक्त मुरलियों में "कर्मातीत" स्थिति पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है। बापदादा ने बच्चों को स्थिरता, समर्पण, श्वांसों-श्वांस स्मृति, सहनशीलता, एवं अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने का पुरुषार्थ करने की शिक्षा दी है। इन मुरलियों का मुख्य उद्देश्य बच्चों को यह समझाना है कि कर्मातीत बनने के लिए हर परिस्थिति में स्थिर रहना, मन को ड्रामा की पटरी पर स्थिर रखना, एवं अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर कर्म करना ही सफलता का मार्ग है।


क्या आप इस विश्लेषण को और विस्तृत करना चाहेंगे या किसी अन्य मुरली के आधार पर भी "कर्मातीत" स्थिति का अध्ययन करना चाहेंगे?

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेषण:

दिनांक: 02-02-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति से संबंधित महत्वपूर्ण शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं:


"कर्मातीत" स्थितिकाअर्थ:

"कर्मातीत" स्थिति वह अवस्था है जिसमें आत्मा कर्मों के बंधनों से मुक्त होकर हर परिस्थिति में अडोल, निर्विकारी, एवं निरहंकारी रहती है। यह अवस्था तब प्राप्त होती है जब आत्मा हर कर्म को निमित्त बनकर करती है, अहंकार एवं देहाभिमान से मुक्त रहती है, और हर क्षण बाप की स्मृति में स्थित रहती है।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्य संदर्भ:

1. अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर अनुभव करना:

"अगर स्नेह है और मिलने की आशा है तो यह तरीकाबहुत सहज है। करने वाले कर सकते हैं और मुलाकात का अनोखा अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। "
कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर हर समय अन्तर्मुखी बनना आवश्यक है। बापदादा ने स्पष्ट रूप से बताया है कि जब आत्मा निरंतर अव्यक्त स्थिति में रहती है, तभी अमृतवेले विशेष अनुभव कर सकती है।

2. निर्मोह और शुद्ध मोह के बीच संतुलन:

"वह शुद्ध मोह में आते हुए भी निर्मोही हैं और बच्चे शुद्ध मोह में आते हैं तो कुछ स्वरूप बन जाते हैं। "
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को मोह से मुक्त होना आवश्यक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि प्रेम या स्नेह समाप्त हो जाए। बापदादा ने यह सिखाया कि शुद्ध मोह में रहते हुए भी निर्मोही बनने की कला ही आत्मा को कर्मातीत स्थिति की ओर ले जाती है।

3. निमित्तभाव:

"सदा एक शब्द याद रखना कि मैं निमित्त हूँ। निमित्तबनने से ही निराकारी, निरहंकारी और नम्रचित, निःसंकल्प अवस्था में रह सकते हैं। "
"कर्मातीत" बनने के लिए यह समझना आवश्यक है कि हर कार्य में हम निमित्त हैं। जब "मैं" का

भाव आता है, तो अहंकार उत्पन्न होता है, जिससे आत्मा कर्म बंधनों में बँध जाती है। निमित्त भाव से कर्म करने पर आत्मा कर्मों से मुक्त रहकर कर्मातीत बनती है।

4. माया रूपी विघ्नों से बचाव:

"जैसे -जैसे महारथी बनेंगे वैसे ही माया भी महारथी रूप में आयेगी। "
कर्मातीत बनने के मार्ग में माया के अनेक विघ्न आते हैं। बापदादा ने बच्चों को यह चेतावनी दी कि जैसे-जैसे बच्चे सेवाओं में आगे बढ़ेंगे, वैसे ही माया भी तीव्र रूप से परीक्षा लेगी। इन विघ्नों से बचने के लिए आत्मा को सदा निमित्त बनकर सेवा करनी है और अहंकार से बचना है।

5. ड्रामा की धारणा:

"स्नेह को ड्रामा साइलेन्स में ले आता है और यहीसाइलेन्स शक्ति को लायेगी। "
कर्मातीत बनने के लिए यह समझना आवश्यक है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह ड्रामा का एक अंश है। इस धारणा से आत्मा हर परिस्थिति में अडोल और शांत रह सकती है। जब आत्मा ड्रामा को साक्षी होकर देखती है, तो वह स्नेह के साथ भी स्थिर रहती है।

6. अव्यक्त वतनवासी बनने की प्रेरणा:

"अभी तो सूक्ष्मवतन में ही अव्यक्त रूप से स्थापना काकार्य चलता रहेगा। जब तक स्थापना का कार्य समाप्त नहीं हुआ है तब तक बिना कार्य सफल किये हुए घरनहीं लौटेंगे। "
बापदादा ने बच्चों को सिखाया कि कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को स्वयं को सूक्ष्मवतन वासी समझना होगा। यह धारणा आत्मा को हर क्षण बाप की स्मृति में स्थित रखेगी और कर्म बंधनों से मुक्त करेगी।

7. ज्ञान के अभिमान से बचाव:

"सर्विस करते -करते यह ध्यान रखना कि मैंने यह किया, मैं ही यह कर सकता हूँ यह 'मैं' पन आना, इसको ही कहा जाता है ज्ञान का अभिमान। "
कर्मातीत बनने में सबसे बड़ा विघ्न है—ज्ञान, बुद्धि, और सेवा का अभिमान। बापदादा ने स्पष्ट रूप से चेतावनी दी कि इस "मैं" पन से बचने के लिए सदा निमित्त भाव में रहना आवश्यक है।

8. शक्तिस्वरूप एवं ज्वालारूप:

"आपका ही ज्वालारूप का यादगार है।यह सभीशक्तियों को ज्वालारूप देवी बनना है। "
बापदादा ने बच्चों को ज्वाला रूप बनने की प्रेरणा दी, जिससे आत्मा इतनी शक्ति स्वरूप बन जाए कि माया रूपी संसार की हर परीक्षा में सफल हो सके और अंत में कर्मातीत स्थिति में स्थित हो जाए।


कर्मातीत बनने के लिए मुख्य शिक्षाएँ:

  1. अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर रूह- रूहानअनुभव करना
  2. शुद्ध मोह में रहते हुए निर्मोह बनना
  3. सदा निमित्त भाव में रहकर सेवा करना
  4. ड्रामा को साक्षी हो कर देखना और हरपरिस्थिति में अडोल रहना
  5. ज्ञान, सेवा, और बुद्धि के अभिमान से बचना
  6. सदैव स्मृति में रहकर ज्वाला रूप एवं शक्तिस्वरूप बनना
  7. सूक्ष्मवतनवासी बनने की धारणा रखना

निष्कर्ष:

02-02-69 की इस अव्यक्त मुरली में बापदादा ने स्पष्ट रूप से कर्मातीत बनने की विधि सिखाई है। उन्होंने बच्चों को अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर सदा स्मृति में रहने, निमित्त भाव से कर्म करने, एवं हर परिस्थिति में साक्षी बनकर ड्रामा को देखने की प्रेरणा दी है। "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को ज्ञान के अभिमान, माया के विघ्न, एवं "मैं" पन से बचकर, शक्ति स्वरूप एवं ज्वाला रूप बनकर पुरुषार्थ करना होगा।

इस मुरली का मुख्य उद्देश्य बच्चों को "कर्मातीत" स्थिति की ओर तीव्र गति से बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना है, ताकि वे अंत में बापदादा के साथ सदा के लिए मुक्तिधाम में जा सकें।


क्या आप इस विश्लेषण को और विस्तृत करना चाहेंगे? या किसी अन्य मुरली से भी "कर्मातीत" स्थिति का गहराई से अध्ययन करना चाहेंगे?

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेषण:

दिनांक: 06-02-69 और 15-02-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति से संबंधित महत्वपूर्ण शिक्षाएँ एवं मार्गदर्शन निम्नलिखित हैं:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:

"कर्मातीत" का अर्थ है वह अवस्था जिसमें आत्मा कर्म बंधनों से मुक्त हो जाती है, अर्थात् कर्म करते हुए भी कर्म के प्रभाव से निर्लिप्त रहती है। इस स्थिति में आत्मा संपूर्ण निरहंकारी, निर्विकारी एवं देही-अभिमानी बन जाती है। अव्यक्त बापदादा ने बच्चों को बताया कि यह स्थिति प्राप्त करने के लिए निरंतर याद की यात्रा, स्वमान में स्थित रहना, एवं निमित्त भाव से कर्म करना अनिवार्य है।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. सर्विस करते समय अहंकार से बचाव:

"सर्विस करते -करते यह ध्यान रखना कि मैंने यह किया, मैं ही यह कर सकता हूँ यह 'मैं' पन आना, इसको ही कहा जाता है ज्ञान का अभिमान। "
बापदादा ने स्पष्ट रूप से चेताया कि "कर्मातीत" बनने में सबसे बड़ा विघ्न अहंकार है। जब आत्मा सेवा करते हुए "मैं" पन में आ जाती है, तो वह कर्मों के बंधन में फँस जाती है। कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को सदा निमित्त भाव में रहना होगा।

2. तीन बातों का त्याग और तीन बातों की धारणा:

"बहाना, कहलाना और मुरझाना यह तीन बातें छोड़नीहै। और फिर कौनसी तीन बातें धारण करनी हैं ? त्याग, तपस्वा और सेवा।"
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को इन तीन बातों—त्याग, तपस्या, और सेवा—की धारणा करनी है। त्याग से देहाभिमान का अंत होगा, तपस्या से आत्मा निरंतर याद में स्थित होगी, और सेवा से आत्मा विश्वकल्याण में निमित्त बन सकेगी।

3. सदा "मेहमान" बनने की धारणा:

"हम मेहमान हैं ऐसा समझने से महान् स्थिति में स्थितहो जायेंगे। "
कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को यह धारणा रखनी है कि वह इस संसार में एक मेहमान है। जब आत्मा स्वयं को मेहमान समझेगी, तो वह किसी भी वस्तु या व्यक्ति से लगाव नहीं रखेगी और हर परिस्थिति में अडोल रह सकेगी।

4. बीजरूप स्थिति में स्थित होना:

"अभी फिर से बीजरूप अवस्था में स्थित होकर ललकार करो। उस ललकार से कईयों में बीज पड़सकता है। "
बापदादा ने सिखाया कि कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को बीजरूप स्थिति में स्थित होना है। बीजरूप स्थिति में रहने से आत्मा का प्रत्येक कार्य सृष्टि में कल्याण का बीज बोता है।

5. अव्यक्त स्थिति में स्थित रहना :

"बिल्कुल अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने का, अपनीचेकिंग करने का ध्यान रखो। "
कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को निरंतर अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर हर क्षण अपनी चेकिंग करनी होगी। अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर आत्मा हर कर्म को बापदादा की याद में निमित्त बनकर करेगी।

6. सदा सुहागिन बनने की धारणा:

"सदा सुहागिन कौन है ? सदा के लिए परमात्मा से पूरीलगन रहे, वो सदा सुहागिन है। "
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को सदा सुहागिन बनने की धारणा रखनी है, अर्थात् परमात्मा से अटूट लगाव एवं निश्चय रखना है। जब आत्मा हर परिस्थिति में परमात्मा को साथी मानकर चलेगी, तभी वह कर्मातीत स्थिति में स्थित रह सकेगी।


कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मुख्यशिक्षाएँ:

  1. निमित्त भाव से सेवा करना और "मैं" पन सेबचना
  2. त्याग, तपस्या, और सेवा की धारणा करना
  3. सदा स्वयं को मेहमान समझकर हर परिस्थितिमें अडोल रहना
  4. बीजरूप स्थिति में स्थित रह कर सृष्टि मेंकल्याण का बीज बोना
  5. निरंतर अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर आत्माकी चेकिंग करना
  6. सदा सुहागिन बनने की धारणा रखकर बाप केसाथ अटूट नाता जोड़ना

निष्कर्ष:

06-02-69 और 15-02-69 की मुरलियों में बापदादा ने "कर्मातीत" स्थिति की प्राप्ति के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन दिया है। बापदादा ने बताया कि जब आत्मा हर कर्म में निमित्त भाव से कार्य करेगी, त्याग और तपस्या की धारणा रखेगी, तथा स्वयं को सदा सुहागिन और मेहमान समझेगी, तभी वह कर्म बंधनों से मुक्त होकर कर्मातीत स्थिति में स्थित हो सकेगी।

कर्मातीत स्थिति में पहुँचने के लिए आत्मा को हर समय याद की यात्रा में स्थित रहकर सेवा करनी होगी तथा ज्ञान, सेवा, एवं सफलता के अभिमान से बचना होगा। जब आत्मा इस स्थिति में पहुँच जाती है, तब उसका प्रत्येक कर्म विश्वकल्याण में निमित्त बन जाता है।


क्या आप इस विश्लेषण को और विस्तृत करना चाहेंगे? या किसी अन्य मुरली से भी "कर्मातीत" स्थिति का अध्ययन करना चाहेंगे?

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेषण:

दिनांक: 04-03-69 और 13-03-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति से संबंधित महत्वपूर्ण शिक्षाएँ एवं मार्गदर्शन निम्नलिखित हैं:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:

"कर्मातीत" का अर्थ है आत्मा का कर्म करते हुए भी कर्म के बंधनों से मुक्त रहना, अर्थात् कर्मों का प्रभाव आत्मा पर न पड़े। यह स्थिति आत्मा को संपूर्ण अडोल, निरहंकारी, एवं पवित्र बनाती है। कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए बापदादा ने कई गुप्त युक्तियाँ एवं शिक्षाएँ दीं, जो इन मुरलियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. होली का वास्तविक अर्थ – 'होली' (हो चुका) की धारणा:

"होली का अर्थ हैजो कुछ हुआ, वह हो गया। होलिया। जो सीन हुई, होली अर्थात् बीत चुकी।"
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को यह धारणा रखनी होगी कि जो कुछ हुआ, वह ड्रामा का हिस्सा है और बीत चुका है। आत्मा को किसी भी परिस्थिति में उलझकर नहीं रहना है, बल्कि हर परिस्थिति को "हो ली" की भावना से स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना है। यह धारणा आत्मा को अडोल एवं निर्विकार बनाती है।

2. सकारात्मक दृष्टिकोण और मंथन:

"ड्रामा की सीन पर मंथन करनाक्यों, क्या, कैसेयह पानी का मंथन है। "
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को नकारात्मक सोच और परिस्थितियों के बारे में अनावश्यक विचार करने से बचना है। बापदादा ने स्पष्ट किया कि केवल ज्ञान का मंथन करना ही आत्मा को सशक्त बनाता है।

3. अव्यक्त आकर्षण द्वारा सेवा:

"अपने अव्यक्त आकर्षण से उन्हों को घायल करना यहहै घेराव डालना। "
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर ऐसा आकर्षण पैदा करना है, जिससे आत्माएँ स्वयं खिंचकर आएँ। यह अव्यक्त स्थिति ही कर्मातीत आत्मा की पहचान है, जिससे आत्मा बिना वाणी के भी विश्व सेवा कर सकती है।

4. मालिकपन और बालकपन का संतुलन:

"मालिक बनकर करना है, लेकिन मालिकपने के साथ-साथ बालकपन भी पूरा होना चाहिए। "
कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को सेवा में मालिकपना तो रखना है, लेकिन अहंकार से बचने के लिए बालकपन की भावना भी बनाए रखनी है। यह संतुलन आत्मा को कर्मों से मुक्त रखता है।

5. गुणों का दान:

"ज्ञान देना तो सहज है, लेकिन गुणों का दान देना, इसमें जरा मेहनत है। "
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को केवल ज्ञान का दान नहीं करना, बल्कि अपने गुणों से दूसरों को प्रभावित करना होगा। गुणों का दान आत्मा को संपूर्ण पवित्रता एवं श्रेष्ठता की ओर ले जाता है।

6. त्रिशूल की धारणा:

"आपके मस्तक में तीन सितारे हैंभविष्य का, वर्तमान सौभाग्य का, और सम्पूर्ण अवस्था का। "
बापदादा ने बच्चों को "त्रिशूल" की धारणा करने के लिए कहा, जिसमें आत्मा को त्रिकालदर्शी बनकर अपनी वर्तमान, भविष्य, एवं सम्पूर्ण अवस्था को एक साथ देखना है। यह धारणा आत्मा को कर्मातीत स्थिति में स्थिर रहने में सहायक होगी।

7. प्रेम और शक्ति का संतुलन:

"जितना शक्तिस्वरूप उतना ही प्रेमस्वरूप भी होनाचाहिए। "
कर्मातीत आत्मा में प्रेम और शक्ति दोनों का संतुलन होना आवश्यक है। बापदादा ने देवियों के चित्रों का उदाहरण देते हुए बताया कि उनके नयनों में प्रेम और दया का भाव होता है, जबकि उनके चेहरे से शक्ति के संस्कार झलकते हैं। यही संतुलन आत्मा को कर्मातीत अवस्था में ले जाता है।


कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मुख्यशिक्षाएँ:


निष्कर्ष:

04-03-69 और 13-03-69 की मुरलियों में बापदादा ने बच्चों को "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए कई गुप्त युक्तियाँ दीं। बापदादा ने सिखाया कि जब आत्मा हर परिस्थिति को "हो ली" की भावना से स्वीकार करेगी, हर कर्म को अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर करेगी, और प्रेम एवं शक्ति का संतुलन बनाए रखेगी, तभी वह कर्म बंधनों से मुक्त होकर कर्मातीत स्थिति में स्थित हो सकेगी।
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को सदा अव्यक्त स्थिति में स्थित रहकर सेवा करनी होगी तथा गुणों का दान कर विश्वकल्याण में निमित्त बनना होगा। यह स्थिति आत्मा को संपूर्णता की ओर ले जाती है, जिससे वह अंत में बापदादा के साथ मुक्तिधाम में जा सकेगी।

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेष

दिनांक: 20-03-69 और 17-04-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति के संदर्भ में महत्वपूर्ण शिक्षाएँ एवं गहराई से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:

"कर्मातीत" का अर्थ है वह अवस्था जिसमें आत्मा कर्मों को करते हुए भी उनके फल या प्रभाव से मुक्त रहती है। यह स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को स्थायी रूप से स्व-स्थिति में स्थित रहना होता है। बापदादा ने इस मुरली में स्पष्ट किया कि सात बातों को छोड़ने और सात बातों को धारण करने से ही आत्मा कर्मातीत स्थिति में पहुँच सकती है।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. सात बातें छोड़ने की शिक्षा:

"5 विकारों के साथ छठा आलस्य और सातवाँ भयछोड़ना है। "
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को निम्नलिखित सात बातों का त्याग करना होगा:

2. सात बातें धारण करने की शिक्षा:

"स्वरूप, स्वधर्म, स्वदेश, सुकर्म, स्वलक्ष्य, स्वलक्षण, और स्वदर्शन चक्रधारी बनना। "
इन सात बातों की धारणा से आत्मा कर्मातीत स्थिति में स्थित हो सकती है।

3. परिस्थितियों से प्रभावितहोना:

"परिस्थितियों का आधार ले स्थिति को नहीं बनाना है।स्थिति से परिस्थिति को बदलना है। "
कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को अपनी स्व-स्थिति इतनी सशक्त बनानी होगी कि वह परिस्थितियों से प्रभावित न हो, बल्कि अपनी स्थिति से परिस्थितियों को बदल सके। बापदादा ने स्पष्ट किया कि कई बच्चे परिस्थितियों के अधीन हो जाते हैं, जिससे उनकी स्थिति कमजोर हो जाती है।

4. पुरुषार्थ से स्नेह:

"पुरुषार्थ से स्नेह रखना है, क्योंकि यही पुरुषार्थ ही सारेकल्प की प्रालब्ध बनाता है। "
बापदादा ने सिखाया कि कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को अपने पुरुषार्थ से सच्चा स्नेह रखना होगा। जब आत्मा पुरुषार्थ से स्नेह रखती है, तभी वह हर परिस्थिति में अडोल रहकर निरंतर प्रगति कर सकती है।

5. स्व-स्थिति में स्थित रहकर सेवा:

"स्व-स्थिति की इतनी शक्ति होनी चाहिए कि कोई भीपरिस्थिति बदल सके। "
बापदादा ने बताया कि कर्मातीत स्थिति में रहकर सेवा करने के लिए आत्मा को अपनी स्व-स्थिति में स्थिर रहना होगा। जब आत्मा अपनी स्थिति में स्थिर रहती है, तभी वह परिस्थिति को बदलने की शक्ति प्राप्त करती है।

6. अंतिम अवस्था का पुरुषार्थ:

"फाइनल स्टेज के प्रमाण जो कुछ कमी देखने में आतीहै, उस कमी को शीघ्र निकालना ही पुरुषार्थ से प्यार है। "
बापदादा ने बच्चों को चेताया कि अब समय बहुत निकट है। इसलिए बच्चों को धीमे पुरुषार्थ करने के बजाए तीव्र गति से पुरुषार्थ करना होगा। जो बच्चे समय का इंतजार करते हैं, वे इस पुरुषार्थ के समय को खो देंगे।

7. महारथी, घोड़ेसवार, और प्यादों का खेल:

"महारथी शेर से नहीं डरते, मगर चींटी से डर जाते हैं। "
बापदादा ने बच्चों की स्थिति का वर्णन करते हुए बताया कि कई बच्चे बड़े-बड़े विघ्नों से नहीं डरते, लेकिन छोटी-छोटी बातों में उलझ जाते हैं। महारथियों को हर परिस्थिति में स्थिर रहकर अपनी स्थिति मजबूत करनी है।


कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मुख्यशिक्षाएँ:


निष्कर्ष:

20-03-69 और 17-04-69 की मुरलियों में बापदादा ने "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए सात बातें छोड़ने और सात बातें धारण करने की विधि स्पष्ट की। उन्होंने बच्चों को सिखाया कि जब आत्मा अपनी स्व-स्थिति में स्थिर रहकर पुरुषार्थ से स्नेह रखेगी, सात बातों का त्याग करेगी और सात बातें धारण करेगी, तभी वह कर्म बंधनों से मुक्त होकर कर्मातीत स्थिति में स्थित हो सकेगी।
बापदादा ने यह भी स्पष्ट किया कि आत्मा को अपनी स्व-स्थिति इतनी सशक्त बनानी होगी कि वह हर परिस्थिति को बदल सके और परिस्थिति से प्रभावित न हो। इस पुरुषार्थ से ही आत्मा अपनी अंतिम फाइनल स्थिति प्राप्त कर सकेगी और बापदादा के साथ मुक्तिधाम जा सकेगी।

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेष

दिनांक: 20-03-69 और 17-04-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति से संबंधित महत्वपूर्ण शिक्षाएँ एवं मार्गदर्शन:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:

"कर्मातीत" स्थिति वह अवस्था है जिसमें आत्मा कर्मों को करते हुए भी उनके बंधनों से मुक्त रहती है। बापदादा ने समझाया कि यह स्थिति आत्मा की पूर्णता का संकेत है, जिसमें आत्मा संपूर्ण अडोल, निर्विकारी एवं देही-अभिमानी बन जाती है। यह स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को सात बातों का त्याग करना और सात गुणों को धारण करना अनिवार्य है।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. सात बातें छोड़ने की शिक्षा:

"5 विकारों के साथ छठा आलस्य और सातवाँ भयछोड़नाहै।"
आत्मा को निम्नलिखित सात बातें छोड़नी होंगी:

  1. काम – आत्मा की शुद्धता में सबसे बड़ा विघ्न।
  2. क्रोध – आत्मा को अशांत और कमजोर करने वाला।
  3. लोभ – इच्छाओं की वृद्धि कर आत्मा को असंतोष में डालने वाला।
  4. मोह – देह और संबंधों से लगाव आत्मा को बांधता है।
  5. अहंकार – "मैं" पन के कारण आत्मा अपने निमित्त भाव को भूल जाती है।
  6. आलस्य – पुरुषार्थ में ढिलाई लाने वाला सबसे बड़ा विघ्न।
  7. भय – आत्मा को कमजोर करने वाला, शक्तियों को प्रकट नहीं होने देता।
    बापदादा ने स्पष्ट किया कि भय आत्मा की सबसे बड़ी कमजोरी है। शक्तियों का मुख्य गुण निर्भयता है, इसलिए आत्मा को हर स्थिति में निर्भय रहना होगा।

2. सात बातें धारण करने की शिक्षा:

"स्वरूप, स्वधर्म, स्वदेश, सुकर्म, स्वलक्ष्य, स्वलक्षण, और स्वदर्शन चक्रधारी बनना। "
कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को निम्नलिखित सातबातें धारण करनी होंगी:

  1. स्वरूप – अपने आत्मिक स्वरूप को पहचानकर उसमें स्थित रहना।
  2. स्वधर्म – आत्मा का धर्म शांति और पवित्रता है।
  3. स्वदेश – परमधाम को अपने देश के रूप में स्मृति में रखना।
  4. सुकर्म – हर कर्म को श्रीमत के अनुसार श्रेष्ठ और सुकर्म बनाना।
  5. स्वलक्ष्य – अपने लक्ष्य (संपूर्णता) को सदा स्मृति में रखना।
  6. स्वलक्षण – ब्राह्मण कुल के श्रेष्ठ लक्षणों को धारण करना।
  7. स्वदर्शन चक्रधारी – आत्मा को देह-अभिमान से मुक्त कर सदा आत्म-अभिमानी स्थिति में रखना।

इन सात बातों को धारण करने से आत्मा की स्थिति इतनी सशक्त हो जाएगी कि वह हर परिस्थिति में अडोल रह सकेगी और कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाएगी।

3. परिस्थितिसेप्रभावितहोना:

"परिस्थितियों का आधार ले स्थिति को नहीं बनाना है, स्थिति से परिस्थिति को बदलना है। "
बापदादा ने समझाया कि आत्मा को अपनी स्व-स्थिति इतनी सशक्त बनानी होगी कि वह बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित न हो। जब आत्मा अपनी स्थिति को मजबूत बनाएगी, तभी वह परिस्थितियों को बदलने में सक्षम होगी।

4. पुरुषार्थ से स्नेह:

"पुरुषार्थ से स्नेह रखना है, क्योंकि यही पुरुषार्थ ही सारेकल्प की प्रालब्ध बनाता है। "
आत्मा को हर समय अपने पुरुषार्थ से स्नेह रखना होगा। जब आत्मा अपने पुरुषार्थ से सच्चा स्नेह रखती है, तभी वह हर परिस्थिति में अडोल रहकर निरंतर प्रगति करती है। बापदादा ने समझाया कि कई बच्चे पुरुषार्थ से अधिक परिस्थितियों से स्नेह रखते हैं, जिससे उनकी स्थिति कमजोर हो जाती है।

5. स्व-स्थिति में स्थित रहकर सेवा करना:

"स्व-स्थिति की इतनी शक्ति होनी चाहिए कि कोई भीपरिस्थिति बदल सके।"
आत्मा को सेवा करते समय अपनी स्व-स्थिति में स्थिर रहना होगा। जब आत्मा अपनी स्थिति में स्थिर रहती है, तभी वह प्रभावशाली सेवा कर सकती है और परिस्थितियों को बदलने की शक्ति प्राप्त करती है।

6. अंतिम अवस्था का पुरुषार्थ:

"फाइनल स्टेज के प्रमाण जो कुछ कमी देखने में आतीहै, उस कमी को शीघ्र निकालना ही पुरुषार्थ से प्यार है। "
बापदादा ने बताया कि कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को तीव्र गति से पुरुषार्थ करना होगा। जो आत्माएँ समय का इंतजार करती हैं, वे इस पुरुषार्थ के समय को खो देती हैं।

7. महारथी, घुड़सवारऔर प्यादों का खेल:

"महारथी शेर से नहीं डरते, मगर चींटी से डर जाते हैं। "
बापदादा ने समझाया कि महारथी आत्माएँ बड़ी-बड़ी परिस्थितियों से नहीं डरतीं, लेकिन छोटी-छोटी बातों में उलझ जाती हैं। उन्होंने बच्चों को सिखाया कि हर परिस्थिति में स्थिर रहकर अपनी स्थिति को सशक्त बनाना ही कर्मातीत स्थिति की पहचान है।


कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मुख्यशिक्षाएँ:


निष्कर्ष:

20-03-69 और 17-04-69 की मुरलियों में बापदादा ने "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए सात बातें छोड़ने और सात बातें धारण करने की विधि स्पष्ट की। बापदादा ने यह भी बताया कि आत्मा को हर परिस्थिति में अपनी स्व-स्थिति में स्थित रहकर कर्म करना होगा। जब आत्मा अपनी स्थिति को मजबूत बनाएगी, तभी वह कर्म बंधनों से मुक्त होकर कर्मातीत स्थिति में पहुँच सकेगी।
बापदादा ने बच्चों को सिखाया कि यह पुरुषार्थ का समय है। यदि आत्मा समय पर पुरुषार्थ नहीं करती, तो वह अपने सौभाग्य को खो सकती है। इसलिए आत्मा को हर क्षण सदा अपनी स्व-स्थिति में स्थित रहकर तीव्र गति से पुरुषार्थ करना चाहिए। यही पुरुषार्थ आत्मा को अंत में बापदादा के साथ मुक्तिधाम ले जाएगा।


"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेष

दिनांक: 18-05-69, 26-05-69, और 09-06-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति के संदर्भ में महत्वपूर्ण शिक्षाएँ एवं गहराई से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:

"कर्मातीत" स्थिति वह अवस्था है जिसमें आत्मा कर्म करते हुए भी उनके फल और प्रभाव से मुक्त रहती है। यह वह अंतिम स्थिति है जहाँ आत्मा पूर्ण रूप से देही-अभिमानी बन जाती है और किसी भी प्रकार के विकर्म या बंधन से परे होती है।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. हर कर्म में निमित्त भाव:

18-05-69 की मुरली में बापदादा ने यह स्पष्ट किया कि जो बच्चे बाप के निमित्त बने हुए हैं, उन्हें हर कर्म में यह ध्यान रखना है कि "हमें हर समय एवररेडी और ऑलराउंड होना है।" जब आत्मा हर कर्म में निमित्त भाव से कार्य करती है, तब वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाती है।

2. ज्योतिषी बनकर परखने की कला:

बापदादा ने बच्चों को ज्ञान-योग की ज्योतिषी बनने का निर्देश दिया। उन्होंने कहा कि कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को हर आत्मा की वृत्ति, दृष्टि, और भविष्य को परखने की क्षमता विकसित करनी होगी। इससे आत्मा किसी भी परिस्थिति में माया के धोखे में नहीं आएगी।

3. शक्ति और स्नेह का संतुलन:

26-05-69 की मुरली में बापदादा ने समझाया कि शक्ति और स्नेह का सही संतुलन ही आत्मा को कर्मातीत स्थिति तक ले जा सकता है। उन्होंने कहा, "किस समय स्नेहमूर्ति और किस समय शक्तिरूप बनना है, यह समझना आवश्यक है।" शक्तिरूप बनकर परिस्थितियों का सामना करने से आत्मा स्थिर रह सकती है।

4. सहनशक्ति का महत्व:

बापदादा ने विशेष रूप से सहनशक्ति पर बल दिया। उन्होंने कहा कि "जितनी सहनशक्ति होगी, उतनी ही सर्विस में सफलता होगी।" सहनशक्ति की कमी होने पर आत्मा परिस्थितियों से विचलित हो जाती है, जिससे कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने में बाधा आती है।

5. अंतर्मुखता और परख:

09-06-69 की मुरली में बापदादा ने बताया कि आत्मा को हर समय अंतर्मुख रहकर परखने की कला विकसित करनी चाहिए। उन्होंने कहा, "परखने की जितनी शक्ति होगी, उतना ही परीक्षाओं में पास हो सकते हैं।" जब आत्मा परख में प्रवीण हो जाती है, तब वह हर परिस्थिति को समझकर सही प्रतिक्रिया दे सकती है।

6. पुरुषार्थ में तीव्रता:

बापदादा ने बच्चों को चेताया कि अब समय बहुत निकट है। इसलिए साधारण पुरुषार्थ करने के बजाए तीव्र पुरुषार्थ करना होगा। उन्होंने कहा, "साधारण पुरुषार्थ करने के दिन बीत रहे हैं। अब विशेष पुरुषार्थ का समय है।" जब आत्मा तीव्र पुरुषार्थ करती है, तभी वह कर्मातीत स्थिति में पहुँच सकती है।

7. सुस्ती और आलस्य से बचाव:

बापदादा ने बताया कि सुस्ती और आलस्य कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने में सबसे बड़े विघ्न हैं। उन्होंने कहा, "सुस्ती का मीठा रूप आलस्य है। यह आत्मा को धीमा कर देता है और पुरुषार्थ शक्तिशाली नहीं हो पाता।" आत्मा को हर समय उमंग और उत्साह में रहकर पुरुषार्थ करना चाहिए।


कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मुख्यशिक्षाएँ:


निष्कर्ष:

18-05-69, 26-05-69, और 09-06-69 की मुरलियों में बापदादा ने "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए आवश्यक गुणों और शक्तियों का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने बच्चों को समझाया कि जब आत्मा हर कर्म में निमित्त भाव से कार्य करती है, परखने की शक्ति को विकसित करती है, सहनशक्ति से परिस्थितियों का सामना करती है, और तीव्र पुरुषार्थ करती है, तभी वह कर्म बंधनों से मुक्त होकर कर्मातीत स्थिति में स्थित हो सकती है।
बापदादा ने यह भी कहा कि अब समय बहुत निकट है। इसलिए बच्चों को साधारण पुरुषार्थ से ऊपर उठकर तीव्र पुरुषार्थ करना होगा। यही तीव्र पुरुषार्थ आत्मा को बापदादा के समीप ले जाकर कर्मातीत स्थिति में स्थित करेगा।

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेष

दिनांक: 16-06-69, 18-06-69, 26-06-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति के संदर्भ में महत्वपूर्ण शिक्षाएँ एवं विश्लेषण:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:

"कर्मातीत" स्थिति वह है जिसमें आत्मा, कर्मों के बंधनों से मुक्त होकर हर कर्म में अटैच्ड और डिटैच्ड रहते हुए निष्काम भाव से कार्य करती है। यह स्थिति केवल तब प्राप्त होती है जब आत्मा अपने सभी संस्कारों का त्याग करके श्रेष्ठ संस्कारों को धारण कर लेती है और निरंतर अशरीरी और निराकारी अवस्था में स्थित रहती है।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. बड़े - से - बड़ा त्याग:

दिनांक 16-06-69 की मुरली में बापदादा ने समझाया कि सबसे बड़ा त्याग है दूसरों के अवगुणों का त्याग करना।

2. मरजीवा बनने का पाठ:

दिनांक 18-06-69 की मुरली में बापदादा ने "मरजीवा" बनने के महत्व को स्पष्ट किया।

3. नम्रता और निमित्त भाव:

4. दृष्टि से सृष्टि बनती है:

5. अशरीरी, निराकारी, और न्यारे बनने की शिक्षा:

दिनांक 26-06-69 की मुरली में बापदादा ने "कर्मातीत" बनने के लिए अशरीरी, निराकारी, औरन्यारा बनने की मुख्य शिक्षा दी।

6. निर्णय शक्ति का विकास:


"कर्मातीत" बनने के लिए मुख्य शिक्षाएँ:


निष्कर्ष:

16-06-69, 18-06-69, और 26-06-69 की मुरलियों में बापदादा ने "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को कई गहन शिक्षाएँ दीं। उन्होंने स्पष्ट किया कि कर्मातीत स्थिति वही आत्मा प्राप्त कर सकती है जो अपने पुराने संस्कारों का त्याग कर दे, अशरीरी स्थिति में स्थित हो जाए, हर परिस्थिति में सही निर्णय ले सके और स्वयं को निमित्त समझकर सेवा करे।
बापदादा ने यह भी सिखाया कि जब आत्मा अशरीरी और निराकारी स्थिति में स्थित हो जाती है, तभी वह कर्म बंधनों से मुक्त होकर सहज ही कर्मातीत स्थिति में पहुँच जाती है और सच्चे अर्थों में परमात्मा समान बन जाती है।

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेष

दिनांक: 06-07-69, 16-07-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति के संदर्भ में गहन शिक्षाएँ एवं विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है:


"कर्मातीत" स्थिति का अर्थ:

"कर्मातीत" का अर्थ है – आत्मा का वह उच्चतम आध्यात्मिक स्तर, जहाँ आत्मा कर्म करते हुए भी कर्म बंधनों से पूरी तरह मुक्त रहती है। इस स्थिति में आत्मा की हर गतिविधि श्रेष्ठ, पवित्र और अडोल होती है। कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को स्वयं को मास्टर रचयिता मानते हुए हर कर्म में अत्यंत सावधानी और जिम्मेदारी रखनी होती है।


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. कर्म से न्यारे और निराले बनना:

दिनांक 06-07-69 की मुरली में बापदादा ने समझाया कि कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को हर कर्म में निमित्तभाव और न्यारा रहकर कार्य करना होगा।

2. पुरानी दुनिया से मरजीवा बनना:

दिनांक 16-07-69 की मुरली में बापदादा ने आत्माओं को "मरजीवा" बनने का पाठ दिया।

3. स्नेह और साहसकर्मातीत स्थिति की पहचान:

बापदादा ने स्पष्ट किया कि स्नेह और साहस ही वह दो मुख्य गुण हैं, जो आत्मा को कर्मातीत स्थिति तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।

4. सावधानी और ठप्पा:

5. एकानामीऔरएकलगन:

6. परिवर्तन समारोहसंगमयुग की विशेषता:


कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मुख्यशिक्षाएँ:


निष्कर्ष:

06-07-69 और 16-07-69 की मुरलियों में बापदादा ने "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्माओं को कई गहन शिक्षाएँ दीं। उन्होंने समझाया कि कर्मातीत स्थिति वही आत्मा प्राप्त कर सकती है, जो पुराने संस्कारों को त्यागकर नई दुनिया के संस्कारों में स्थित हो जाए, हर कर्म में सावधानी रखे और हर परिस्थिति में स्नेह और साहस के गुणों को धारण करे।
बापदादा ने यह भी सिखाया कि आत्मा को अपने परिवर्तन का उत्साह बनाए रखते हुए, संगमयुग पर अपनी भूमिका को समझकर कार्य करना होगा। तभी वह सच्चे अर्थों में कर्मातीत स्थिति में पहुँच सकेगी और अपनी प्रजा एवं भक्तों के लिए एक आदर्श बन सकेगी।

"कर्मातीत" स्थिति पर विश्लेष

दिनांक: 17-07-69, 19-07-69, 23-07-69 की अव्यक्त बापदादा मुरली से "कर्मातीत" स्थिति के संदर्भ में गहन शिक्षाएँ एवं विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है:**


"कर्मातीत" स्थितिकाअर्थ:

"कर्मातीत" का अर्थ है ऐसी उच्चतम अवस्था जिसमें आत्मा कर्मों को करते हुए भी उनके बंधन से मुक्त रहती है। आत्मा हर स्थिति में अडोल, शांत और पवित्र बनी रहती है। बापदादा के अनुसार कर्मातीत बनने के लिए आत्मा को निम्नलिखित गुण और स्थितियाँ धारण करनी होंगी:


मूल पाठ से "कर्मातीत" स्थिति के मुख्यसंदर्भ:

1. अव्यक्त स्थिति में रहने की युक्ति:

मुरली दिनांक: 17-07-69 में बापदादा ने अव्यक्त स्थिति को धारण करने के लिए "अपने को मेहमान समझने" की युक्ति बताई।

2. बैलेंस और जमा करने का पुरुषार्थ:

3. जीरो और हीरो बनने की शिक्षा:

मुरली दिनांक: 19-07-69 में बापदादा ने आत्माओं को "जीरो" और "हीरो" बनने का पाठ दिया।

4. परखने और निर्णय करने की शक्ति:

मुरली दिनांक: 23-07-69 में बापदादा ने परखने की शक्ति को सर्विस में सफलता का आधार बताया।

5. बिन्दुस्वरूप में स्थित होने का अभ्यास:

बापदादा ने कहा कि कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को बिन्दु स्वरूप में स्थित होने का अभ्यास करना होगा।

6. स्व-स्थिति की परिपक्वता:

बापदादा ने समझाया कि समय बहुत कम है और कार्य बहुत अधिक। इसलिए आत्मा को अब अपनी स्व-स्थिति को परिपक्व बनाना होगा।

7. जिम्मेवारी का ताज और नम्रचित्त का तख्त:

8. समय का सही उपयोग:

बापदादा ने आत्माओं को चेताया कि अब समय बहुत कम है, इसलिए आत्मा को हर सेकेण्ड का सही उपयोग करना होगा।


कर्मातीत स्थिति प्राप्त करने के लिए मुख्यशिक्षाएँ:


निष्कर्ष:

17-07-69, 19-07-69, और 23-07-69 की मुरलियों में बापदादा ने "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए कई गहन युक्तियाँ दीं। उन्होंने समझाया कि आत्मा को अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर हर समय अपनी स्व-स्थिति का अनुभव करना होगा। जब आत्मा जीरो बनेगी, तभी वह सच्चे अर्थों में कर्मातीत बन सकेगी।
बापदादा ने यह भी सिखाया कि आत्मा को अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए, हर परिस्थिति में परख और निर्णय करने की शक्ति धारण करनी होगी। तभी वह सफल होकर, अपनी प्रजा और भक्तों के लिए आदर्श बन सकेगी।
अंतिमसंदेश: बापदादा ने यह स्पष्ट किया कि अब समय बहुत निकट है। इसलिए आत्मा को बिना विलंब किए, अपनी अव्यक्त स्थिति को पक्का कर, कर्मातीत बनने का पुरुषार्थ करना होगा।

संदर्भ:
पाठ में "कथनी, करनी और रहनी तीनों ही एक हो तब कर्मातीत अवस्था में जल्दी से जल्दी पहुँच सकेंगे।" इस वाक्य में कर्मातीत अवस्था का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है।
तिथि:
28-09-69
विश्लेषण:
इस वाक्य में "कर्मातीत अवस्था" को प्राप्त करने की स्थिति को समझाया गया है। इसका अर्थ है, जब व्यक्ति अपनी कथनी (जो वह कहता है), करनी (जो वह करता है), और रहनी (उसका व्यवहार) को एक समान बनाए रखता है, अर्थात जो वह कहता है, वही करता है और उसी के अनुसार उसका आचरण होता है। ऐसा करने से व्यक्ति जल्दी से जल्दी कर्मातीत अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
"कर्मातीत" का तात्पर्य है ऐसी स्थिति जिसमें आत्मा अपने सभी कर्म बंधनों से मुक्त हो जाती है और शुद्ध अवस्था में स्थिर हो जाती है। यह अवस्था ब्रह्माकुमारी विचारधारा के अनुसार, वह स्थिति है जिसमें आत्मा सभी प्रकार के विकर्मों (गलत कर्म) से परे हो जाती है और बंधनों से मुक्त होकर शुद्ध और निर्विकारी बन जाती है।

निष्कर्ष:

इस पाठ में "कर्मातीत" अवस्था को प्राप्त करने के लिए कथनी, करनी और रहनी को एक समान बनाने पर जोर दिया गया है, जो आध्यात्मिक उन्नति का एक महत्वपूर्ण चरण है।


संदर्भ:
पाठ में उल्लेख है:
"इसलिए ही कर्मातीत अवस्था वा अव्यक्त स्थितिसदा एकरस नहीं रहती है। क्योंकि मन भिन्न-भिन्न रस में है तो स्थिति में भिन्न-भिन्न है।एक ही रस मेंरहे तो एक ही स्थिति रहे।"
तिथि:
03-10-69
विश्लेषण:
यहाँ "कर्मातीत अवस्था" को स्पष्ट रूप से समझाया गया है। "कर्मातीत" अवस्था का अर्थ है वह स्थिति जिसमें आत्मा सभी कर्मों के बंधन से मुक्त होकर पूर्ण शुद्ध और निर्विकारी हो जाती है। इस संदर्भ में बापदादा ने बताया है कि "कर्मातीत" या "अव्यक्त स्थिति" को स्थिर और सदा एकरस बनाए रखने के लिए मन को एक ही प्रकार के शुद्ध संकल्पों में लगाना आवश्यक है। यदि मन अलग-अलग प्रकार के संकल्पों में व्यस्त रहेगा, तो स्थिति में उतार-चढ़ाव आते रहेंगे और "कर्मातीत" अवस्था में स्थिर नहीं हो पाएंगे।
यह भी कहा गया है कि बच्चे कई बार विकर्मों और लोक मर्यादा के बोझ को छोड़ने के बाद भी आदत के कारण पुनः अपने ऊपर ले लेते हैं, जिससे "कर्मातीत" अवस्था में स्थिर रहना कठिन हो जाता है। इसलिए, मन को श्रीमत के अनुसार चलाना और व्यर्थ संकल्पों को समाप्त करना "कर्मातीत" बनने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बताया गया है।


निष्कर्ष:

इस पाठ में "कर्मातीत" अवस्था को प्राप्त करने के लिए मन की शुद्धता, व्यर्थ संकल्पों का त्याग, और श्रीमत के अनुसार ही संकल्प व कर्म करने पर विशेष जोर दिया गया है। यह बताया गया है कि जब पाण्डव सम्पूर्ण समर्पण करके "कर्मातीत" बन जाएंगे, तब उन्हें सहज ही अपना राज्य प्राप्त हो जाएगा।
संदर्भ:
पाठ में उल्लेख है:
"जितना-जितना समानता में समीप होंगे उतना ही समझो कर्मातीत अवस्था के समीप पहुचेंगे। यही समानता का मीटर है। अपनी कर्मातीत अवस्था परखना है।"
तिथि:
09-11-69
विश्लेषण:
इस वाक्य में "कर्मातीत" अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया को समझाया गया है। बापदादा ने स्पष्ट रूप से कहा है कि "कर्मातीत" अवस्था वह स्थिति है, जब आत्मा अपने कर्म बंधनों से मुक्त हो जाती है और किसी भी कर्म के फल में नहीं फँसती। यह अवस्था तभी प्राप्त हो सकती है, जब आत्मा बापदादा के समान बन जाती है। समानता में समीप आने का अर्थ है अपने गुण, संस्कार, और स्थिति को बापदादा के समान बनाना। जितनी अधिक समानता होगी, उतनी ही आत्मा "कर्मातीत" अवस्था के समीप पहुँचेगी।
यहाँ "समानता का मीटर" कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि आत्मा को यह देखना है कि वह कितनी समानता धारण कर पाई है। यह समानता जितनी अधिक होगी, उतना ही आत्मा "कर्मातीत" बनने के निकट होगी।
मुख्य बिंदु:


निष्कर्ष:
इस पाठ में "कर्मातीत" अवस्था को स्पष्ट रूप से समझाया गया है और बताया गया है कि समानता ही आत्मा को "कर्मातीत" बनने के मार्ग पर ले जाती है। जब आत्मा बापदादा के समान बन जाएगी, तभी वह "कर्मातीत" अवस्था को प्राप्त कर पाएगी।

Year-1970
संदर्भ:
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख है।
वाक्य:
"ऐसी स्थिति की स्टेज को कर्मातीत अवस्था कहा जाता है। कर्मातीत अर्थात् देह के बंधन से मुक्त।कर्म कर रहे हैं लेकिन उनके कर्मों का khaata नहीं बनेगा जैसे कि न्यारे रहेंगे, कोई अटैचमेंट नहींहोगा।"
तिथि:
26-01-1970
विश्लेषण:
इस पाठ में "कर्मातीत अवस्था" को याद के यात्रा की सम्पूर्ण स्टेज के रूप में वर्णित किया गया है। "कर्मातीत" का अर्थ है वह स्थिति जिसमें आत्मा शरीर में रहते हुए भी देह से न्यारी हो जाती है। इस अवस्था में आत्मा कर्म करती है, लेकिन उन कर्मों का कोई बंधन नहीं बनता। इसे "देह के बंधन से मुक्त अवस्था" कहा गया है।
बापदादा ने स्पष्ट किया है कि "कर्म करने वाला अलग और कर्म अलग हैं "—इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति को ऐसा अनुभव होना चाहिए कि वह कर्म करते हुए भी उससे जुड़ा नहीं है, अर्थात किसी भी प्रकार का आसक्ति या बंधन नहीं है। इस स्थिति में बुद्धि अधिक नहीं चलानी पड़ती; जो संकल्प उठता है, वही सहज ही पूरा होता है।
यह भी बताया गया है कि "मूलवतन जाने से पहलेवाया सूक्ष्मवतन जाना होगा", अर्थात् आत्मा को अपने परमधाम (मूलवतन) जाने से पहले "कर्मातीत" स्थिति में स्थिर होना आवश्यक है। सूक्ष्मवतन में "फरिश्तों का मेला" होगा, यानी आत्मा को सूक्ष्म अवस्था में रहकर संपूर्ण शुद्धता का अनुभव करना होगा।


निष्कर्ष:

"कर्मातीत" अवस्था प्राप्त करने के लिए आत्मा को पूरी तरह से देह से न्यारा होकर, बिना आसक्ति के कर्म करना होगा। इस अवस्था में व्यक्ति शारीरिक रूप से कार्यरत रहेगा, लेकिन मन और बुद्धि पूरी तरह से परमात्म स्मृति में स्थित रहेंगी। यही याद की यात्रा की सम्पूर्ण स्टेज है, जिसे योग की प्रैक्टिकल सिद्धि भी कहा गया है।
संदर्भ:
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख है।
वाक्य:
"साकार में सम्पूर्ण लक्ष्य तो एक ही है ना। उसने कर्मातीत बनने के लिए क्या लक्ष्य रखा?"
तिथि:
29-06-1970
विश्लेषण:
यहाँ "कर्मातीत" अवस्था को सम्पूर्ण बनने के लक्ष्य से जोड़ा गया है। बापदादा ने स्पष्ट किया है कि "कर्मातीत बनने" का अर्थ है अपने प्रत्येक कर्म में समर्पण की भावना रखना, जिससे आत्मा सभी कर्मों के बंधनों से मुक्त हो सके। कर्मातीत अवस्था प्राप्त करने के लिए "समर्पण का विशाल रूप" आवश्यक बताया गया है।
समर्पण का विस्तृत रूप निम्नलिखित चार बिंदुओं में समझाया गया है:

मुख्य बिंदु:


निष्कर्ष:
"कर्मातीत" अवस्था प्राप्त करने के लिए बापदादा ने "समर्पण का विशाल रूप" अपनाने की शिक्षा दी है। यह अवस्था तभी प्राप्त हो सकती है जब आत्मा अपने संकल्प, समय, कर्म, और संबंधों को ईश्वरीय सेवा में अर्पित कर दे। इस पाठ में "कर्मातीत" बनने के लिए बाप समान बनने का लक्ष्य स्पष्ट रूप से बताया गया है।

संदर्भ:
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख है।
वाक्य:
"आजकल कम्पलीट अर्थात् सम्पूर्ण कर्मातीत बनने के लिए पुरुषार्थ करते-करते मुख्य एक कम्पलेन समय प्रति समय सभी की निकलती है।"
तिथि:
05-11-1970
विश्लेषण:
यहाँ "कर्मातीत" अवस्था को "कम्पलीट" और "सम्पूर्ण" बनने के रूप में समझाया गया है। बापदादा ने बताया कि "कर्मातीत" बनने का अर्थ है ऐसी स्थिति में पहुँचना, जहाँ आत्मा सभी प्रकार के व्यर्थ संकल्पों और कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाती है। लेकिन इस "कर्मातीत" या "सम्पूर्ण" स्थिति को प्राप्त करने में मुख्य विघ्न "व्यर्थ संकल्पों के तूफ़ान" हैं, जो अधिकतर आत्माओं की सामान्य समस्या है।
इस समस्या को हल करने के लिए बापदादा ने एक युक्ति बताई है कि अपने समय की पूरी बुकिंग करें
इसके लिए निम्नलिखित चार गतिविधियाँ बताई गई हैं, जिनमें मन को व्यस्त रखना है:

यदि आत्मा अपने समय की ऐसी अपॉइन्टमेंट डायरी बनाकर मन को व्यर्थ संकल्पों से मुक्त रखेगी, तो "कम्पलीट" अर्थात् "कर्मातीत" स्थिति को शीघ्र प्राप्त कर सकेगी।
मुख्य बिंदु:


निष्कर्ष:
इस पाठ में "कर्मातीत" बनने के लिए व्यर्थ संकल्पों को समाप्त करके मन और समय का सदुपयोग करने की विधि बताई गई है। बापदादा ने यह भी स्पष्ट किया कि डिले करने से आत्मा की प्राप्ति में भी देरी हो जाएगी, इसलिए संगमयुग के हर सेकंड का मूल्य समझकर तत्परता से पुरुषार्थ करना ही "कर्मातीत" अवस्था की कुंजी है।

Year - 1971
संदर्भ:
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख किया गया है।
वाक्य:
"जैसे साकार रूप में प्रत्यक्ष अनुभव किया ना।कर्मातीत अवस्था भी स्पष्ट थी और भविष्य स्वरूपकी स्मृति भी स्पष्टथी।"
तिथि:
26-01-1971
विश्लेषण:
यहाँ "कर्मातीत अवस्था" को स्पष्ट रूप से उस स्थिति के रूप में वर्णित किया गया है, जिसमें आत्मा देह और देह से जुड़े सभी बंधनों से मुक्त हो जाती है। बापदादा ने "कर्मातीत" अवस्था को अंतिम स्वरूप के रूप में बताया है, जहाँ आत्मा शरीर छोड़ने के बाद तुरंत ही तैयार अवस्था में होती है।
मुख्यबिंदु:

  1. "कर्मातीत" अवस्था की स्पष्टता:
    "कर्मातीत" अवस्था को ऐसा अनुभव बताया गया है, जहाँ आत्मा अपने शरीर से पूरी तरह न्यारी हो जाती है और उसे इस बात का बोध रहता है कि वह ताज और तख्तधारी बनने वाली है।
  2. बुद्धिबल द्वारा अनुभव:
    "कर्मातीत" अवस्था को बुद्धिबल (बुद्धि की शक्ति) के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है। जैसे-जैसे आत्मा अपने संस्कारों को समाप्त करती जाती है, वैसे-वैसे यह अनुभव अधिक स्पष्ट होता जाता है।
  3. संस्कारों को मिटाने की शक्ति:
    "कर्मातीत" अवस्था प्राप्त करने के लिए आत्मा को अपने पुराने संस्कारों को मिटाने की शक्ति धारण करनी होगी। इस शक्ति के माध्यम से आत्मा अपने वर्तमान स्वरूप को बदलकर भविष्य स्वरूप को स्पष्ट रूप से देख सकेगी।

निष्कर्ष:
"कर्मातीत" अवस्था इस पाठ में आत्मा की अंतिम और सम्पूर्ण स्थिति के रूप में वर्णित है, जहाँ वह सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होकर साक्षात् ताज और तख्तधारी बनने के लिए तैयार रहती है। यह अवस्था तभी प्राप्त होती है जब आत्मा अपने संस्कारों को समाप्त कर, बुद्धिबल द्वारा अपने भविष्य स्वरूप को स्पष्ट रूप से अनुभव करने लगती है।
संदर्भ:
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख किया गया है।
वाक्य:
"यह लोग तो अन्त:वाहक शरीर का अपना अर्थ बताते हैं। लेकिन यथार्थ अर्थ यही है कि अन्त के समय की जो आप लोगों की कर्मातीत अवस्था की स्थिति है वह जैसे वाहन होता है ना।"
तिथि:
11-02-1971
विश्लेषण:
यहाँ "कर्मातीत अवस्था" को "अन्तिम स्थिति" के रूप में वर्णित किया गया है। बापदादा ने "कर्मातीत अवस्था" की तुलना एक वाहन से की है, जिसके द्वारा आत्मा एक सेकंड में कहीं भी जा सकती है। "कर्मातीत" बनने का अर्थ है ऐसी स्थिति प्राप्त करना, जहाँ आत्मा सभी प्रकार के स्थूल भान और देह-अभिमान से मुक्त हो जाती है। यह स्थिति आत्मा को अंत में प्राप्त होती है, जब वह देह से पूरी तरह न्यारी हो जाती है और सूक्ष्म रूप में कार्य करने लगती है।
इस "कर्मातीत अवस्था" में आत्मा स्थूल शरीर के बंधन से परे होती है और सूक्ष्म रूप में सेवा कर सकती है। इसे "अन्त:वाहक शरीर" के रूप में समझाया गया है, जो आत्मा के अंतिम स्वरूप का प्रतीक है।
मुख्य बिंदु:

  1. "कर्मातीत" अवस्था:
    इसे अंतिम स्थिति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जहाँ आत्मा शरीर के भान से मुक्त होकर सूक्ष्म सेवा कर सकती है।
  2. "अन्त:वाहक शरीर":
    यह वह स्थिति है, जिसमें आत्मा अपने सूक्ष्म स्वरूप में रहती है और एक सेकंड में कहीं भी पहुँच सकती है। यह स्थिति तभी संभव होती है, जब आत्मा "कर्मातीत" बन जाती है।
  3. स्पीड और स्टेज:
    "कर्मातीत" अवस्था प्राप्त करने के लिए आत्मा को अपने पुरुषार्थ की गति को तेज करना होगा। जितनी तेज आत्मा की गति होगी, उतनी ही जल्दी वह "कर्मातीत" अवस्था में पहुँचेगी।

निष्कर्ष:
इस पाठ में "कर्मातीत" अवस्था को आत्मा की अंतिम और सर्वोच्च स्थिति के रूप में वर्णित किया गया है, जहाँ आत्मा शरीर के बंधनों से मुक्त होकर सूक्ष्म रूप में सेवा करती है। इसे प्राप्त करने के लिए आत्मा को अपनी गति (पुरुषार्थ) तेज करनी होगी और देह से न्यारा होकर सूक्ष्म सेवा की स्थिति में स्थिर होना होगा।

संदर्भ:
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख किया गया है।
वाक्य:
"इस समय की स्टेज को कर्मातीत फरिश्तापन की स्मृति की स्टेज कहेंगे?"
तिथि:
04-07-1971
विश्लेषण:
यहाँ "कर्मातीत" अवस्था को "फरिश्तापन की स्मृति की स्टेज" के रूप में वर्णित किया गया है। बापदादा ने "कर्मातीत" अवस्था को वह स्थिति बताया है, जिसमें आत्मा देह-अभिमान से पूरी तरह मुक्त होकर निरंतर अव्यक्त स्थिति में रहती है। यह अवस्था ऐसी होती है, जहाँ आत्मा कर्म करते हुए भी कर्म बंधन से न्यारी रहती है।
मुख्य बिंदु:

  1. "कर्मातीत" अवस्था और अव्यक्त स्थिति:
    "कर्मातीत" अवस्था को "अव्यक्त स्थिति" के साथ जोड़ा गया है, जिसका अर्थ है कि आत्मा बाहरी कर्मों में लगी रहते हुए भी आंतरिक रूप से शुद्ध, पवित्र, और बापदादा की स्मृति में स्थित रहती है।
  2. स्मृति और सत्संग:
    बापदादा ने बताया कि "कर्मातीत" अवस्था में पहुँचने के लिए आत्मा को निरंतर "सत्संग" (सत् के संग) में रहना होगा। जब आत्मा हर कर्म में बापदादा को अपना साथी मानकर कार्य करती है, तो सहज ही याद ठहरने लगती है और डबल फोर्स से कार्य करने की शक्ति प्राप्त होती है।
  3. फरिश्ता बनने का मार्ग:
    "कर्मातीत" अवस्था प्राप्त करने का दूसरा नाम "फरिश्ता बनना" भी बताया गया है। इसका अर्थ है, आत्मा का सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों और रिश्तों से मुक्त होकर एक बाप से ही सर्व संबंध जोड़ना। जब बुद्धि एक बाप से जुड़ेगी और अन्य सभी रिश्तों और रास्तों को बंद कर देगी, तब आत्मा सहज ही "फरिश्ता" बन जाएगी।

निष्कर्ष:
इस पाठ में "कर्मातीत" अवस्था को आत्मा की अंतिम अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है, जहाँ आत्मा देह के बंधनों से पूरी तरह मुक्त होकर बापदादा की स्मृति में रहती है। "कर्मातीत" बनने के लिए आत्मा को निरंतर बाप के साथ सत्संग रखना होगा, जिससे हर कर्म सहज हो जाएगा और आत्मा अंत में फरिश्ता स्वरूप को प्राप्त कर लेगी।
संदर्भ:
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख किया गया है।
वाक्य:
"इस रीति से भट्ठी में भी अपनी सम्पूर्ण स्टेज वा बाप के समान स्टेज वा कर्मातीत स्थिति की स्टेज के सेट को ऐसा सेट किया है जो कि फिर संकल्प, शब्द वा कर्म उसी सेटिंग के प्रमाण ऑटोमेटिकली चलते ही रहे?"

तिथि:
01-08-1971
विश्लेषण:
यहाँ "कर्मातीत स्थिति" को आत्मा की उस अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है, जिसमें आत्मा अपने संकल्प, शब्द और कर्म को बाप समान सेट कर लेती है। बापदादा ने यह स्पष्ट किया है कि जब आत्मा "कर्मातीत" अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तो उसके संकल्प, शब्द और कर्म स्वतः ही उस स्थिति के अनुरूप चलते रहते हैं।
मुख्य बिंदु:


निष्कर्ष:
इस पाठ में "कर्मातीत स्थिति" को आत्मा की वह अंतिम अवस्था बताया गया है, जिसमें आत्मा अपने संकल्प, शब्द और कर्म को बाप समान स्थिर कर लेती है। एक बार यह स्थिति सेट हो जाने पर आत्मा सहज ही श्रेष्ठ कर्म करती रहती है और सदैव अचल-अडोल बनी रहती है। "कर्मातीत" बनने के लिए आत्मा को हिम्मत, उल्लास, और पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है।
इस पाठ में "कर्मातीत" शब्द का उल्लेख किया गया है।
संदर्भ:
वाक्य:
"जिसको फरिश्ता कहो, कर्मातीत स्टेज कहो। लेकिनफरिश्ता भी तब बनेंगे जब कोई भी इमप्योरिटी अर्थात्पांच तत्वों की आकर्षण आकर्षित नहीं करेगी। "
तिथि:
20-08-1971
विश्लेषण:
इस पाठ में "कर्मातीत स्टेज" को फरिश्ता अवस्था के समान बताया गया है। यह स्थिति वह होती है जिसमें आत्मा किसी भी प्रकार की शारीरिक आकर्षण या पांच तत्वों की अपवित्रता से प्रभावित नहीं होती। "कर्मातीत" बनने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं को महत्वपूर्ण बताया गया है:


निष्कर्ष:
इस पाठ में "कर्मातीत" स्थिति को फरिश्तापन के समान बताया गया है, जिसमें आत्मा पूरी तरह निराकारी और निर्विकारी बन जाती है। आत्मा को किसी भी प्रकार की शारीरिक आकर्षण या पांच तत्वों की खिंचाव से ऊपर उठकर शुद्धता की अंतिम अवस्था में स्थित होना होता है। यह अवस्था तभी प्राप्त हो सकती है जब आत्मा बाप के साथ अपने सभी संबंध जोड़कर पूर्ण आत्म-अभिमानी बन जाए।

"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में किया गया है।
संदर्भ:
वाक्य:
"अभी -अभी शरीर में आये, फिर अभी -अभी अशरीरीबन गये - यह प्रैक्टिस करनी है। इसी को ही कर्मातीतअवस्था कहा जाता है।"
तिथि:
21-01-1972
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।

निष्कर्ष:
कर्मातीत अवस्था का अर्थ है शरीर में रहते हुए भी आत्मा को शरीर से न्यारा अनुभव करना। यह वह अंतिम स्थिति है जहाँ आत्मा पूरी तरह से शरीर और इसके आकर्षण से मुक्त होकर कार्य करती है। इस अवस्था में पहुँचने पर आत्मा फरिश्ता रूप में आ जाती है और उसकी सेवा सूक्ष्म स्तर पर भी प्रभाव डालती है। इस पाठ में कर्मातीत अवस्था को एक महत्वपूर्ण लक्ष्य के रूप में स्थापित किया गया है जिसे निरंतर प्रैक्टिस से प्राप्त किया जा सकता है।
"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में किया गया है।
संदर्भ:
वाक्य:
"चलते-फिरते फरिश्ता वा कर्म करते हुए कर्मातीत।"
तिथि:
03-02-1972
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था को फरिश्ता स्थिति के साथ जोड़ा गया है।

निष्कर्ष:
कर्मातीत अवस्था का अर्थ है—कर्म करते हुए भी आत्मा की स्थिति ऐसी हो जैसे वह शरीर से न्यारी है। यह अवस्था तभी प्राप्त हो सकती है जब आत्मा अपने स्वरूप को पूरी तरह से जान ले और हर कर्म को संयमपूर्वक करते हुए अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे।

"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में किया गया है।
संदर्भ:
वाक्य:
"जितना अपने सामने सम्पूर्ण स्टेज समीप होती जावेगीउतनी विश्व की आत्माओं के आगे आपकी अन्तिमकर्मातीत स्टेज का साक्षात्कार स्पष्ट होता जयेगा।"
तिथि:
03-02-1972
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था को अंतिम और सर्वोच्च अवस्था के रूप में परिभाषित किया गया है।

निष्कर्ष:
यहाँ कर्मातीत अवस्था को अंतिम लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जहाँ आत्मा कर्म करते हुए भी निर्लिप्त रहती है। यह अवस्था ही आत्मा को ब्राह्मण से फरिश्ता और फिर देवता स्वरूप में पहुँचाने वाली है।
"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में किया गया है।
संदर्भ:
वाक्य:
"इसलिए त्रिकालदर्शा बनकर हर कर्म करो, तब हीकर्मातीत बन सकेंगे। "
तिथि:
20-05-1972
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था को अंतिम स्थिति के रूप में दर्शाया गया है, जिसमें आत्मा कर्म तो करती है लेकिन उन कर्मों के बंधन से मुक्त रहती है।

निष्कर्ष:
कर्मातीत अवस्था प्राप्त करने के लिए आत्मा को हर कर्म त्रिकालदर्शी बनकर, सावधानी और सतर्कता से करना आवश्यक है। यही अवस्था आत्मा को बंधनमुक्त और सदा स्वतंत्र बनाएगी।

"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में किया गया है।
संदर्भ:
वाक्य:
"मेला अर्थात् मिलन। यहां अंतिम मेला कौन -सा होगा ? संगम की बात सुनाओ।कर्मातीत अवस्था भी तब होगी जब पहले मेला होगा।"
तिथि:
04-12-1972
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था को आत्मा की अंतिम स्थिति के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

निष्कर्ष:
कर्मातीत अवस्था प्राप्त करने के लिए आत्मा को बाप के समान गुण, कर्त्तव्य और स्थिति में आने का निरंतर अभ्यास करना होगा। यह अवस्था तब सिद्ध होगी जब आत्मा अपने संसारिक आकर्षण और कर्मों के बंधनों से मुक्त होकर बाप समान स्थित हो जाएगी।
"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में किया गया है।
संदर्भ:
वाक्य:
"आप श्रेष्ठ आत्माएं कर्मातीत अर्थात् कर्म के अधीन नहीं, कर्मों के परतन्त्र नहीं। स्वतन्त्र हो कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मकराते हो।"
तिथि:
30-06-1973
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था का तात्पर्य है—

निष्कर्ष:
कर्मातीत अवस्था का अर्थ है ऐसी स्थिति जिसमें आत्मा कर्मों की परतन्त्रता से मुक्त होकर स्व-शक्ति द्वारा कर्मों को नियंत्रित करती है। यह अवस्था संगमयुग में निरंतर अभ्यास द्वारा प्राप्त की जा सकती है।

"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में निम्नलिखित वाक्य में हुआ है:
संदर्भ:
वाक्य:
"लगाव और स्वभाव से अतीत कर्मातीत स्थिति में स्थितहोने वाले, मुक्ति और जीवनमुक्ति के वर्से के प्राप्ति केजीवन में सदा रहने वाले, मुक्त और जीवनमुक्तआत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।"
तिथि:
30-06-1973
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था का तात्पर्य उस उच्च स्थिति से है, जहाँ आत्मा स्वभाव और लगाव से पूरी तरह मुक्त हो जाती है।

निष्कर्ष:
कर्मातीत अवस्था वह अंतिम और श्रेष्ठ स्थिति है, जिसमें आत्मा सभी प्रकार के लगाव, स्वभाव और बन्धनों से परे हो जाती है। यह स्थिति आत्मा को मुक्ति और जीवनमुक्ति की अनुभूति कराने वाली तथा विश्व-सेवा में सक्षम बनाती है।
"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में निम्नलिखित वाक्य में हुआ है:
संदर्भ:
वाक्य:
"तब कोई अप्राप्त वस्तु नहीं रह जाती तो ऐसी स्टेज कोहीकर्मातीतअथवाफरिश्तेपनकी स्टेज कहा जाताहै।"
तिथि:
21-07-1973
विश्लेषण:
इस पाठ में कर्मातीत अवस्था को उस स्थिति के रूप में बताया गया है जिसमें आत्मा सभी इच्छाओं और बंधनों से मुक्त हो जाती है।

निष्कर्ष:
यह पाठ स्पष्ट रूप से बताता है कि कर्मातीत स्थिति वही है, जब आत्मा पूर्णता और सफलता की स्थिति में स्थित होकर संसार के किसी भी बंधन से मुक्त हो जाती है।

"कर्मातीत" शब्द का उल्लेख इस पाठ में निम्नलिखित वाक्य में हुआ है:
संदर्भ:
वाक्य:
"इसी समय अगर यह फल स्वीकार कर लिया तो फिरकर्मातीत स्टेज का फल, सम्पूर्ण तपस्वीपन का फल और अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का फल प्राप्त होसकेगा।"
यह फल स्वीकार कर लिया तो फिर कर्मातीत स्टेज का फल, सम्पूर्ण तपस्वीपन का फल और अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का फल प्राप्त