1. | 26.01.1970
"कर्मातीत" पर विश्लेषण:
1. "कर्मातीत" की परिभाषा और उसका महत्व
बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" स्थिति को देह से न्यारी और उपराम अवस्था कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी देह के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है।
- "कर्मातीत" का अर्थ है ऐसा उच्चतम अवस्था, जहाँ व्यक्ति कर्म करता है, लेकिन उसके कर्म से कोई बंधन नहीं बनता।
- व्यक्ति कर्म करते हुए भी स्वयं को कर्म से अलग अनुभव करता है – अर्थात् कर्म करने वाला और कर्म, दोनों में न्यारा भाव होता है।
- संदर्भ: "कर्मातीत अर्थात् देह के बंधन से मुक्त। कर्म कर रहे हैं लेकिन उनके कर्मों का खाता नहीं बनेगा जैसे कि न्यारे रहेंगे, कोई अटैचमेंट नहीं होगा।"
2. "कर्मातीत" स्थिति की विशेषताएँ
A. न्यारी अवस्था और उपराम स्थिति
"कर्मातीत" अवस्था में रहने वाले व्यक्ति की विशेषता यह होती है कि वह हर परिस्थिति में स्वयं को न्यारा (अलग) अनुभव करता है।
- उनकी स्थिति ऐसी होती है कि उनके बोलने और चलन से उपराम स्थिति का अनुभव औरों को भी होता है।
- संदर्भ: "जो ज्यादा न्यारी अवस्था में रहते हैं, उनकी स्थिति में विशेषता क्या होती है? उनकी बोली से उनके चलन से उपराम स्थिति का औरों को अनुभव होगा।"
B. देह और देही का अनुभव अलग-अलग होना
- "कर्मातीत" बनने का अर्थ है देह और देही (आत्मा) का भिन्न-भिन्न अनुभव होना।
- शरीर में रहते हुए भी व्यक्ति स्वयं को आत्मा के रूप में देखता है, जिससे वह कर्म करता है, लेकिन उस कर्म से जुड़ा नहीं रहता।
- संदर्भ: "शरीर में होते हुए भी उपराम अवस्था तक पहुंचना है। बिलकुल देह और देही अलग महसूस हो।"
C. न्यारेपन की अनुभूति
- "कर्मातीत" स्थिति में व्यक्ति हर कर्म को केवल एक निमित्त के रूप में करता है, बिना किसी अटैचमेंट के।
- ऐसा अनुभव होगा कि कर्म और कर्म करने वाला दोनों अलग हैं।
- संदर्भ: "कर्म करनेवाला अलग और कर्म अलग हैं – ऐसे अनुभव दिन प्रति दिन होता जायेगा।"
3. "कर्मातीत" स्थिति में पहुंचने की प्रक्रिया
A. मेहमान भाव अपनाना
- "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं को इस दुनिया में एक मेहमान के रूप में अनुभव करे।
- मेहमान वह होता है जो आता है और फिर चला जाता है – उसे किसी चीज से बंधन नहीं होता।
- जब तक व्यक्ति अपने को मेहमान नहीं समझता, तब तक वह पूरी तरह से न्यारा नहीं हो सकता।
- संदर्भ: "जब तक अपने को मेहमान नहीं समझते हो तब तक न्यारी अवस्था नहीं हो सकती है।"
B. बुद्धि की न्यारी स्थिति
- "कर्मातीत" स्थिति में पहुंचने के बाद व्यक्ति को ज्यादा सोच-विचार करने की आवश्यकता नहीं होती।
- संकल्प अपने आप उठता है और जो होना होता है, वही होता है।
- संदर्भ: "इस अवस्था में जास्ती बुद्धि चलाने की भी आवश्यकता नहीं है। संकल्प उठा और जो होना है वही होगा।"
4. "कर्मातीत" स्थिति का अंतिम अनुभव: सूक्ष्मवतन और मूलवतन का मार्ग
- बापदादा के महावाक्यों में यह भी कहा गया है कि "कर्मातीत" अवस्था प्राप्त करने के बाद सभी आत्माओं को पहले सूक्ष्मवतन जाना होगा और वहाँ मिलना होगा, फिर मूलवतन (आत्मा के परमधाम) में प्रवेश होगा।
- इस अवस्था में आत्माएँ फरिश्तों की तरह व्यवहार करेंगी, जहाँ रूहें आपस में मिलेंगी और बातें करेंगी।
- यह वही स्थिति होगी जिसका वर्णन कहानियों में किया गया है।
- संदर्भ: "मूलवतन जाने के पहले वाया सूक्ष्मवतन जायेंगे। वहाँ सभी को आकर मिलना है फिर अपने घर चलकर फिर अपने राज्य में आ जायेंगे।"
5. निष्कर्ष: "कर्मातीत" स्थिति का सार
- "कर्मातीत" स्थिति का सार यह है कि व्यक्ति पूरी तरह से देह और देही के भाव में अंतर कर लेता है।
- वह हर कर्म करता है, लेकिन किसी भी कर्म से उसका बंधन नहीं बनता।
- इस स्थिति में पहुंचने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं को इस संसार में मेहमान समझे, हर परिस्थिति में न्यारा और उपराम रहे, तथा संकल्पों की शुद्धता और स्थिरता बनाए रखे।
- अंततः "कर्मातीत" बनने का अर्थ है देह के बंधनों से मुक्त होकर, फरिश्तों की अवस्था में सूक्ष्मवतन से होते हुए परमधाम (मूलवतन) की यात्रा करना।
मुख्य विचार:
"कर्मातीत" वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति हर कर्म को निष्काम भाव से करता है, स्वयं को मेहमान समझता है, और देह के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है। यह स्थिति आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और दिव्यता की ओर ले जाती है।
2. | 29.06.1970
1. "कर्मातीत" की परिभाषा एवं मूल विचार
बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" वह उच्च आध्यात्मिक स्थिति है, जहाँ व्यक्ति कर्म तो करता है, लेकिन उन कर्मों से बंधन (बंधत्व) नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि कर्म त्याग दिया जाए, बल्कि इसका तात्पर्य है कर्मों को निष्काम भाव से करना।
- यह स्थिति तब प्राप्त होती है जब व्यक्ति हर कर्म को आसक्ति रहित होकर करता है और उसका मन, बुद्धि, व संकल्प सभी पूर्ण शुद्ध होते हैं।
- संदर्भ: "कर्मातीत बनने का लक्ष्य तभी सिद्ध होता है, जब आसक्ति रहित कर्म किए जाएँ – अर्थात् हर कार्य निष्काम भाव से किया जाए।"
2. "कर्मातीत" स्थिति की मुख्य विशेषताएँ
बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" अवस्था को प्राप्त करने वाले व्यक्ति की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया गया है:
A. कर्मों से बंधन-मुक्त (Bondage-free Action)
व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता है, लेकिन उन कर्मों के फल से स्वयं को जोड़े बिना। इसका अर्थ है कि व्यक्ति न तो फल की इच्छा करता है, न ही सफलता या विफलता से प्रभावित होता है।
- संदर्भ: "कर्म तो होते हैं, लेकिन वे किसी भी प्रकार के बंधन को उत्पन्न नहीं करते।"
B. समभाव (Equanimity)
"कर्मातीत" स्थिति में व्यक्ति हर परिस्थिति में समान भाव रखता है। चाहे सुख हो या दुख, लाभ हो या हानि, उसकी आंतरिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आता।
- संदर्भ: "हर परिस्थिति में समानता रखी जाए – चाहे सुख हो या दुख, सफलता हो या विफलता, व्यक्ति की स्थिति में कोई परिवर्तन न आए।"
C. संपूर्ण समर्पण (Complete Surrender)
व्यक्ति हर कर्म को ईश्वर या एक उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित कर देता है। उसमें स्वयं का अहंकार समाप्त हो जाता है और वह हर कार्य को लोकहितकारी भावना से करता है।
- संदर्भ: "सर्व समर्पण के लक्ष्य से ही सम्पूर्ण बने।"
D. साक्षी भाव (Witness Consciousness)
व्यक्ति अपने सभी कर्मों में साक्षी भाव रखता है। वह यह समझता है कि वह केवल कर्म का एक निमित्त है और वास्तविक कर्ता कोई उच्च शक्ति है।
- संदर्भ: "कर्मातीत" बनने का मुख्य आधार है: साक्षी भाव से कर्म करना।"
3. "कर्मातीत" बनने की प्रक्रिया
बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने के लिए एक क्रमबद्ध प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है:
A. निरंतर आत्म-निरीक्षण
साधक को हर समय यह देखना होता है कि उसके कर्मों में कोई स्वार्थ या आसक्ति न हो। यह आत्म-जागरूकता ही "कर्मातीत" बनने का पहला कदम है।
- संदर्भ: "साधक को स्वयं पर ध्यान देते हुए यह देखना होता है कि उसके हर कर्म में कोई स्वार्थ न हो।"
B. मानसिक स्थिरता
मानसिक स्थिरता के लिए साधक को ध्यान, साधना, और सेवा के मार्ग पर चलना आवश्यक है। इससे वह हर स्थिति में स्थिरता और शांति बनाए रखता है।
- संदर्भ: "साधना में निरंतरता आवश्यक है। साधक को स्वयं पर ध्यान देते हुए यह देखना होता है कि उसके हर कर्म में कोई स्वार्थ न हो।"
C. उच्च उद्देश्य के प्रति जुड़ाव
बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने हर कर्म को एक उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित करे। जब व्यक्ति का जीवन लोककल्याण और आत्मोन्नति के लिए समर्पित होता है, तभी वह "कर्मातीत" स्थिति को प्राप्त कर सकता है।
- संदर्भ: "अपने अहंकार और इच्छाओं को पूरी तरह ईश्वर या उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित करना।"
4. "सम्पूर्ण मूर्त" बनने में "कर्मातीत" की भूमिका
बापदादा के महावाक्यों में यह कहा गया है कि "कर्मातीत" बनने के बिना "सम्पूर्ण मूर्त" बनना संभव नहीं है।
- "सम्पूर्ण मूर्त" बनने का अर्थ है ऐसा आदर्श व्यक्तित्व विकसित करना, जो हर गुण और हर परिस्थिति में पूर्ण हो।
- "कर्मातीत" बनने से व्यक्ति कर्म के बंधनों से मुक्त हो जाता है, जिससे वह अपनी आत्मा की पूर्ण शुद्धता, ज्ञान, और स्थिरता प्राप्त कर लेता है।
- संदर्भ: "साकार में सम्पूर्ण लक्ष्य तो एक ही है ना – उसने कर्मातीत बनने के लिए क्या लक्ष्य रखा?"
5. निष्कर्ष
बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने को एक अत्यंत आवश्यक और अंतिम लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को आत्म-निरीक्षण, आसक्ति रहित कर्म, साक्षी भाव, और समर्पण का पालन करना होता है।
- "कर्मातीत" बनने का अर्थ केवल कर्म से परे होना नहीं, बल्कि कर्म करते हुए भी उससे प्रभावित न होना है।
- यह स्थिति ही व्यक्ति को "सम्पूर्ण मूर्त" बनाने में सहायक होती है, क्योंकि इससे वह हर प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है और आत्मा की उच्चतम स्थिति में पहुँच जाता है।
मुख्य विचार:
"कर्मातीत" वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति हर कर्म को पूर्ण निष्काम भाव से करता है, साक्षी भाव अपनाता है, और सर्व समर्पण के द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है। इसी के माध्यम से वह सम्पूर्ण बनता है।
3. | 05.11.1970
"कर्मातीत" पर विश्लेषण:
1. "कर्मातीत" की परिभाषा
बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने का अर्थ है कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन से मुक्त होना। अर्थात् आत्मा कर्म के प्रति केवल निमित्त भाव से रहती है और उस कर्म का कोई भी प्रभाव आत्मा की स्थिति पर नहीं पड़ता।
- "कर्मातीत" स्थिति में पहुंचने के लिए सम्पूर्णता आवश्यक है, जहाँ आत्मा हर प्रकार की अपूर्णता और व्यर्थ संकल्पों से मुक्त हो।
- संदर्भ: "आजकल कम्पलीट अर्थात् सम्पूर्ण कर्मातीत बनने के लिए पुरुषार्थ करते-करते मुख्य एक कम्पलेन समय प्रति समय सभी की निकलती है।"
2. "कर्मातीत" स्थिति में आने वाली बाधाएँ
A. व्यर्थ संकल्पों का विघ्न
बापदादा के महावाक्यों में बताया गया है कि "कर्मातीत" बनने में सबसे बड़ा विघ्न व्यर्थ संकल्पों का होता है।
- यह एक सामान्य समस्या है जो अधिकांश आत्माओं के अनुभव में आती है।
- संदर्भ: "चाहते हैं कम्पलीट होना लेकिन वह कम्पलीट होने नहीं देती। वह कौन सी कम्पलेन है? व्यर्थ संकल्पों की। कम्पलीट बनने में व्यर्थ संकल्पों के तूफान विघ्न डालते हैं।"
B. समय का दुरुपयोग
- जब आत्मा के मन को व्यर्थ संकल्पों से दूर नहीं रखा जाता, तो समय व्यर्थ चला जाता है।
- "कर्मातीत" बनने के लिए समय का सही उपयोग आवश्यक है, क्योंकि समय का सही उपयोग ही आत्मा को हर परिस्थिति में स्थिर और शुद्ध स्थिति में रखता है।
- संदर्भ: "अपॉइन्टमेंट से फ्री रहते हो तब व्यर्थ संकल्प समय ले लेते हैं। तो समय की बुकिंग करने का तरीका सीखो।"
3. "कर्मातीत" बनने की युक्तियाँ
A. समय प्रबंधन (अपॉइन्टमेंट की डायरी)
बापदादा के महावाक्यों में बताया गया है कि बड़े व्यक्ति अपनी हर गतिविधि के लिए समय की अपॉइन्टमेंट बनाते हैं। उसी प्रकार "कर्मातीत" बनने के लिए आत्मा को भी हर दिन की एक समय-निर्धारित योजना बनानी चाहिए।
- हर कार्य का समय निश्चित करने से मन व्यर्थ संकल्पों में नहीं जाएगा और समय सफल हो जाएगा।
- संदर्भ: "तो रोज़ अमृतवेले सारे दिन की अपनी अपॉइन्टमेंट की डायरी बनाओ। अगर अपने मन को हर समय अपॉइन्टमेंट में बिज़ी रखेंगे तो बीच में व्यर्थ संकल्प समय नहीं ले सकेंगे।"
B. चार अवस्थाओं में मन को लगाना
"कर्मातीत" बनने के लिए चार अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, जिनमें मन को लगाए रखना चाहिए। ये अवस्थाएँ हैं:
- मिलन – आत्मा और परमात्मा के मिलन की स्थिति में रहना।
- वर्णन – सेवा में समय लगाना, अर्थात ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना।
- मगन – मगन अर्थात एकाग्र अवस्था में रहना, जहाँ आत्मा का मन और बुद्धि स्थिर रहती है।
- लगन – लगन का अर्थ है हर कार्य में प्रेम और निष्ठा से जुटे रहना।
- संदर्भ: "तो मगन की अवस्था में कम रहते हैं। इसलिए लगन, मगन, मिलन और वर्णन।"
4. "कर्मातीत" स्थिति का अनुभव
A. सम्पूर्णता का अनुभव
- "कर्मातीत" स्थिति में व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि वह हर परिस्थिति में स्थिर, शुद्ध और निर्लिप्त है।
- जैसे कोई ड्रामा स्टेज पर अभिनय करते हुए भी स्वयं को उससे अलग अनुभव करता है, वैसे ही "कर्मातीत" स्थिति में व्यक्ति अपने कर्मों से न्यारा रहता है।
- संदर्भ: "बेहद की स्टेज के बीच पार्ट बजा रही हूँ वा बजा रहा हूँ। सारे विश्व की आत्माओं की नज़र मेरी तरफ है।"
B. ड्रामा रूपी कैमरे का दृष्टिकोण
- "कर्मातीत" बनने के लिए यह स्मृति रखनी आवश्यक है कि जीवन एक ड्रामा है, जिसमें हर सेकंड आत्मा का चित्र खींचा जा रहा है।
- यह स्मृति रखने से आत्मा हर कार्य में सजग रहती है और सम्पूर्णता की ओर बढ़ती है।
- संदर्भ: "हर समय यह स्मृति रखो कि अपना चित्र ड्रामा रूपी कैमरे के सामने निकाल रहा हूँ।"
5. निष्कर्ष: "कर्मातीत" स्थिति का सार
- "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को हर प्रकार के व्यर्थ संकल्पों से मुक्त रहकर समय का सदुपयोग करना होगा।
- चार अवस्थाओं (मिलन, वर्णन, मगन, लगन) में अपने मन को लगाए रखने से आत्मा व्यर्थ में नहीं भटकेगी।
- जब आत्मा हर कर्म में न्यारी और उपराम स्थिति में रहती है, तब वह "कर्मातीत" बन जाती है।
- इस स्थिति में आत्मा कर्म करती है, लेकिन उन कर्मों का बंधन नहीं बनता और न ही उनका कोई खाता तैयार होता है।
- अंततः "कर्मातीत" स्थिति वही है, जहाँ आत्मा देह और कर्म से पूरी तरह से अलग अनुभव करती है और सम्पूर्ण बनकर अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाती है।
मुख्य विचार:
"कर्मातीत" बनने का अर्थ है देह और देही के बीच पूर्ण न्यारा भाव रखना, हर कर्म को केवल निमित्त भाव से करना, और व्यर्थ संकल्पों से मुक्त होकर सम्पूर्णता को धारण करना।