1. | 26.01.1970

"कर्मातीत" पर विश्लेषण:


1. "कर्मातीत" की परिभाषा और उसका महत्व

बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" स्थिति को देह से न्यारी और उपराम अवस्था कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी देह के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है।


2. "कर्मातीत" स्थिति की विशेषताएँ

A. न्यारी अवस्था और उपराम स्थिति

"कर्मातीत" अवस्था में रहने वाले व्यक्ति की विशेषता यह होती है कि वह हर परिस्थिति में स्वयं को न्यारा (अलग) अनुभव करता है।

B. देह और देही का अनुभव अलग-अलग होना

C. न्यारेपन की अनुभूति


3. "कर्मातीत" स्थिति में पहुंचने की प्रक्रिया

A. मेहमान भाव अपनाना

B. बुद्धि की न्यारी स्थिति


4. "कर्मातीत" स्थिति का अंतिम अनुभव: सूक्ष्मवतन और मूलवतन का मार्ग


5. निष्कर्ष: "कर्मातीत" स्थिति का सार


मुख्य विचार:
"कर्मातीत" वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति हर कर्म को निष्काम भाव से करता है, स्वयं को मेहमान समझता है, और देह के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है। यह स्थिति आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और दिव्यता की ओर ले जाती है।

 

2. | 29.06.1970

 

1. "कर्मातीत" की परिभाषा एवं मूल विचार

बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" वह उच्च आध्यात्मिक स्थिति है, जहाँ व्यक्ति कर्म तो करता है, लेकिन उन कर्मों से बंधन (बंधत्व) नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि कर्म त्याग दिया जाए, बल्कि इसका तात्पर्य है कर्मों को निष्काम भाव से करना।


2. "कर्मातीत" स्थिति की मुख्य विशेषताएँ

बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" अवस्था को प्राप्त करने वाले व्यक्ति की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया गया है:

A. कर्मों से बंधन-मुक्त (Bondage-free Action)

व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता है, लेकिन उन कर्मों के फल से स्वयं को जोड़े बिना। इसका अर्थ है कि व्यक्ति न तो फल की इच्छा करता है, न ही सफलता या विफलता से प्रभावित होता है।

B. समभाव (Equanimity)

"कर्मातीत" स्थिति में व्यक्ति हर परिस्थिति में समान भाव रखता है। चाहे सुख हो या दुख, लाभ हो या हानि, उसकी आंतरिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आता।

C. संपूर्ण समर्पण (Complete Surrender)

व्यक्ति हर कर्म को ईश्वर या एक उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित कर देता है। उसमें स्वयं का अहंकार समाप्त हो जाता है और वह हर कार्य को लोकहितकारी भावना से करता है।

D. साक्षी भाव (Witness Consciousness)

व्यक्ति अपने सभी कर्मों में साक्षी भाव रखता है। वह यह समझता है कि वह केवल कर्म का एक निमित्त है और वास्तविक कर्ता कोई उच्च शक्ति है।


3. "कर्मातीत" बनने की प्रक्रिया

बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने के लिए एक क्रमबद्ध प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है:

A. निरंतर आत्म-निरीक्षण

साधक को हर समय यह देखना होता है कि उसके कर्मों में कोई स्वार्थ या आसक्ति न हो। यह आत्म-जागरूकता ही "कर्मातीत" बनने का पहला कदम है।

B. मानसिक स्थिरता

मानसिक स्थिरता के लिए साधक को ध्यान, साधना, और सेवा के मार्ग पर चलना आवश्यक है। इससे वह हर स्थिति में स्थिरता और शांति बनाए रखता है।

C. उच्च उद्देश्य के प्रति जुड़ाव

बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने हर कर्म को एक उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित करे। जब व्यक्ति का जीवन लोककल्याण और आत्मोन्नति के लिए समर्पित होता है, तभी वह "कर्मातीत" स्थिति को प्राप्त कर सकता है।


4. "सम्पूर्ण मूर्त" बनने में "कर्मातीत" की भूमिका

बापदादा के महावाक्यों में यह कहा गया है कि "कर्मातीत" बनने के बिना "सम्पूर्ण मूर्त" बनना संभव नहीं है।


5. निष्कर्ष

बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने को एक अत्यंत आवश्यक और अंतिम लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। "कर्मातीत" स्थिति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को आत्म-निरीक्षण, आसक्ति रहित कर्म, साक्षी भाव, और समर्पण का पालन करना होता है।


मुख्य विचार:
"कर्मातीत" वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति हर कर्म को पूर्ण निष्काम भाव से करता है, साक्षी भाव अपनाता है, और सर्व समर्पण के द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है। इसी के माध्यम से वह सम्पूर्ण बनता है।

 

3. | 05.11.1970

"कर्मातीत" पर विश्लेषण:


1. "कर्मातीत" की परिभाषा

बापदादा के महावाक्यों में "कर्मातीत" बनने का अर्थ है कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन से मुक्त होना। अर्थात् आत्मा कर्म के प्रति केवल निमित्त भाव से रहती है और उस कर्म का कोई भी प्रभाव आत्मा की स्थिति पर नहीं पड़ता।


2. "कर्मातीत" स्थिति में आने वाली बाधाएँ

A. व्यर्थ संकल्पों का विघ्न

बापदादा के महावाक्यों में बताया गया है कि "कर्मातीत" बनने में सबसे बड़ा विघ्न व्यर्थ संकल्पों का होता है।

B. समय का दुरुपयोग


3. "कर्मातीत" बनने की युक्तियाँ

A. समय प्रबंधन (अपॉइन्टमेंट की डायरी)

बापदादा के महावाक्यों में बताया गया है कि बड़े व्यक्ति अपनी हर गतिविधि के लिए समय की अपॉइन्टमेंट बनाते हैं। उसी प्रकार "कर्मातीत" बनने के लिए आत्मा को भी हर दिन की एक समय-निर्धारित योजना बनानी चाहिए।

B. चार अवस्थाओं में मन को लगाना

"कर्मातीत" बनने के लिए चार अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, जिनमें मन को लगाए रखना चाहिए। ये अवस्थाएँ हैं:

  1. मिलन – आत्मा और परमात्मा के मिलन की स्थिति में रहना।
  2. वर्णन – सेवा में समय लगाना, अर्थात ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना।
  3. मगन – मगन अर्थात एकाग्र अवस्था में रहना, जहाँ आत्मा का मन और बुद्धि स्थिर रहती है।
  4. लगन – लगन का अर्थ है हर कार्य में प्रेम और निष्ठा से जुटे रहना।

4. "कर्मातीत" स्थिति का अनुभव

A. सम्पूर्णता का अनुभव

B. ड्रामा रूपी कैमरे का दृष्टिकोण


5. निष्कर्ष: "कर्मातीत" स्थिति का सार


मुख्य विचार:
"कर्मातीत" बनने का अर्थ है देह और देही के बीच पूर्ण न्यारा भाव रखना, हर कर्म को केवल निमित्त भाव से करना, और व्यर्थ संकल्पों से मुक्त होकर सम्पूर्णता को धारण करना।