1.00 | में...

भल भाइयों-भाइयों का आपस में प्यार तो ठीक है। एक बाप के सब बच्चे आपस में भाई-भाई हैं। परन्तु पावन बनाने वाला एक बाप ही है इसलिए सब बच्चों का लॅव एक बाप में ही चला जाता है। एक बाप के बच्चे हो।

आत्मा में ही इतना प्यार है। जबकि देवताई पद प्राप्त करते हो तो आपस में बहुत ही प्यार होना चाहिए।

भल मैं नई दुनिया में राज्य नहीं करता हूँ परन्तु है तो मेरी ना। मेरे बच्चे मेरे इस बड़े घर में भी बहुत सुखी रहते हैं और फिर दु:ख भी पाते हैं।

बाप जानते हैं सारे घर में हमारे बच्चे हैं। पुकारते हैं बाबा हमको छी छी, दु:खी दुनिया से शान्ति की दुनिया में ले चलो, शान्ति देवा।

बाप जानते हैं इस बेहद घर में इस समय सब दु:खी हैं इसलिए कहते हैं शान्ति देवा, सुख देवा।

यह है तमोप्रधान दुनिया। विषय सागर में गोते खाते रहते हैं। बाप कहते हैं मीठे बच्चे, मैं तुमको यह नॉलेज सुनाता हूँ।

मेरे में ही यह नॉलेज है। मनुष्यों को कुछ भी पता नहीं है। बिल्कुल आऱफन बन आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं।

तुम कोई से भी पूछो-जिसको ईश्वर, भगवान्, रचता कहते हो उनको तुम जानते हो? क्या ठिक्कर-भित्तर में ईश्वर कहना ही जानना है?

मन्दिरों में जाकर देवताओं की उपमा, अपनी निंदा करते हैं क्योंकि सभी भ्रष्टाचारी हैं। श्रेष्ठाचारी, स्वर्ग-वासी तो यह लक्ष्मी-नारायण हैं, जिनकी सब पूजा करते हैं। संन्यासी भी करते हैं। सतयुग में ऐसे नहीं होता।

बाप कहते हैं तुम अपने धर्म को भूल कितने धर्मों में घुस पड़े हो। वास्तव में हिन्दू धर्म तो कोई ने स्थापन ही नहीं किया है। ब्रह्मा किसका बच्चा? शिवबाबा का। हम उनके पौत्रे ठहरे। सभी आत्मायें उनके बच्चे हैं। फिर शरीर में पहले ब्राह्मण बनते हैं। प्रजापिता ब्रह्मा है ना।

वास्तव में मेला वहाँ लगना चाहिए जहाँ ब्रह्मपुत्रा बड़ी नदी सागर में जाकर मिलती है। उस संगम पर मेला लगना चाहिए। यह मेला यहाँ है। शिव जयन्ती मनाते हैं तो जरूर कोई में आते हैं। कहते हैं मुझे प्रकृति का आधार लेना पड़ता है। मैं कोई छोटे बच्चे का आधार नहीं लेता हूँ। श्रीकृष्ण तो बच्चा है ना। मैं तो उनके बहुत जन्मों के अन्त में सो भी वानप्रस्थ अवस्था में प्रवेश करता हूँ।

बाप कहते हैं यदा यदाहि..... मैं भारत में ही आता हूँ।

सतयुग में आदि सनातन देवी-देवता धर्म ही था। 5 हज़ार वर्ष की बात है। शास्त्रों में फिर व्यास ने लिख दिया है, कल्प की आयु लाखों हज़ार वर्ष है। वास्तव में है 5 हजार वर्ष का कल्प।

मनुष्य बिल्कुल अज्ञान की, कुम्भकरण की नींद में सोये पड़े हैं। कोई-कोई मनुष्य नर्म दिल होते हैं तो खेल देखकर भी रो पड़ते हैं। बाप तो कहते हैं जिन रोया तिन खोया। सतयुग में रोने की बात नहीं। यहाँ भी बाप कहते हैं रोना नहीं है। रोते हैं द्वापर-कलियुग में।

पिछाड़ी में तो किसको रोने की फुर्सत ही नहीं रहेगी।

 

2.00 | सुख-दु:ख

मेरे बच्चे मेरे इस बड़े घर में भी बहुत सुखी रहते हैं और फिर दु:ख भी पाते हैं। यह खेल है। यह सारी बेहद की दुनिया हमारा घर है। सभी बच्चे इस समय दु:खी हैं इसलिए पुकारते हैं बाबा हमको छी छी, दु:खी दुनिया से शान्ति की दुनिया में ले चलो, शान्ति देवा। बाप को ही पुकारते हैं।

बाप जानते हैं इस बेहद घर में इस समय सब दु:खी हैं इसलिए कहते हैं शान्ति देवा, सुख देवा। दो चीज़ें मांगते हैं ना। अभी तो जानते हो हम बेहद के बाप से सुख का वर्सा ले रहे हैं।

हम बाबा के बच्चे बहुत सुखी थे जबकि पवित्र थे। अब अपवित्र बनने से दु:खी हो जाते हैं।

गाते भी हैं ना तुम मात पिता.... सुख घनेरे थे। सो फिर तुम अभी ले रहे हो क्योंकि अब दु:ख घनेरे हैं।

जब कोई मरता है तो झट कह देते हैं स्वर्गवासी हुआ अर्थात् सब दु:खों से दूर हुआ।

तुम तो बिल्कुल सुखी विश्व के मालिक बनते हो तो तुम्हारे पास हर चीज़ सुखदाई है। वहाँ दु:खदाई कोई चीज़ होती नहीं।

सतयुगी कभी रोते नहीं हैं। पिछाड़ी में तो किसको रोने की फुर्सत ही नहीं रहेगी। अचानक मरते रहेंगे। हाय राम भी नहीं कह सकेंगे। विनाश ऐसा होगा जो जरा भी दु:ख नहीं होगा क्योंकि हॉस्पिटल आदि तो रहेंगी नहीं इसलिए चीज़ें ही ऐसी बनाते हैं।