25.01.1969
"...वैसे तो समर्पण हो ही लेकिन अब समर्पण की स्टेज ऊँची हो गई है।
समर्पण उसको कहा जाता है जो श्वांसों श्वांस स्मृति में रहे।
एक भी श्वांस
विस्मृति का न हो।
हर श्वांस में स्मृति रहे और ऐसे जो होंगे उनकी निशानी क्या है?
उनके चेहरे पर क्या नजर आयेगा?
क्या उनके मुख पर होगा,
मालूम है?
(हर्षितमुख) हर्षितमुखता के सिवाए और भी कुछ होगा?
जो जितना सहनशील होगा उनमें उतनी शक्ति बढ़ेगी।
जो श्वांसों श्वांस स्मृति में
रहता होगा उसमें सहनशीलता का गुण जरूर होगा और सहनशील होने के कारण एक तो हर्षित और शक्ति दिखाई देगी।
उनके चेहरे पर निर्बलता नहीं।
यह जो कभी-कभी मुख से निकलता है, कैसे करें, क्या होगा, यह जो शब्द निर्बलता के हैं, वह नहीं निकलने चाहिए।
जब मन में आता है तो मुख पर
आता है।
परन्तु मन में नहीं आना चाहिए।..."
17.04.1969
"...अभी तो एकएक सैकेण्ड, एक-एक श्वांस, मालूम है कितने श्वांस चलते हैं?
अनगिनत है ना।
तो एक-एक श्वांस, एक-एक सैकेण्ड, सफल होना
चाहिए।
अभी ऐसा समय है - अगर कुछ भी अलबेलापन रहा तो जैसे कई बच्चों ने साकार मधुर मिलन का सौभाग्य गंवा दिया, वैसे ही यह पुरुषार्थ के
सौभाग्य का समय भी हाथ से चला जायेगा।
इसलिए पहले से ही सुना रहे हैं।
पुरुषार्थ से स्नेह रख पुरुषार्थ को आगे बढ़ाओ।..."
28.11.1969
"...बापदादा तो किस न किस रुप से साथ निभाने अर्थात् अंगुली पकड़ने की कोशिश करते रहते हैं।
इतने तक जो बिल्कुल साँस निकलने तक, साँस
निकलने वाला भी होता है तो भी जान भरते हैं।
लेकिन कोई ऑक्सीजन लगाने ही न दे, नली को ही निकाल दे तो क्या करेंगे?
अगर बापदादा का
सहयोग चाहिए तो वास्तव में सहयोग कोई माँगने की चीज़ नहीं है।
सहयोग, स्नेही को स्वत: ही प्राप्त होता है।
आप बापदादा का स्नेही बनो तो
सहयोग स्वत: ही प्राप्त होगा।
माँगने की आवश्यकता नहीं।
आधा कल्प माँगते रहे, भक्त रूप में।
अभी बच्चा बनकर भी माँगते रहे तो बाकी फर्क क्या
रहा भक्त और बच्चों में?
लेकिन कारण क्या है कि अज्ञानी होकर सहयोग माँगते हो अधिकारी समझो तो फिर माँगने की आवश्यकता नहीं।..."
05.12.1970
"...जैसे कोई-कोई जब शरीर छोड़ते हैं तो कभी-कभी साँस छिप जाता है।
और समझते हैं कि फलाना मर गया, लेकिन छिपा हुआ सांस कभी-कभी फिर
से चलने भी लगता है।
वैसे माया अपना अति सूक्ष्म रूप भी धारण करती है।
इसलिए अच्छी तरह से जैसे डॉक्टर लोग चेक करते हैं कि कहाँ श्वास
छिपा हुआ तो नहीं है।
ऐसे तीसरे नेत्र से अच्छी तरह से अपनी चेकिंग करनी है।
फिर कभी ऐसा बोल नहीं निकले कि इस बात का तो हमको आज ही
मालूम पड़ा है। इसलिए बापदादा पहले से ही खबरदार होशियार बना रहे हैं। ..."
28.07.1971
"...ब्रह्माकुमार के नये जीवन में ‘‘कर्मेन्द्रियों के वश होना क्या चीज़ होती है’’, इस नॉलेज से भी परे हो जाते।
अभी शूद्रपन से मरजीवा नहीं बने हैं
क्या वा अभी बन रहे हैं?
शूद्रपन का ज़रा भी सांस अर्थात् संस्कार कहाँ अटका हुआ तो नहीं है?
कोई-कोई का श्वांस छिप जाता है जो फिर कुछ समय
बाद प्रकट हो जाता है।
यहाँ भी ऐसे है क्या?
पुराने संस्कार अटके हुये होंगे; तो मरजीवा बने हो - ऐसे कहेंगे?
मरजीवा न बने तो ब्रह्माकुमार कैसे
कहेंगे।
मरजीवा तो बने हो ना।
बाकी मन्सा संकल्प - यह तो ब्रह्माकुमार बनने के बाद ही माया आती है।
शूद्रकुमार के पास माया आती है क्या? आप
मूंझते क्यों हो?
बोलो कि - ‘‘मरजीवा बने हैं।
मरजीवा बनने बाद माया को चैलेन्ज किया है, इसलिए माया आती है। उनसे लड़कर हम विजयी बनते
हैं।’’
ऐसे क्यों नहीं कहते हो।..."
09.05.1972
"...कहते तो यही हो ना कि तन-मन-धन सब तेरा।
जब तेरा हो गया फिर आपका उस पर अपना अधिकार कहां से आया?
जब अधिकार नहीं तो उसको
अपनी मन-मत से काम में कैसे लगा सकते हो?
संकल्प को, समय को, श्वांस को, ज्ञान-धन को, स्थूल तन को अगर कोई भी एक खज़ाने को मनमत
से व्यर्थ भी गंवाते हो तो ठगत नहीं हुए?
जन्म-जन्म के संस्कारों वश हो जाते हैं।
यह कहां तक रीति चलती रहेगी?
जो बात स्वयं को भी प्रिय नहीं
लगती तो सोचना चाहिए -- जो मुझे ही प्रिय नहीं लगती वह बाप को प्रिय कैसे लग सकती है? ..."
27.05.1974
"...अब हर श्वांस, हर संकल्प, हर सेकेण्ड, हर कर्म, सर्व-शक्तियाँ, सर्व ईश्वरीय संस्कार, श्रेष्ठ स्वभाव व सर्व प्राप्त हुए खजाने विश्व की ही सेवा के
प्रति हैं।
अगर अभी तक भी स्वयं के ही प्रति लगाते हो तो फिर प्रालब्ध क्या मिलेगी?
मास्टर रचयिता बनेंगे या रचना?
रचना स्वयं के प्रति ही होती
है, परन्तु रचयिता, रचना के प्रति होता है। जो अभी ही मास्टर रचयिता नहीं बनते तो वह भविष्य में भी विश्व के मालिक नहीं बनते। ..."
29.08.1975
"... हर सेकेण्ड, हर श्वांस सेवा प्रति, स्वयं प्रति नहीं।
स्वयं के आराम प्रति नहीं, स्वयं के पुरूषार्थ तक नहीं, स्वयं के साथ दूसरों का पुरूषार्थ
इसको कहा जाता है सेवाधारी। ..."
22.09.1975
"...‘‘मैं कौन हूँ’’ इस एक शब्द के उत्तर में सारा ज्ञान समाया हुआ है।
यह एक शब्द ही खुशी के खज़ाने सर्व, शक्तियों के खज़ाने, ज्ञान धन के
खज़ाने, श्वांस और समय के खज़ाने की चाबी है।
चाबी तो मिल गई है न?
जिस दिन आपका जन्म हुआ तो सर्व ब्राह्मणों को बर्थ डे पर गिफ्ट मिलती
है ना?
तो यह बर्थ डे की गिफ्ट जो बाप ने दी है, उसको सदा यूज़ (काम में लाना) करते रहो।
तो सर्व खज़ानों से सम्पन्न सदा के लिये बन सकते
हो।..."
04.10.1975
"...संकल्प द्वारा भी इस ब्राह्मण जीवन का एक श्वांस भी और कोई कार्य में नहीं लगा सकते।
इसलिए भक्ति में श्वासों-श्वांस सुमिरण का यादगार
चला आता है।
निरन्तर के फरिश्ते हो वा अल्पकाल के फरिश्ते हो?
जैसे भक्ति में भी नियम है कि दान दी हुई वस्तु वा अर्पण की हुई वस्तु कोई अन्य
कार्य में नहीं लगा सकते।
तो आप सबने ब्राह्मण जीवन में बापदादा से पहला वायदा क्या किया?
याद है वा भूल गये हो?
बाप के आगे पहला वायदा
यह किया कि तन-मन-धन सब आपके आगे समर्पण है।
जब सर्व समर्पण किया तो सर्व अर्थात् संकल्प, श्वांस, बोल, कर्म, सम्बन्ध, सर्व व्यक्ति, वैभव,
संस्कार, स्वभाव, वृत्ति, दृष्टि और स्मृति - सबको अर्पण किया।
इसको ही कहा जाता है समर्पण। ..."
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