जन्म भूमि दिल्ली की उत्तरी सीमा पर स्थित हरियाणा की सीमा से सटी गाँव Harevali में सन् 1945 में 27-28 फरवरी को प्रातः 4.30 बजे हुआ। यद्यपि । उस समय के प्रचलन के अनुसार स्कूल में मेरी जन्म तिथि मास्टर जी ने 20 जुलाई, 1943 लिख दी थी क्योंकि कक्षा प्रथम में प्रवेश के समय वांछित आयु से कम थी और स्कूल में प्रवेश किया जाना था। जन्म देना जैसा परमात्मा की मर्ज़ी उसी प्रकार स्कूल में जन्मतिथि तय कर लिखना मास्टर जी के हाथ में था। बाद में इस छोटे से गाँव में उस समय लगभग सौ परिवार रहे होंगे और कुल जनसंख्या 800-900 से अधिक न थी। सामाजिक संरचना की दृष्टि से मेरा गाँव ब्राह्मण बाहुल्य था। इसमें अन्य जातियों के घर इस प्रकार थे- 5-6 परिवार जाट समुदाय के, जाटव या चमारों के तीन, झीमर, बढ़ई, धानक यानी जुलाहे, लोहार, बनिया, कुछ मुस्लिम परिवार तेली नाई और फकीर समुदाय के भी थे। शेष ब्राह्मणों के लगभग 65-70 परिवार थे। किंतु सौहार्द्र व भाईचारा गाँव की शान था । गाँव छोटा किंतु सुंदर था। इसके चारों ओर माला के आकार में नहर थी, जिस पर शीशम, जामुन के पेड़ बहुत भारी में थे। चरागाह या जंगल मात्रा/ जिसे हम वन कहते थे उसका क्षेत्र लगभग 800 बीघा था। जंगल घना था, अनेक प्रकार के पेड़ों से पटा हुआ था जिसमें जाल, कीकर, हींस, फ्रांस, कैन्दू, पीपल, बड़ के पेड़ इतनी अधिक मात्रा में थे कि जंगली जानवरों के लिए सुरक्षित स्थान बना हुआ था। खरगोश, गीदड़, हिरन, भेड़िए काफी मात्रा में थे। तीतर, बटेर, मोर, अनेक प्रकार की चिड़ियाँ, कौए, चील, गिद्ध की शरणस्थली यह वन था। इसमें पशुओं के चरने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी। कुछ फलदारवृक्ष जहाँ बंदरों का दबदबा था वहाँ हम बचपन में समूह में जाते और अनेक फलों का आनंद लेते और घर के लिए भी लेकर आते। नई महर या बड़ी नहर के किनारे आम के वृक्षों की कतार थी। मेरे माता-पिता का पहना बेटा प्रेक्षकात में ही अज्ञात रोग से भगवान को प्यारा हो गया। स्वाभाविक है कि माँ बहुत दुःखी हुई। हमारे पिता जी के गुरु व बाल्यकाल से ही पालन पोषण करने वाले संगीत के गुरु पं. मानसिंह सांत्वना देने के उद्देश्य से हमारे घर पधारे गुरु जी ने डांस बंधाने हुए में को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि शोक गनाने की आवश्यकता नहीं है बेटी शीघ्र ही उन्हें एक पुत्ररत्न प्राप्त होगा जो बहुत ही प्रतिभाशाली होगा। देश व समाज में माता-पिता का नाम रोशन करेगा। कहते हैं गुरु जी की वाणी कभी असत्य नहीं होती थी। उनके मुँह में बत्तीस दाँत थे, उन्हें ईश्वर प्रदत्त शक्तियाँ प्राप्त थीं। माँ का अटूट विश्वास था कि गुरुजी के आशीर्वाद को सत्य व सार्थक बनाने के लिए ईश्वर ने उनके पुत्र के रूप में मुझे जन्म दिया। मेरा जन्म बुधवार की रात्रि में प्रातः 4.30 बजे हुआ उस दिन देश होली मनाने की तैयारी कर रहा था यानी वह होली के पर्व का दिन था। पूरा देश मेरे जन्म दिन को मनाता है। अतः मुझे अलग से जन्मदिन मनाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वैसे भी कई-कई संतानों के जन्मदिन मनाने की किसे फुर्सत थी। उन दिनों उत्तरी भारत में मनोरंजन का लोकप्रिय साधन लोकनाट्य-जिसे सांग कहा जाता था, उसका आयोजन करना किसी व्यक्ति या गाँव के लिए सम्मान का प्रतीक माना जाता था। मेरे पिता जी सांग करते थे गुरु मानसिंह के दो शिष्य थे-एक पं. लख्मीचंद जो इनसे बड़े थे दूसरे मेरे पिता जी यानी दयाचंद गुरु जी ने कहा था कि एक भी चल रही श्री पं. लख्मीचंद की लोकप्रियता की और दूसरा चूलिया (चक्रवात) दयाचंद के रूप में समाज को दे दिया है। मेरे जन्म के समय मेरे पिता जो की लोकप्रियता बहुत थी अतः इनकी भारी मांग रहती थी गाँवों में। मेरे जन्म वाले दिन भी दिल्ली के नारायण गाँव में पिता जी की सांग श्रृंखला कई दिन से चल रही थी। लोग कहते हैं कि मेरे पिता के सांगों में लक्ष्मी बरसती थी। उस समय 'मल्लिका' के चाँदी के रुपयों का प्रचलन था। पैसे की तंगी न थी, पिता का दिल और हाथ खुला था। खूब कमाते खूब खर्च करते। अतः पिता जी ने मेरे जन्म के अवसर पर अपार खुशी में खूब चाँदी के रुपए बांटे थे। जन्मदात्री माँ यानी जच्चा के लिए देशी घी में सूखे मेवे डालकर गौद तैयार किया जाता था। निश्चित है हर परिवार की अपनी क्षमता के अनुसार ही गुणवत्ता व मात्रा में गोंद तैयार किया जाता। मेरे जन्म पर दो प्रकार का गौंद तैयार किया गया था एक जच्चा के लिए और दूसरा संबंधियों, पड़ोसियों व प्रियजनों में वितरित करने के लिए। माँ के लिए एक मन यानी चालीस सेर और वितरित करने के लिए दो मन यानी 80 सेर । इतना गौंद गाँव में किसके बूते की बात थी। मेरे माता-पिता ने उस मिष्ठान को उदारतापूर्वक दोनों हाथों से प्रसन्नतापूर्वक बाँटा था। कई दिनों तक गीत-संगीत का आयोजन परिवार व पड़ोस की महिलाओं ने किया था। गरीबों को वस्त्र व मिठाई प्रेम पूर्वक भेंट की गई थी। पूरे गाँव की कन्याओं को भोजन कराया, उन्हें वस्त्रादि भेंट स्वरूप दिए। उन बालिकाओं/देवियों का आशीर्वाद प्राप्त किया गया मेरी स्वस्थ दीर्घायु के लिए। मेरे जन्म के बाद प्रियजनों व संबंधियों के कई परिवारों से चाँदी व सोने के चाँद सूरज आए थे जिन्हें नवजात शिशु को काले या लाल रंग के धागे में पिरोकर पहनाया जाता था। चाँदी की कई तगड़ियाँ (मेखलाएँ) इन स्नेहासिल भेंटों का अंग थी यह प्रेम, लोकप्रियता व समृद्धिका लक्षण था। मुझे याद है कि बाद में मेरी माँ ने भी उदारतापूर्वक सुअवसरों पर उन आभूषणों को परिजनों के नवजात शिशुओं को भेंटस्वरूप दे दिया था। वंश परिवार हमारा मूल गाँव झिंझौली था जो तत्कालीन पंजाब के रोहतक व वर्तमान में हरियाणा के सोनीपत जिले का सीमावर्ती गाँव है। यानी हमारे गाँव से अगला ही गाँव है। हमारे पूर्वज कई पीढ़ी पहले व्यवसायिक आवश्यकता के अनुसार वर्तमान हरेवली गाँव में आ गए थे या लाये गये थे। वहाँ हमारे परिवार के पास 10-12 एकड़ कृषि भूमि भी थी जिसका थोड़ा अंश आज भी हमारे परिवार के पास है। हमारे परदादा का नाम रामकला था। उनके तीन बेटे हुए-शेरसिंह, निहालसिंह व छोटूराम इनमें से निहालसिंह के पुत्र मीरसिंह व एक पुत्री बावरी हुई। शेर सिंह दूसरे दादा के दो पुत्र-मेरे पिता जी व उनके बड़े भाई पृथ्वीसिंह एवं एक पुत्री समय हुई। तीसरे वदा के तीन बेटे श्रीलाल, तक्वीराग व सुभाष चंद व दो बेटियाँ-श्रिया और फूलवती। मेरे बड़े ताऊ जी पृथ्वीसिंह के छः पुत्र व तीन पुत्रियाँ हुई। मेरे पिता जी के हम छः भाई और तीन बहनें रही। यूँ तो शैशवकाल में तीन बेटों व एक बेटी परमात्मा को प्यारे हो गए। हम छः भाइयों व तीन बहनों के परिवार में सबसे बड़ा मैं हूँ। हमारा परिवार X स्वतंत्रता के पूर्व देश में शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम था नारी-शिक्षा की तो बात ही क्या? दुर्दशा कह सकते हैं। आज की तरह परिवार नियोजन का प्रचार नहीं था। बहुत मात्रा में संतानें पैदा होने का ज़िम्मेदार परमात्मा को मानकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया जाता। परिणामतः दर्जन भर बच्चे होना सामान्य बात थी। उनके पालन-पोषण शिक्षा-दीक्षा की चिंता न होती। हिनुकूटी के लिए अधिक हाथों का होना सा समृद्धि का मार्ग माना जाता था। जिस माँ के एक भी संतान न हो या केवल कन्याओं को जन्म देने वाली हो उन्हें अशुभ, अवांछनीय यहाँ तक कि कलंकी भी माना जाता था। अतः अधिक संतान सुखी परिवार का मापदण्ड मानी जाती थी। इसी श्रेष्ठ मातृत्व क्षमता को सिद्ध करते हुए मेरी माँ ने भी कुल तेरह बच्चों को जन्म दिया जिनमें से तीन बेटे व एक बेटी शैशवावस्था में ही भगवान के प्यारे हो गए। उन दिनों शैशव अवस्था में मृत्यु आम बात थी शत-प्रतिशत जन्म घरों में होते थे। गाँव की दाई नर्स डॉक्टर सब कुछ थी। शिशुओं की मौत प्रशासन या सरकार की चिंता का विषय नहीं था क्योंकि सब भगवान भरोसे रहता था। चार के जाने के बाद भी छः पुत्र व तीन पुत्रियों की माँ को लगता है बड़ी बूढ़ियों द्वारा दिया गया आशीर्वाद 'दूधों नहाओ पूतो फलों' खूब फलीभूत हुआ था। छः बेटों की माँ होने से उन्हें बहुत हो भाग्यवान माना जाता था। उज्ज्वल पक्ष यह था कि मेरे माता-पिता को मेरी बहनों के जन्म के समय कभी उदास नहीं देखा। उदार सोच के धनी मेरे पिता जी प्रसन्नतापूर्वक कहते 'भाई लक्ष्मी आई है घर में।' क्योंकि उन दिनों बल्कि आज भी बहुसंख्य ग्रामीण अशिक्षित परिवारों में कन्या के जन्म को सकारात्मक रूप से नहीं देखा जाता। पुरुष प्रधान समाज में कन्या का आना, एक बोझ, जिम्मेदारी यहाँ तक कि आफत माना जाता था। एकाध कन्या के जन्म के बाद उनकी आमद को रोकने के लिए उनके नाम, संतोष, भतेरी, बौहती आदि रख दिए जाते थे ताकि भविष्य में कन्या घर में न जन्मे। मेरे पिता जी ने घृणित परंपरा के विरुद्ध अपनी बेटियों के सम्मानजनक नाम रखे-सम्पत्ति दर्शनी एवं रोशनी। पिता जी नामकरण स्वयं करते थे। पंडित जी से पूछकर कोई नाम उन्होंने नहीं रखा। वे अपने बेटों के नाम भी ऐसे रखते थे जो उसके पूर्व गाँव में किसी के बेटे के न हो जैसे-प्रेमचंद, रमेशचंद्र, दिनेश, सत्यवान, नरेश कुमार, महेश कुमार। यहाँ तक कि वे कहते दयाचंद भी मुझसे पहले गाँव में किसी का नाम नहीं रखा गया था। - परिवार के सदस्य हम छह भाई और हमारी तीन बहने थीं। क्रम से संक्षेप में जानकारी इस प्रकार है मेरे बाद दूसरे स्थान के भाई रमेश दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए उनकी शादी वर्ष 1973 में शांति देवी से हुई जो हरियाणा में शिक्षिका थी। हेडमास्टर पद से सेवानिवृत्त हुई। दोनों दिल्ली के बवाना कस्बे में अपने परिवार के साथ रह रहे हैं। तीसरे भाई दिनेश गोपाल ने सिविल इंजीनियरिंग के बाद, एल.एल.बी. किया और वे अपना व्यापार कर रहे हैं उनकी पत्नी एम.ए., पी.एच.डी. हिंदी में करके घर संभाल रही है। इनका विवाह वर्ष 1982 में दिल्ली के भोगल, जंगपुरा के एक व्यापारी परिवार के यहाँ हुआ था। चौथे डॉ. सत्यभान पातंजलि जिन्होंने मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज, दिल्ली से एम.बी.बी.एस., गुरु नानक आई सेंटर दिल्ली से एम.एस. किया। कुछ वर्षो तक विदेश में सेवा करने के बाद अपना क्लीनिक रोहिणी सेक्टर 8 वाले घर में एक तल पर चला रहे हैं। इनका विवाह मेरी पत्नी के ही संबंधी एक प्राइवेट कंपनी में अधिकारी रहे (पूर्व में लाहौर निवासी) की बेटी अनीता से वर्ष 1984 में हुआ। अनीता एम.ए. करने के बाद केंद्रीय विद्यालय में पढ़ा रही थी। पाँचवां भाई नरेश कुमार इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर डी.डी.ए. में ए.ई. पद को छोड़कर ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय माउंट आबू राजस्थान को समर्पित है। उसने विवाह नहीं किया। वह ईश स्तुति में शिव बाबा की सेवा में आनंदपूर्वक लगे हुए हैं। छठा भाई महेश कुमार 12वीं पास करके दिल्ली विश्वविद्यालय में नौकरी कर रहा था। 2012 में उनका निधन हो गया। तीन बहनों में संपत्ति सबसे बड़ी जिनका विवाह वर्ष 1967 में अलीपुर के एक कृषक परिवार में हुआ। इनके पति श्री ईश्वर सिंह स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज से रिटायर हुए। ये अपनी बेटी की शादी के बाद तीन बेटों और बहुओं एवं पर्टपोतों और पोतियों के भरे पूरे परिवार के साथ अलीपुर दिल्ली में रह रहे हैं। इनसे छोटी दूसरी बहन का विवाह सोनीपत के एक अपना व्यवसाय करने वाले लड़के से हुआ था। पाँच बेटियों के बाद बेटे को जन्म देने की प्रक्रिया में वर्ष 1993 में संसार से विदा हो गई। कुछ दिन बाद उनके पति श्री कृष्ण भी नहीं रहे। तीसरी और छोटी रोशनी बहन 12वीं तक पढ़ी, हरियाणा के खेल विभाग में कार्यरत / पहलवान श्री हवासिंह के साथ 1982 में शादी हुई। हवासिंह जी हरियाणा के फरीदाबाद में डिस्ट्रिक्ट स्पोर्टस अधिकारी के पद पर कार्यरत थे। उनका आकस्मिक निधन हो गया। बहन रोशनी अपने दो बेटों के साथ उत्तम नगर, दिल्ली में रहती है। इन सबके पालन-पोषण, पढ़ाई, विवाह आदि की अधिकांश ज़िम्मेदारी माँ के चले जाने के बाद मेरी पत्नी ने निभाई। मैं इनके साथ रहा। परिवार के संबंधों का निर्वहन कठिन व चुनौतीपूर्ण कार्य होता है किंतु इन सबको स्थापित करने के बाद अब हम संतुष्ट और प्रसन्न हैं । मेरी माँ का मायका (पीहर) हरियाणा प्रदेश के तत्कालीन रोहतक व आधुनिक जिला झज्जर के निकट पुरानी रियासत दुजाना के पास मदाना कलां गाँव में था। यह क्षेत्र हर प्रकार से पिछड़ा हुआ था। बाल्यकाल में एकाध बार ही मैंने अपने नाना-नानी को देखा था। मिट्टी के खिलौनों को जैसे चिथड़ों से ढककर रखा जाता है, वैसे फटे-पुराने, मैले वस्त्रों से आच्छादित गाँव के किनारे बने कच्चे घर में रहते थे वहाँ जंगली पेड़ जाल आदि उनके घर के द्वार पर थे। उसी के नीचे नाना जी मिट्टी के बने हुक्के का आनंद लेते। नानी अधिकांश समय बीमार ही रहती किंतु उनकी सेवा करती। माँ चार भाइयों व तीन बहनों के भरे पूरे परिवार में सबसे छोटी थी। नानी-नाना दोनों ही लड़कियों से अधिक प्यार भी करते व उनके लिए चिंतित रहते। उनका मानना था कि लड़के तो जैसे-तैसे कमा खा लेंगे। लड़कियों को अच्छे घर व वर मिल जाएं तो उनका जीवन सुख से बीतेगा। सौ वर्ष पहले मेरी माँ का नाम लाइ में लिछमी (लक्ष्मी) रखा गया था। शिक्षा का प्रचार क़तई नहीं था। अतः सातों संतानों-चार भाई-तीन बहनों में से कोई भी शिक्षित न था। उस दौर में यह आम बात थी। जब तिछमी का विवाह दिल्ली निवासी मेरे पिता जी से हुआ तो पूरा परिवार आनंद से ओत-प्रोत था कि दिल्ली सूबे में उनकी बहन की ससुराल हो गई वह तो आनंद में रहेगी सुखी रहेगी। जहाँ तक मुझे याद है मेरे नाना के घर में भैंस ना थी बल्कि गायें और बकरियाँ थी, जिनका दूध पीकर मेरी माँ बड़ी हुई। इसलिए वे चुस्त व फुर्तीली थी, सुंदर थी व स्वभाव से विनम्र थी। ससुराल में सास-ससुर नहीं थे अतः पूरी ज़िम्मेदारी माँ की थी, घर गृहस्थी के संचालन की । सास की पूर्ति तो हमारी दादी ने, जो हमारे छोटे दादा जी की पत्नी थी, उन्होंने की। वहीं उनकी सहेली, मार्गदर्शक व सहायक थी। उस समय स्त्री शिक्षा का प्रचार सामान्य परिवेश में नहीं था। अतः मेरी माँ को शिक्षित होने का अवसर नहीं मिला था। वे सरल स्वभाव की निःश्छल महिला थी। सामान्य महिलाओं की भाँति वे निंदा रस का आस्वादन करने से परहेज़ ही करती। ममतामयी त्याग की मूर्ति बस काम में ही व्यस्त रहती। ओढ़ने-पहनने सजने-संवरने का अवसर भी जीवन में कम ही मिला था। सबसे पहली स्मृति मुझे अपनी माँ की कुछ इस प्रकार की है-मेरी sagi मौसी और ताऊ जी से विवाहित थी। उनका घर पास में ही था। प्लाट चौकोर और बड़ा था। बने हुए केवल दो कमरे और उनके सामने बड़ी बैठक थी, पिछला भाग खाली पड़ा था। उसमें एक पीपल का बड़ा पेड़ था। तीज का त्यौहार था। पीपल के पेड़ के बड़े से टहने पर झूला डाला था जिसमें दो महिलाएँ आमने सामने बैठकर एक दूसरों के पैरों में पैर अटकाए थी। उन्हें झुलाने के लिए झूले में एक रस्सी बँधी थी जिसे युवतियाँ पकड़कर बड़े झूले को गति देती और ऊँचाई तक पहुँचाती थी। चार दीवारी के अंदर यह स्थान था। अतः गली मुहल्ले की सभी महिलाएँ सजधजकर तीज मनाने व झूला झूलने के लिए यहाँ एकत्रित होती थी। पुरुषों का प्रवेश उस समय निषिद्ध होता था। अतः स्वच्छंद होकर दिल की बातें एक दूसरे से साझी करती, मज़ाक करती, चहकती, चुहुलबाजी और छेड़छाड़ व परस्पर मज़ाक करके खुशनुमा माहौल बना कर रखती थी। गेरी माँ ने इस पर्व में शामिल होने के लिए लाल रंग की घाघरी व सुनहरे रंग का चुस्त कमीज़ पहना था। ऊपर हरे रंग की ओढ़नी जिस पर गोटा पेमक से बने चाँद सितारे तारों भरी रात की तरह खिले हुए थे। माँ ने नाक में सोने की नथ हाथों में कर्णफूल और चाँदी की तगड़ी यानी करधनी पहन रखी थी। गले में सोने की कंठी, पैरों में कड़ी, छैलकड़ी, पात्ती आदि कई आभूषण धारण कर रखे थे। सरसों के तेल से बने काजल से आँखें बड़ी बड़ी सी लग रही थी। झूला जोड़े के लिए था। अतः दूसरी महिला पड़ोस की सुसज्जित व सुगठित अंग वाली चन्द्रो चाची मेरी माँ के साथ झूले पर बैठ गई। मेरी बुआ जो उस समय किशोरावस्था की रही होंगी उनकी ड्यूटी झूले को रस्सी से ऊपर तक पहुँचाने की थी-सारी महिलाओं के समावेत स्वर में गाया जाने वाला गीत था 'कोयल पपीहा 15 कूक रहा हैं मेरी माँ मेरी बाग में।' उस समय मेरी आयु ढाई तीन वर्ष को रही होगी। उस समय मेरी माँ जितनी सुंदर दिख रही थी, सुगढ़, युवती, सजी-धजी, गहनों से लदी-लक्ष्मी या सरस्वती की मूर्ति जैसी लग रही थी। उसके बाद आजीवन मैंने अपनी माँ को उतनी सुंदर सजी-धजी तन मन से प्रफुल्लित झूले पर हवा में उड़ते हुए कभी नहीं देखा। लगभग उसी समय की एक और घटना याद आती है। हमारे घर से लगभग पचास गज की दूरी पर गाँव के बाहर तालाब के किनारे एक कुआँ था, जिसके चारों ओर लगभग तीन-चार फीट ऊँचा चबूतरा बना था। यहीं कुआँ पीने, नहाने-धोने के जल का स्रोत था। कुएँ के किनारे एक बड़ा पीपल का पेड़ था। सुबह 8 और 9 बजे के बीच सूर्य अपनी किशोर किरणों से वयस्कता की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा था। पीपल की गहरी छाया में एक हाथी खड़ा था। कई महिलाएँ अपने नवजात या नन्हे मुन्नों को लेकर हाथी के पास एकत्रित हो गई थी। दूर बैठे बड़े बूढ़े भी हुक्के की टीम में इस दृश्य को आनंदपूर्वक निहार रहे थे। मान्यता यह थी कि हाथी के नीचे से बच्चे को पार करा दें और महावत को दान दें तो बच्चा हाथी सा बलवान और भाग्यशाली होगा। मेरी माँ ने मेरी उँगली पकड़ी और छोटे भाई रमेश को, जो उस समय छः महीने का रहा कुछ होगा, गोद में लेकर हाथी के नीचे से निकाल दिया और महावत को दक्षिणा दी थी। हाथी की विशाल काया की छाया से पार कराके महावत जो पंडित की भी भूमिका अदा कर रहा था हमें स्वस्थ, दीघार्यु का आशीर्वाद माँ ने दिलाया तो उनके मुखमंडल की आभा देखने लायक थी। इसी उपक्रम में हाथी को भी कुछ खाद्य सामग्री खिलायी गई थी। माँ संतुष्ट थी कि उनके दो बेटों ने हाथी और महावत का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया । इतने बच्चों को जन्म देने की प्रक्रिया में क्रमशः दुर्बल होती गई। आर्थिक स्थिति ख़राब होती गई। व्यय अधिक और आय कम, वह भी निश्चित नहीं । इन सारी परिस्थितियों के बावजूद सभी बच्चों के लालन-पालन, खान-पान, वस्त्र, स्वास्थ्य की देखभाल, उनकी पढ़ाई की व्यवस्था, अकेली माँ के कंधों पर भी। पिता जी अक्तर बाहर रहते और परिवार के पालन पोषण की अर्थ व्यवस्था में लगे रहते। इतने बड़े परिवार का भोजन पकांना, घर की साफ-सफाई, कपड़े धोना, सबको समय पर स्कूल भेजना कठिन कार्य था। ये दुर्बल हो गई थी और धीरे-धीरे अस्वस्थ भी रहने लगी थी। बीमारी बढ़ती गई, ज़िम्मेदारियाँ कम होने की बजाए बढ़ती ही गई। उनकी दिनचर्या को देखें, प्रातः चार बजे उठती गायों- एक दो या तीन के चारे की व्यवस्था करती, उनका गोबर हटाकर इकट्ठा करती, चाकी पीसती, चूल्हा और चौका मिट्टी से लीपती, सब्जी भाजी बनाती। इस प्रकार स्कूल भेजने की प्रक्रिया पूरी होती, घर की सफाई कर, गोबर- कूड़ा गाँव के बाहर कड़ी पर डालकर आती। सिर पर जिस टोकरी में गोबर लेकर जाती, उसी में ईंधन लेकर लौटती। भोजन चूल्हे पर ही पकता था, कई बार लकड़ियाँ गीली होने पर फूँकनी से आग को जलाए रखना एक संघर्षपूर्ण प्रक्रिया रहती। गाय का दूध निकालती, उसे उपलों के आसन पर हारे पर कढावनी में गर्म करने रखती। दिन में दो बार दूध निकालना। कम से कम दो बार भोजन पकाना, गाय के लिए चारे की व्यवस्था करने खेतों में जाना। कुएँ से दिन भर पीने के लिए पानी मटकों में भरकर लाना। दिन में हम सब के कपड़े धोकर सुखाने का काम भी उन्हीं का था। बिजली, पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। शौचादि के लिए सामान्यतः पुरुष सुबह दूर खेतों में जाते और स्त्रियाँ शाम के समय गाँव के आसपास कूड़ियों, गितवाड़ों के आसपास जाती और अधिकतर समूह में जातीं। शौच से निवृत्त होते समय ही स्त्रियाँ बहुत सारी सूचनाएँ हस्तांतरित या साझा करने का कार्य करती क्योंकि दिन में कोल्हू के बैल की तरह बिना उफ किए काम में जुटी रहती। गाँव की स्त्रियों को अपने शरीर व स्वास्थ्य की देखभाल के लिए समय ही न मिलता था। माँ भी उनमें से एक थी। अधिक काम के बोझ कम व बचा खुचा भोजन, धूल, धुएँ व पशुओं के साथ रहने से बदबूदार वातावरण में, कतई आराम न मिलता। वर्षों तक इस प्रक्रिया से गुजरते गुजरते माँ को अस्थमा हो गया। हमें लगता खाँसी है, कभी-कभार छोटी-मोटी देशी दवा कभी ले लेती। नियमित रूप से कोई उपचार न पिता जी ने करवाया और न ही हमारे बड़े होने के बाद वे दवाईयाँ खाने में रुचि लेती थीं। हमारे पिता जी ने घर के काम में माँ का कभी हाथ नहीं बँटाया। वे बच्चों को गोद में लेकर खिलाते भी नहीं थे। उस समय पुरुष की जिम्मेदारियों में बच्चों का लालन-पालन सामान्यतः नहीं था। खाने-पीने की चीजें लाते लेकिन बच्चों को गोद में लेकर बाहर जाना उनको पुरुषोचित कार्य न लगता । हाँ जो बच्चे बड़े होते गए वे अपने से छोटे भाई-बहनों को गोद में लेकर घर से बाहर भी घुमाने ले जाते थे। इस प्रकार हम सभी ने अपने से छोटे भाई बहनों को पालने में माँ की जिम्मेदारियों में भागीदारी की। उस समय बिना किसी प्रकार की औपचारिक शिशु पालन प्रशिक्षण के ही बड़े परिवारों में बड़े भाई-बहन अपने से छोटे भाई-बहनों का लालन-पालन करके अपने काम के बोझ से दबी माताओं को राहत पहुँचाते थे। हमारे परिवार में सभी के यहाँ भैंस रखी जाती थीं। जैसे पिता जी किलू सदैव गाय ही रखते थे। ये भैंस पालने की तो बात ही क्या है? उसके दर्शन करना भी पसंद नहीं करते थे। गौ के दूध, घी, मूत्र, गोवर और उसकी पवित्रता को धर्म के साथ जोड़कर व स्वतंत्र रूप से 'गी माता' मानते थे। हमारे घर में गौ की पूजा होती थी। मेरी याद में हमारे घर में कभी भी भैंस नहीं रखी गई। बल्कि भैंस रखने के मुद्दे पर मेरे छोटे ताऊ जी हमारे पिताजी से अलग हो गए थे। पिता जी का मानना था भैंस विदेशी पशु है। इसका दूध पीने वाला आलसी व मंद बुद्धि रहता है जबकि गाय का दूध औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है, गुणकारी है । स्फूर्ति व बुद्धि को तीक्ष्ण करने वाला होता है। जब हमारी गाय दूध देना बंद कर देती तो कोशिश यह रहती कि बाहर से गाय का दूध ही खरीदा जाए। गाय की सेवा करना दूध निकालना सब माँ के ड्यूटी चार्ट में था। पिता जी दूध नहीं निकालना जानते थे, न उन्होंने कभी कोशिश की। अतः माँ जब वर्ष 1980 जुलाई में नहीं रही तो गाय की भी हमारे घर से सदैव के लिए विदाई हो गई। महानता का हिमालय, आस्था का शिखर, ममता का सागर यानी प्यार का सागर, धरती जैसी सहनशीलता, आकाश जैसी विराटता, उदारता, माँ जैसी बेजोड़, अद्वितीय अवर्णनीय कोई और वस्तु, मानव' संबंध में नहीं है जो पूज्य हे मनतामयी, क्षमाशील, सहनशील, उदार, में संरक्षण दे जो आपके हित और अच्छे जीवन के लिए हर दुःख-सुख देवी-देवता, परमात्मा से कृपा, आशीर्वाद मांगती रहती है। कहावत है 'बाप तो संसार में किसी को बना लें, माँ नहीं मिलतीं।' यानी माँ का कोई विकल्प नहीं हो सकता। नारी जीवन की चरम परिणति, उच्चतम स्थिति मातृत्व है। हमारी संस्कृति में धार्मिक आस्थाओं में एक ओर जननी माँ, गौ माँ धरती माँ (मातृभूमि) दूसरी ओर आस्था के प्रतीक मां सरस्वती, माँ लक्ष्मी, माँ, दुर्गा, शक्ति, काली से लेकर माता वैष्णो देवी में माँ और मातृत्व ही समान रूप से स्वीकार्य है। हम अपनी जननी पानी माँ के बारे में आज सोचते हैं तो वे सहजता, सादगी, त्याग, ममता, क्षमताशीलता, कर्म की पुजारिन के रूप में याद आती है। वे निरक्षर थी किंतु जीने की कला में प्रवीण थी। कलह, लड़ाई-झगड़ा, लोभ, ईर्ष्या परनिंदा से न केवल स्वयं दूर रहती थी अपितु हमें भी सद्गुणों से संपन्न करने और इन अवगुणों से दूर रहने की प्रेरणा देती थी। आज की उच्च शिक्षित नारी में इन गुणों का उस सीमा तक समावेश दुर्लभ है। अभाव व संघर्ष के दौर में जब मैं कभी निराश होता तो माँ को अहसास हो जाता वे चुपके से आकर मेरे सिर पर हाथ रखकर आश्वस्त करती-बेटा यह समय हमेशा ऐसे ही नहीं रहेगा, तुम सब बड़े होंगे, पढ़ोगे-लिखोगे, बड़े आदमी बनोगे। तुम्हारे पास सब सुख के साधन होंगे लेकिन उस समय तक मैं नहीं रहूँगी। यह उनका विश्वास था, भविष्यवाणी थी या मौत का डर था यह कहना तो कठिन है किंतु हर सांस से आशीर्वाद ही प्रवाहित होता था। हम केरोसिन तेल की डिबरी के मामूली प्रकाश में रात में देर तक पढ़ते तो माँ यद्यपि दिन भर के काम से थक कर चूर हो जाती थी, वह चाहते हुए भी जाग नहीं सकती थी किंतु वे सो भी नहीं सकती थी। बीच-बीच में जागकर देर रात तक हमें पढ़ते देखती और अंत में कहती अब सो जाओ मैं सुबह जल्दी जगा दूँगी। घर में घड़ी न होने पर भी न माँ कभी देर से उठी न हमें कभी स्कूल जाने में देरी हुई। परीक्षाओं के दिनों में बहुत सुबह हमें उठा देती, मुँह धुलवाती और स्वयं हमारे पास हमारा मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से बैठी रहती या चक्की पीसती। कभी-कभी बीच में पूछती पढ़ाई बहुत कठिन होती है क्या बेटे ? दूसरे ही क्षण कहती और पढ़ने वाले बच्चों के लिए कुछ भी कठिन नहीं होता। लगता है उन्हें यह अहसास कचोटता भी हो कि यदि मैं पढ़ी होती तो इन्हें अच्छे से पढ़ा लेती। माँ की सादगी का नमूना कॉलेज के दिनों में ग्रीष्मावकाश में दिल्ली में न रहकर गाँव में ही रहता लेकिन रोज दिल्ली जाता देर से लौटता गांव की ओर जाने को अंतिम बस पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने फतेहपुरी से रात सवा ग्यारह बजे चलती थी उसे में शक्ति नगर से पकड़कर साढ़े बारह बजे तक गाँव से एक-डेढ़ किलोमीटर दूर हरेवली मोड़ पर उतरकर रात में लगभग 1 बजे घर पहुंचता। सामान्यतः भोजन न करता, वैसे भोजन रखा भी रहता, भूख रहती तो कभी-कभी खा लेता। समय का अनुमान न रहता माँ पूछती तो कुछ बताकर सो जाता। दूसरे दिन सुबह माँ ने देरी होने के कारण पूछने पर एक बार मैंने सच कह दिया बस का एक्सीडेंट हो गया, कई तो गंभीर रूप से घायल हुए, कुछ को मामूली चोटें आई। बस इसी में देर हो गई। तो माँ ने मुझे सावधान करते हुए कहा बेटा एक्सीडेंट वाली बस में मत बैठना चाहे देर से आना पड़े, कोई बात नहीं।" माँ को कौन बताए कि यदि एक्सीडेंट वाली बस पहले से चिन्हित हो तो मैं क्या उसमें कोई भी बैठेगा? पर उन्हें तो अपने लाल की सुरक्षा की चिंता थी। क्यों? या महिलाओं की ज़िम्मेदारी अनंत रहती। उनका आठ पहर तीसों दिन, बारहों महीने काम करते-करते व्यतीत हो जाता और ऐसे ही उम्र पूरी हो जाती। कुछ अपवाद थे-जैसे बच्चा होने के कुछ दिन बाद ये मायके जाती). तीज-त्यौहार के बहाने मायके वाले कभी बुला लेते। व्याह शादी में कुछ / दिन का प्रवास हो जाता था। इसके अतिरिक्त गर्मियों की छुट्टियाँ जब बच्चों की होती, उस समय कुछ दिन माएँ मामा के घरों में जाकर रहती थी, बच्चों समेत । हमारी माँ का मायका दूर था, उनका संयुक्त परिवार बड़ा था। आर्थिक स्थिति अच्छी न थी, पिता जी निरुत्साहित करते, फिर भी एकाध बार छुट्टियों में मामा के यहाँ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक विकल्प उपलब्ध था मेरी नानी हमारे गाँव के कुछ दूर के एक गाँव से ब्याह कर मदाना कलां (मेरी मां का मायका) गई थी। नानी का मायके गाँव जटखोड (दिल्ली) में मेरी माँ के ममेरे भाई, सगे भाइयों की भांति या कहें उनसे भी ज्यादा इस सम्बंध को महत्त्व देते और निर्वहण करते । मुझे अनेक बार इन मामाओं के घर जाने या जाकर रहने का अवसर प्राप्त हुआ तीज-त्योहार पर लेना-देना भी ये नियमित लोग रूप से करते थे, जिन्हें सीधा-कोथली कहा जाता है। भांजे को भांजे राजा दुलार में कहते हैं उनसे मजाक के दौरान भानजे की दादी निशाने पर रहती है। वह शायद इसलिए भी कि माँ की सास होने के नाते उलाहने देने का भी मधुर ढंग यह कहा जा सकता है। स्नेह की पराकाष्ठा थी कि मान्यता ही हो गई कि मामा के पर भांजे का अधिक रहना उसे बिगाड़ सकता है। क्योंकि उसे कोई डाँटता ही नहीं गलती करने पर भी दंड न देने की एक परंपरा थी यदि पता हो कि यह तो भांजा है यानी उसे गलतियाँ करने का ओपन लाइसेंस जैसे मिल जाता था। कुछ बड़ा होने पर अनेक बार में अकेला भी जटखोड़ जाकर रहता मेरे गाँव से सीधी नहर यहाँ जाती। उसी के किनारे पर पटरी पर दौड़ता चला जाता। जब मैं वापस आता तो मामा लोग कुछ न कुछ बाँध देते जैसे-गुड़, शक्कर, खेत के ताजा मूली, शलगम आदि सब्जियाँ। यह मेरी परीक्षा की घड़ी रहती सामान लेकर पैदल यात्रा करना। उस घर में माँ का बड़ा मान-सम्मान था। जब में अकेला जाता तो मामा पूछते 'बेटा लिछमी को भी ले आता दो चार दिन यहाँ ठहरती हमारे साथ अच्छा लगता। मेरे तीन मामा थे-बड़े लालचंद जो अकेले थे, बीमार रहते। वे हमेशा चाय में घी डालकर पीते थे, उन्हें लगता था उनकी खाँसी में उन्हें आराम मिलता है, बड़े शांत थे। उनसे छोटे भगवाना, ये खेती करते, इनके कई बेटियाँ और दो बेटे हुए। सबसे छोटे रिछपाल उर्फ पाले। दोनों मागियाँ सगी बहनें थी- पतासो और पानो उनके नाम थे। बहुत स्नेहमयी थी, माँ को व हम सबको बहुत प्यार करती थीं। पिता जी I मुझे ऐसे पिता जी की सबसे बड़ी संतान होने का सौभाग्य ईश्वर ने प्रदान किया, जो मेरे रक्त के संबंध के नाते ही पिता नहीं थे, अपितु मेरे आदर्श, मार्गदर्शक गुरु के साथ-साथ प्रेरक भी आजीवन रहे। उनका नाम दयाचंद गोपाल था। उनके अनुसार उनका जन्म वीरवार, 2 जनवरी, 1916 को दिल्ली के हरेवली गाँव में हुआ था। उनके पिता जी का नाम श्री शेरसिंह उर्फ शेरा और माता जी का नाम सुधा देवी था। तीन वर्ष की आयु में माता-पिता का साया सिर से उठ जाने के साथ ही संघर्ष की शुरुआत हो गई। दूर के संबंध में मौसी लगने वाली विधवा स्त्री ने माँ बाप दोनों का प्रेम दिया। उनके पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी स्वतः अपने ऊपर ले ली थी। 7-8 वर्ष की आयु में ही मौसी की भैसों को जंगल में ले जाकर चराने की महती जिम्मेदारी इनके कंधों पर आ पड़ी। कई वर्षों तक मौसी व उनकी भैंसो की सेवा का फल तब प्राप्त हुआ, जब 9-10 वर्ष के अनाथ को खेतों में नहर के किनारे कुछ गुनगुनाते हुए भैंसों की सेवा कर रहा था। उस समय के भजनोंपदेशक पर पं. मानसिंह जन्मांध थे। अतः घोड़ी पर सवार होकर किसी सेवक के साथ गाँवों में जाते थे, गुरु जी ने उनकी आवाज़ सुनकर बुलाया सिर पर हाथ रखकर परिचय प्राप्त किया। कवि हृदय द्रवित हुआ और इन्हें अपने साथ ले जाकर संगीत की शिक्षा देने के उद्देश्य से अपना शिष्य बनाकर वरदान ही दे दिया, यानी अपनी शरण में ले लिया। पिता जी ने बताया- "मेरे गाने की प्रशंसा करते हुए गुरु जी ने मेरे सिर पर अपना वरदहस्त रखकर पूछा- बेटा तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारे माता-पिता कौन है?” इस पर मैंने जब अपनी राम कहानी गुरु जी को सुनाई तो गुरु जी का मन भर आया और उसी समय मुझे संगीत की शिक्षा देने के लिए अपने साथ चलने को कहा। यह घड़ी मेरे सौभाग्य और कल्याण का श्रीगणेश थी, क्योंकि उसी समय मुझे ईश्वर तुल्य परम गुरु मानसिंह जी ने अपनी शरण में ले लिया।” अत्यंत अभाव के बाद कई वर्षों तक संगीत की शिक्षा का परिणाम यह हुआ कि गोपाल जी हरियाणा के कवि गीतकार, सांगी, भजनोपदेशक समाज के प्रचारक रहे। संवेदनशील कवि गोपाल जी ने कई दशकों तक भारतभ्रमण के दौरान देशभर के धार्मिक स्थलों को भी ध्यान से देखा, जिसका ज़िक्र आपकी रचनाओं में देखने को मिलता है। दयाचंद जी गऊ सेवा के कारण गोपाल जी कहलाए। गऊ और गायत्री उनके जीवन की अंतर्धारा थे। वे गो सेवा और गायत्री जाप को जीवन में सुख शांति का मूलमंत्र मानते थे। उनका दैनिक जीवन बहुत ही संयम से सधा हुआ था। जब से मैंने होश सम्भाला वे ब्रह्म मुहूर्त में यानी प्रातः 3-4 बजे उठकर पाँच महायज्ञों का पालन करते थे-1. शौचादि से निवृत होने के लिए खेतों में जाना। 2. ताज़ा पानी से बारह महीने प्रातः स्नान। 3. सुबह-शाम ईश वन्दना । 4. प्रातः हवन करना। 5. इसके बाद गो-कुत्तों व पक्षियों को भोजन देना । श्री दयाचंद गोपाल हरियाणवी कवि एवं सांगी (लोक नाट्यकार) के रूप में प्रसिद्ध रहे। पं. लक्ष्मीचंद और दयाचंद जी दोनों पं. सुविख्यात भजनोपदेशक मानसिंह के शिष्य थे। वे गायक के साथ-साथ तपस्वी भी थे जन्मांध थे किंतु भ्रमण करते रहते थे। अपनी कला से जनसामान्य को लाभान्वित करते रहे। इन दोनों शिष्यों को संगीत की शिक्षा देकर मैदान में उतारते हुए घोषणा की थी कि पहले तो आंधी को छोड़ा था बानी लख्मीचंद जी आँधी की भाँति तेज़ गति से लोक-मन पर छा गए थे। फिर उन्होंने दयाचंद जी को शिक्षा के बाद जनसामान्य के बीच भेजते हुए कहा था कि अब 'चूलिया' (चक्रवात) छोड़ दिया है। वानी लखमीचंद यदि धी थे तो दयाचंद भूतिया (चक्रवात) की भाँति आकाश में छा जाएंगे। यानी ख्याति प्राप्त होगी। कई वर्षों तक पूरे देश में सांग की कला के प्रदर्शन से दयाचंद जी ने यश कमाया। 1947 में देश के विभाजन के समय दयानंद जी के सभी साजिन्दे-वाद्ययंत्रों को बजाने वाले मुस्लिम समुदाय के थे, वे पाकिस्तान चले गए। लंबा अंतराल बीत गया पुनर्गठन करने में किंतु फिर इन्होंने अपनी रचनाओं, गीतों व गजनों को भजनोपदेशक के रूप में छोटी मंडली बनाकर लोगों का मनोरंजन व ज्ञानवर्धन किया। अंत में मंडली भी न रही और भक्ति परंपरा में आकर केवल इकतारे पर अपनी रचनाओं का गायन करते रहे। बदलते हुए दौर में इन्हें अलग-अलग कामों से भी जाना गया जैसे-भगत जी, महाशय जी एवं गोपाल जी। पूरे देश में घूम घूमकर तीर्थ स्थानों, मंदिरों व मों में ईयर के बारे में जानने की इच्छा से धर्म के अनेक रूपों से रू-ब-रू हुए। आपके व्यक्तित्व के बारे में जानने के लिए कुछ घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। सांगी वा लोकनाट्ककार के रूप में यह प्रसिद्ध था कि जो समय पर वर्षा न हो, सूखे का सामना करना पड़े तो दयाचंद जी से निवेदन किया जाता कि शीला सती का सांग करवाया जाए तो वर्षा हो जाएगी। यह अंधविश्वास नहीं कठोर सत्य था कि अनेक बार सूखा पड़ने पर शीला सती का सांग दयाचंद जी ने किया और तुरंत या एकाध दिन में वर्षा हो जाती थी। आज भी बड़े बुजुर्ग इस बात के साक्षी हैं। कई बार तो सांग होते होते ही वर्षा आ जाती थी। मेरा मानना है कि इसमें संयोग, आस्था, ईश वरदान व इनकी भक्ति की गंभीरता सबका मिला-जुला प्रभाव होता होगा। दबाचंद जी गो सेवक होने के कारण गोपाल कहलाए थे। वर्षो तक केवल गीओ की सेवा की थी। घर में और जंगल में दोनों स्थानों पर अर्थात् पूर्णकालिक कार्य रहा। अपनी छोटी सी गौशाला बना ली थी। इन्होंने सब गौओं के नाम रखे थे उन्हें नाम से पुकारते और वही गाय इनके पास आ जाती थी। गायों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करते थे । एक बार प्रधानमंत्री आवास यानी तीन मूर्ति भवन में गौओं को लेकर चले गए और सुरक्षाकर्मियों के रोकने पर कहा कि प्रधानमंत्री से मिलना है। उन्होंने कहा गौओं को किसी की देख-रेख में बाहर छोड़ दे तो आपको मिलाने का प्रयास करते हैं। किंतु ये तो ज़िद्द पर थे कि गौएं भी मिलेगी। बात पं. जवाहरलाल नेहरू तक पहुँची और तीन मूर्ति भवन में गौओं के साथ ही गोपाल जी प्रधानमंत्री से मिले थे। आज कोई इस घटना पर विश्वास ही न करेगा किंतु यह सत्य है। गाँव में एक सरकारी सांड होता था जिसे वे नाधिया कहकर बुलाते थे। वे नाधिया को आवाज़ देते और नाधिया भोजन हेतु प्रस्तुत हो जाता। सायंकाल गोपाल जी गौओं के बाड़ों के सामने आरती करते तो कुछ कुत्ते भी आरती में शामिल रहते। वे भी ऊपर को मुँहकर आरती करते। गोपाल जी आरती पूरी करते तो कुत्ते भी चुपचाप अपना प्रासाद लेकर विदा हो जाते थे। यह उनकी भक्ति, तन्यमता और प्राणिमात्र से समन्वय का प्रमाण था । रक्षाबंधन के पर्व पर प्रत्येक समाज की उन बहनों के पास जाकर राखी बंधवाते जिनके भाई नहीं थे। उन्हें यथासंभव उपहार या दान भी देते। यह उनके जीवन का अनिवार्य कर्त्तव्य था। गाँव में सबसे वयोवृद्ध महिला या पुरुष की सेवा करना, निरंतर मिलना आपकी दिनचर्या का अंग था। एक बार एक संपन्न बड़े परिवार की वयोवृद्ध महिला को मिलने जा रहे थे। गली में कुत्ते ने काट लिया। उसका देशी उपचार यानी लाल मिर्च तेल में भिगोकर घाव पर बांध ली और दूसरे दिन गुड़ रोटी लेकर उस कुत्ते को ढूंढ़ते रहे। काफी देर बाद कुत्ता मिला तो उसे रोटी खिलाई। एक सप्ताह तक वे उस कुत्ते को रोटी व गुड़ खिलाते रहे, जिसने उन्हें काटा था। यह असाधारण व्यवहार उनकी प्राणि-मात्र के प्रति सद्भावना व सेवा का प्रतीक था। इनकी जगह किसी और को काटा होता तो कुत्ते की डंडे से पिटाई करता। अतः पिता जी क्षमाशील तो थे ही सहृदय भी थे। पिता जी प्रकृति प्रेमी ही नहीं उसके पोषक और रक्षक भी थे। एक बार गाँव में एक बड़ी घटना घट गई। गाँव का वन क्षेत्र 200 एकड़ से भी अधिक था। विविध प्रकार के वृक्षों से पटा हुआ था। बहुत ही समृद्ध चरागाह थी वह, उसी में कई तालाब भी थे। अतः पशुओं के लिए वरदान स्वरूप यह वन था। पता नहीं लोगों को क्या हुआ एक दूसरे को देखकर जंगल काटने लगे। देखते ही देखते गाँव के अनेक उत्साही लोगों ने बिना सोचे समझे सैंकड़ों वृक्ष काट डाले और उन्हें गाड़ियों में लाद-लादकर अपने घरों या धेरों में एकत्रित कर लिया। इस कुकृत्य में इनके भाई लोग भी शामिल थे। ये सीधे क्षेत्र के थाने में पहुँचे और दारोगा को सारी कहानी सुनाई। दूसरे दिन दारोगा अपनी टीम के साथ गाँव में आ धमका और पूरे गाँव के लोगों को एकत्रित कर लिया। पेड़ काटने वालों की सूची तैयार की गई और काटे हुए पेड़ों को एक स्थान पर एकत्रित करने का आदेश दिया। कुछ लोगों ने डर के मारे तालाबों में कटे पेड़ों को डाल दिया ताकि पकड़ में न आ सकें। किंतु तालाबों से भी कटे वृक्षों को निकलवाया गया। पूरे गाँव वालों को दंडित करना संभव न था। किंतु क्षमा प्रार्थना के बाद तय हुआ कि इन बड़े बड़े वृक्षों की नीलामी करवाई जाए। ऐसा ही हुआ भी। फिर प्रश्न उठा कि इस नीलामी की राशि का क्या करें? तो पिताजी ने सुझाव दिया कि पंचायत फंड में जमा करवाने की बजाय गाँव की एक मात्र चौपाल जो जीर्ण-शीर्ण हो गई थी, उसको सुधारने में इस धन का उपयोग किया जाए। अंततः चौपाल का जीर्णोद्धार हुआ और पैसे का सदुपयोग हो पाया। इस पूरी घटना के पीछे एक व्यक्ति का हाथ था जो थाने जाकर पूरे गांववासियों की शिकायत कर उनकी शत्रुता के शिकार बने, किंतु प्रकृति की रक्षा हेतु उन्होंने किया और यह सब उसके बाद कभी जंगल से वृक्षों को काटने का किसी ने साहस नहीं जुटाया। यह घटना गोपाल जी की निडरता का एक उदाहरण था। इसी प्रकार एक बार अतिवृष्टि की चपेट में पूरा गाँव आ गया। घरों, तालाबों व खेतों में जल ही जल था। मानव व पशु सभी के लिए संकट खड़ा हो गया था। क्योंकि गाँव के चारों ओर नहर थी अतः जल की निकासी का कोई मार्ग न था। पशु चारे के अभाव में जलजनित रोगों से ग्रस्त होने लगे। गाँव के निवासी स्त्री-पुरुषों को शौचादि से निवृत्त होने से लेकर भोजन पकाने हेतु ईंधन का अकाल पड़ गया था। तय हुआ कि पंचायत का एक शिष्ट मंडल तत्कालीन विकासायुक्त से मिलकर अपना दुखड़ा रोये। उन्होंने चलते-चलते मेरे पिता जी से भी अनुरोध किया कि वे साथ चलें ताकि उनका कोई प्रवक्ता तो हो। वे आयुक्त के पास चले गए। काफी देर तक प्रतीक्षा करने के बाद पंचायत के प्रतिनिधि मंडल को बुलाया गया। विकासायुक्त पूरी दिल्ली की समस्याओं के बोझ से दबा दुःखी प्राणी था। गाँव वालों की पूरी बात सुनने के बाद उस वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ने जब यह कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की कि पानी की निकासी के लिए मैं क्या कर सकता हूँ, इसमें तो काफी समय लगेगा, तब तक तो पानी वैसे ही सूख जाएगा। निराशा की लहर पूरे वातावरण में छा गई। पंचायत के लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे कि विकासायुक्त ही कुछ नहीं कर पा रहा तो और छोटा मोटा अधिकारी क्या करेगा? ऐसी विकट स्थिति में गोपाल जी उठे और विकासायुक्त की ऊँची कुर्सी के पीछे खड़े होकर कहने लगे-यदि आप नहीं कर सकते तो इस कुर्सी पर क्यों बैठे है- जाइए, छोड़िए इस कुर्सी व ज़िम्मेदारी को, कोई और आएगा जो बाढ़ग्रस्त गाँव की जल निकासी की व्यवस्था करेगा। जल्दी से उठिए और कुर्सी छोड़कर जाइए। यह अकल्पनीय स्थिति थी कि इतने वरिष्ठ अधिकारी को चुनौतीपूर्ण ढंग से कुर्सी छोड़ने का कोई व्यक्ति इतने साहस व आत्मविश्वास के साथ कहे। परिणाम यह हुआ कि जैसे अधिकारी की नींद टूट गई और वह चौंककर बोला बैठिए-बैठिए आप लोग अभी कुछ करते है। ग्रामीणों के शिष्ट मंडल को जलपान कराया गया और एक अधिकारी को आदेश दिया गया कि 48 घंटे में पानी की निकासी के लिए एक नल या मोरी की व्यवस्था करे। ग्राम प्रधान डर गया था न जाने क्या होने वाला है, किंतु गोपाल जी के असाधारण साहस ने असंभव को संभव बना दिया था। मोरी, नलपाइप डाले गए और तीन-चार दिन में गाँवों में खेतों का पानी निकल गया तो गाँव वालों ने चैन की सांस ली थी- ऐसे थे गोपाल जी । गोपाल जी आजीवन मूर्ति-पूजा से दूर किंतु ईश्वर के साथ तारतम्य में रहे। वे बेलाग और बेदाग रहे। वे सत्यवादी, निर्भीक, दृढ़संकल्पी साहसी व्यक्ति थे । वचन के पक्के और धुन के धनी थे। विपत्तियों को हंसकर टालना उनका स्वभाव था। प्रकृति प्रेमी होने के साथ त्याग की मूर्ति थे। जीवन में अनेक बार अन्न त्याग के यज्ञ किए यानी 12 से 18 महीने तक अन्न न खाना और जीवन में सक्रिय रूप से गृहस्थ धर्म का पालन करना उनके जीवन का अंग था। इन उपवास के दिनों में अन्न के स्थान पर फल सब्जियों व गाय के दूध पर ही जीवित रहते। कभी दूध-पेड़े, कभी बथुआ, कभी अनेक वर्षों तक पूरी सर्दियाँ केवल गाजर खाकर तन मन से स्वस्थ रहने की आदत सी बना रखी थी। परनिंदा जैसे रोगों से दूर रहते। लड़ाई किसी से न करते, उनका कहना था लड़ाई के लिए दो फरीकों की ज़रूरत है वे उसमें भागीदार ही नहीं होते थे। यहाँ तक कि कोई गाली भी देता तो महात्मा बुद्ध के गाली को न लौटाने के सिद्धांत का पालन करते । अभाव व आपत्तियों के दौर में अकेले हंसकर परमात्मा से कहते -मैं आपका आभारी हूँ आप बार बार परीक्षा लेकर मुझे पास करते रहते हैं।" आत्मिक बल व आत्म विश्वास उनमें असीम था। जिस दौर में शिक्षा का प्रचार-प्रसार देश में बहुत कम था, पिता जी ने हम सब भाइयों को पढ़ाया। शिक्षा का प्रचार भी अपने प्रचार का मुख्य मुद्दा मानते थे । विद्यादान को सबसे बड़ा दान मानते थे। इस हद तक ज़िद्दी थे कि वे आश्वस्त हों कि उनके द्वारा उठाया कदम न्यायोचित है तो ज़िद्द की सीमा तक हठ करते पूरे गाँव व समाज के विरोध की भी उन्हें चिंता नहीं थी। लोग क्या कहेंगे इसी परवाह उन्होंने कभी नहीं की अपने निर्णय का अंत तक सम्मान करते । मर्यादा की सीमा में उठाया गया उनका कदम कभी भी पीछे नहीं हटा। सलाह लेने के बारे में वे तत्कालीनं प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू का संदर्भ देते सलाह उनकी ली जानी चाहिए जो सलाह देने का योग्य हों। नेहरू जी से वे प्रभावित भी थे, उनके प्रशंसक थे। अतः उनसे निरंतर मिलते रहते थे। उनके लिए नेहरू जी शिक्षा, प्रगति व उदार विचारों के समर्थक थे। सहनशीलता और क्षमा जैसे सद्गुणों से गोपाल जी समृद्ध थे। मान-सम्मान सर्वोपरि था, उनके लिए जीवन में धन को आने-जाने वाली वस्तु समझा व लोभ-लाभ से दूर तन व शांत मन व संतोष को ही परम धर्म मानते थे। “मन चंगा तो कठौती में गंगा” को ही अपने जीवन में चरितार्थ किया। वे अत्यंत क्षमाशील थे। संयम और अनुशासन को सफलता का मूलमंत्र मानते थे। उनकी अनेक रचनाओं में उनका व्यक्तित्व देखने को मिलता है, समसामयिक मुद्दों पर वे समाज व राष्ट्र को सर्वोपरि मानते थे व्यक्ति अंतिम किंतु आवश्यक कड़ी है। हमारे पिता जी के तप, त्याग, साधना पूर्ण जीवन ने हमें न केवल शिक्षित किया अपितु जीवन जीने की कला संस्कार रूप में दी। दृढ़ निश्चय और सही निर्णय लेने की क्षमता पैदा की। चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करने की शक्ति प्रदान की। समाज के प्रति संवेदनशील व उनके सुख दुःख में आगे बढ़कर सक्रिय भाग लेने की प्रेरणा हमें दी। थोड़े में गुजारा करने की कला ने संतोष, सहिष्णुता, दूसरों को सम्मान करने, प्रेम पूर्वक व्यवहार करने जैसी मनोवृत्तियाँ संस्कारों से ही प्राप्त हुई हैं। पिता जी गांधी जी से बहुत प्रभावित थे। आपने ही सिखाया कोई काम छोटा नहीं होता, हमारी सोच छोटी होती है। आत्म सम्मान से कभी समझौता न करो, हीन भावना को जीवन में पास फटकने ना दे। इच्छाओं को कम करो, साधन की शुद्धता को बनाए रखो। वे कहते आदमी से कुछ न मांगों क्योंकि हर स्तर का व्यक्ति स्वयं भिखारी है। अतः उससे न मांगकर दाता यानी परमात्मा से सीधे मांगो-वही सबको देता है। सर्वोच्च कोई सदा नहीं रहता, सबसे नीचे कोई नहीं रहना चाहता। अतः सारी दुनिया बीच-बीच में ही रहती है। जीने के लिए नीचे वालों को देखो, ऊपर वाले को नहीं तभी सुखी रहोगे । " मेरे जीवन के सभी निर्णय पिता जी के सान्निध्य में उनके मार्गदर्शन व उनकी प्रेरणा स्वरूप लिए गए। सोच-समझ कर परस्पर वार्तालाप के बाद जो निर्णय हो जाता फिर उन्होंने कभी रोका-टोका नहीं और मैंने कभी पीछे हटना या मुड़कर देखना ठीक नहीं समझा। उनके सहयोग व कुशल निर्देशन व प्रदत्त संस्कारों के ही परिणामस्वरूप जो भी कुछ तथाकथित उपलब्धियाँ जीवन में हुई। आज 80 पार करने के बाद तन मन से स्वस्थ शांत स्थिर व सक्रिय रहना जीवनयापन इस दौर में बामुश्किल है इस शहर में बाइज्ज़त रहना। माता-पिता के आशीर्वाद का ही फल हो सकता है। कृपा का ही परिणाम है। ईश्वर की कृपा, माता-पिता व गुरुजनों का आशीर्वाद व अनेक मित्रों की शुभकामनाएँ ही ऊर्जा प्रदान कर रही है। उन्हें हम पर गर्व था, हमें उन पर गर्व था और रहेगा। दिसंबर 2013 में उनका निधन हो गया। मेरे जन्म के बहुत पहले ही मेरे पिताजी के शैशवकाल में ही व सगे-दादा-दादी काल कर्बलित हो चुके थे। ऐसे में उन्हें देखने की बात तो दूर कोई चित्र भी उनका उपलब्ध नहीं था। मेरे दादा के छोटे भाई और उनकी पत्नी ही हमारे दादा-दादी थे जिनकी गोद में मुझे पलने-बढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनकी तीसरी पीढ़ी में मैं सबसे बड़ा था। अतः इकलौता पोता उनका लाड़ला भी खूब था। दादा जी का नाम छोटू राम था ये अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। स्वस्थ, सुदृढ़, मज़बूत कद कॉठी के दादा जी की मूंछों को छेड़ने उनसे खेलने का अवसर प्राप्त हुआ। वे अच्छे विनोदप्रिय व्यक्ति थे पंचायती क़िस्म के दादाजी की आवाज़ बुलंद थी। वे अपना व्यवसायिक काम तो करते ही थे इसके साथ-साथ अच्छे किसान थे। दस-बारह बीघे ज़मीन पर खेती करने वाले दादा जी के बैल ऊँचे कद के सफेद रंग के सुपुष्ट शरीर वाले थे। उनकी सेवा में उन्हें आनंद आता था। उनका चारा भी बहुत श्रेष्ठ कोटि का रहता था। बैलों की इस सुंदर जोड़ी के साथ एक सदी पहले हरियाणा या दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों में किसान के अन्य साधन यंत्र जैसे हल, गोड़ी, कुल्हाड़ी, कुदाल, फावड़ा सब घर में संभालकर रखते थे। कुछ समय तक एक बैलगाड़ी भी उन्होंने रखी थी। मेरे दादा जी आत्मविश्वास व आत्मसम्मान से ओतप्रोत स्पष्टवादी व्यक्ति थे। यद्यपि हमारे परिवार के चार घर थे किंतु दादा जी का निर्णय ही अंतिम रहता था । उस समय बुजुर्गों का सम्मान ही ऐसा था कि परिवार के युवा सदस्य उनके सामने बोलने का साहस तक नहीं जुटा पाते थे। उनका बड़प्पन भी यह था कि सब का बहुत ध्यान रखते थे। गाँव में उनका बहुत सम्मान था। पंचायती मामलों में उनकी राय अवश्य ली जाती थी। दादीजी का नाम भरतो था । हरियाणा में गोहाना के पास के कासंडी गाँव में आपका पीहर था। भरतो नाम से लगता है माता-पिता की कई पुत्रियों के बाद उनका जन्म हुआ होगा। अतः अंतिम पुत्री के रूप में पर्याप्त कन्याएँ आ गई हैं 'अब बस' की भावना से प्रेरित होकर यह नाम भरतो रखा गया होगा। क्योंकि कन्याओं की अधिक आमद को रोकने के इरादे से, भरतो, भरपाई भतेरी बहीती आदि नाम रखे जाते थे जो बाद में संतोष और इति तक की यात्रा कर पाए। हमारी दादी इकहरे बदन की सुंदर महिला थी। गौर वर्ण, शांत, स्वभाव, मितभाषी दादी बहुत ही स्नेहिल प्रवृत्ति की थी। परिश्रम अथक सेवा भाव उन दिनों स्त्री के अनिवार्य गुण थे। दादी जी का पूरे परिवार में मेरी माँ के प्रति बहुत लगाव था। ये दोनों तत्कालीन जिला रोहतक के गाँवों से दिल्ली में आई थी विवाह के बाद। माँ भी उनकी लाड़ली होने के कारण आज्ञाकारी थी। कई बार दादी को देखा कि मेरे पिता जी को डांटते हुए कहती थी- 'बहु का ज़रा भी ध्यान नहीं रखता, बेचारी सीधी है, कुछ बोलती नहीं, इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम देश भर में घूमते रहो ये बेचारी हारी-बीमारी में भी काम में लगी रहती है।' हर बार मेरे बहन-भाइयों के जन्म के समय, उसके बाद दादी माँ की बड़ी तो थी, सहेली भी थी, नर्स भी थी और अपनी बच्ची की तरह सेवा करती थी। खाना-पीना परहेज़, चिकित्सा सब दादी की देख-रेख में ही होता। दादी की आयु लगभग सौ वर्ष रही होगी। अंत तक वे चारपाई पकड़ने की बजाय सक्रिय थी और चलते हाथ-पाँव उन्होंने इस परिवार व संसार से विदाई ली थी। कच्चा घर मेरे जन्म के समय हमारे परिवार के चार घर थे। एक दादा जी का दूसरा मेरे बड़े ताऊ श्री पृथ्वीसिंह का, तीसरा मेरे छोटे ताऊ श्री मीरसिंह का और चौथा मेरे पिता जी का यानी हमारा। मेरा जन्म जिस घर में हुआ था वह कच्ची ईंटों से बना था, उसमें पीछे एक बड़ा और आगे दो कमरे के आकार एक कमरा बना था जिन्हें इकड़िया और टुकड़ियाँ कहा जाता था यानी एक कड़ी वाला और दो कड़ियों वाला। बाहर मझले आकार का आँगन था उसमें एक ओर रसोई बनी थी और दूसरी ओर गाय बँधती थी जो बाद में बाहर घेर में शिफ्ट हो गई थी। लकड़ी की कड़ियों, उन पर छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़ों जिन्हें कड़जे कहा जाता था, से छत बनती जिसे मिट्टी से कवर किया जाता था। एक थांब (स्तंभ) लकड़ी का उस पर दो शहतीर रखे जाते जो कड़ियों का आधार बनती। प्रकाश के लिए आंगन... Name of our Father was Daya Chand Gopal Name of our Mother was Laxmi Devi In our family we were 6 Brothers From Elder to younger named as Dr Prem Chand Patanjali, Ramesh Chand Patanjali, Dinesh Gopal, Dr Satya Bhan Patanjali, BK Naresh Kumar, Mahesh Chand Patanjali. In our family we had three sisters from elder to youger named as Sampati Devi, Darshni Devi, Roshni Devi. |
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