शान्तिधाम और सुखधाम दोनों ही पवित्र धाम हैं।
वहाँ शरीर है नहीं।
आत्मा पवित्र है, वहाँ बैटरी डिस्चार्ज नहीं होती।
यहाँ शरीर धारण करने से मोटर चलती है।
मोटर खड़ी होगी तो पेट्रोल कम थोड़ेही होगा।
अभी तुम्हारी आत्मा की ज्योत बहुत कम हो गई है।
एकदम बुझ नहीं जाती है।
जब कोई मरता है तो दीवा जलाते हैं।
फिर उसकी बहुत सम्भाल रखते हैं कि बुझ न जाए।
आत्मा की ज्योत कभी बुझती नहीं है, वह तो अविनाशी है।
यह सब बातें बाप बैठ समझाते हैं।
बाबा जानते हैं कि यह बहुत स्वीट चिल्ड्रेन हैं, यह सब काम चिता पर बैठ जलकर भस्म हो गये हैं।
फिर इन्हों को जगाता हूँ।
बिल्कुल ही तमोप्रधान मुर्दे बन पड़े हैं।
बाप को जानते ही नहीं।
मनुष्य कोई काम के नहीं रहे हैं।
मनुष्य की मिट्टी कोई काम की नहीं रहती है।
ऐसे नहीं कि बड़े आदमी की मिट्टी कोई काम की है, गरीबों की नहीं।
मिट्टी तो मिट्टी में मिल जाती है फिर भल कोई भी हो।
कोई जलाते हैं, कोई कब्र में बंद कर देते हैं।
पारसी लोग कुएं पर रख देते हैं फिर पंछी मास खा लेते हैं।
फिर हड्डियाँ जाकर नीचे पड़ती हैं।
वह फिर भी काम आती हैं।
दुनिया में तो ढेर मनुष्य मरते हैं।
अभी तुमको तो आपेही शरीर छोड़ना है।
तुम यहाँ आये ही हो शरीर छोड़कर वापिस घर जाने अर्थात् मरने।
तुम खुशी से जाते हो कि हम जीवनमुक्ति में जायेंगे।
जिन्होंने जो पार्ट बजाया है, अन्त तक वही बजायेंगे।
बाप पुरूषार्थ कराते रहेंगे, साक्षी हो देखते रहेंगे।
यह तो समझ की बात है, इसमें डरने की कोई बात नहीं है।
हम स्वर्ग में जाने के लिए खुद ही पुरूषार्थ कर शरीर छोड़ देते हैं।
बाप को ही याद करते रहना है तो अन्त मती सो गति हो जाए, इसमें मेहनत है।
हर एक पढ़ाई में मेहनत है।
भगवान को आकर पढ़ाना पड़ता है।
जरूर पढ़ाई बड़ी होगी, इसमें दैवीगुण भी चाहिए।
यह लक्ष्मी-नारायण बनना है ना।
यह सतयुग में थे।
अब फिर तुम सतयुगी देवता बनने आये हो।
एम ऑबजेक्ट कितनी सहज है।
त्रिमूर्ति में क्लीयर है।
यह ब्रह्मा, विष्णु, शंकर आदि के चित्र न हों तो हम समझा कैसे सकते।
ब्रह्मा सो विष्णु, विष्णु सो ब्रह्मा।
ब्रह्मा की 8 भुजा, 100 भुजा दिखाते हैं क्योंकि ब्रह्मा के कितने ढेर बच्चे होते हैं।
तो उन्होंने फिर वह चित्र बना दिया है।
बाकी मनुष्य कोई इतनी भुजाओं वाला होता थोड़ेही है।
रावण 10 शीश का भी अर्थ है, ऐसा मनुष्य होता नहीं।
यह बाप ही बैठ समझाते हैं, मनुष्य तो कुछ भी जानते नहीं।
यह भी खेल है, यह कोई को पता नहीं है कि यह कब से शुरू हुआ है।
परम्परा कह देते हैं।
अरे, वह भी कब से?
तो मीठे-मीठे बच्चों को बाप पढ़ाते हैं, वह टीचर भी है तो गुरू भी है।
तो बच्चों को कितनी खुशी होनी चाहिए।
यह म्युज़ियम आदि किसके डायरेक्शन से खोलते हैं?
यहाँ हैं ही माँ, बाप और बच्चे।
ढेर बच्चे हैं।
डायरेक्शन पर खोलते रहते हैं।
लोग कहते हैं तुम कहते हो भगवानुवाच तो रथ द्वारा हमको भगवान का साक्षात्कार कराओ।
अरे, तुमने आत्मा का साक्षात्कार किया है?
इतनी छोटी-सी बिन्दु का साक्षात्कार तुम क्या कर सकेंगे!
जरूरत ही नहीं है।
यह तो आत्मा को जानना होता है।
आत्मा भ्रकुटी के बीच रहती है, जिसके आधार पर ही इतना बड़ा शरीर चलता है।
अभी तुम्हारे पास न लाइट का, न रत्न जड़ित ताज है।
दोनों ताज लेने लिए फिर से तुम पुरूषार्थ कर रहे हो।
कल्प-कल्प तुम बाप से वर्सा लेते हो।
बाबा पूछते हैं आगे कब मिले हो?
तो कहते हैं - हाँ बाबा, कल्प-कल्प मिलते आये हैं क्यों?
यह लक्ष्मी-नारायण बनने के लिए।
यह सभी एक ही बात बोलेंगे।
बाप कहते हैं - अच्छा, शुभ बोलते हो, अब पुरूषार्थ करो।
सब तो नर से नारायण नहीं बनेंगे, प्रजा भी तो चाहिए।
कथा भी होती है सत्य नारायण की।
वो लोग कथा सुनाते हैं, परन्तु बुद्धि में कुछ भी नहीं आता।
तुम बच्चे समझते हो वह है शान्तिधाम, निराकारी दुनिया।
फिर वहाँ से जायेंगे सुखधाम।
सुखधाम में ले जाने वाला एक ही बाप है।
तुम कोई को समझाओ, बोलो अभी वापिस घर जायेंगे।
आत्मा को अपने घर तो अशरीरी बाप ही ले जायेंगे।
अभी बाप आये हैं, उनको जानते नहीं।
बाप कहते हैं मैं जिस तन में आया हूँ, उनको भी नहीं जानते।
रथ भी तो है ना।
हर एक रथ में आत्मा प्रवेश करती है।
सबकी आत्मा भ्रकुटी के बीच रहती है।
बाप आकर भ्रकुटी के बीच में बैठेगा।
समझाते तो बहुत सहज हैं।
पतित-पावन तो एक ही बाप है, बाप के सब बच्चे एक समान हैं।
उनमें हर एक का अपना-अपना पार्ट है, इसमें कोई इन्टरफियर नहीं कर सकता। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।