"...कोई भी बात को वा समस्या को ट्रॉन्सफर कर ट्रान्सपेरेन्ट (पारदर्शी) बनना है अथवा अपकारी पर भी उपकारी बनना है।

जैसे संस्कारों की समानता के कारण कोई सखी बन जाती है, ऐसे निन्दा करने वाले को भी उस स्नेह और सहयोग की दृष्टि से देखना है।

संस्कारों के समानता वाली सखी और ग्लानि करने वाली - दोनों के लिए अन्दर स्नेह और सहयोग में अन्तर न हो।

इसको कहा जाता है अपकारी पर उपकार की दृष्टि अथवा विश्व- कल्याणकारी बनना।

ऐसी स्थिति अब बन जाती है तो समझो सम्पूर्णता के समीप हैं।

ऐसे नहीं - जिनके संस्कार मिलेंगे उनको साथी बनायेंगे, दूसरों से किनारा कर लेंगे। भले कड़े संस्कार वाली हो, उनको भी अपने शुभचिन्तक स्थिति के आधार से ट्रॉन्सफर कर समीप लाओ। जब कोई होपलेस केस को ठीक करते हैं तब ही तो नाम बाला होता है ना। ठीक को ठीक करना वा ठीक से ठीक होकर चलना - यह कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है अपनी श्रेष्ठ स्मृति और वृत्ति से ऐसे-ऐसे को भी बदलकर दिखाना।

देखो, होम्योपैथिक दवाई की इतनी छोटी-छोटी गोलियां कितने बड़े रोग को खत्म कर सकती हैं! तो क्या मास्टर सर्वशक्तिमान् अपने वृत्ति और दृष्टि से किसके भी कड़े संस्कार के रोग को खत्म नहीं कर सकते। अगर कोई के संस्कारों को पलटा नहीं सकते वा खत्म नहीं कर सकते हैं, तो समझो मुझ मास्टर रचयिता से तो रचना की शक्ति ज्यादा काम कर रही है।

जैसे मिसाल बताया - छोटी-सी गोलियां रोग को खत्म कर सकती हैं, वह दवाई यह नहीं कहती कि रोग को कैसे मिटायें। तो क्या आपकी रचना में शक्ति है और आप मास्टर रचयिता में नहीं? सदैव यह लक्ष्य रखो कि ट्रॉन्सफर होना है और ट्रॉन्सफर करना है।...  "

- Avyakt BaapDada - 19.08.1971