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01-12-19 प्रात:मुरली मधुबन

अव्यक्त-बापदादा रिवाइज: 15-03-85

मेहनत से छूटने का सहज साधन - निराकारी स्वरूप की स्थिति

बापदादा बच्चों के स्नेह में, वाणी से परे निर्वाण अवस्था से वाणी में आते हैं।

किसलिए?

बच्चों को आपसमान निर्वाण स्थिति का अनुभव कराने के लिए।

निर्वाण स्वीट होम में ले जाने के लिए।

निर्वाण स्थिति निर्विकल्प स्थिति है।

निर्वाण स्थिति निर्विकारी स्थिति है।

निर्वाण स्थिति से निराकारी सो साकार स्वरूपधारी बन वाणी में आते हैं।

साकार में आते भी निराकारी स्वरूप की स्मृति, स्मृति में रहती है।

मैं निराकार, साकार आधार से बोल रहा हूँ।

साकार में भी निराकार स्थिति की स्मृति रहे - इसको कहते हैं निराकार सो साकार द्वारा वाणी में, कर्म में आना।

असली स्वरूप निराकार है, साकार आधार है।

यह डबल स्मृति निराकार सो साकार शक्तिशाली स्थिति है।

साकार का आधार लेते निराकार स्वरूप को भूलो नहीं।

भूलते हो इसलिए याद करने की मेहनत करनी पड़ती है।

जैसे लौकिक जीवन में अपना शारीरिक स्वरूप स्वत: ही सदा याद रहता है कि मैं फलाना वा फलानी इस समय यह कार्य कर रही हूँ या कर रहा हूँ।

कार्य बदलता है लेकिन मैं फलाना हूँ यह नहीं बदलता, न भूलता है।

ऐसे मैं निराकार आत्मा हूँ, यह असली स्वरूप कोई भी कार्य करते स्वत: और सदा याद रहना चाहिए।

जब एक बार स्मृति आ गई, परिचय भी मिल गया मैं निराकार आत्मा हूँ।

परिचय अर्थात् नॉलेज।

तो नॉलेज की शक्ति द्वारा स्वरूप को जान लिया।

जानने के बाद फिर भूल कैसे सकते?

जैसे नॉलेज की शक्ति से शरीर का भान भुलाते भी भूल नहीं सकते।

तो यह आत्मिक स्वरूप भूल कैसे सकेंगे।

तो यह अपने आपसे पूछो और अभ्यास करो।

चलते फिरते कार्य करते चेक करो - निराकार सो साकार आधार से यह कार्य कर रहा हूँ!

तो स्वत: ही निर्विकल्प स्थिति, निराकारी स्थिति, निर्विघ्न स्थिति सहज रहेगी।

मेहनत से छूट जायेंगे।

यह मेहनत तब लगती है जब बार-बार भूलते हो।

फिर याद करने की मेहनत करते हो।

भूलो ही क्यों, भूलना चाहिए?

बापदादा पूछते हैं - आप हो कौन?

साकार हो वा निराकार?

निराकार हो ना!

निराकार होते हुए भूल क्यों जाते हो!

असली स्वरूप भूल जाते और आधार याद रहता?

स्वयं पर ही हंसी नहीं आती कि यह क्या करते हैं!

अब हंसी आती है ना?

असली भूल जाते और नकली चीज़ याद आ जाती?

बापदादा को कभी-कभी बच्चों पर आश्चर्य भी लगता है।

अपने आपको भूल जाते और भूलकर फिर क्या करते?

अपने आपको भूल हैरान होते हैं।

जैसे बाप को स्नेह से निराकार से साकार में आह्वान कर ला सकते हो तो जिससे स्नेह है उस जैसे निराकार स्थिति में स्थित नहीं हो सकते हो!

बापदादा बच्चों की मेहनत देख नहीं सकते हैं!

मास्टर सर्वशक्तिवान और मेहनत?

मास्टर सर्वशक्तिवान सर्व शक्तियों के मालिक हो।

जिस शक्ति को जिस भी समय शुभ संकल्प से आह्वान करो वह शक्ति आप मालिक के आगे हाजिर है।

ऐसे मालिक, जिसकी सर्व शक्तियाँ सेवाधारी हैं, वह मेहनत करेगा वा शुभ संकल्प का आर्डर करेगा?

क्या करेगा, राजे हो ना कि प्रजा हो?

वैसे भी जो योग्य बच्चा होता है उसको क्या कहते हैं?

राजा बच्चे कहते हैं ना।

तो आप कौन हो?

राजा बच्चे हो कि अधीन बच्चे हो?

अधिकारी आत्मायें हो ना।

तो यह शक्तियाँ, यह गुण यह सब आपके सेवाधारी हैं, आह्वान करो और हाजिर।

जो कमजोर होता है वह शक्तिशाली शस्त्र होते हुए भी कमजोरी के कारण हार जाते हैं।

आप कमजोर हो क्या?

बहादुर बच्चे हो ना!

सर्व शक्तिवान के बच्चे कमजोर हों तो सब लोग क्या कहेंगे?

अच्छा लगेगा?

तो आह्वान करना, आर्डर करना सीखो।

लेकिन सेवाधारी आर्डर किसका मानेगा?

जो मालिक होगा।

मालिक स्वयं सेवाधारी बन गये, मेहनत करने वाले तो सेवाधारी हो गये ना।

मन की मेहनत से अब छूट गये!

शरीर के मेहनत की यज्ञ सेवा अलग बात है।

वह भी यज्ञ सेवा के महत्व को जानने से मेहनत नहीं लगती है।

जब मधुबन में सम्पर्क वाली आत्मायें आती हैं और देखती हैं इतनी संख्या की आत्माओं का भोजन बनता है और सब कार्य होता है तो देख-देख कर समझती हैं यह इतना हार्डवर्क कैसे करते हैं!

उन्हों को बड़ा आश्चर्य लगता है।

इतना बड़ा कार्य कैसे हो रहा है!

लेकिन करने वाले ऐसे बड़े कार्य को भी क्या समझते हैं?

सेवा के महत्व के कारण यह तो खेल लगता है।

मेहनत नहीं लगती।

ऐसे महत्व के कारण बाप से मुहब्बत होने के कारण मेहनत का रूप बदल जाता है।

ऐसे मन की मेहनत से अब छूटने का समय आ गया है।

द्वापर से ढूँढ़ने की, तड़पने की, पुकारने की, मन की मेहनत करते आये हो।

मन की मेहनत के कारण धन कमाने की भी मेहनत बढ़ती गई।

आज किसे भी पूछो तो क्या कहते हैं?

धन कमाना मासी का घर नहीं है।

मन की मेहनत से धन के कमाई की भी मेहनत बढ़ा दी और तन तो बन ही गया रोगी, इसलिए तन के कार्य में भी मेहनत, मन की भी मेहनत, धन की भी मेहनत।

सिर्फ इतना ही नहीं लेकिन आज परिवार में प्यार निभाने में भी मेहनत है।

कभी एक रूसता है, कब दूसरा....फिर उसको मनाने की मेहनत में लगे रहते।

आज तेरा है, कल तेरा नहीं फेरा आ जाता है।

तो सब प्रकार की मेहनत करके थक गये थे ना।

तन से, मन से, धन से, सम्बन्ध से, सबसे थक गये।

बापदादा पहले मन की मेहनत समाप्त कर देते क्योंकि बीज है मन।

मन की मेहनत तन की, धन की मेहनत अनुभव कराती है।

जब मन ठीक नहीं होगा तो कोई कार्य होगा तो कहेंगे आज यह होता नहीं।

बीमार होगा नहीं लेकिन समझेगा मुझे 103 बुखार है।

तो मन की मेहनत तन की मेहनत अनुभव कराती है।

धन में भी ऐसे ही है।

मन थोड़ा भी खराब होगा, कहेंगे बहुत काम करना पड़ता है।

कमाना बड़ा मुश्किल है।

वायुमण्डल खराब है।

और जब मन खुश होगा तो कहेंगे कोई बड़ी बात नहीं।

काम वही होगा लेकिन मन की मेहनत धन की मेहनत भी अनुभव कराती है।

मन की कमजोरी वायुमण्डल की कमजोरी में लाती है।

बापदादा बच्चों के मन की मेहनत नहीं देख सकते।

63 जन्म मेहनत की।

अब एक जन्म मौजों का जन्म है, मुहब्बत का जन्म है, प्राप्तियों का जन्म है, वरदानों का जन्म है।

मदद लेने का मदद मिलने का जन्म है।

फिर भी इस जन्म में भी मेहनत क्यों?

तो अब मेहनत को मुहब्बत में परिवर्तन करो।

महत्व से खत्म करो।

आज बापदादा आपस में बहुत चिटचैट कर रहे थे, बच्चों की मेहनत पर।

क्या करते हैं, बापदादा मुस्करा रहे थे कि मन की मेहनत का कारण क्या बनता है, क्या करते हैं?

टेढ़े बाँके, बच्चे पैदा करते, जिसका कभी मुँह नहीं होता, कभी टांग नहीं, कभी बांह नहीं होती।

ऐसे व्यर्थ की वंशावली बहुत पैदा करते हैं और फिर जो रचना की तो क्या करेंगे?

उसको पालने के कारण मेहनत करनी पड़ती।

ऐसी रचना रचने के कारण ज्यादा मेहनत कर थक जाते हैं और दिलशिकस्त भी हो जाते हैं।

बहुत मुश्किल लगता है।

है अच्छा लेकिन है बड़ा मुश्किल।

छोड़ना भी नहीं चाहते और उड़ना भी नहीं चाहते।

तो क्या करना पड़ेगा।

चलना पड़ेगा।

चलने में तो जरूर मेहनत लगेगी ना इसलिए अब कमजोर रचना बन्द करो तो मन की मेहनत से छूट जायेंगें।

फिर हँसी की बात क्या कहते हैं?

बाप कहते यह रचना क्यों करते, तो जैसे आजकल के लोग कहते हैं ना-क्या करें ईश्वर दे देता है।

दोष सारा ईश्वर पर लगाते हैं, ऐसे यह व्यर्थ रचना पर क्या कहते?

हम चाहते नहीं हैं लेकिन माया आ जाती है।

हमारी चाहना नहीं है लेकिन हो जाता है इसलिए सर्वशक्तिवान बाप के बच्चे मालिक बनो।

राजा बनो। कमजोर अर्थात् अधीन प्रजा।

मालिक अर्थात् शक्तिशाली राजा।

तो आह्वान करो मालिक बन करके।

स्वस्थिति के श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठो।

सिंहासन पर बैठ के शक्ति रूपी सेवाधारियों का आह्वान करो।

आर्डर दो।

हो नहीं सकता कि आपके सेवाधारी आपके आर्डर पर न चलें।

फिर ऐसे नहीं कहेंगे क्या करें सहन शक्ति न होने के कारण मेहनत करनी पड़ती है।

समाने की शक्ति कम थी इसलिए ऐसा हुआ।

आपके सेवाधारी समय पर कार्य में न आवें तो सेवाधारी क्या हुए?

कार्य पूरा हो जाए फिर सेवाधारी आवें तो क्या होगा!

जिसको स्वयं समय का महत्व है उसके सेवाधारी भी समय पर महत्व जान हाजिर होंगे।

अगर कोई भी शक्ति वा गुण समय पर इमर्ज नहीं होता है तो इससे सिद्ध है कि मालिक को समय का महत्व नहीं है।

क्या करना चाहिए?

सिंहासन पर बैठना अच्छा या मेहनत करना अच्छा?

अभी इसमें समय देने की आवश्यकता नहीं है।

मेहनत करना ठीक लगता या मालिक बनना ठीक लगता?

क्या अच्छा लगता है?

सुनाया ना - इसके लिए सिर्फ यह एक अभ्यास सदा करते रहो - “निराकार सो साकार के आधार से यह कार्य कर रहा हूँ।''

करावनहार बन कर्मेन्द्रियों से कराओ।

अपने निराकारी वास्तविक स्वरूप को स्मृति में रखेंगे तो वास्तविक स्वरूप के गुण शक्तियाँ स्वत: ही इमर्ज होंगे।

जैसा स्वरूप होता है वैसे गुण और शक्तियाँ स्वत: ही कर्म में आते हैं।

जैसे कन्या जब मां बन जाती है तो माँ के स्वरूप में सेवा भाव, त्याग, स्नेह, अथक सेवा आदि गुण और शक्तियाँ स्वत: ही इमर्ज होती हैं ना।

तो अनादि अविनाशी स्वरूप याद रहने से स्वत: ही यह गुण और शक्तियाँ इमर्ज होंगे।

स्वरूप स्मृति स्थिति को स्वत: ही बनाता है।

समझा क्या करना है!

मेहनत शब्द को जीवन से समाप्त कर दो।

मुश्किल मेहनत के कारण लगता है।

मेहनत समाप्त तो मुश्किल शब्द भी स्वत: ही समाप्त हो जायेगा।

अच्छा!

सदा मुश्किल को सहज करने वाले, मेहनत को मुहब्बत में बदलने वाले, सदा स्व स्वरूप की स्मृति द्वारा श्रेष्ठ शक्तियों और गुणों को अनुभव करने वाले, सदा बाप को स्नेह का रेसपान्ड देने वाले, बाप समान बनने वाले, सदा श्रेष्ठ स्मृति के श्रेष्ठ आसन पर स्थित हो मालिक बन सेवाधारियों द्वारा कार्य कराने वाले, ऐसे राजे बच्चों को, मालिक बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात-(विदेशी भाई बहनों से)

1) सेवा बाप के साथ का अनुभव कराती है।

सेवा पर जाना माना सदा बाप के साथ रहना।

चाहे साकार रूप में रहें, चाहे आकार रूप में।

लेकिन सेवाधारी बच्चों के साथ बाप सदा साथ है ही है।

करावनहार करा रहा है, चलाने वाला चला रहा है और स्वयं क्या करते हैं?

निमित्त बन खेल खेलते रहते हैं।

ऐसे ही अनुभव होता है ना?

ऐसे सेवाधारी सफलता के अधिकारी बन जाते हैं।

सफलता जन्म सिद्ध अधिकार है, सफलता सदा ही महान पुण्यात्मा बनने का अनुभव कराती है।

महान पुण्य आत्मा बनने वालों को अनेक आत्माओं के आशीर्वाद की लिफ्ट मिलती है।

अच्छा- अभी तो वह भी दिन आना ही है जब सबके मुख से “एक हैं, एक ही हैं'' यह गीत निकलेंगे।

बस ड्रामा का यही पार्ट रहा हुआ है।

यह हुआ और समाप्ति हुई।

अब इस पार्ट को समीप लाना है।

इसके लिए अनुभव कराना ही विशेष आकर्षण का साधन है।

ज्ञान सुनाते जाओ और अनुभव कराते जाओ।

ज्ञान सिर्फ सुनने से सन्तुष्ट नहीं होते लेकिन ज्ञान सुनाते हुए अनुभव भी कराते जाओ तो ज्ञान का भी महत्व है और प्राप्ति के कारण आगे उत्साह में भी आ जाते हैं।

उन सबके भाषण तो सिर्फ नॉलेजफुल होते हैं।

आप लोगों के भाषण सिर्फ नॉलेजफुल नहीं हों लेकिन अनुभव की अथॉरिटी वाले हों।

और अनुभवों की अथॉरिटी से बोलते हुए अनुभव कराते जाओ।

जैसे कोई-कोई जो अच्छे स्पीकर होते हैं, वह बोलते हुए रूला भी देते हैं, हँसा भी देते हैं।

शान्ति में, साइलेन्स में भी ले जायेंगे।

जैसी बात करेंगे वैसा वायुमण्डल हाल का बना देते हैं।

वह तो हुए टैप्रेरी।

जब वह कर सकते हैं तो आप मास्टर सर्वशक्तिवान क्या नहीं कर सकते। कोई “शान्ति'' बोले तो शान्ति का वातावरण हो, आनंद बोले तो आनंद का वातवरण हो।

ऐसे अनुभूति कराने वाले भाषण, प्रत्यक्षता का झण्डा लहरायेंगे।

कोई तो विशेषता देखेंगे ना।

अच्छा - समय स्वत: ही शक्तियाँ भर रहा है।

हुआ ही पड़ा है, सिर्फ रिपीट करना है। अच्छा।

विदाई के समय दादी जानकी जी से

बापदादा की मुलाकात देख-देख हर्षित होती रहती हो!

सबसे ज्यादा खुशी अनन्य बच्चों को है ना!

जो सदा ही खुशियों के सागर में लहराते रहते हैं।

सुख के सागर में, सर्व प्राप्तियों के सागर में लहराते ही रहते हैं, वह दूसरों को भी उसी सागर में लहराते हैं।

सारा दिन क्या काम करती हो?

जैसे कोई को सागर में नहाना नहीं आता है तो क्या करते?

हाथ पकड़कर नहलाते हैं ना!

यही काम करती हो, सुख में लहराओ, खुशी में लहराओ... ऐसे करती रहती हो ना!

बिज़ी रहने का कार्य अच्छा मिल गया है।

कितना बिजी रहती हो?

फुर्सत है?

इसी में सदा बिज़ी हैं, तो दूसरे भी देख फालो करते हैं।

बस, याद और सेवा के सिवाए और कुछ दिखाई नहीं देता।

आटोमेटिकली बुद्धि याद और सेवा में ही जाती है और कहाँ जा नहीं सकती।

चलाना नहीं पड़ता, चलती ही रहती है।

इसको कहते हैं सीखे हुए सिखा रहे हैं।

अच्छा काम दे दिया है ना।

बाप होशियार बनाकर गये हैं ना।

ढीलाढाला तो नहीं छोड़कर गये।

होशियार बनाकर, जगह देकर गये हैं ना। साथ तो हैं ही लेकिन निमित्त तो बनाया ना।

होशियार बनाकर सीट दिया है।

यहाँ से ही सीट देने की रस्म शुरू हुई है।

बाप सेवा का तख्त वा सेवा की सीट देकर आगे बढ़े, अभी साक्षी होकर देख रहे हैं, कैसे बच्चे आगे से आगे बढ़ रहे हैं।

साथ का साथ भी है, साक्षी का साक्षी भी।

दोनों ही पार्ट बजा रहे हैं।

साकार रूप में साक्षी कहेंगे, अव्यक्त रूप में साथी कहेंगे।

दोनों ही पार्ट बजा रहे हैं। अच्छा!

वरदान:-

श्वांसों श्वांस याद और सेवा के बैलेन्स द्वारा

ब्लैसिंग प्राप्त करने वाले

सदा प्रसन्नचित भव

जैसे अटेन्शन रखते हो कि याद का लिंक सदा जुटा रहे वैसे सेवा में भी सदा लिंक जुटा रहे।

श्वांसों श्वांस याद और श्वांसों श्वांस सेवा हो

- इसको कहते हैं बैलेन्स, इस बैलेन्स से सदा ब्लैसिंग का अनुभव करते रहेंगे और यही आवाज दिल से निकलेगा कि आशीर्वादों से पल रहे हैं।

मेहनत से, युद्ध से छूट जायेंगे।

क्या, क्यों, कैसे इन प्रश्नों से मुक्त हो सदा प्रसन्नचित रहेंगे।

फिर सफलता जन्म सिद्ध अधिकार के रूप में अनुभव होगी।

स्लोगन:-

बाप से इनाम लेना है तो

स्वयं से और साथियों से

निर्विघ्न रहने का सर्टीफिकेट साथ हो।